tag:blogger.com,1999:blog-21055878747869361662024-03-07T00:19:02.092-08:00आयुर्वेदिक जङी बूटियांयह ब्लाग आपकी स्वास्थय सम्बन्धी समस्याओं को आयुर्वेद की महान भारतीय परम्परा द्वारा सुलझाने के लिये कटिबद्ध है ।सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comBlogger256125tag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-26631938075055192202018-06-11T06:25:00.006-07:002018-06-11T06:25:44.589-07:00कटहल <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgriFbu8q6uD7TWbEFbo5cks6di0g820UtgFfMTLwuydJGqW0r_S1yx4NO3FyN11MEDB4fVujpJn0uZ8ewDdC2uVv9VOi7x1kSH36_SwWKX3ff6FsYXevRvhVlPngFakYn_5im9ZpE2-A8/s1600/kathal.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="920" data-original-width="878" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgriFbu8q6uD7TWbEFbo5cks6di0g820UtgFfMTLwuydJGqW0r_S1yx4NO3FyN11MEDB4fVujpJn0uZ8ewDdC2uVv9VOi7x1kSH36_SwWKX3ff6FsYXevRvhVlPngFakYn_5im9ZpE2-A8/s400/kathal.jpg" width="381" /></a></div>
भारत का बेहद पसंदीदा फल कटहल विश्व में सबसे बड़ा होता है।<br />
इसकी सब्जी, पकौडे़, अचार आदि बनाते हैं।<br />
जब यह पक जाता है तब इसके अंदर के मीठे फल को खाते हैं जो बेहद स्वादिष्ट होता है।<br />
कटहल के अंदर कई पौष्टिक तत्व पाये जाते हैं जैसे विटामिन ए, सी, थाइमिन, पोटैशियम, कैल्शियम, राइबोफ्लेविन, आयरन, नियासिन और जिंक आदि।<br />
इसके रेशेदार फल में खूब सारा फाइबर पाया होता है। लेकिन इसमें कैलोरी बिलकुल नहीं होती।<br />
पके हुए कटहल के गूदे को अच्छी तरह से मैश करके उबालने और फ़िर इस मिश्रण को ठंडा कर एक गिलास पीने से जबरदस्त स्फ़ूर्ति आती है।<br />
यह ह्रदय रोगियों के लिये भी अच्छा माना जाता है।<br />
<b>स्वास्थ्य लाभ - </b><br />
- कटहल में <b>पोटैशियम</b> पाया जाता है जो कि हार्ट समस्या को दूर करता है क्योंकि यह ब्लड प्रेशर लो करता है।<br />
- इसके फल में काफी <b>आयरन </b>होता है जो एनीमिया को दूर करता है और शरीर में ब्लड सर्कुलेशन बढ़ाता है।<br />
- इसकी जड़ अस्थमा के रोगियों के लिये अच्छी मानी जाती है। जड़ को पानी के साथ उबाल कर बचा हुआ पानी छान कर पियें तो अस्थमा कंट्रोल होगा।<br />
- इसमें मौजूद <b>सूक्ष्म खनिज</b> और<b> कॉपर थायराइड</b> चयापचय के लिये प्रभावशाली होता है। खासतौर पर यह हार्मोन के उत्पादन और अवशोषण के लिये अच्छा है।<br />
- हड्डियों के लिये भी यह बहुत अच्छा होता है। इसमें मौजूद <b>मैग्नीशियम</b> हड्डी में मजबूती लाता है तथा भविष्य में ऑस्टियोपुरोसिस की समस्या से निजात दिलाता है।<br />
- इसमें विटामिन <b>सी</b> और <b>ए</b> पाया जाता है जो रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है और बैक्टीरियल, वाइरल इंफेक्शन से बचाता है।<br />
- इसमें मौजूद शर्करा जैसे, <b>फ्रक्टोज़ </b>और <b>सूकरोज़</b> तुरंत ऊर्जा देते हैं। इस शर्करा में बिल्कुल भी जमी हुई चर्बी और कोलेस्ट्रॉल नहीं होता।<br />
- कटहल अल्सर और पाचन सम्बंधी समस्या को दूर करता है। इसमें <b>फाइबर</b> होता है, जो कब्ज की समस्या को दूर करता है।<br />
- इसमें <b>विटामिन ए</b> पाया जाता है जिससे आँखों की रोशनी बढ़ती है और स्किन अच्छी होती है। यह रतौंधी को भी ठीक करता है।<br />
------------------<br />
सावधानी -<br />
पके कटहल का फल कफवर्धक है, अत: सर्दी-जुकाम, खांसी, अर्जीण आदि रोगों से प्रभावित व्यक्तियों एवं गर्भवती महिलाओं को कटहल का सेवन नहीं करना चाहिए।<br />
कटहल खाने के बाद पान खाने से पेट फूल जाता है और अफरा होने का डर रहता है अत: भूलकर भी कटहल के बाद पान न खाएं। दुबले-पतले पित्त प्रकृति वाले व्यक्ति को पका कटहल दोपहर में खाकर कुछ देर आराम करना चाहिए।</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-72535256075319822432018-05-26T19:52:00.001-07:002018-05-26T19:52:10.745-07:00खतरनाक वायरस ‘निपाह’<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjiD5RSNVAGIfnjHEd3_3hOGSAGUxy68aK1WQrWKwUU1736tBX9aOg1N-DzClWKJZirVn5QG3RnJ-SrC9of43gBg6BjsIZAWprkeg97LLLuRh9hfUW8cBwBtbYIipQNpuemA1E8GKtJVx4/s1600/nipah-virus.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="737" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjiD5RSNVAGIfnjHEd3_3hOGSAGUxy68aK1WQrWKwUU1736tBX9aOg1N-DzClWKJZirVn5QG3RnJ-SrC9of43gBg6BjsIZAWprkeg97LLLuRh9hfUW8cBwBtbYIipQNpuemA1E8GKtJVx4/s400/nipah-virus.jpg" width="230" /></a></div>
निपाह वायरस से बचने का आयुर्वेदिक तरीका -<br />
------------<br />
4 <b>लौंग एवं थोङा-सा सेंधा नमक</b> अच्छी तरह चबाकर गर्म पानी पियें।<br />
<b>3-4 तुलसी के पत्ते</b> चबायें, ध्यान रहे, <b>पत्ते दांतों से कम स्पर्श करें।</b><br />
(क्योंकि तुलसीपत्र दांतों के लिये हानिकारक है।)<br />
आवश्यकतानुसार ऐसा दिन में दो-तीन बार करें।<br />
तो इस वायरस के आक्रमण से बच सकते हैं।<br />
लौंग प्रबल Antivirus है,<br />
सेंधा नमक के साथ मिलकर इसका प्रभाव अतिसूक्ष्म होकर वायरस को शरीर में प्रवेश ही नहीं करने देता।<br />
-------------------------<br />
खतरनाक वायरस ‘निपाह’ तेजी से पूरे देश में फैल रहा है।<br />
अभी इसका कोई इलाज नहीं है।<br />
<b>मरीज 24 घंटे के अंदर ‘कोमा’ में चला जाता है। </b><br />
यह बीमारी संक्रमित सुअरों और चमगादड़ों द्वारा फैल रही हैं।<br />
----------------<br />
लक्षण - 1. बुखार 2. सिरदर्द 3. दिमागी संदेह (भ्रम) 4. उल्टियां 5. मांसपेशियों में दर्द<br />
6. निमोनिया के लक्षण 7. हल्की बेहोशी 8. दिमागी सूजन।<br />
-----------------<br />
निम्न से बचाव रखें -<br />
1 - सुअरों से दूर रहें।<br />
<br />
2 - ऐसे फल न खाएं, जिन्हें पक्षियों ने काटा हो।<br />
फलों को सावधानी से खरीदें, बाजार में खुले में बिकने वाले जूस का सेवन बिलकुल न करें।<br />
<br />
3 - खजूर न खाएं।<br />
<br />
4 - चमगादड़ों के आवास के आसपास भी न जाएं।<br />
<br />
5 - कोई भी यात्रा अत्यावश्यक हो तो ही करें, यथासंभव न करें।<br />
<br />
6 - यह virus अत्यधिक संक्रामक है, इसीलिए बाहर का न कुछ खाएं, न पिएं।<br />
<br />
7 - यह सुअरों से भी फैलता है, इसीलिए मांसाहार और ऐसी जगहों से बचें, जहाँ मांस का क्रय- विक्रय होता है।<br />
<br />
8 - अगर कोई व्यक्ति संक्रमित हो, उसे तुरन्त इंटेंसिव केअर दें, और उसके इस्तेमाल की किसी भी वस्तु को अलग रखें।<br />
<br />
- <b>ध्यान रखें कि जैव-श्रृंखला प्रवेश करने वाला यह नवीनतम वायरस है।</b><br />
इसकी वैक्सीन और दवाइयां अभी प्रायोगिक स्तर पर ही हैं।<br />
<b>Intensive Care के अलावा, इसका फिलहाल कोई इलाज नही।</b><br />
----------------<br />
(सामग्री स्रोत - इंटरनेट)</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-17656601207033180812017-03-07T21:40:00.005-08:002017-03-07T21:40:57.987-08:00नमक - फ़ायदे अनेक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4ZPBYrpmsr_XRKWZaAKlHJs_EkYAudA8FTUNUKKaeiNvULm5iPAWu4Au68ITR527TOL0wRvn81GTp2fKJO-FLiLrxwsBxXzW3HON_YYdQ5zAVf4U5lLcu5Yl_uMgW4J5ZjyGiKrRYlCg/s1600/salad.tif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4ZPBYrpmsr_XRKWZaAKlHJs_EkYAudA8FTUNUKKaeiNvULm5iPAWu4Au68ITR527TOL0wRvn81GTp2fKJO-FLiLrxwsBxXzW3HON_YYdQ5zAVf4U5lLcu5Yl_uMgW4J5ZjyGiKrRYlCg/s400/salad.tif" width="295" /></a></div>
<b>गब्बर - अरे ओ सांभा ! कितने रोग हैं तेरे को ?</b><br />
<b>सांभा - सरदार ! बहुत हैं ।</b><br />
<b>गब्बर - तो फ़िर नमक खा ।</b><br />
-----------------<br />
<b><span style="color: red;">मेदा विकार -</span></b><br />
एक वर्ष आयु की एक बच्ची को काफ़ी दिनों से दस्त, पेचिश, कब्ज यानी मेदे और पेट से सम्बन्धित बीसियों रोग थे । हर प्रकार की डाक्टरी, यूनानी दवायें बे-असर हुयीं । बच्ची दिनोंदिन निढाल कमजोर हो रही थी । भूख बिलकुल नही लगती, थोङा भी कुछ खा ले तो दस्त हो जाता । बच्ची एकदम मरियल होकर अस्थिपंजर मात्र रह गयी ।<br />
संयोगवश अस्सी साल की एक वृद्धा से जिक्र होने पर उन्होंने बताया - बच्ची को ‘मेदा विकार’ की शिकायत है । मेदा ठीक न होने तक बच्ची स्वस्थ न होगी ।<br />
फ़िर उनके सुझाये अनुसार - 3 ग्राम काला नमक, एक चम्मच पानी में पकाकर दिया गया ।<br />
ऐसा करने से जादुई असर हुआ । दस्त आदि बन्द होकर हाजमा (पाचन) ठीक होने लगा और वह पूर्ण स्वस्थ हो गयी ।<br />
<b>औषधि मात्रा - आयु अनुसार 3 से 6 ग्राम तक ।</b><br />
यदि महीने, दो महीने बाद मेदे और पेट की दोबारा शिकायत हो तो दोबारा दे दें ।<br />
---------------<br />
<span style="color: blue;">आँख की दवा (आई लोशन) - 8 ग्राम बढ़िया अर्क सौंफ़ में 6 ग्राम शीशा नमक बारीक पीसकर मिलाकर शीशी </span>में रखें । प्रातः-सांय 2-2 बूँदें आँखों में डालने से सुर्खी, धुंध, जाला, आँखों से पानी बहना आदि दूर करता है ।<br />
----------<br />
<span style="color: purple;">कान दर्द - 60 ग्राम लाहौरी नमक (सफ़ेद), 250 ग्राम पानी में बारीक पीसकर मिलायें । जब बिलकुल घुल जाये </span>तो इसमें 120 ग्राम तिली का तेल मिलाकर धीमी आँच पर पकायें । जब पानी जलकर तेल बच रहे तो उतारकर रख लें । 2-3 दिन में तेल ऊपर आ जायेगा । निथार कर शीशी में रख लें । <br />
दो बूँद गुनगुना करके कान में टपकायें । भयंकर दर्द से भी तुरन्त राहत होगी । कान बहने में भी लाभदायक ।<br />
--------------<br />
<span style="color: red;">सुरमा मोतियाबिन्द - 15 ग्राम लाहौरी नमक (चमकदार), 30 ग्राम कूजा मिश्री, दोनों को खरल में सुरमा बनायें </span>। शुरूआती मोतियाबिन्द में अति लाभदायक, इसके अलावा धुंध, जाला, फ़ूला इत्यादि में लाभ देता है ।<br />
---------------<br />
<b>पेट के कीङे - 4 ग्राम बारीक नमक, प्रातः गाय के छाछ (मठ्ठा) से फ़ांक लें । कीङे मर जायेंगे ।</b><br />
-------------<br />
<span style="color: blue;">अमृत-चूर्ण - 30 ग्राम काला नमक, 15 ग्राम शुद्ध नौसादर, 8 ग्राम धतूरे के बीज, 2 ग्राम काली मिर्च, 2 रत्ती सत पुदीना (क्रिस्टल)</span><br />
सब चीजों को बारीक पीसकर मिला लें । औषधि तैयार है ।<br />
यदि रंग बदलना हो तो 15 ग्राम हुरमची या बाजारी कुश्ता फ़ौलाद मिला लें ।<br />
गुण-लाभ, विशेषतायें - मेदे को मल से साफ़ करके मन्दाग्नि तेज करता है । खाया पिया खूब पचता है, नया खून बनता है ।<br />
मितली, कै (उल्टी, वमन), खट्टी डकारें, पेट का भारी रहना, जिगर की कमजोरी, तिल्ली, वायुगोला, दमा-खाँसी, नजला और मलेरिया के लिये उपयोगी ।<br />
सिर दर्द, दाँत दर्द तथा विषैले जीव जन्तुओं के काटने में लाभदायक है ।<br />
<span style="color: purple;">सेवन विधि - प्रायः इस औषधि को जल के साथ सेवन किया जाता है । दाँत दर्द और विषैले कीङे काटने पर इसे </span>मलना चाहिये । आधा सीसी दर्द में इसे सूंघना चाहिये ।<br />
बुखार की स्थिति में कब्ज दूर करके अर्क अजवायन के साथ देने से पसीना आकर बुखार उतर जाता है ।<br />
-------------<br />
<span style="color: red;">आँखों की थकावट - आधा गिलास बहुत गर्म पानी में एक चम्मच साधारण नमक घोल लें । फ़िर एक साफ़ सूती </span>कपङे की गद्दी (तह) बनाकर इस पानी में डुबायें । थोङा निचोङें और आँखें बन्द करके इसको ऊपर रख लें । <br />
गद्दी उस समय तक रखें । जब तक कुछ ठंडी लगने लगे । यही क्रम 3-4 बार दुहरायें ।<br />
इसके बाद कोई ठंडी क्रीम आँखों के इर्द-गिर्द मलें । फ़िर क्रीम पोंछ दे ।<br />
--------------<br />
<span style="color: blue;">बिच्छू काटना - 15 ग्राम लाहौरी नमक, 75 ग्राम स्वच्छ पानी में मिलाकर रख लें । बिच्छू काटने पर (सलाई </span>आदि से ) आँखों में लगायें । तुरन्त एक सेकेंड में विष उतरना शुरू होगा और डंक के स्थान पर दर्द न रहेगा । (साधु द्वारा बताया अनेकों बार आजमाया नुस्खा)<br />
----------<br />
<span style="color: purple;">मलेरिया का सफ़ल इलाज - प्रतिदिन या चौथे दिन सर्दी लगकर बुखार आये तो समझ लें मलेरिया है । (सुप्रसिद्ध </span>अनुभवी वैद्य का नुस्खा)<br />
साधारण नमक को साफ़ कङाही या तवे पर ‘भूरा होने तक’ भूने । फ़िर बच्चे के लिये आधा चम्मच और वयस्क के लिये एक चम्मच नमक लेकर एक गिलास पानी में उबालें ।<br />
जिस समय रोगी को बुखार न चढ़ा हो, उस समय पीने योग्य गुनगुना यह पानी उसे पिला दें । 90% रोगियों को दोबारा बुखार नही होगा । बुखार न उतरने पर दोबारा (अगले दिन) पिलायें ।<br />
तीसरी बार आवश्यकता नही पङेगी ।<br />
(रोगी को सर्दी से बचाने पर अधिक ध्यान देना चाहिये)<br />
इसका वास्तविक लाभ भूखे पेट सेवन करने से होता है ।<br />
डा. ब्रोक ने हंगरी और दक्षिणी अमेरिका के प्रान्तों में इस नुस्खे का सफ़ल उपयोग किया ।<br />
---------------<br />
<span style="color: red;">बेमिसाल सुरमा - लाहौरी नमक के चमकदार साफ़ टुकङे को खूब बारीक पीस लें । ये अद्वितीय सुरमा है ।</span><br />
आँखों में कुक्करे, पानी बहना, फ़ूला (किन्तु चेचक का न हो) ये सभी कष्ट दूर होते हैं ।<br />
---------------<br />
<span style="color: blue;">दर्द और जलन - बिच्छू, विषैली मक्खी और भिङ इत्यादि के डंक पर जरा सा पानी लगाकर बारीक पिसा हुआ </span>नमक रगङने से दर्द और जलन बन्द हो जाती है, सूजन नही होती ।<br />
---------------<br />
<b>सिर-दर्द - एक चुटकी नमक जीभ पर रखें और दस मिनट बाद एक गिलास ठंडा पानी पियें । दर्द दूर होगा ।</b><br />
-----------<br />
<span style="color: purple;">नजला-जुकाम - सफ़ेद नमक शहद में गोधकर और कपङे में लपेट कर तथा ऊपर मिट्टी लगाकर आग पर रखें । </span>मिट्टी सुर्ख हो जाये तो नमक को निकालकर पीस लें ।<br />
एक ग्राम रोजाना प्रातः या भोजन के बाद पानी से सेवन करने से नजला-जुकाम, वायु और जोङों के दर्द के लिये लाभदायक है ।<br />
-------------<br />
<span style="color: red;">बन्द मासिक धर्म - बच्चा होने के पश्चात ठंडी हवा या ठंडे पानी के इस्तेमाल से गन्दे खून का बाहर निकलना </span>बन्द हो जाता है । इससे पेट में तेज दर्द और अफ़ारा हो जाता है तथा योनि के ऊपर एक गांठ सी पैदा हो जाती है । मूत्र बिलकुल रुक जाता है या थोङा थोङा आता है । कई बार गन्दे खून के रुक जाने से टांगों में तेज दर्द होता है ।<br />
ऐसी स्थिति में डेढ़-डेढ़ ग्राम नमक गर्म पानी के साथ दिन में तीन बार खिलायें । इससे गन्दा खून दोबारा जारी होकर निकल जाता है ।<br />
-----------------<br />
<b><span style="color: blue;">नमक के पानी से स्नान लाभ -</span></b><br />
एक बाल्टी गर्म पानी में एक चम्मच नमक डालकर स्नान करें । गर्मियों के दिनों में एक गिलास गर्म पानी में एक चम्मच नमक घोलकर ठंडे पानी में डाल दें । दस मिनट बाद स्नान करें ।<br />
<b>माइश्चराइजर - त्वचा में नमी (मोश्चराइजिंग) होती है । त्वचा कोशिकाओं (सेल्स) की ग्रोथ अच्छी होती है । त्वचा के दाग, झुर्रियां दूर होकर स्वस्थ होती है ।</b><br />
फ़ेयरनेस - मृत कोशिकाओं को निकालने में मदद करता है । त्वचा मुलायम, चमकीली होगी । रंग खिलेगा ।<br />
<span style="color: red;">अच्छी नींद - थकान और तनाव दूर होकर मस्तिष्क को आराम मिलता है । अच्छी नींद आती है ।</span><br />
डेंड्रफ़ (रूसी) - नमक के पानी में मौजूद तत्व फ़ंगल इंफ़ेक्शन बढ़ने से रोकते हैं । रोज नहाने से डेंड्रफ़ से छुटकारा होगा ।<br />
<span style="color: blue;">स्वस्थ बाल - ब्लड सर्कुलेशन (रक्त संचार) सुधरता है । बालों के बैक्टीरिया खत्म होते हैं । इसलिये नमक के </span>पानी से सिर धोकर नहाने से बाल स्वस्थ और चमकीले होते हैं ।<br />
<span style="color: purple;">एसिडिटी - नमक के पानी में मोजूद तत्व ‘आयल लेवल’ नियन्त्रित करते हैं । इससे ऐसिडिटी दूर होती है ।</span><br />
हड्डियों का दर्द - इस पानी के स्नान से आस्टियो आर्थराइटिस, टेन्डीनिटिस जैसी जोङ दर्द और हड्डियों के दर्द की समस्या दूर होती है ।<br />
<b>मांसपेशी का दर्द - मांसपेशी में शिथिलता होकर राहत मिलती है ।</b><br />
तनाव - रक्त संचार सुधरने से ब्रेन फ़ंक्शन्स बेहतर होते हैं । ब्रेन रिलेक्स होकर तनाव दूर होता है ।<br />
इंफ़ेक्शन - नमक के पानी में भरपूर मैग्नीशियम, कैल्शियम, सोडियम जैसे खनिज होते हैं । ये स्किन पोर्स में जाकर सफ़ाई करते हैं । इससे इंफ़ेक्शन का खतरा टलता है । </div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-25721293551465159242016-06-13T05:10:00.001-07:002016-06-13T05:10:04.191-07:00नस पर नस चढ़ना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiG_wCXffOMF68E_TBCR8COlmZvDKFd0-DvBaYrilbzDJaDosp7PRBabEIf7T3C_36NLiLigEF7tdq3ZIVbZ5UFaeN1NseMHn3fVIjDdoRk_5ijxjdMOfKRJFq3LpLlV_VEEXcjjfWWhyY/s1600/nas+chadna.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="230" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiG_wCXffOMF68E_TBCR8COlmZvDKFd0-DvBaYrilbzDJaDosp7PRBabEIf7T3C_36NLiLigEF7tdq3ZIVbZ5UFaeN1NseMHn3fVIjDdoRk_5ijxjdMOfKRJFq3LpLlV_VEEXcjjfWWhyY/s400/nas+chadna.jpg" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">अक्सर और अधिकांश लोगों को यह समस्या हो जाती है । अतः आजमाया हुआ उपाय बता रहा हूँ । जिसमें पहले से ही शीघ्र आराम आ जाता है ।</span><br />
<b><span style="color: orange;">------------</span></b><br />
<b><span style="color: blue;">नस पर नस चढ़ना</span></b> एक बहुत साधारण सी प्रक्रिया है । लेकिन शरीर में कहीं भी नस पर नस चढ़ जाए, जान ही निकाल देती है । अगर रात को सोते समय पैर की नस पर नस चढ़ जाए तो व्यक्ति चकरघिन्नी की तरह घूम कर उठ बैठता है । नस पर नस चढ़ना सूजन और दर्द अलग । तो यदि आपके साथ हो जाये तो तुरंत ये उपाय करें<br />
<b><span style="color: red;">नस पर नस चढ़ना, उपचार -</span></b><br />
1 अगर नस पर नस चढ़ जाती है । तो जिस पैर की नस चढ़ी है । उसी तरफ के हाथ की बीच की ऊँगली के नाखून के नीचे के भाग को दबाए । और छोड़ें । ऐसा तब तक करें । जब तक ठीक न हो जाए ।<br />
<span style="color: blue;">2 लंबाई में अपने शरीर को आधा आधा दो भागों में चिन्हित करें । अब जिस भाग में नस चढ़ी है । उसके विपरीत भाग के ( चित्र अनुसार ) कान के निचले जोड़ पर उंगली से दबाते हुए उंगली को हल्का सा ऊपर और हल्का सा नीचे की तरफ बार बार 10 सेकेंड तक करते रहें । नस उतर जाएगी ।</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-38999075408586166792015-07-13T08:58:00.003-07:002015-07-13T08:58:18.793-07:00भावप्रकाश आयुर्वेद <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_C_PoXLc1jjMT2cU0Q1ookoKW-dmueuqPDEOHtFQMuCMTsQnh0n5NEhfzdBwYgSbbSomkEdDmieDdlQYAfZ-7PFQZDuo2-mDobPL1uGcdLIZqYovyntPfiLyYKm7ajkpVu-EOzTEpG5I/s1600/bhav+prakash.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="298" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_C_PoXLc1jjMT2cU0Q1ookoKW-dmueuqPDEOHtFQMuCMTsQnh0n5NEhfzdBwYgSbbSomkEdDmieDdlQYAfZ-7PFQZDuo2-mDobPL1uGcdLIZqYovyntPfiLyYKm7ajkpVu-EOzTEpG5I/s400/bhav+prakash.jpg" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">अभी श्री भाव मिश्र जी द्वारा प्रणीत ‘भाव प्रकाश’ को मैंने प्रथमदृष्टया ही देखा है । पर तब भी आयुर्वेद की अमूल्य निधि ये ग्रन्थ मुझे बेजोङ ही लगा । </span>इंटरनेट पर सर्च करने पर भी इसके बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं मिली । सिवाय इसके -<br />
‘भावप्रकाश आयुर्वेद का एक मूल ग्रन्थ है । इसके रचयिता आचार्य भाव मिश्र थे । भावप्रकाश में आयुर्वेदिक औषधियों में प्रयुक्त वनस्पतियों एवं जड़ी बूटियों का वर्णन है । भावप्रकाश, माधवनिदान तथा शार्ङ्गधर संहिता को संयुक्त रूप से 'लघुत्रयी' कहा जाता है ।’<br />
<span style="color: blue;">इसके अलावा एक लिंक मिला । जहाँ इसके 100 से ऊपर पी डी एफ़ पेज तथा हिन्दी अनुवाद सहित किताब मिलने का पता है । यह ग्रन्थ लगभग 1150 रूपये और कुछ डाक खर्च के साथ प्राप्त किया जा सकता है ।</span><br />
<span style="color: blue;">इस ब्लाग में यह पूरा ग्रन्थ लगभग सरल संस्कृत में प्रकाशित है । लेकिन फ़िर भी स्वदेशी, भारत गौरव और आयुर्वेद के पुनर्प्रतिष्ठापन हेतु इसका हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन भी बेहद आवश्यक है ।</span><br />
वैसे तो अभी इंटरनेट पर तमाम आयुर्वेदिक बेवपेजों और जानकारी भरे लेखों की भरमार है । पर<br />
अपवाद को छोङकर अधिंकाश त्रुटि युक्त और कापी पेस्ट ही है । ऐसी स्थिति में भावप्रकाश जैसे ग्रन्थों का श्लोक और अनुवाद सहित त्रुटि रहित प्रकाशन अति आवश्यक है ।<br />
<span style="color: purple;">तमाम परोपकार और परमार्थ के इच्छुक लोग यहाँ हैं । वे इस दिशा में पहल कर सकते हैं । इससे स्वयं उन्हें भी अकल्पनीय लाभ और यश मिलेगा । साथ ही वे अपने परिवार समाज और स्वयं को भी पूर्ण निरोगी रख सकेंगे । </span><br />
<br />
पुस्तक प्राप्ति का लिंक -<br />
<a href="http://www.exoticindiaart.com/book/details/bhava-prakash-khemraj-edition-NZB934/">http://www.exoticindiaart.com/book/details/bhava-prakash-khemraj-edition-NZB934/</a></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-13437565385604769852015-07-13T06:32:00.002-07:002015-07-13T06:32:43.209-07:00श्रीमदभावमिश्रप्रणीतः भाव प्रकाशः पूर्व खण्डम <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गजमुखममरप्रवरं सिद्धिकरं विघ्नहर्तारम ।<br />
गुरुमवगमनयनप्रदमिष्टकरीमिष्टदेवतां वन्दे 1<br />
<br />
आयुर्वेदागमनं क्रमेण येनाभवद्भूमौ ।<br />
प्रथमं लिखामि तमहं नानातन्त्राणि संदृश्य 2<br />
<br />
आयुर्हिताहितं व्याधेर्निदानं शमनं तथा ।<br />
विद्यते यत्र विद्वद्भिः स आयुर्वेद उच्यते 3<br />
<br />
अनेन पुरुषो यस्मादायुर्विन्दति वेत्ति च ।<br />
तस्मान्मुनिवरैरेष आयुर्वेद इति स्मृतः 4<br />
<br />
विधाताऽथर्वसर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन ।<br />
स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्षश्लोकमयीमृजुम 5<br />
ततः प्रजापतिं दक्षं दक्षं सकलकर्मसु ।<br />
विधिर्धीनीरधिः साङ्गमायुर्वेदमुपादिशत 6<br />
<br />
अथ दक्षः क्रियादक्षः स्वर्वैद्यौ वेदमायुषः ।<br />
वेदयामास विद्वांसौ सूर्यांशौ सुरसत्तमौ 7<br />
<br />
दक्षादधीत्य दस्रौ वितनुतः संहितां स्वीयाम ।<br />
सकलचिकित्सकलोकप्रतिपत्तिविवृद्धये धन्याम 8<br />
स्वयम्भुवः शिरश्छिन्नं भैरवेण रुषाऽथ तत ।<br />
अश्विभ्यां संहितं तस्मात्तौ जातौ यज्ञभागिनौ 9<br />
देवासुररणे देवा दैत्यैर्ये सक्षताः कृताः ।<br />
अक्षतास्ते कृताः सद्यो दस्राभ्यामद्भुतं महत 10<br />
वज्रिणोऽभूद् भुजस्तम्भः स दस्राभ्यां चिकित्सितः ।<br />
सोमान्निपतितश्चन्द्र स्ताभ्यामेव सुखी कृतः 11<br />
विशीर्णा दशनाः पूष्णो नेत्रे नष्टे भगस्य च ।<br />
शशिनो राजयक्ष्माऽभूदश्विभ्यां ते चिकित्सिताः 12<br />
भार्गवश्च्यवनः कामी वृद्धः सन् विकृतिं गतः ।<br />
वीर्यवर्णस्वरोपेतः कृतोऽश्विभ्यां पुनर्युवा 13<br />
एतैश्चान्यैश्च बहुभिः कर्मभिर्भिषजां वरौ ।<br />
बभूवतुर्भृशं पूज्याविन्द्रा दीनां दिवौकसाम् 14<br />
<br />
संदृश्य दस्रयोरिन्द्रः कर्माण्येतानि यत्नवान ।<br />
आयुर्वेदं निरुद्वेगं तौ ययाचे शचीपतिः 15<br />
नासत्यौ सत्यसन्धेन शक्रेण किल याचितौ ।<br />
आयुर्वेदं यथाऽधीतं ददतुः शतमन्यवे 16<br />
नासत्याभ्यामधीत्यैव आयुर्वेदं शतक्रतुः ।<br />
अध्यापयामास बहूनात्रेयप्रमुखान्मुनीन 17<br />
<br />
एकदा जगदालोक्य गदाकुलमितस्ततः ।<br />
चिन्तयामास भगवानात्रेयो मुनिपुङ्गवः 18<br />
किं करोमि क्व गच्छामि कथं लोका निरामयाः ।<br />
भवन्ति सामयानेतान्न शक्नोमि निरीक्षितुम 19<br />
दयालुरहमत्यर्थं स्वभावो दुरतिक्रमः ।<br />
एतेषां दुःखतो दुःखं ममापि हृदयेऽधिकम 20<br />
आयुर्वेदं पठिष्यामि नैरुज्याय शरीरिणाम ।<br />
इति निश्चित्य गतवानात्रेयस्त्रिदशालयम 21<br />
तत्र मन्दिरमिन्द्र स्य गत्वा शक्रं ददर्श सः ।<br />
सिंहासनसमासीनं स्तूयमानं सुरर्षिभिः 22<br />
भासयन्तं दिशो भासा भास्करप्रतिमं त्विषा ।<br />
आयुर्वेदमहाचार्यं शिरोधार्यं दिवौकसाम 23<br />
शक्रस्तु तं निरीक्ष्यैवं त्यक्तसिंहासनः स्थितः ।<br />
तमग्रे पूजयामास भृशं भूरितपःकृशम 24<br />
कुशलं परिपप्रच्छ तथागमनकारणम ।<br />
स मुनिर्वक्तुमारेभे निजागमनकारणम 25<br />
देवराज न जानासि दिव एव यतो भवान ।<br />
विधात्रा विहितो यत्नात्त्रिलोकीलोकपालकः 26<br />
व्याधिभिर्व्यथिता लोकाः शोकाकुलितचेतसः ।<br />
भूतले सन्ति सन्तापं तेषां हन्तुं कृपां कुरु 27<br />
आयुर्वेदोपदेशं मे कुरु कारुण्यतो नृणाम ।<br />
तथेत्युक्त्वा सहस्राक्षोऽध्यापयामास तं मुनिम 28<br />
मुनीन्द्र इन्द्र तः साङ्गमायुर्वेदमधीत्य सः ।<br />
अभिनन्द्य तमाशीर्भिराजगाम पुनर्महीम 29<br />
अथात्रेयो मुनिश्रेष्ठो भगवान्करुणाकरः ।<br />
स्वनाम्ना संहितां चक्रे नरवर्गानुकम्पया 30<br />
ततोऽग्निवेशं भेडञ्च जातूकर्णं पराशरम ।<br />
क्षीरपाणिञ्च हारीतमायुर्वेदमपाठयत 31<br />
तन्त्रस्य कर्त्ता प्रथममग्निवेशोऽभवत्पुरा ।<br />
ततो भेडादयश्चक्रुः स्वं स्वं तन्त्रं कृतानि च 32<br />
श्रावयामासुरात्रेयं मुनिवृन्देन वन्दितम ।<br />
श्रुत्वा च तानि तन्त्राणि हृष्टोऽभूदत्रिनन्दनः 33<br />
यथावत्सूत्रितं दृष्ट्वा प्रहृष्टा मुनयोऽभवन ।<br />
दिवि देवर्षयो देवाः श्रुत्वा साध्विति चाब्रुवन 34<br />
एकदा हिमवत्पार्श्वे दैवादागत्य सङ्गताः ।<br />
मुनयो बहवस्तेषां नामभिः कथयाम्यहम 35<br />
भरद्वाजो मुनिवरः प्रथमं समुपागतः ।<br />
ततोऽङ्गिरास्ततो गर्गो मरीचिर्भृगुभार्गवौ 36<br />
पुलस्त्योऽगस्तिरसितो वसिष्ठः सपराशरः ।<br />
हारीतो गौतमः सांख्यो मैत्रेयश्च्यवनोऽपि च 37<br />
जमदग्निश्च गार्ग्यश्च कश्यपः काश्यपोऽपि च ।<br />
नारदो वामदेवश्च मार्कण्डेयः कपिञ्जलः 38<br />
शाण्डिल्यः सहकौण्डिन्यः शाकुनेयश्चशौनकः ।<br />
आश्वलायनसांकृत्यौ विश्वामित्रः परीक्षकः 39<br />
देवलो गालवो धौम्यः काप्यकात्यायनावुभौ ।<br />
काङ्कायनो वैजपेयः कुशिको बादरायणः 40<br />
हिरण्याक्षश्च लौगाक्षिः शरलोमा च गोभिलः ।<br />
वैखानसा वालखिल्यास्तथैवान्ये महर्षयः 41<br />
ब्रह्मज्ञानस्य निधयो यमस्य नियमस्य च ।<br />
तपसस्तेजसा दीप्ता हूयमाना इवाग्नयः 42<br />
सुखोपविष्टास्ते तत्र सर्वे चक्रुः कथामिमाम ।<br />
धर्मार्थकाममोक्षाणां मूलमुक्तं कलेवरम ।<br />
तच्च सर्वार्थसंसिद्ध्यै भवेद्यदि निरामयम 43<br />
तपः स्वाध्यायधर्माणां ब्रह्मचर्यव्रतायुषाम ।<br />
हर्त्तारः प्रसृता रोगा यत्र तत्र च सर्वशः 44<br />
रोगाः कार्श्यकरा बलक्षयकरा देहस्य चेष्टाहरा ।<br />
दृष्टा इन्द्रि यशक्तिसङ्क्षयकराः सर्वाङ्गपीडाकराः ।<br />
धर्मार्थाखिलकाममुक्तिषु महाविघ्नस्वरूपा बलात ।<br />
प्राणानाशु हरन्ति सन्ति यदि ते क्षेमं कुतः प्राणिनाम 45<br />
तत्तेषां प्रशमाय कश्चन विधिश्चिन्त्यो भवद्भिर्बुधै-<br />
र्योग्यैरित्यभिधाय संसदि भरद्वाजं मुनिं तेऽब्रुवन ।<br />
त्वं योग्यो भगवन् सहस्रनयनं याचस्व लब्धं क्रमा-<br />
दायुर्वेदमधीत्य यं गदभयान्मुक्ता भवामो वयम 46<br />
इत्थं स मुनिभिर्योग्यैः प्रार्थितो विनयान्वितैः ।<br />
भरद्वाजो मुनिश्रेष्ठो जगाम त्रिदशालयम 47<br />
तत्रेन्द्र भवनं गत्वा सुरर्षिगणमध्यगम ।<br />
दृष्टवान् वृत्रहन्तारं दीप्यमानमिवानलम 48<br />
दृष्ट्वैव स मुनिं प्राह भगवान मघवा मुदा ।<br />
धर्मज्ञ स्वागतं तेऽथ मुनिं तं समपूजयत 49<br />
सोऽभिगम्य जयाशीर्भिरभिनन्द्य सुरेश्वरम ।<br />
ऋषीणां वचनं सम्यक् श्रावयामास तत्त्वतः 50<br />
व्याधयो हि समुत्पन्नाः सर्वप्राणिभयङ्कराः ।<br />
तेषां प्रशमनोपायं यथावद्वक्तुमर्हसि 51<br />
अपाठयन्मुनिं साङ्गमायुर्वेदं शतक्रतुः ।<br />
जीवेद्वर्षसहस्राणि देही नीरुङ् निशम्य यम 52<br />
सोऽनन्तपारं त्रिस्कन्धमायुर्वेदं महामुनिः ।<br />
यथावदचिरात्सर्वं बुबुधे तन्मना मुनिः 53<br />
तेनायुः सुचिरं लेभे भरद्वाजो निरामयम ।<br />
अन्यानपि मुनींश्चक्रे नीरुजः सुचिरायुषः 54<br />
तत्तन्त्रजनितज्ञानचक्षुषा ऋषयोऽखिलाः ।<br />
गुणान्द्र व्याणि कर्माणि दृष्ट्वा तद्विधिमाश्रिताः 55<br />
आरोग्यं लेभिरे दीर्घमायुश्च सुखसंयुतम ।<br />
आयुर्वेदोक्तविधिनाऽन्येऽपि स्युर्मुनयो यथा 56<br />
यदा मत्स्यावतारेण हरिणा वेद उद्धृतः ।<br />
तदा शेषश्च तत्रैव वेदं साङ्गमवाप्तवान 57<br />
अथर्वान्तर्गतं सम्यगायुर्वेदं च लब्धवान ।<br />
एकदा स महीवृत्तं द्र ष्टुं चर इवागतः 58<br />
तत्रलोकान् गदैर्ग्रस्तान् व्यथया परिपीडितान ।<br />
स्थलेषु बहुषु व्यग्रान् म्रियमाणांश्च दृष्टवान 59<br />
तान्दृष्ट्वातिदयायुक्तस्तेषां दुःखेन दुःखितः ।<br />
अनन्तश्चिन्तयामास रोगोपशमकारणम 60<br />
सञ्चिन्त्य स स्वयं तत्र मुनेः पुत्रो बभूव ह ।<br />
प्रसिद्धस्य विशुद्धस्य वेदवेदाङ्गवेदिनः 61<br />
यतश्चर इवायातो न ज्ञातः केनचिद्यतः ।<br />
तस्माच्चरकनाम्नासौ ख्यातश्च क्षितिमण्डले 62<br />
स भाति चरकाचार्यो देवाचार्यो यथा दिवि ।<br />
सहस्रवदनस्यांशो येन ध्वंसो रुजां कृतः 63<br />
आत्रेयस्य मुनेः शिष्या अग्निवेशादयोऽभवन ।<br />
मुनयो बहवस्तैश्च कृतं तन्त्रं स्वकं स्वकम 64<br />
तेषां तन्त्राणि संस्कृत्य समाहृत्य विपश्चिता ।<br />
चरकेणात्मनो नाम्ना ग्रन्थोऽय चरकः कृतः 65<br />
एकदा देवराजस्य दृष्टिर्निपतिता भुवि ।<br />
तत्र तेन नरा दृष्टा व्याधिभिर्भृशपीडिताः 66<br />
तान्दृष्ट्वा हृदयं तस्य दयया परिपीडितम ।<br />
दयार्द्र हृदयः शक्रो धन्वन्तरिमुवाच ह 67<br />
धन्वन्तरे सुरश्रेष्ठ भगवन् किञ्चिदुच्यते ।<br />
योग्यो भवसि भूतानामुपकारपरो भव 68<br />
उपकाराय लोकानां केन किं न कृतं पुरा ।<br />
त्रैलोक्याधिपतिर्विष्णुरभून्मत्स्यादिरूपवान 69<br />
तस्मात्त्वं पृथिवीं याहि काशीमध्ये नृपो भव ।<br />
प्रतीकाराय रोगाणामायुर्वेदं प्रकाशय 70<br />
इत्युक्त्वा सुरशार्दूलः सर्वभूतहितेप्सया ।<br />
समस्तमायुषो वेदं धन्वन्तरिमुपादिशत 71<br />
अधीत्य चायुषो वेदमिन्द्रा द्धन्वन्तरिः पुरा ।<br />
आगत्य पृथिवीं काश्यां जातो बाहुजवेश्मनि 72<br />
नाम्ना तु सोऽभवत्ख्यातो दिवोदास इति क्षितौ ।<br />
बाल एव विरक्तोऽभूच्चचार सुमहत्तपः 73<br />
यत्नेन महता ब्रह्मा तं काश्यामकरोन्नृपम ।<br />
ततो धन्वन्तरिर्लोकैः काशीराजोऽभिधीयते 74<br />
हिताय देहिनां स्वीया संहिता विहिताऽमुना ।<br />
अथ विद्यार्थिनो लोकान्संहितां तामपाठयत 75<br />
अथ ज्ञानदृशा विश्वामित्रप्रभृतयोऽविदन ।<br />
अयं धन्वन्तरिः काश्यां काशिराजोऽयमुच्यते 76<br />
विश्वामित्रो मुनिस्तेषु पुत्रं सुश्रुतमुक्तवान ।<br />
वत्स वाराणसीं गच्छ त्वं विश्वेश्वरवल्लभाम 77<br />
तत्र नाम्ना दिवोदासः काशिराजोऽस्ति बाहुजः ।<br />
स हि धन्वन्तरिः साक्षादायुर्वेदविदां वरः 78<br />
आयुर्वेदं पठस्व त्वं लोकोपकृतिहेतवे ।<br />
सर्वप्राणिदया तीर्थमुपकारो महामखः 79<br />
पितुर्वचनमाकर्ण्य सुश्रुतः काशिकां गतः ।<br />
तेन सार्द्धं समध्येतुं मुनिसूनुशतं ययौ 80<br />
अथ धन्वन्तरिं सर्वे वानप्रस्थाश्रमे स्थितम ।<br />
भगवन्तं सुरश्रेष्ठं मुनिभिर्बहुभिः स्तुतम 81<br />
काशिराजं दिवोदासं तेऽपश्यन्विनयान्विताः ।<br />
स्वागतं च तदा चाह दिवोदासो यशोधनः 82<br />
कुशलं परिपप्रच्छ तथागमनकारणम ।<br />
ततस्ते सुश्रुतद्वारा कथयामासुरुत्तरम 83<br />
भगवन्मानवान्दृष्ट्वा व्याधिभिः परिपीडितान ।<br />
क्रन्दतो म्रियमाणांश्च जातास्माकं हृदि व्यथा 84<br />
आमयानां शमोपायं विज्ञातुं वयमागताः ।<br />
आयुर्वेदं भवानस्मानध्यापयतु यत्नतः 85<br />
अङ्गीकृत्य वचस्तेषां नृपतिस्तानुपादिशत ।<br />
व्याख्यातं तेन ते यत्नाज्जगृहुर्मुनयो मुदा 86<br />
काशिराजं जयाशीर्भिरभिनन्द्य मुदान्विताः ।<br />
सुश्रुताद्याः सुसिद्धार्था जग्मुर्गेहं स्वकं स्वकम 87<br />
प्रथमं सुश्रुतस्तेषु स्वतन्त्रं कृतवान्स्फुटम ।<br />
सुश्रुतस्य सखायोऽपि पृथक्तन्त्राणि तेनिरे 88<br />
सुश्रुतेन कृतं तन्त्रं सुश्रुतं बहुभिर्यतः<br />
तस्मात्तत्सुश्रुतं नाम्ना विख्यातं क्षितिमण्डले 89<br />
<br />
<span style="color: red;">इति भावप्रकाशे पूर्वखण्डे आयुर्वेदप्रवक्तृप्रादुर्भावप्रकरणं समाप्तम 1</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-59285712438399479052015-07-13T06:31:00.004-07:002015-07-13T06:31:53.207-07:00अथ सृष्टिप्रकरणं ग्रन्थारम्भश्च 2<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आयुर्वेदाब्धिमध्यादतिमतिमुनयो योगरत्नानि यत्नाल्लब्ध्वा<br />
स्वे स्वे निबन्धे दधुरखिलजनव्याधिविध्वंसनाय ।<br />
तत्तद्ग्रन्थाद् गृहीतैः सुवचनमणिभिर्भावमिश्रैश्चिकित्साशास्त्रे<br />
जाड्यान्धकारं प्रशमयितुमिमं संविधत्ते प्रकाशम 1<br />
श्रीपतिपदप्रसादादाशीर्भिर्भूमिदेवानाम<br />
भावप्रकाशनाम्ना ग्रन्थोऽयं पठ्यतां सर्वैः 2<br />
आत्मा ज्योतिश्चिदानन्दरूपो नित्यश्च निःस्पृहः<br />
निर्गुणः प्रकृतेर्योगात्सगुणः कुरुते जगत 3<br />
सत्त्वं रजस्तमश्चेति गुणास्ते प्रकृतेः समाः<br />
सा जडापि जगत्कर्त्री परमात्मचिदव्ययात 4<br />
प्रधानं प्रकृतिः शक्तिर्नित्या चाविकृतिस्तथा<br />
एतानि तस्या नामानि पुरुषं या समाश्रिता 5<br />
सत्त्वं रजस्तमस्त्रीणि विज्ञेयाः प्रकृतेर्गुणाः<br />
तैश्च युक्तस्य चित्तस्य कथयाम्यखिलान गुणान 6<br />
आस्तिक्यं प्रविभज्य भोजनमनुत्तापश्च तथ्यं वचो<br />
मेधाबुद्धिधृतिक्षमाश्च करुणा ज्ञानं च निर्दम्भता<br />
कर्मानिन्दितमस्पृहं च विनयो धर्मः सदैवादरा-<br />
देते सत्त्वगुणान्वितस्य मनसो गीता गुणा ज्ञानिभिः 7<br />
क्रोधस्ताडनशीलता च बहुलं दुःखं सुखेच्छाऽधिका-<br />
दम्भः कामुकताप्यलीकवचनं चाधीरताहङ्कृतिः<br />
ऐश्वर्यादभिमानितातिशयितानन्दोऽधिकश्चाटनं<br />
प्रख्याता हि रजोगुणेन सहितस्यैते गुणाश्चेतसः 8<br />
नास्तिक्यं सुविषण्णतातिशयितालस्यं च दुष्टा मतिः<br />
प्रीतिर्निन्दितकर्मशर्मणि सदा निद्रा लुताहर्निशम्<br />
अज्ञानं किल सर्वतोऽपि सततं क्रोधान्धता मूढता<br />
प्रख्याता हि तमोगुणेन सहितस्यैते गुणाश्चेतसः 9<br />
तत्र प्रभूतसत्त्वस्तु सात्त्विकः पुरुषः स्मृतः<br />
राजसस्तामसश्चैव त्रिविधस्तेन मानवः 10<br />
ततोऽभवन्महत्तत्त्वं बुद्धितत्त्वापराभिधम<br />
त्रिगुणं सत्त्वबहुलं निर्मलं स्फटिकोपमम<br />
चिच्छायाप्राप्तचैतन्यं तदिच्छामयमीरितम 11<br />
महतस्त्रिगुणाज्जातोऽहङ्कारस्त्रिगुणान्वितः<br />
सात्त्विको राजसश्चापि तामसश्चेति स त्रिधा 12<br />
जातानि सात्त्विकात्तस्मादिन्द्रि याणि सराजसात<br />
तानि श्रोत्रं त्वचो नेत्रं रसना नासिका तथा 13<br />
वाग्घस्तचरणोपस्थगुदान्येकादशं मनः<br />
पञ्च बुद्धीन्द्रि याण्याहुः प्राक्तनानीतराणि च 14<br />
कर्मेन्द्रि याणि पञ्चैव कथयन्ति विपश्चितः 15<br />
मनो बुद्धीन्द्रि यं विज्ञैः कर्मेन्द्रि यमपि स्मृतम<br />
मनोऽधिष्ठितमेवेदमिन्द्रि यं यत्प्रवर्त्तते 16<br />
शब्दः स्पर्शश्च रूपश्च रसो गन्धो ह्यनुक्रमात<br />
बुद्धीन्द्रि याणां विषयाः समाख्याता महर्षिभिः 17<br />
वाच्यं ग्राह्यञ्च गन्तव्यमानन्दं त्याज्यमेव च<br />
कर्मेन्द्रि याणां विषया ज्ञातव्य विषयो हृदः 18<br />
तामसादप्यहङ्कारस्तन्मात्राणि सराजसात<br />
पञ्चाल्पसत्त्वसम्बन्धात्तल्लिङ्गानि भवन्ति हि 19<br />
शब्दतन्मात्रकं स्पर्शतन्मात्रं रूपमात्रकम<br />
रसतन्मात्रकं गन्धतन्मात्रमिति तानि तु 20<br />
तन्मात्रेभ्यो वियद्वायुर्वह्निर्वारि वसुन्धरा<br />
एतानि पञ्च जायन्ते महाभूतानि तत्क्रमात 21<br />
शब्दः श्रोत्रेन्द्रि यं वापि च्छिद्राणि च विविक्तता<br />
वियतः कथिता एते गुणागुणविचारिभिः 22<br />
स्पर्शस्त्वगिन्द्रि यञ्चापि लघुता स्पन्दनं तनोः<br />
चेष्टा सर्वशरीरस्य वायोरेते गुणाः स्मृताः 23<br />
रूपं नेत्रेन्द्रियं पाकः सन्तापस्तीक्ष्णता तथा<br />
वर्णो भ्राजिष्णुताऽमर्षः शौर्यं वह्नेर्गुणा अमी 24<br />
रसो रसेन्द्रियं शैत्यं स्नेहश्च गुरुता तथा<br />
सर्वद्र वसमूहश्च शुक्रं वारिगुणाः स्मृताः 25<br />
गन्धो घ्राणेन्द्रि यं चापि काठिन्यं गौरवं तथा<br />
वसुन्धरागुणा एते गदिता गुणवेदिभिः 26<br />
शब्दः स्पर्शश्च रूपञ्च रसो गन्धश्च तत्क्रमात<br />
तन्मात्राणां विशेषाः स्युः स्थूलभावमुपागताः 27<br />
प्रकृतेः कारणायोगान्मता प्रकृतिरेव सा<br />
महत्तत्त्वादयः सप्त शक्तेर्विकृतयः स्मृताः 28<br />
इन्द्रि याणां च भूतानां कारणत्वान्महर्षिभिः<br />
महत्तत्त्वादयः सप्त प्रोक्ताः प्रकृतयोऽपि च 29<br />
दशेन्द्रि याणि चित्तञ्च महाभूतानि पञ्च च<br />
एतानि सृष्टिं जानद्भिर्विकाराः षोडश स्मृताः 30<br />
एवं चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः सिद्धे वपुर्गृहे<br />
जीवात्मनियतेर्निघ्नो वसति स्वान्तदूतवान 31<br />
स देही कथ्यते पापपुण्यदुःखसुखादिभिः<br />
व्याप्तो बद्धश्च मनसा कृत्रिमैः कर्मबन्धनैः 32<br />
इच्छाद्वेषसुखासुखानि विषयज्ञानं प्रयत्नो मनः<br />
सङ्कल्पश्च विचारणा स्मृतिरथो बुद्धिः कलाविज्ञता<br />
प्राणस्योपरियापनं गुदवशाद्वायोरधः प्रेरणं<br />
नेत्रोन्मेषनिमेषकृत्यकरणोत्साहाश्च जीवे गुणाः 33<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्री मिश्रलटकनतनय श्रीमन्मिश्रभावविरचिते भावप्रकाशे</span><br />
<span style="color: red;">सृष्टिप्रकरणं समाप्तम 2</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-67210439945226197162015-07-13T06:31:00.002-07:002015-07-13T06:31:13.881-07:00अथ गर्भप्रकरणम 3<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
द्वादशाद्वत्सरादूर्ध्वमापञ्चाशत्समाः स्त्रियः<br />
मासि मासि भगद्वारा प्रकृत्यैवार्तवं स्रवेत 1<br />
आर्तवस्रावदिवसादृतुः षोडश रात्रयः<br />
गर्भग्रहणयोग्यस्तु स एव समयः स्मृतः 2<br />
आर्तवस्रावदिवसादहिंसा ब्रह्मचारिणी<br />
शयीत दर्भशय्यायां पश्येदपि पतिं न च 3<br />
करे शरावे पर्णे वा हविष्यं त्र्! यहमाहरेत<br />
अश्रुपातं नखच्छेदमभ्यङ्गमनुलेपनम 4<br />
नेत्रयोरञ्जनं स्नानं दिवास्वापं प्रधावनम<br />
अत्युच्चशब्दश्रवणं हसनं बहुभाषणम<br />
आयासं भूमिखननं प्रवातञ्च विवर्जयेत 5<br />
अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा लोभाद्वा दैवतश्च वा 6<br />
सा चेत्कुर्यान्निषिद्धानि गर्भो दोषांस्तदाऽप्नुयात<br />
एतस्या रोदनाद्गर्भो भवेद्विकृतलोचनः 7<br />
नखच्छेदेन कुनखी कुष्ठी त्वभ्यङ्गतो भवेत<br />
अनुलेपात्तथा स्नानाद दुःखशीलोऽञ्जनाददृक 8<br />
स्वापशीलो दिवास्वापाच्चञ्चलः स्यात्प्रधावनात<br />
अत्युच्चशब्दश्रवणाद्बधिरः खलु जायते 9<br />
तालुदन्तौष्ठजिह्वासु श्यावो हसनतो भवेत<br />
प्रलापी भूरिकथनादुन्मत्तस्तु परिश्रमात<br />
स्खलते भूमिखननादुन्मत्तो वातसेवनात 10<br />
पूर्वं पश्येदृतुस्नाता यादृशं नरमङ्गना<br />
तादृशं जनयेत्पुत्रं ततः पश्येत्पतिं प्रियम 11<br />
प्रवहत्सलिले क्षिप्तं द्र व्यं गच्छत्यधो यथा<br />
तथा वहति रक्ते तु क्षिप्तं वीर्यमधो व्रजेत 12<br />
आयुः क्षयभयाद्भर्त्ता प्रथमे दिवसे स्त्रियम<br />
द्वितीयेऽपि दिने रत्यै त्यजेदृतुमतीं तथा 13<br />
तत्र यश्चाहितो गर्भो जायमानो न जीवति<br />
आहितो यस्तृतीयेऽह्नि स्वल्पायुर्विकलाङ्गकः 14<br />
अतश्चतुर्थी षष्ठी स्यादष्टमी दशमी तथा<br />
द्वादशी वापि या रात्रिस्तस्यां तां विधिना भजेत 15<br />
अत्रोत्तरोत्तरं विद्यादायुरारोग्यमेव च<br />
प्रजासौभाग्यमैश्वर्यं बलञ्चाभिगमात फलम 16<br />
मनोभवागारमुखेऽबलानां तिस्रो भवन्ति प्रमदाजनानाम<br />
समीरणा चन्द्र मसी च गौरी विशेषमासामुपवर्णयामि 17<br />
प्रधानभूता मदनातपत्रे समीरणा नाम विशेषनाडी<br />
तस्या मुखे यत् पतितं तु वीर्यं तन्निष्फलं स्यादिति चन्द्र मौलिः 18<br />
या चापरा चान्द्र मसी च नाडी कन्दर्पगेहे भवति प्रधाना<br />
सा सुन्दरी योषितमेव सूते साध्या भवेदल्परतोत्सवेषु 19<br />
गौरीति नाडी यदुपस्थगर्भे प्रधानभूता भवति स्वभावात<br />
पुत्रं प्रसूते बहुधाङ्गना सा कष्टोपभोग्या सुरतोपविष्टा 20<br />
युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु 21<br />
स्नातश्चन्दनलिप्ताङ्गः सुगन्धसुमनोर्चितः<br />
भुक्तवृष्यः सुवसनः सुवेशः समलङ्कृतः 22<br />
ताम्बूलवदनस्तस्यामनुरक्तोऽधिकस्मरः<br />
पुत्रार्थी पुरुषो नारीमुपेयाच्छयने शुभे 23<br />
अत्याशितोऽधृतिः क्षुद्वान् सव्यथाङ्गः पिपासितः<br />
बालो वृद्धोऽन्यवेगार्त्तस्त्यजेद्रोगी च मैथुनम 24<br />
पुरुषस्य गुणैर्युक्ता विहिता न्यूनभोजना<br />
नारी ऋतुमती पुंसा सङ्गच्छेत्तु सुतार्थिनी 25<br />
रजस्वला व्याधिमती विशेषाद्योनिरोगिणी<br />
वयोऽधिका च निष्कामा मलिना गर्भिणी तथा<br />
एतासां सङ्गमात्पुंसां वैगुण्यानि भवन्ति हि 26<br />
<br />
कामान्मिथुनसंयोगे शुद्धशोणितशुक्रजः<br />
गर्भः सञ्जायते नार्याः स जातो बाल उच्यते 27<br />
दम्पत्योः कुष्ठबाहुल्याद्दुष्टशोणितशुक्रयोः<br />
यदपत्यं तयोर्जातं ज्ञेयं तदपि कुष्ठितमिति 28<br />
ऋतौ स्त्रीपुंसयोर्योगे मकरध्वजवेगतः<br />
मेढ्रयोन्यभिसङ्घर्षाच्छरीरोष्मानिलाहतः 29<br />
पुंसः सर्वशरीरस्थं रेतो द्रा वयतेऽथ तत<br />
वायुर्मेहनमार्गेण पातयत्यङ्गनाभगे 30<br />
तत् संस्रुत्य व्यात्तमुखं याति गर्भाशयं प्रति<br />
तत्र शुक्रवदायातेनार्त्तवेन युतं भवेत 31<br />
शङ्खनाभ्याकृतिर्योनिस्त्र्! यावर्त्ता सा च कीर्तिता<br />
तस्यास्तृतीये त्वावर्त्ते गर्भशय्या प्रतिष्ठिता 32<br />
यथा रोहितमत्स्यस्य मुखं भवति रूपतः<br />
तत्संस्थानां तथा रूपां गर्भशय्यां विदुर्बुधाः 33<br />
शुक्रार्त्तवसमाश्लेषो यदैव खलु जायते<br />
जीवस्तदैव विशति युक्तः शुक्रार्त्तवान्तरः 34<br />
सूर्यांशोः सूर्यमणित उभयस्माद्युताद्यथा<br />
वह्निः सञ्जायते जीवस्तथा शुक्रार्तवाद्युतात 35<br />
आत्मानादिरनन्तश्चाव्यक्तो वक्तुं न शक्यते<br />
चिदानन्दैकरूपोऽयं मनसापि न गम्यते 36<br />
एवम्भूतोऽपि जगतो भाविनी बलवत्तया<br />
अविद्यास्वीकृते कर्मवशो गर्भे विशत्यसौ 37<br />
स एव वेत्ता रसनो द्र ष्टा घ्राता स्पृशत्यसौ<br />
श्रोता वक्ता च कर्त्ता च गन्ता रन्तोत्सृजत्यपि 38<br />
दिने व्यतीते नियतं संकुचत्यम्बुजं यथा<br />
ऋतौ व्यतीते नार्यास्तु योनिः संव्रियते तथा 39<br />
बीजेऽन्तर्वायुना भिन्ने द्वौ जीवौ कुक्षिमागतौ<br />
यमावित्यभिधीयेते धर्मेतरपुरःसरौ 40<br />
आधिक्ये रेतसः पुत्रः कन्या स्यादार्त्तवेऽधिके<br />
नपुंसकं तयोः साम्ये यथेच्छा पारमेश्वरी 41<br />
एवं तामभिसङ्गम्य पुनर्मासाद्भजेदसौ 41<br />
शुक्रशोणितयोर्योनेरस्रावोऽथ श्रमोद्भवः<br />
सक्थिसादः पिपासा च ग्लानिः स्फूर्त्तिर्भगे भवेत 42<br />
स्तनयोर्मुखकार्ष्ण्यं स्याद्रो मराज्युद्गमस्तथा<br />
अक्षिपक्ष्माणि चाप्यस्याः संमील्यन्ते विशेषतः 43<br />
छर्दयेत्पथ्यभुक्चापि गन्धादुद्विजते शुभात<br />
प्रसेकः सदनं चैव गर्भिण्या लिङ्गमुच्यते 44<br />
पुत्रगर्भयुतायास्तु नार्या मासि द्वितीयके<br />
गर्भो गर्भाशये लक्ष्यः पिण्डाकारोऽपरं शृणु 45<br />
दक्षिणाक्षिमहत्वं स्यात् प्राक्क्षीरं दक्षिणे स्तने<br />
दक्षिणोरुः सुपुष्टः स्यात्प्रसन्नमुखवर्णता 46<br />
पुन्नामधेयद्र व्येषु स्वप्नेष्वपि मनोरथः<br />
आम्रादिफलमाप्नोति स्वप्नेषु कमलादि च 47<br />
कन्या गर्भवती गर्भे पेशी मासि द्वितीयके<br />
पुत्रगर्भस्य लिङ्गानि विपरीतानि चेक्षते 48<br />
नपुंसकं यदा गर्भे भवेद् गर्भोऽबुदाकृतिः<br />
उन्नते भवतः पार्श्वे पुरस्तादुदरं महत 49<br />
आसेक्यश्च सुगन्धी च कुम्भीकश्चेष्यर्यकस्तथा<br />
अमी सशुक्रा बोद्धव्या अशुक्रः षण्ढसंज्ञकः 50<br />
पित्रोस्तु स्वल्पवीर्यत्वादासेक्यः पुरुषो भवेत<br />
स शुक्रं प्राश्य लभते ध्वजोन्नतिमसंशयम 51<br />
यः पूतियोनौ जायेत स हि सौगन्धिको भवेत<br />
स योनिशेफसोर्गन्धमाघ्राय लभते बलम 52<br />
स्वे गुदेऽब्रह्मचर्याद्यः स्त्रीषु पुंवत् प्रवर्त्तते<br />
स कुम्भीक इति ज्ञेयो गुदयोनिस्तु स स्मृतः 53<br />
दृष्ट्वा व्यवायमन्येषां व्यावाये यः प्रवर्त्तते<br />
ईर्ष्यकः स तु विज्ञेयो दृष्टियोनिस्तु स स्मृतः 54<br />
यो भार्यायामृतौ मोहादङ्गनेव प्रवर्त्तते<br />
तत्र स्त्रीचेष्टिताकारो जायते षण्ढसंज्ञकः 55<br />
ऋतौ ॠतौ पुरुषवत् प्रवर्त्तेताङ्गना यदि<br />
तत्र कन्या यदि भवेत् सा भवेन्नरचेष्टिता 56<br />
यदा नार्यावुपेयातां वृषस्यन्त्यौ कथञ्चन<br />
मुञ्चन्त्यौ शुक्रमन्योन्यमनस्थिस्तत्र जायते 57<br />
ऋतुस्नाता तु या नारी स्वप्ने मैथुनमाचरेत<br />
आर्त्तवं वायुरादाय कुक्षौ गर्भं करोति हि 58<br />
मासि मासिप्रवर्द्धेत स गर्भो गर्भलक्षणः<br />
कललं जायते तस्य वर्जितं पैतृकैर्गुणैः 59<br />
सर्पवृश्चिककूष्माण्डाकृतयो विकृताश्च ये<br />
गर्भास्ते योषितस्ताश्च ज्ञेयाः पापकृतो भृशम 60<br />
गर्भो वातप्रकोपेण दोहदे चापमानिते<br />
भवेत् कुब्जः कुणिः पङ्गुर्मूको मिन्मिन एव च 61<br />
आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशीभिः समन्वितौ<br />
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुत्रोऽपि तादृशः 62<br />
गर्भाशयगतं शुक्रमार्त्तवं जीवसंज्ञकः<br />
प्रकृतिः सविकारा च तत्सर्वं गर्भसंज्ञकम 63<br />
कालेन वर्द्धितो गर्भो यद्यङ्गोपाङ्गसंयुतः<br />
भवेत्तदा स मुनिभिः शरीरीति निगद्यते 64<br />
तस्य त्वङ्गान्युपाङ्गानि ज्ञात्वा सुश्रुतशास्त्रतः<br />
मस्तकादभिधीयन्ते शिष्याः शृणुत यत्नतः 65<br />
आद्यमङ्गं शिरः प्रोक्तं तदुपाङ्गानि कुन्तलाः<br />
तस्यान्तर्मस्तुलुङ्गं च ललाटं भ्रूयुगन्तथा 66<br />
नेत्रद्वयं तयोरन्तर्वर्त्तेते द्वे कनीनिके<br />
दृष्टिद्वयं कृष्णगोलौ श्वेतभागौ च वर्त्मनी 67<br />
पक्ष्माण्यपाङ्गौ शङ्खौ च कर्णौ तच्छष्कुलीद्वयम<br />
पालिद्वयं कपोलौ च नासिका च प्रकीर्त्तिता 68<br />
ओष्ठाधरौ च सृक्किण्यौ मुख तालु हनुद्वयम<br />
दन्ताश्च दन्तवेष्टश्च रसना चिबुकङ्गलः 69<br />
द्वितीयमङ्गं ग्रीवा तु यया मूर्द्धा विधार्यते<br />
तृतीयं बाहुयुगलं तदुपाङ्गान्यथ ब्रुवे 70<br />
तत्रोपरि मतौ स्कन्धौ प्रगण्डौ भवतस्त्वधः<br />
कफोणियुग्मं तदधं प्रकोष्ठयुगलन्तथा 71<br />
मणिबन्धौ तले हस्तौ तयोश्चाङ्गुलयो दश<br />
नखाश्च दश ते स्थाप्या दशच्छेद्याःप्रकीर्त्तिताः 72<br />
चतुर्थमङ्गं वक्षस्तु तदुपाङ्गान्यथ ब्रुवे<br />
स्तनौ पुंसस्तथा नार्या विशेष उभयोरयम 73<br />
यौवनागमने नार्याः पीवरौ भवतः स्तनौ<br />
गर्भवत्या प्रसूतायास्तावेव क्षीरपूरितौ 74<br />
हृदयं पुण्डरीकेण सदृशं स्यादधोमुखम<br />
जाग्रतस्तद्विकसति स्वपतस्तु निमीलति 75<br />
आशयस्तत्तु जीवस्य चेतनास्थानमुत्तमम<br />
अतस्तस्मिंस्तमोव्याप्ते प्राणिनः प्रस्वपन्ति हि 76<br />
कक्षयोर्वक्षसः सन्धी जत्रुणी समुदाहृते<br />
कक्षे उभे समाख्याते तयोः स्यातां च वङ्क्षणौ 77<br />
उदरं पञ्चमञ्चाङ्गं षष्ठं पार्श्वद्वयं मतम<br />
सपृष्ठवंशं पृष्ठं तु समस्तं सप्तमं स्मृतम 78<br />
उपाङ्गानि च कथ्यन्ते तानि जानीहि यत्नतः<br />
शोणिताज्जायते प्लीहा वामतो हृदयादधः 79<br />
रक्तवाहिशिराणां स मूलं ख्यातो महर्षिभिः<br />
हृदयाद्वामतोऽधश्च फुप्फुसो रक्तफेनजः 80<br />
अधो दक्षिणतश्चापि हृदयाद्यकृतः स्थितिः<br />
तत्तु रञ्जकपित्तस्य स्थानं शोणितजं मतम 81<br />
अधस्तु दक्षिणे भागे हृदयात् क्लोम तिष्ठति<br />
जलवाहिशिरामूलं तृष्णाऽच्छादनकृन्मतम 82<br />
मेदः शोणितयोः साराद्वृक्कयोर्युगलं भवेत<br />
तौ तु पुष्टिकरौ प्रोक्तौ जठरस्थस्य मेदसः 83<br />
अर्द्धव्यामेन हीनानि योषितोऽन्त्राणि निर्दिशेत<br />
उक्ता सार्द्धास्त्रयो व्यामापुंसामन्त्राणि सूरिभिः 84<br />
उन्दुकश्च कटी चापि त्रिकं वस्तिश्च वङ्क्षणौ<br />
कण्डराणां प्ररोहःस्यान्मेढ्रोऽध्वा वीर्यमूत्रयोः 85<br />
स एव गर्भस्याधानं कुर्याद्गर्भाशये स्त्रियाः<br />
शङ्खनाभ्याकृतिर्योनिस्त्र्! यावर्त्ता सा च कीर्त्तिता 86<br />
तस्यास्तृतीये त्वावर्त्ते गर्भशय्या प्रतिष्ठिता<br />
वृषणौ भवतः सारात्कफासृङ्मांसमेदसाम 87<br />
वीर्यवाहिशिराधारौ तौ मतौ पौरुषावहौ<br />
गुदस्य मानं सर्वस्य सार्द्धं स्याच्चतुरङ्गुलम 88<br />
तत्र स्युर्वलयस्तिस्रः शङ्खावर्तनिभास्तु ताः<br />
प्रवाहिणी भवेत्पूर्वा सार्द्धाङ्गुलमिता मता 89<br />
उत्सर्जनी तु तदधः सा सार्द्धाङ्गुलसम्मिता<br />
तस्याधः संवरणी स्यादेकाङ्गुलसमा मता 90<br />
अर्द्धाङ्गुलप्रमाणं तु बुधैर्गुदमुखं मतम<br />
मलोत्सर्गस्य मार्गोऽय पायुर्देहे विनिर्मितः 91<br />
पुंसः प्रोथौ स्मृतौ यौ तु तौ नितम्बौ च योषितः<br />
तयोः कुकुन्दरे स्यातां सक्थिनोत्वङ्गमष्टमम 92<br />
तदुपाङ्गानि च ब्रूमो जानुनी पिण्डकाद्वयम<br />
जंघे द्वे घुटिके पार्ष्णी तले च प्रपदे तथा 93<br />
पादावङ्गुलयस्तत्र दश तासां नखा दश<br />
अथ दोषाः प्रवक्ष्यन्ते धातवस्तदनन्तरम 94<br />
आहारादेर्गतिस्तस्य परिणामश्च वक्ष्यते<br />
आर्त्तवं चाथ धातूनां मलास्तदुपधातवः 95<br />
आशयाश्च कलाश्चापि मर्माण्यथ च सन्धयः<br />
शिराश्च स्नायवश्चापि धमन्यः कण्डरास्तथा 96<br />
रन्ध्राणि भूरि स्रोतांसि जालैः कूर्च्चाश्च रज्जवः<br />
सेवन्यश्चाथ सङ्घाताः सीमान्ताश्च तथा त्वचः 97<br />
लोमानि लोमकूपाश्च देह एतन्मयो मतः<br />
वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः 98<br />
विकृताविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्द्धयन्ति च<br />
ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्योरधो मध्योर्ध्वसंश्रयाः<br />
वयोऽहोरात्रिभुक्तानामन्तमध्यादिगाः क्रमात 99<br />
धातवश्च मलाश्चापि दुष्यन्त्येभिर्यतस्ततः<br />
वातपित्तकफा एते त्रयो दोषा इति स्मृताः 100<br />
ते धातवोऽपि विद्वद्भिर्गदिता देहधारणात 101<br />
दोषधातुमलादीनां नेता शीघ्रः समीरणः<br />
रजोगुणमयः सूक्ष्मो रूक्षः शीतो लघुश्चलः 102<br />
उत्साहोच्छ्वासनिःश्वासचेष्टावेगप्रवर्त्तनैः 103<br />
सम्यग् गत्या च धातूनामन्द्रि याणाञ्च पाटवैः<br />
अनुगृह्णात्यविकृतो हृदयेन्द्रि यचित्तधृक 104<br />
रजोगुणमयः सूक्ष्मः शीतो रूक्षो लघुश्चलः<br />
खरो मृदुर्योगवाही संयोगादुभयार्थकृत 105<br />
दाहकृत् तेजसा युक्तः शीतकृत्सोमसंश्रयात<br />
विभागकरणाद्वायुः प्रधानं दोषसंग्रहे 106<br />
पक्वाशयकटीसक्थिश्रोत्रास्थिस्पर्शनेन्द्रि यम<br />
स्थानं वातस्य तत्रापि पक्वाधानं विशेषतः 107<br />
उदानस्तदनुप्राणः समानोऽपान एव च<br />
व्यानश्चैतानि नामानि वायोः स्थानप्रभेदतः 108<br />
कण्ठे हृदि तथाऽधस्तात्कोष्ठवह्नेर्मलाशये<br />
सकलेऽपि शरीरेऽसौ क्रमेण पवनो वसेत 109<br />
उदानो नाम यस्तूर्ध्वमुपैति पवनोत्तमः<br />
तेन भाषितगीतादिप्रवृत्तिः कुपितस्तु सः 110<br />
ऊर्ध्वजत्रुगतान् रोगान्विदधाति विशेषतः<br />
यो वायुः प्राणनामाऽसौ मुखं गच्छति देहधृक 111<br />
सोऽन्न प्रवेशयत्यन्तः प्राणांश्चाप्यवलम्बते<br />
प्रायशः कुरुते दुष्टो हिक्काश्वासादिकान् गदान 112<br />
आमपक्वाशयचरः समानो वह्निसङ्गतः<br />
सोऽन्न पचति तज्जांश्च विशेषान्विविनक्ति हि 113<br />
स दुष्टो वह्निमान्द्यातिसारगुल्मान् करोति हि<br />
पक्वाशयालयोऽपानः काले कर्षति चाप्ययम 114<br />
समीरणः शकृन्मूत्रशुक्रगर्भार्त्तवान्यधः<br />
क्रुद्धस्तु कुरुते रोगान् घोरान्वस्तिगुदाश्रयान 115<br />
शुक्रदोषप्रमेहांश्च व्यानापानप्रकोपजान<br />
कृत्स्नदेहचरो व्यानो रससंवाहनोद्यतः 116<br />
स्वेदाऽसृक्स्रावणश्चापि पञ्चधा चेष्टयत्यपि<br />
प्रस्पन्दनञ्चोद्वहनं पूरणञ्च विरेचनम 117<br />
धारणञ्चेति पञ्चैताश्चेष्टाः प्रोक्ताः नभस्वतः<br />
गत्यपक्षेपणोत्क्षेपनिमेषोन्मेषणादिकाः<br />
प्रायः सर्वाः क्रियास्तस्मिन प्रतिबद्धाः शरीरिणाम 118<br />
क्रुद्धः सः कुरुते रोगान् प्रायशः सर्वदेहगान<br />
युगपत कुपिता एते देहं भिन्द्युरसंशयम 119<br />
पित्तमुष्णं द्रवं पीतं नीलं सत्त्वगुणोत्तरम<br />
सरं कटु लघु स्निग्धं तीक्ष्णमम्लन्तु पाकतः 120<br />
पाचकं रञ्जकञ्चापि साधकालोचके तथा<br />
भ्राजकञ्चेति पित्तस्य नामानि स्थानभेदतः 121<br />
अग्न्याशये यकृत्प्लीह्नोर्हृदये लोचनद्वये<br />
त्वचि सर्वशरीरेषु पित्तं निवसति क्रमात 122<br />
पाचकं पचते भुक्तं शेषाग्निबलवर्द्धनम<br />
रसमूत्रपुरीषाणि विरेचयति नित्यशः 123<br />
इत्यलमप्रकृतिचिन्तनेन पुनः प्रकृतमनुसरति<br />
रञ्जकं नाम यत्पित्तं तद्र सं शोणितं नयेत<br />
यत्तु साधकसंज्ञं तत्कुर्याद्बुद्धिं धृतिं स्मृतम 124<br />
यदालोचकसंज्ञं तद्रू पग्रहणकारणम<br />
भ्राजकं कान्तिकारि स्याल्लेपाभ्यङ्गादिपाचकम 125<br />
श्लेष्माश्वेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छिलः शीतलस्तथा<br />
तमोगुणाधिकः स्वादुर्विदग्धो लवणो भवेत 126<br />
कफस्यैतानि नामानि क्लेदनश्चावलम्बनः<br />
रसनः स्नेहनश्चापि श्लेषणः स्थानभेदतः 127<br />
आमाशयेऽथ हृदये कण्ठे शिरसि सन्धिषु<br />
स्थानेष्वेषु मनुष्याणां श्लेष्मा तिष्ठत्यनुक्रमात 128<br />
क्लेदनः क्लेदयत्यन्नमात्मशक्त्याऽपराण्यपि<br />
अनुगृह्णाति च श्लेष्मस्थानान्युदककर्मणा 129<br />
रसयुक्तात्मवीर्येण हृदयस्यावलम्बनम<br />
त्रिकसन्धारणं चापि विदधात्यवलम्बनः 130<br />
उभावपि ततः सौम्यौ तिष्ठतश्चान्तिके यतः<br />
यतो रसान्विजानीतो रसनारसनौ समौ 131<br />
स्नेहनः स्नेहदानेन समस्तेन्द्रि यतर्पणः<br />
श्लेषणः सर्वसन्धीनां संश्लेषं विदधात्यसौ 132<br />
एते सप्त स्वयं स्थित्वा देहं दधति यन्नृणाम<br />
रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राणि धातवः 133<br />
प्रीणनं जीवनं लेपः स्नेहो धारणपूरणे<br />
गर्भोत्पादश्च कर्माणि धातूनां कथितानि हि 134<br />
गत्यर्थो रस धातुर्यस्ततोऽभवदयं रसः<br />
सद्र वं सकलं देहे रसतीति रसः स्मृतः 134<br />
सम्यक्पक्वस्य भुक्तस्य सारो निगदितो रसः<br />
स तु द्र वः सितः शीतः स्वादुः स्निग्धश्चलो भवेत 135<br />
सर्वदेहचरस्यापि रसस्य हृदयं स्थलम<br />
समानमरुता पूर्वं यदयं हृदये धृतः 136<br />
आरुह्य धमनीर्गत्वा धातून् सर्वानयं रसः<br />
पुष्णाति तदनु स्वीयैर्व्याप्नोति च तनुं गुणैः 137<br />
मन्दवह्निविदग्धस्तु कटुर्वाऽम्लो भवेद्र सः<br />
स कुर्याद्बहुलान् रोगान् विषकृत्यं करोत्यपि 138<br />
यदा रसो यकृद्याति तत्र रञ्जकपितत्तः<br />
रागंपाकं च सम्प्राप्य स भवेद्र क्तसंज्ञकः 139<br />
रक्तं सर्वशरीरस्थं जीवस्याधारमुत्तमम<br />
स्निग्धं गुरु चलं स्वादु विदग्धं पित्तवद्भवेत 140<br />
यकृत् प्लीहा च रक्तस्य मुख्यस्थानन्तयोः स्थितम<br />
अन्यत्र संस्थितवतां रक्तानां पोषकं भवेत 141<br />
शोणितं स्वाग्निना पक्वं वायुना च घनीकृतम<br />
तदेव मांसं जानीयात्तस्य भेदानपि ब्रुवे 142<br />
यथाऽथमूष्मणा युक्तो वायुः स्रोतांसिदारयेत<br />
अनुप्रविश्य पिशितं पेशीर्विभजते तथा 143<br />
मांसपेश्यः समाख्याता नृणां पञ्च शतानि हि 144<br />
तासां शतानि चत्वारि शाखासु कथितान्यथ<br />
कोष्ठे षडुत्तरा षष्टिः कथिता मुनिपुङ्गवैः<br />
ग्रीवाया ऊर्ध्वगास्तास्तु चतुस्त्रिंशत् प्रकीर्त्तिताः 145<br />
स्त्रीणामपि भवन्त्येताः किन्तु विंशतिरुत्तराः<br />
गर्भाशये गर्भमार्गे योनौ च स्तनयोरपि 146<br />
पुंसां पेश्यः पुरस्ताद्याः प्रोक्ता मेहनमुष्कजाः<br />
स्त्रीणामावृत्य तिष्ठन्ति फलमन्तर्गतं हि ताः 147<br />
शिरास्नाय्वस्थिपर्वाणि सन्धयश्च शरीरिणाम<br />
पेशीभिःसंवृतान्येव बलवन्ति भवन्ति हि 148<br />
यन्मांसं स्वाग्निना पक्वं तन्मेद इति कथ्यते<br />
तदतीव गुरु स्निग्धं बलकार्यतिबृंहणम 149<br />
मेदो हि सर्वभूतानामुदरेष्वस्थि संस्थितम<br />
अत एवोदरे वृद्धिः प्रायो मेदस्विनो भवेत 150<br />
मेदो यत् स्वाग्निना पक्वं वायुना चातिशोषितम 151<br />
तदस्थिसंज्ञां लभते स सारः सर्वविग्रहे <br />
अभ्यन्तरगतैः सारैर्यथा तिष्ठन्ति भूरुहाः 152<br />
अस्थिसारैस्तथा देहा ध्रियन्ते देहिनो ध्रुवम<br />
तस्माच्चिरविनष्टेषु त्वङ्मांसेषु शरीरिणाम<br />
अस्थीनि न विनश्यन्ति सारा एतानि सर्वथा 153<br />
शल्यतन्त्रेऽस्थिखण्डानांशतत्रयमुदाहृतम 154<br />
तान्येवात्र निगद्यन्ते तेषां स्थानानि यानि च<br />
सविंशतिशतं त्वस्थ्नां शाखासु कथितं बुधैः 155<br />
पार्श्वयोः श्रोणिफलके वक्षःपृष्ठोदरेषु च<br />
जानीयाद्भिषगेतेषु शतं सप्तदशोत्तरम<br />
ग्रीवायामूर्ध्वगां विद्यादस्थ्नां षष्टिंत्रिसंयुताम 156<br />
एतान्यस्थीनि पञ्चविधानि भवन्ति तानि यथा<br />
तरुणानि कपालानि रुचकानि भवन्ति हि<br />
वलयानीति तानि स्युर्नलकानि च कानि चित 157<br />
अक्षिकोश श्रुतिघ्राणग्रीवासु तरुणानि च 158<br />
शिरः शङ्खकपोलेषु ताल्वं सप्रोथजानुषु<br />
कपालानि भवन्त्येषु दन्तेषु रुचकानि च 159<br />
पार्ष्ण्योः पार्श्वयुगे पृष्ठे वक्षोजठरपायुषु<br />
पादयोर्वलयानि स्युर्नलकानि ब्रुवेऽधुना 160<br />
हस्ते पादाङ्गुलितले कूर्च्चे च मणिबन्धके<br />
बाहूजङ्घाद्वये चापि जानीयान्नलकानि तु 161<br />
मांसान्यन्त्राणि बद्धानि शिराभिः स्नायुभिस्तथा<br />
अस्थीन्यालम्बनं कृत्वा न दीर्यन्ते पतन्ति च 162<br />
अस्थि यत् स्वाग्निना पक्वं तस्य सारो भवेद्घनः<br />
यः स्वेदवत् पृथग्भूतः स मज्जेत्यभिधीयते 163<br />
स्थूलास्थिषु विशेषेण मज्जा त्वभ्यन्तरे स्थितः 164<br />
रसाद्र क्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते<br />
मेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्ज्ञः शुक्रस्य सम्भवः 165<br />
यात्यामाशयमाहारः पूर्वं प्राणानिलेरितः <br />
माधुर्यं फेनभावं च षड्रसोऽपि लभेत सः 166<br />
षष्ठी पित्तधरा नाम या कला परिकीर्त्तिता<br />
आमपक्वाशयान्तःस्था ग्रहणी साऽभिधीयते 167<br />
तत्रग्रहण्यामामाशयपक्वाशयमध्यवर्त्तिपाचकाख्यपित्ताधिष्ठानेनाग्निनाऽहारः <br />
पच्यते स कटुश्च भवतीत्याहग्रहण्यां पच्यते कोष्ठे वह्निना जायते कटुः इति 168<br />
भौमाप्याग्नेयवायव्याः पञ्चोष्माणः सनाभसाः<br />
पञ्चाहारगुणान् स्वान् स्वान्पार्थिवादीन् पचन्त्यनु 169<br />
पञ्च भूतात्मके देहे आहारः पाञ्चभौतिकः<br />
विपक्वः पञ्चधा सम्यग्गुणान्स्वानभिवर्द्धयेत इति 170<br />
मिष्टः पटुश्च मधुरमम्लोऽम्ल पच्यते रसः<br />
कटुतिक्तकषायाणां विपाको जायते कटुः इति 171<br />
आहारस्य रसः सारः सार हीनो मलद्र वः<br />
शिराभिस्तज्जलं नीतं वस्तिं मूत्रत्वमाप्नुयात 172<br />
शेषं किट्टञ्च यत्तस्य तत्पुरीषं निगद्यते<br />
समानवायुना नीतन्तत्तिष्ठति मलाशये 173<br />
मूत्रञ्चोपस्थमार्गेण पुरीषं गुदमार्गतः<br />
अपानवायुना क्षिप्तं बहिर्याति शररीतः 174<br />
रसस्तु हृदयं याति समानमरुतेरितः<br />
स तु व्यानेन विक्षिप्तः सर्वान धातून् विवर्द्धयेत 175<br />
केदारेषु यथा कुल्याः पुष्णन्ति विविधौषधीः<br />
तथा कलेवरे धातून् सर्वान् वर्द्धयते रसः 176<br />
स्थूलः सूक्ष्मस्तन्मलश्च तत्र तत्र त्रिधा रसः<br />
स्वं स्थूलॐऽश परं सूक्ष्मस्तन्मलो याति तन्मलम 177<br />
धातौ रसादौ मज्जान्ते प्रत्येकं क्रमतो रसः<br />
अहोरात्रात्स्वयं पञ्च सार्द्धदण्डं च तिष्ठति 178<br />
स्वाग्निभिः पच्यमानेषु मज्जान्तेषु रसादिषु<br />
षट्सु धातुषु जायन्ते मलानि मुनयो जगुः 179<br />
यथा सहस्रधा ध्माते न मलं किल काञ्चने<br />
तथा रसे मुहुः पक्वे न मलं शुक्रताङ्गते 180<br />
ओजः सर्वशरीरस्थं स्निग्धं शीतं स्थिरं सितम<br />
सोमात्मकं शरीरस्य बलपुष्टिकरं मतम 181<br />
गुरु शीतं मृदु स्निग्धं सान्द्रं स्वादु स्थिरं तथा<br />
प्रसन्नं पिच्छिलं सूक्ष्ममोजो दशगुणं स्मृतम 182<br />
अष्टविन्दुप्रमाणं तदीषद्र क्तं सपीतकम<br />
अग्नीषोमात्मकत्वेन द्विरूपं वर्णितन्तु तत 183<br />
ओजश्च तेजो धातूनां शुक्रान्तानां परं स्मृतम<br />
हृदयस्थमपि व्यापि देहस्थितिनिबन्धनम 184<br />
यस्य प्रवृद्धौ देहस्य तुष्टिपुष्टिबलोदयाः<br />
यन्नाशे नियतो नाशो यस्मिंस्तिष्ठति जीवनम 185<br />
निष्पद्यन्ते यतो भावा विविधा देहसंश्रयाः<br />
उत्साहप्रतिभाधैर्यलावण्यसुकुमारताः 186<br />
ततः स्थूलो भागो रसो मासेन पुंसां शुक्रं स्त्रीणान्त्वार्त्तवं शुक्रञ्च भवति उक्तञ्च सुश्रुते<br />
एवं मासेन रसः शुक्रो भवति स्त्रीणामार्त्तवञ्चेति चकारात स्त्रीणामपि शुक्रं भवति<br />
अत एवोक्तं सुश्रुते योषितोऽपि स्रवत्येव शुक्रं पुंसः समागमे<br />
तत्र गर्भस्य किञ्चित्तुन करोतीति न चिन्त्यते 187<br />
स्त्रीणां गर्भोपयोगि स्यादार्त्तवं सर्वसम्मतम<br />
तासामपि बलं वर्णं शुक्रं पुष्टिं करोति हि 188<br />
रसाद्र क्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते<br />
मेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्ज्ञः शुक्रस्य सम्भवः 189<br />
रसः शरीरे शब्दार्च्चिर्जलसन्तानवत् त्रिधा<br />
सञ्चरत्यनुरूपोऽय नित्यमेव हि देहिनाम 190<br />
वाजीकरिण्य ओषध्यः स्वप्रभावगुणोच्छ्रयात<br />
विरेचयन्ति ताः शुक्रं विरेकिद्र व्यवन्नृणाम 191<br />
दुग्धं माषाश्च भल्लात फलमज्जामलानि च<br />
जनकानि निगद्यन्ते रेचनानि च रेतसः 192<br />
बालानां शुक्रमस्त्येव किन्तु सौक्ष्म्यान्न दृश्यते<br />
पुष्पाणां मुकुले गन्धो यथा सन्नपि नाप्यते 193<br />
तेषां तदेव तारुण्ये पुष्टत्वाद्व्यक्तिमेति हि<br />
कुसुमानां प्रफुल्लानां गन्धः प्रादुर्भवेद्यथा 194<br />
रोमराज्यादयः पुंसां नारीणामपि यौवने<br />
जायतेऽत्र च यो भेदो ज्ञेयो व्याख्यानतः स च 195<br />
वार्द्धके वर्द्धमानेन वायुना रसशोषणात<br />
न तथा धातुवृद्धिः स्यात्ततस्तत्रानिलं जयेत 196<br />
शुक्रं सौम्यं सितं स्निग्धं बलपुष्टिकरं स्मृतम<br />
गर्भबीजं वपुःसारो जीवस्याश्रय उत्तमः 197<br />
जीवो वसति सर्वस्मिन्देहे तत्र विशेषतः<br />
वीर्ये रक्ते मले यस्मिन क्षीणे याति क्षयं क्षणात 198<br />
स्फटिकाभं द्रवं स्निग्धं मधुरं मधुगन्धि च<br />
शुक्रमिच्छन्ति केचित्तु तैलक्षौद्र निभञ्च तत 199<br />
यथा पयसि सर्पिस्तु गूढश्चेक्षौ रसो यथा<br />
एवं हि सकले काये शुक्रं तिष्ठति देहिनाम 200<br />
द्व्यङ्गुले दक्षिणे पार्श्वे वस्तिद्वारस्य चाप्यधः<br />
मूत्रस्रोतःपथाच्छुक्रं पुरुषस्य प्रवर्त्तते 201<br />
कृत्स्नदेहस्थितं शुक्रं प्रसन्नमनसस्तथा<br />
स्त्रीषु व्यायच्छतश्चापि हर्षात्तत् सम्प्रवर्त्तते 202<br />
शुक्रं कामेन कामिन्या दर्शनात् स्पर्शनादपि<br />
शब्दसंश्रवणाद्ध्य्नाआ!त् संयोगाच्च प्रवर्त्तते 203<br />
रसादेव रजः स्त्रीणां मासि मासि त्रयहं स्रवेत<br />
तद्वर्षाद् द्वादशादूर्ध्वं याति पञ्चाशतः क्षयम 204<br />
मासेनोपचितं काले धमनीभ्यस्तदार्त्तवम्<br />
ईषद्विवर्णं कृष्णञ्च वायुर्योनिमुखं नयेत् 205<br />
शशासृक्प्रतिमं यच्च यद्वा लाक्षारसोपमम<br />
तदार्त्तवं प्रशंसन्ति यद्वासो न विरञ्जयेत 206<br />
अतिरिक्ता गुणा रक्ते बह्नेर्मांसे तु पार्थिवाः<br />
मेदस्यपां भुवश्चास्थ्नि पृथिव्यनिलतेजसाम 207<br />
मज्ज्ञि शुक्रे च सोमस्य मूत्रे च शिखिनोगुणाः<br />
भुवस्तथाऽत्तवे त्वग्ने रसे क्षीरे तथाऽम्भसः 208<br />
कफः पित्तं मलः खेषु प्रस्वेदो नखलोम च<br />
नेत्रविट्त्वक्षु च स्नेहो धातूनां क्रमशो मलाः 209<br />
वनितानां प्रसूतानां धमनीभ्यां स्तनौ गतात<br />
रसादेव हि जायेत स्तन्यं स्तनयुगाशयम 210<br />
शुद्धमांसस्य यः स्नेहः सा वसा परिकीर्त्तिता<br />
मेदसस्ताप्यमानस्य स्नेहो वा कथिता वसा 211<br />
स्तन्यं रजो वसा स्वेदो दन्ताः केशास्तथैव च<br />
ओजश्च सप्तधातूनां क्रमात् सप्तोपधातवः 212<br />
उरोरक्ताशयस्तस्मादधः श्लेष्माशयः स्मृतः<br />
आमाशयस्तु तदधस्तल्लिङ्गं चरकोऽवदत 213<br />
आमाशयादधः पक्वाशयादूर्ध्वन्तु या कला<br />
ग्रहणी नामिका सैव कथितः पाचकाशयः 214<br />
ऊर्ध्वमग्न्याशयो नाभेर्मध्यभागे व्यवस्थितः<br />
तस्योपरि तिलं ज्ञेयं तदधः पवनाशयः 215<br />
पक्वाशयस्तुतदधः स एव तु मलाशयः<br />
तदधः कथितो वस्तिः स हि मूत्राशयो मतः 216<br />
कफाऽमपित्तवातानामाशया मलमूत्रयोः<br />
पुरुषेभ्योऽधिकाश्चान्ये नारीणामाशयास्त्रयः 217<br />
धरा गर्भाशयः प्रोक्तः पित्तपक्वाशयान्तरे<br />
स्तनौ प्रवृद्धौ तावेव बुधैः स्तन्याशयौ मतौ 218<br />
स्नायुभिश्च प्रतिच्छन्नान् सन्ततांश्च जरायुणा<br />
श्लेष्मणा वेष्टितांश्चापि कलाभागांस्तु तान्विदुः 219<br />
धात्वाशयान्तरे धातोर्यः क्लेदस्त्वधितिष्ठति<br />
देहोष्मणाऽभिपक्वश्च सा कलेत्यभिधीयते 220<br />
आद्या मांसधरा प्रोक्ता द्वितीया रक्तधारिणी<br />
मेदोधरा तृतीया तु चतुर्थी श्लेष्मधारिणी 221<br />
पञ्चमी तु मलं धत्ते षष्ठी पित्तधरा मता<br />
रेतोधरा सप्तमी स्यादिति सप्त कलाः स्मृताः 222<br />
सन्निपातः शिरास्नायुसन्धिमांसास्थिसम्भवः<br />
मर्माणि तेषु तिष्ठन्ति प्राणाः खलु विशेषतः 223<br />
सप्तोत्तरशतं सन्ति देहे मर्माणि देहिनाम<br />
तान्येकादश मांसे स्युरष्टावस्थिषु सन्ति हि 224<br />
सन्धीनां विंशतिस्तानि स्नायूनां सप्तविंशतिः<br />
चत्वारिंशतत्तथैकञ्च शिरामर्माणि तत्र तु 225<br />
द्वाविंशतिः सक्थियुगे तावत्येव भुजद्वये<br />
द्वादशोरसि कुक्षौ च पृष्ठदेशे चतुर्दश 226<br />
ग्रीवायामूर्ध्वभागे तु सप्तत्रिंशन्मतानि हि<br />
मर्माणि तानि सन्तीह पञ्चधा च भवन्ति हि 227<br />
सद्यः प्राणहराणि स्युर्मर्माण्येकोनविंशतिः<br />
मर्मदेशास्त्रयस्त्रिंशत् स्युः कालान्तरमारकाः 228<br />
चत्वारिंशच्च चत्वारि वैकल्यं जनयन्ति हि<br />
मर्माष्टकं रुजाकारि विशल्यघ्नं त्रिकं मतम 229<br />
शृङ्गाटकान्यधिपतिः शङ्खौ कण्ठशिरा गुदम<br />
हृदयं वस्तिनाभी च सद्यो घ्नन्ति हतानि चेत 230<br />
वक्षोमर्माणि सीमन्ततलक्षिप्रेन्द्र वस्तयः<br />
वृहत्यौ पार्श्वयोः सन्धी कटीकतरुणे च ये<br />
नितम्बाविति चैतानि कालान्तरहराणि तु 231<br />
लोहिताक्षाणिजानूर्वी कूर्चा विटपकूर्पराः<br />
कुकुन्दरे कक्षधरे विधुरे सकृकाटिके 232<br />
अंसांसफलकापाङ्गा नीले मन्ये फणे तथा<br />
वैकल्यकरणान्याहुरावर्त्तौ द्वौ तथैव च 233<br />
गुल्फौ द्वौ मणिबन्धौ द्वौ तथा कूर्चशिरांसि च<br />
रुजाकराणि जानीयादष्टावेतानि बुद्धिमान 234<br />
उत्क्षेपौ स्थपनी चैव विशल्यघ्नं त्रिकम्मतम 235<br />
सप्तरात्रान्तरे हन्युः सद्यः प्राणहराणि हि<br />
कालान्तरप्राणहरं पक्षे मासे च मारकम 236<br />
सद्यः प्राणहरञ्चान्ते विद्धं कालेन मारयेत<br />
कालान्तरप्राणहरमन्ते विद्धन्तु दुःखदम 237<br />
मर्माण्यधिष्ठाय हि ये विकारा मूर्च्छन्ति काये विविधा नराणाम<br />
प्रायेण ते कृच्छ्रतमा भवन्ति वैद्येन यत्नैरपि साध्यमानाः 238<br />
अथ सन्धयः ते द्विविधाश्चेष्टावन्तः स्थिराश्च<br />
शाखासु हन्वोः कट्याञ्च चेष्टावन्तो भवन्ति हि<br />
शेषास्तु सन्धयः सर्वे स्थिरास्तज्ज्ञैरुदाहृताः 239<br />
कथिता देहिनां देहे सन्धयो द्वे शते दश<br />
शाखासु तेऽष्टषष्टिश्च कोष्ठे त्वेकोनषष्टिका 240<br />
ग्रीवाया ऊर्ध्वदेशे तु त्र्! यशीतिस्ते प्रकीर्त्तिताः<br />
प्रथमं परिगण्यन्ते तेषु शाखागता इह 241<br />
कोरोदूखलसामुद्गाः प्रतरस्तूणसेवनी<br />
काकतुण्डं मण्डलञ्च शङ्खावर्त्तोऽष्टसन्धयः 242<br />
अस्थ्नां तु सन्धयो ह्येते केवलाः समुदाहृताः<br />
पेशीस्नायु शिराणान्तु सन्धिसंख्या न विद्यते 243<br />
सन्धिबन्धनकारिण्यो दोषधातुवहाः शिराः<br />
नाभ्यां सर्वा निबद्धास्ताः प्रतन्वन्ति समन्ततः 244<br />
शरीरं सकलञ्चैतच्छिराभिः पोष्यते सदा<br />
प्रणालीभिरिवारामाः कुल्याभिः क्षेत्रधान्यवत 245<br />
प्रसारणाकुञ्चनादिक्रियाभिः सततं तनौ<br />
शिरा एवोपकुर्वन्ति ताः स्युः सप्तशतानि तु 246<br />
यथा द्रुमदले साक्षाद् दृश्यन्ते प्रतताः शिराः<br />
तथैव दैहिनो देहे वर्त्तन्ते सकले शिराः 247<br />
नाभिस्थाः प्राणिनां प्राणाः प्राणान्नाभिरुपाश्रिता<br />
शिराभिरावृता नाभिश्चक्रनाभिरिवारकैः 248<br />
क्रियाणामप्रतीघातममोहं बुद्धिकर्मणाम<br />
करोत्यन्यान् गुणांश्चापि स्वाः शिराः पवनश्चरन 249<br />
यदा तु कुपितो वायुः स्वाः शिराः प्रतिपद्यते<br />
तदाऽस्य विविधा रोगा जायन्ते वातसम्भवाः 250<br />
भ्राजिष्णुतामन्नरुचिमग्निदीप्तिमरोगताम्<br />
करोत्यन्यान् गुणांश्चापि पित्तमात्मशिराश्चरद 251<br />
यदा तु कुपितं पित्तं सेवते स्ववहाः शिराः<br />
तदाऽस्यविविधा रोगा जायन्ते पित्तसम्भवाः 252<br />
स्नेहमङ्गेषु सन्धीनां स्थैर्यं बलमरोगाताम<br />
करोत्यन्यान गुणांश्चापि वलासःस्वाःशिराश्चरन 253<br />
यदा तु कुपितः श्लेष्मा स्वाः शिराः प्रतिपद्यते<br />
तदाऽस्य विविधा रोगा जायन्ते श्लेष्मसम्भवाः 254<br />
धातूनां पूरणं वर्णस्पर्शज्ञानमसंशयम<br />
स्वशिरासु चरद्र क्तं कुर्याच्चान्यान गुणानपि 255<br />
यदा तु कुपितं रक्तं सेवते स्ववहाः शिराः<br />
तदाऽस्य विविधा रोगा जायन्ते रक्तसम्भवाः 256<br />
तत्रारुणा वातवहाः पूर्यन्ते वायुना शिराः<br />
पित्तादुष्णाश्च नीलाश्च शीता गौर्यः स्थिराः कफात्<br />
असृग्धरास्तु ता रक्ताः स्युश्च नात्युष्णशीतलाः 257<br />
मेदसः स्नेहमादाय शिरा स्नायुत्वमाप्नुयात<br />
शिराणां हि मृदुः पाकः स्नायूनान्तु ततः खरः 258<br />
स्नायवो बन्धनानिस्युर्देहमांसास्थिमेदसाम<br />
सन्धीनामपि यत्तास्तु शिराभ्यः सुदृढाः स्मृताः 259<br />
नौर्यथा फलकास्तीर्णा बन्धनैर्बहुभिर्युता<br />
नियुक्ताऽगाधसलिले भवेद्भारसहा भृशम 260<br />
एवमेव शरीरेस्मिन्यावन्तः सन्धयः स्मृताः<br />
स्नायुभिर्बहुभिर्बद्धास्तेन भारसहा नराः 261<br />
शतानि नव जायन्ते शरीरे स्नायवो नृणाम<br />
तासां विवरणं ब्रूमः शिष्याः शृणुत यत्नतः 262<br />
शाखासु षट्शतानि स्युः कोष्ठे त्रिंशच्छतद्वयम<br />
ग्रीवाया ऊर्ध्वदेशे तु स्नायूनां सप्ततिः समृता 263<br />
धमन्यो नाभितो जाताश्चतुर्विंशतिसंख्यया<br />
दशोर्ध्वगा दशाधोगाः शेषास्तिर्यग्गताः स्मृता 264<br />
यथा स्वभावतः खानि मृणालेषु विसेषु च<br />
धमनीनां तथा खानि रसो यैरभितश्चरेत 265<br />
पञ्चाभिभूतास्त्वथ पञ्चकृत्वः पञ्चेन्द्रि यं पञ्चसु भाबयन्ति<br />
पञ्चेन्द्रियं पञ्चसु भावयित्वा पञ्चत्वमायान्ति विनाशकाले 266<br />
महत्यः स्नायवः प्रोक्ताः कण्डरास्तास्तु षोडश<br />
प्रसारणाकुञ्चनयोर्दृष्टं तासां प्रयोजनम 267<br />
चतस्रो हस्तयोस्तासां तावत्यः पादयोः स्मृताः<br />
ग्रीवायामपि तावत्यस्तावत्यः पृष्ठसङ्गताः 268<br />
नेत्रश्रवणनासानां द्वे द्वे रन्ध्रे प्रकीर्त्तिते<br />
मुखमेहनपायूनामेकैकं रन्ध्रमुच्यते 269<br />
दशमं मस्तके प्रोक्तं रन्ध्राणीति नृणां विदुः<br />
स्त्रीणामन्यानि च त्रीणि स्तनयोर्गर्भवर्त्मनि 270<br />
मनः प्राणान्नपानीयदोषधातूपधातवः<br />
धातूनां च मला मूत्रं मलमित्यादयस्तनौ 271<br />
सञ्चरन्ति हि यैर्मागैस्तानि स्रोतांसि सञ्जगुः<br />
बहूनि तानि संख्याय शक्यन्ते नैव भाषितुम 272<br />
जालानि तु शिरास्नायुमांसास्थ्नामुद्भवन्ति हि<br />
तानि चत्वारि चत्वारि सर्वाण्येव च षोडश 273<br />
कूर्चा स्युर्हस्तयोर्द्वौ तु तावन्तौ पादयोरपि<br />
ग्रीवायामेक एकस्तु मेढ्रे सर्वेऽपि षट् स्मृताः 274<br />
पृष्ठवंशस्योभयत्र महत्यो मांसरज्जवः<br />
चतस्रो मांसपेशीनां बन्धनं तत्प्रयोजनम 275<br />
सेवन्यः सप्त तासां तु भवेयुः पञ्च मस्तके<br />
एका शेफसि जिह्वायामेका विध्येन्न ताः क्वचित 276<br />
चतुर्दशास्थ्नां सङ्घातास्तेषां त्रयो गुल्फजानुवंक्षणेषु<br />
एतेनेतरसक्थिबाहू च व्याख्यातौ त्रिकशिरसोरेकैकम 277<br />
चतुर्दशैव सीमन्ताः कथिता मुनिपुङ्गवैः<br />
सङ्घाताः सीविता यैस्तु सीमन्तास्ते प्रकीर्त्तिताः 278<br />
क्षीरस्य पच्यमानस्य यथा सन्तानिका भवेत<br />
पच्यमानस्य शुक्रस्य रजसश्च तथा त्वचः<br />
पूर्वावभासिनी तासां सिध्मस्थानं च सा स्मृता 279<br />
द्वितीया लोहिता ज्ञेया तिलकालकजन्मभूः 280<br />
तृतीया तु भवेच्छ्वेता स्थानं चर्मदलस्य सा 281<br />
ताम्रा चतुर्थी विज्ञेया किलासश्वित्रभूमिका 282<br />
पिञ्चमी वेदिनी नाम्ना पञ्चभागप्रमाणिका<br />
विसर्पकुष्ठाधिष्ठाना ज्ञेया षष्ठी तु रोहिणी<br />
विख्याता रोहिणी षष्ठी ग्रन्थिगण्डापचीस्थितिः 283<br />
स्थूला त्वक्सप्तमी ख्याता विद्र ध्यादेः स्थितिश्च सा 284<br />
अस्थ्नो मलानि लोमानि चासंख्यानि भवन्ति हि<br />
सन्ति यावन्ति लोमानि तावन्तो लोमकूपकाः 285<br />
अङ्गप्रत्यङ्गनिर्वृत्तिः स्वभावादेव जायते<br />
सन्निवेशश्च गात्राणां नात्रास्ते कारणान्तरम 286<br />
अङ्गप्रत्यङ्गनिर्वृत्तौ ये भवन्यगुणा गुणाः<br />
ते ते गर्भस्य विज्ञेया धर्माधर्मनिमित्तजाः 287<br />
दन्तानां पतनं जन्म पुनः पाते त्वसम्भवः<br />
तलेष्वनुद्भवो लोम्नामेतत्सर्वं स्वभावतः 288<br />
गर्भाशये निपतितं यादृक्शुक्रं तथाऽतवम<br />
तादृगेव द्रवीभूतं प्रथमे मासि तिष्ठति 289<br />
मरुत्पित्तकफैस्तत्स्थैः पच्यमानो द्वितीयके<br />
कललस्थमहाभूतसमुदायो घनीभवेत 290<br />
तृतीये मासि शिरसो हस्तयोः पादयोस्तथा<br />
पिण्डकाः पञ्च सिध्यन्ति सूक्ष्माङ्गावयवास्तनोः 291<br />
सर्वाण्यङ्गान्युपाङ्गानि चतुर्थे स्युः स्फुटानि हि<br />
हृदयव्यक्तभावेन व्यज्यते चेतनाऽपि च 292<br />
तस्माच्चतुर्थे गर्भस्तु नाना वस्तूनि वाञ्छति<br />
ततो द्विहृदया यत्स्यान्नारी दौहृदिनी मता 293<br />
दौहृदावज्ञया कुब्जं कुणिं षण्ढं च वामनम<br />
विकृताक्षमनक्षं वा पुत्रं नारी प्रसूयते 294<br />
यतः स्त्री दौहृदं प्राप्य वीर्यवन्तं चिरायुषम्<br />
पुत्रं प्रसूयते तस्मात्तस्यै वाच्छितमर्पयेत 295<br />
इन्द्रि यार्थांस्तु यान्यान्सा भोक्तुमिच्छति गर्भिणी<br />
गर्भबाधाभयात्तांस्तान्भिषगाहृत्य दापयेत 296<br />
सा प्राप्तदौहृदा पुत्रं जनयेत्तु गुणान्वितम<br />
अलब्धदौहृदा गर्भे लभेतात्मनि वा भयम 297<br />
येषु येष्विन्द्रि यार्थेषु दौहृदे साऽवमानिता<br />
प्रसूयते सुतं सार्तिं तस्मिंस्तस्मिंस्तदिन्द्रि ये 298<br />
राजसन्दर्शने यस्या दौहृदंजायते स्त्रियाः<br />
अर्थवन्तं महाभागं कुमारं सा प्रसूयते 299<br />
दुकूलपट्टकौशेयभूषणादिषु दौहृदात<br />
अलङ्कारैषिणं पुत्रं ललितं सा प्रसूयते 300<br />
आश्रमे संयतात्मानं धर्मशीलं प्रसूयते<br />
देवताप्रतिमायां तु प्रसूते पार्षदोपमम 301<br />
दर्शने व्यालजातीनां हिंसाशीलं प्रसूयते<br />
रक्ताक्षं लोमशं शूरं महिषामिषदौहृदात 302<br />
वाराहमांसे स्वप्नालुं शूरं सञ्जनयेत्सुतम<br />
मृगमांसे तु जङ्घालं विक्रान्तं वनचारिणम 303<br />
अतोऽनुक्तेषु या नारी दौहृदं विदधाति हि<br />
शरीराचारशीलैः सा समानं जनयिष्यति 304<br />
पञ्चमे मानसं षष्ठे बुद्धिश्चातिप्रबुद्ध्य्ते<br />
सर्वाण्यङ्गान्युपाङ्गानि भृशं व्यक्तानि सप्तमे 305<br />
ओजोऽष्टमे सञ्चरति माता पुत्रौ मुहुः क्रमात<br />
तेन तौम्लानमुदितौ स्यातां जातो न जीवति 306<br />
न जीवत्यष्टमे जातस्तत्रौजो न स्थिरं यतः<br />
तथा नेरृत्यभागत्वाद्दापयेत्तद्वलि ततः 307<br />
नवमे दशमे मासि नारी बालं प्रसूयते<br />
एकादशे द्वादशे वा ततोऽन्यत्र विकारतः 308<br />
शिरो भवति चाङ्गस्य पूर्वमित्याह शौनकः<br />
शिरस्येवोपजायन्ते प्रधानानीन्द्रि याणि यत 309<br />
हृदयं जायते पूर्वं कृतवीर्योऽवदन्मुनिः<br />
बुद्धेश्च मनसश्चापि यतस्तत्स्थानमीरितम 310<br />
पाराशर्य इति प्राह पूर्वं नाभिसमुद्भवः<br />
प्राणो यत्र स्थितो देहं वर्द्धयत्यूष्मसंयुतः 311<br />
पाणिपादं भवेत्पूर्वं मार्कण्डेयमुनेर्मतम<br />
देहिनः सकलाश्चेष्टाः पाणिपादाश्रया यतः 312<br />
प्रथमं जायते कोष्ठं ततः सर्वांगसम्भवः<br />
एतत्तुं कथयामास गौतमो मुनिपुंगवः 313<br />
सर्वाण्यङ्गान्युपाङ्गानि युगपत्सम्भवन्ति हि<br />
सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते मतं धन्वन्तरेरिदम 314<br />
आम्रस्याणुफले भवन्ति युगपन्मांसास्थिमज्जादयो<br />
लक्ष्यन्ते न पृथक्पृथक्तनुतया पुष्टास्त एव स्फुटाः<br />
एवं गर्भसमुद्भवे त्ववयवाः सर्वे भवन्त्येकदा<br />
लक्ष्याः सूक्ष्मतया न ते प्रकटतामायान्ति वृद्धिं गताः 315<br />
अथ शरीरे पितृज-मातृज-रसजात्मजा भागा उच्यन्ते तत्र<br />
केशाःश्मश्रु च लोमानि नखा दन्ताः शिरास्तथा<br />
धमन्यः स्नायवः शुक्रमेतानि पितृजानि हि 316<br />
मांसासृङ्मज्जमेदांसि यकृत्प्लीहान्त्रनाभयः<br />
हृदयं च गुदं चापि भवन्त्येतानि मातृतः 317<br />
शरीरोपचयो वर्णो बलं देहस्थितिस्तथा<br />
रसादेतानि जायन्ते भिषजो मुनयो जगुः 318<br />
ज्ञानं विज्ञानमायुश्च सुखदुःखादिकं तथा<br />
इन्द्रि याणि च सर्वाणि भवन्त्येतानि चात्मनः 319<br />
अग्नीषोमौ मही वायुर्नभः सत्त्वं रजस्तमः<br />
पञ्चेन्द्रि याणि भूतात्मा गर्भं सञ्जीवयन्ति हि 320<br />
गर्भस्य नाभिनाड्या तु नाडी रसवहा स्त्रियाः<br />
संलग्ना तेन गर्भस्य वृद्धिर्भवति नित्यशः 321<br />
निःश्वासोच्छ्वाससंक्षोभस्वप्नांशान्सोऽधिगच्छति<br />
मातुर्निःश्वसितोच्छ्वाससंक्षोभस्वप्नसंभवान 322<br />
गर्भस्य नाभिमध्ये तु ज्योतिःस्थानं ध्रुवं स्मृतम<br />
तदाधमति वातश्च देहस्तेनास्य वर्धते 323<br />
ऊष्मणा सहिताश्चापि दारयत्यस्य मारुतः<br />
ऊर्ध्वं तिर्यगधस्ताच्च स्रोतांसि तु यथा तथा 324<br />
दृष्टिश्च रामकूपाश्च न वर्धन्ते कदा च न<br />
ध्रुवाण्येतानि मर्त्यानामिति धन्वन्तरेर्मतम 325<br />
शरीरे क्षीयमाणेऽपि वर्धेते द्वाविमौ सदा<br />
स्वभावं प्रकृतिं कृत्वा नखकेशाविति स्थितिः 326<br />
चेतनानामधिष्ठानं मनो देहश्च सेन्द्रि यः<br />
केशलोमनखाग्रान्नमलद्र वगुणैर्विना 327<br />
वाताल्पत्वादयोगाच्च वायोः पक्वाशयस्य च<br />
वातमूत्रपुरीषाणि गर्भस्थो न विमुञ्चति 328<br />
जरायुणा मुखे छन्ने कण्ठे च कफवेष्टिते<br />
वायोर्मार्गनिरोधाच्च न गर्भस्थः प्ररोदिति 329<br />
गर्भिणी प्रथमादह्नः प्रहृष्टा भूषिता शुचिः<br />
भवेच्छुक्लाम्बरधरा गुरुविप्रार्चने रता 330<br />
भोज्यं तु मधुरप्रायं स्निग्धं हृद्यं द्र वं लघु<br />
सस्कृतं दीपनीयं तु नित्यमेवोपयोजयेत 331<br />
गर्भिणी न तु कुर्वीत व्यायाममपतर्पणम<br />
व्यवायं च न सेवेत न कुर्यादतितर्पणम 332<br />
रात्रौ जागरणं शोकं यानस्यारोहणं तथा<br />
रक्तमोक्षं वेगरोधं न कुर्यादुत्कटासनम 333<br />
दोषाभिघातैर्गर्भिण्या यो यो भागः प्रपीड्यते<br />
स स भागः शिशोस्तस्य गर्भस्थस्य प्रपीड्यते 334<br />
मलिनां विकृताकारां हीनाङ्गीं न स्पृशेत्स्त्रियम<br />
न जिघ्रेदपि दुर्गन्धं न पश्येन्नयनाप्रिय 335<br />
वचांसि नापि शृणुयात्कर्णयोरप्रियाणि च<br />
नान्नं पर्युषितं शुष्कं भुञ्जीत क्वथितं न च 336<br />
चैत्यश्मशानवृक्षांश्च भावांश्चाप्ययशस्करान्<br />
बहिर्निष्क्रमणं क्रोधं शून्यागारं च वर्जयेत 337<br />
नोच्चैर्ब्रूयान्न तत्कुर्याद्येन गर्भो विनश्यति<br />
तैलाभ्यङ्गोद्वर्तनं च नात्यर्थं कारयेदपि 338<br />
नामृद्वास्तरणं कुर्यान्नात्युच्चं शयनासनम<br />
एतांस्तु नियमान्सर्वान्यत्नात्कुर्वीत गर्भिणी 339<br />
नवमे दशमे मासि नारी गर्भं प्रसूयते<br />
एकादशे द्वादशे वा ततोऽन्यत्र विकारतः 340<br />
अष्टहस्तायतं चारु चतुर्हस्तविशालकम<br />
प्राचीद्वारमुदग्द्वारं विदध्यात्सूतिकागृहम 341<br />
जाते हि शिथिले कुक्षौ मुक्ते हृदयबन्धने<br />
सशूले जघने नारी विज्ञेया प्रसवोत्सुका 342<br />
आसन्नप्रसवायास्तु कटीपृष्ठं तु सव्यथम<br />
भवेन्मुहुः प्रवृत्तिश्च मूत्रस्य च मलस्य च 343<br />
तैलेनाभ्यक्तगात्रान्तां संस्नातामुष्णवारिणा<br />
यवागूं पाययेत्कोष्णां मात्रया घृतसंयुताम 344<br />
कृतोपधाने मृदुनि विस्तीर्णे शयने शनैः<br />
अभुग्नसक्थी चोत्ताना नारी तिष्ठेद्व्यथाऽन्विता 345<br />
चतस्रोऽशकनीयाश्च स्रावणे कुशला हिताः<br />
वृद्धाः परिचरेयुस्ताः सम्यक्छिन्ननखाः स्त्रियः 346<br />
अपत्यमार्गं तैलेन समभ्यज्य समन्ततः<br />
एका तु तासु सुभगे प्रवाहस्वेति तां वदेत 347<br />
अव्यथा मा प्रवाहिष्ठाः प्रावहेथा व्यथा यदि<br />
प्रवाहेथाः शनैः पूर्वंप्रगाढं च ततः परम 348<br />
ततो गाढतमं गर्भे योनिद्वारमुपागते<br />
अपरासहितो गर्भो यावत्पतति भूतले 349<br />
मूकं वा बधिरं कुब्जं श्वासकासक्षयान्वितम<br />
सूते स्रस्ततनुं बालमकाले तु प्रवाहणात 350<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमन्मिश्रभाव विरचिते</span><br />
<span style="color: red;">भावप्रकाशे गर्भप्रकरणं तृतीयम 3</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-66506407006836044162015-07-13T06:29:00.002-07:002015-07-13T06:29:48.381-07:00अथ चतुर्थं बालप्रकरणम 4<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अथ बाले समुत्पन्ने विदधीत विधिं तथा<br />
यथैव कुलवृद्धस्त्रीव्यवहारपरम्परा 1<br />
प्रसूता हितमाहारं विहारं च समाचरेत<br />
व्यायामं मैथुनं क्रोधं शीतसेवां विवर्जयेत 2<br />
मिथ्याचारात्सूतिकाया यो व्याधिरुपजायते<br />
स कृच्छ्रसाध्योऽसाध्यो वा भवेत्तत्पथ्यमाचरेत 3<br />
सर्वतः परिशुद्धा स्यात्स्निग्धपथ्याऽल्पभोजना<br />
स्वेदाभ्यङ्गपरा नित्यं भवेन्मासमतन्द्रि ता 4<br />
प्रसूता सार्धमासान्ते दृष्टे वा पुनरार्त्तवे<br />
सूतिकानामहीना स्यादिति धन्वन्तरेर्मतम 5<br />
व्युपद्र वां विशुद्धां च विज्ञाय वरवर्णिनीम<br />
ऊर्ध्वं चतुर्भ्यो मासेभ्यो नियमं परिहारयेत 6<br />
रसप्रसादो मधुरः पक्वाहारनिमित्तजः<br />
कृत्स्नाद्देहात्स्तनौ प्राप्तः स्तन्यमित्यभिधीयते 7<br />
स्तन्यं त्रिरात्रात्स्त्रीणां वा चतूरात्रादनन्तरम<br />
प्रवर्त्तयन्ति विवृता धमन्यो हृदये स्थिताः 8<br />
पयः पुत्रस्य संस्पर्शाद्दर्शनात्स्मरणादपि<br />
ग्रहणादप्युरोजस्य शुक्रवत्सम्प्रवर्त्तते<br />
स्नेहो निरन्तरस्तस्य प्रवाहे हेतुरुच्यते 9<br />
अवात्सल्याद्भयाच्छोकात्क्रोधादत्यपतर्पणात<br />
स्त्रीणां स्तन्यं भवेत्स्वल्पं गर्भान्तरविधारणात 10<br />
शालिषष्टिकगोधूमान्मांसक्षुद्र झषानपि<br />
कालशाकमलाबूं च नारिकेलं कसेरुकम 11<br />
शृङ्गाटकं वरीं चापि विदारीकन्दमेव च<br />
लशुनं दुग्धवृद्धयै स्त्री सेवेत सुमना भवेत 12<br />
कलमस्य तण्डुलानां कल्कं या क्षीरपेषितं पिबति<br />
सा भवति भृशं तरुणी क्षीरभरेणैव तुङ्गकुचयुगला 13<br />
कलमः कलिविख्यातो जायते स बृहद्ध्रदे<br />
काश्मीरदेश एवोक्तो महातण्डुलसंज्ञकः 14<br />
विदारिकन्दस्य रसं पिबेत्स्तन्यस्य वृद्धये<br />
तच्चूर्णं तस्य वृर्द्ध्य्थं पिबेद्वा क्षीरसंयुतम 15<br />
धात्र्! या गुरुभिराहारैर्विहारैर्दोषलैस्तथा<br />
देहे दोषाः प्रकुप्यन्ति ततः स्तन्यं प्रदुष्यति 16<br />
मिथ्याऽहारविहारिण्या दुष्टा वातादयः स्त्रियाः<br />
दूषयन्ति पयस्तेन शरीरं व्याधयः शिशोः 17<br />
कषायं सलिलप्लावि स्तन्यं मारुतदूषितम<br />
पित्तादम्लं च कटुकं राज्योऽम्भसि तु पीतिकाः 18<br />
कफदुष्टं तु यत्तोये निमज्जति च पिच्छिलम<br />
द्वन्द्वजं तु द्विलिङ्गं स्यात्त्रिलिङ्गं सान्निपातिकम 19<br />
धात्री क्षीरविशुर्द्ध्य्थं मुद्गयूषरसाशिनी<br />
भार्ङ्गीदारुवचाः पिष्ट्वा पिबेत्साऽतिविषास्तथा 20<br />
पाठामूर्वाऽब्दभूनिम्बदारुशुण्ठीकलिङ्गकैः<br />
सारिवामत्स्यपित्ताऽख्यै क्वाथः स्तन्यविशोधनः 21<br />
पटोलनिम्बासनदारुपाठा मूर्वां गुडूचीं कटुरोहिणीं च<br />
सनागरां च क्वथितां च तोये धात्री पिबेत्स्तन्यविशुद्धिहेतोः 22<br />
नीरे स्यन्यं यदेकि स्वादविवर्णमतन्तुमत<br />
पाण्डुरं तनु शीतं च तद्दुग्धं शुंद्धमादिशेत 23<br />
पीताय यदि बालस्य विदध्यादुपमातरम<br />
सुविचार्य गुणान्दोषान्कुर्याद्धात्रीं तदेदृशीम 24<br />
सवर्णां मध्यवयसां सच्छीलां मुदितां सदा<br />
शुद्धदुग्धां बहुक्षीरां सवत्सामतिवत्सलाम 25<br />
स्वाधीनामल्पसन्तुष्टां कुलीनां सज्जनात्मजाम<br />
कैतवेन परित्यक्तां निजपुत्रशदृशं शिशौ 26<br />
शोकाकुलाक्षु धार्ता च श्रान्ता व्याधिमती सदा<br />
अत्युच्चा नितरां नीचा स्थूलातीव भृशं कृशा 27<br />
गर्भिणी ज्वरिणी चापि लम्बोन्नतपयोधरा<br />
अजीर्णभोजिनी चापि तथा पथ्यविवर्जिता 28<br />
आसक्ता क्षुद्र कार्येषु दुःखार्ता चञ्चलाऽपि च<br />
एतासां स्तन्यपानेन शिशुर्भवति सामयः 29<br />
तत्र माता प्रशस्ताङ्गी चारुवस्त्रा पुरोमुखी<br />
उपविश्यासने सम्यग्दक्षिणं स्तनमम्बुना 30<br />
प्रक्षाल्येषत्परिस्राव्य मन्त्राभ्यामभिमन्त्रितम<br />
उदङ्मुखं शिशुं क्रोडे शनैः सन्धाय पाययेत 31<br />
अस्रावितं स्तनं बालः पिबन्स्तन्येन भूयसा<br />
पूर्णस्रोता वमीकासश्वासैर्भवति पीडितः 32<br />
क्षीरनीरनिधिस्तेऽस्तु स्तनयोः क्षीरपूरकः<br />
सदैव सुभगो बालो भवत्वेष महाबलः 33<br />
पयोऽमृतसमं पीत्वा कुमारस्ते शुभानने<br />
दीर्घमायुरवाप्नोतु देवाः प्राप्यामृतं यथा 34<br />
क्षीरसात्म्यतया क्षीरमाजं गव्यमथापि वा<br />
दद्यादास्तन्यपर्याप्तेर्बालेभ्यो वीक्ष्य मात्रया 35<br />
यथोक्तविधिना बालं मासि षष्ठेऽष्टमेऽपि च<br />
अन्नं सम्प्राशयेत्किञ्चित्ततस्तद्वर्धयेत्क्रमात 36<br />
बालमङ्के सुखं दध्यान्न चैनं तर्जयेत्क्वचित<br />
सहसा बोधये न्नैव नायोग्यमुपवेशयेत 37<br />
नाकृष्य स्थापयेत्क्रोडे न क्षिप्रं शयने क्षिपेत<br />
रोदयेन्न क्वचित्कार्ये विधिमावश्यकं विना 38<br />
तच्चित्तमनुवर्त्तेत तं सदैवानुमोदयेत<br />
विआतातपतडिद्वृष्टिधूमानलजलादितः<br />
निम्नोच्चस्थानतश्चापि रक्षेद्बालं प्रयत्नतः 39<br />
अभ्यङ्गोद्वर्त्तन स्नानं नेत्रयोरञ्जनं तथा<br />
वसनं मृदु यत्तच्च तथा मृद्वनुलेपनम<br />
जन्मप्रभृति पथ्यानि बालस्यैतानि सर्वथा 40<br />
कवलः पञ्चमाद्वर्षादष्टमान्नस्यकर्म च<br />
विरेकः षोडशाद्वर्षाद्विंशतेश्चैव मैथुनम 41<br />
वयस्तु त्रिविधं बाल्यं मध्यमं वार्धकं तथा<br />
ऊनषोडशवर्षस्तु नरो बालो निगद्यते 42<br />
त्रिविधः सोऽपि दुग्धाशी दुग्धान्नाशी तथाऽन्नभुक<br />
दुग्धाशी वर्षपर्यन्तं दुग्धान्नाशी शरद्द्वयम 43<br />
तदुत्तरं स्यादन्नाशी एवं बालस्त्रिधा मतः<br />
मध्ये षोडशसप्तत्योर्मध्यमः कथितो बुधैः 44<br />
चतुर्धा मध्यमं वृद्धियुवपूर्णक्षयान्वितम<br />
भवेदाविंशतेर्वृद्धिर्युवा त्वान्त्रिंशतो मतः 45<br />
चत्वारिंशत्समा यावत्तिष्ठेद्वीर्यादिपूरितः<br />
ततः क्रमेण क्षीणः स्याद्यावद्भवति सप्ततिः 46<br />
ततस्तु सप्ततेरूर्ध्वं क्षीणधातुरसादिकः<br />
क्षीयमाणेन्द्रि यबलः क्षीणरेता दिने दिने 47<br />
बलीपलितखालित्ययुक्तः कर्मसु चाक्षमः<br />
कासश्वासादिभिः क्लिष्टो वृद्धो भवति मानवः 48<br />
बाल्ये विवर्धते श्लेष्मा पित्तं स्यान्मध्यमेऽधिकम<br />
वार्धके वर्द्धते वायुर्विचार्यैतदुपक्रमेत 49<br />
बाल्यं वृद्धिश्छविर्मेधा त्वग्दृष्टिः शुक्रविक्रमौ<br />
बुद्धिः कर्मेन्द्रि यं चेतो जीवितं दशतो ह्रसेत 50<br />
सप्त प्रकृतयो नॄणां वातात्पित्तात्कफात्तथा<br />
संसर्गात्सन्निपाताच्च भवन्ति भिषजां मते 51<br />
शुक्रशोणितसंयोगे यो दोषस्तूत्कटो भवेत<br />
प्रकृतिर्जायते तेन तस्या लक्षणमुच्यते 52<br />
शुक्रासृग्गर्भिणीभोज्यचेष्टागर्भाशयार्त्तिषु<br />
यः स्याद्दोषोऽधिकस्तेन प्रकृतिः सप्तधोदिता 53<br />
जागरूकोऽल्पकेशश्च स्फुटितांघ्रिकरः कृशः<br />
शीघ्रगो बहुवाग्रूक्षः स्वप्ने वियति गच्छति<br />
एवंविधः स विज्ञेयो वातप्रकृतिको नरः 54<br />
पित्तप्रकृतिको लोको यादृशोऽथ निगद्यते<br />
अकालपलितो गौरः क्रोधी स्वेदी च बुद्धिमान 55<br />
बहुभुक्ताम्रनेत्रश्च स्वप्ने ज्योतींषि पश्यति<br />
एवंविधो भवेद्यस्तु पित्तप्रकृतिको नरः 56<br />
श्यामकेशः क्षमी स्थूलो बहुवीर्यो महाबलः<br />
स्वप्ने जलाशयालोकी श्लेष्मप्रकृतिको नरः 57<br />
दृश्यते प्रकृतौ यत्र रूपं दोषद्वयस्य तु<br />
द्विसंसर्गेण जानीयात्सर्वलिङ्गैस्त्रिदोषजम 58<br />
विभुत्वादाशुकारित्वाद्वलित्वादन्यकोपनात<br />
स्वातन्त्र्! याद्बहुरोगत्वाद्दोषाणां प्रबलोऽनिलः 59<br />
प्रायोऽत एव पवनाध्युषिता मनुष्या दोषात्मकाः स्फुटितधूसरकेशगात्राः<br />
शीतद्विषश्चलधृतिस्मृतिबुद्धिचेष्टासौहार्ददृष्टिगतयोऽतिबहुप्रलापाः 60<br />
अल्पपित्तबलजीवितनिद्राः! सन्नसक्तचलजर्जरवाचः<br />
नास्तिका बहुभुजः सविलासा गीतहास्यमृगयाकलिलोलाः 61<br />
मधुराम्लपटूष्णसात्म्यकांक्षाः कृशदीर्घाकृतयः सशब्दयाताः<br />
न दृढा न जितेन्द्रि या न चार्या न च कान्तादयिता बहुप्रजा वा 62<br />
नेत्राणि चैषां खरधूसराणि वृत्तान्यचारूणि मृतोपमानि<br />
उन्मीलितानीव भवन्ति सुप्ते शैलद्रुमांस्ते गगनं च यान्ति 63<br />
अधन्या मत्सराध्माताः स्तेना प्रोद्बद्धपिण्डिकाः<br />
श्वशृगालोष्ट्रगृध्राखुकाकानूकाश्च वातिकाः 64<br />
पित्तं वह्निर्वह्निजं वा यदस्मात्पित्तोद्रि क्तस्तीक्ष्णतृष्णाबुभुक्षः<br />
गौरोष्णाङ्गस्ताम्रहस्ताङ्घ्रिवक्त्रः शूरो मानी पिङ्गकेशोऽल्परोमा 65<br />
दयितमाल्यविलेपनमण्डनः सुचरितः शुचिराश्रितवत्सलः<br />
विभवसाहसबुद्धिबलान्वितो भवति भीषु गतिर्द्विषतामपि 66<br />
मेधावी प्रशिथिलसन्धिबन्धमांसो नारीणामनभिमतोऽल्पशुक्रकामः<br />
आवासः पलिततरंगनीलिकानां भुक्तान्नं मधुरकषायतिक्तशीतम 67<br />
धर्मद्वेषी स्वेदनः पूतिगन्धिर्भूर्युच्चारक्रोधपानाशनेर्ष्यः<br />
सुप्तं पश्येत्कर्णिकारान् पलाशान् दिग्दाहोल्काविद्युदर्कानलांश्च 68<br />
तनूनि पिङ्गानि चलानि चैषां तन्वल्पपक्ष्माणि हिमप्रियाणि<br />
क्रोधेन मद्येन रवेश्च भासा रागं व्रजन्त्याशु विलोचनानि 69<br />
मध्यायुषो मध्यबलाः पण्डिताः क्लेशभीरवः<br />
व्याघ्रर्क्षकपिमार्जारवृकानूकाश्च पैत्तिकाः 70<br />
श्लेष्मा सोमं श्लेष्मलस्तेन सौम्यो गूढस्निग्धश्लिष्टसन्ध्यस्थिमांसः<br />
क्षुत्तृड्दुःखक्लेशधर्मैरतप्तो बुद्ध्या युक्तः सात्त्विकः सत्यसन्धः 71<br />
प्रियंगुदूर्वाशरकाण्डदर्भगोरोचनापद्मसुवर्णवर्णः<br />
प्रलम्बबाहुः पृथुपीनवक्षा महाललाटो घननीलकेशः 72<br />
मृद्वङ्गः समसुविभक्तचारुदेहो बह्वोजोरतिरसशुक्रपुत्रभृत्यः<br />
धर्मात्मा वदति न निष्ठुरं च जातु प्रच्छन्नं वहति दृढं चिरं च वैरम 73<br />
समदद्विरदेन्द्र तुल्ययातो जलदाम्भोधिमृदङ्गसिंहघोषः<br />
स्मृतिमानभियोगवान्विनीतो न च बाल्येऽप्यतिरोदनो न लोलः 74<br />
तिक्तं कषायं कटुकोष्णरूक्षमल्पं स भुंक्ते बलवांस्तथाऽपि<br />
रक्तान्तसुस्निग्धविशालदीर्घसुव्यक्तशुक्लासितपक्ष्मलाक्षः 75<br />
अल्पव्याहारक्रोधपानाशनेर्ष्यः प्राज्यायुर्वित्तो दीर्घदर्शी वदान्यः<br />
श्राद्धो गम्भीरः स्थूललक्ष्यः क्षमावानार्योनिद्रा लुर्दीर्घसूत्रः कृतज्ञः 76<br />
ऋजुर्विपश्चित्सुभगः सलज्जो भक्तो गुरूणां स्थिरसौहृदश्च<br />
स्वप्ने सपद्मान्सविहङ्गमालांस्तोयाशयान्पश्यति तोयदांश्च 77<br />
ब्रह्मरुद्रे न्द्र वरुणतार्क्ष्यहंसगजाधिपैः<br />
श्लेष्मप्रकृतयस्तुल्यास्तथा सिंहाश्वगोवृषैः 78<br />
विषजातो यथा कीटो न विषेण प्रबाध्यते<br />
तद्वत्प्रकृतयो मर्त्यं शक्नुवन्ति न बाधितुम 79<br />
प्रकोपो वाऽन्यभावो वा शमो वा नोपजायते <br />
प्रकृतीनां स्वभावेन जायते तु गतायुषः 80<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमन्मिश्रभाव विरचिते</span><br />
<span style="color: red;">भावप्रकाशे बालप्रकरणं चतुर्थम् 4</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-2694841428620352352015-07-13T06:28:00.002-07:002015-07-13T06:28:52.128-07:00अथ पञ्चमं दिनचर्यादिप्रकरणम 5<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
भूमिदेशस्त्रिधाऽनूपो जांगलो मिश्रलक्षणः 1<br />
नदीपल्वलशैलाढ्यः फुल्लोत्पलकुलैर्युतः<br />
हंससारसकारंडचक्रवाकादिसेवितः 2<br />
शशवाराहमहिषरुरुरोहिकुलाकुलः<br />
प्रभूतद्रुमपुष्पाढ्यो नीलशस्यफलान्वितः 3<br />
अनेकशालिकेदारकदलीक्षुविभूषितः<br />
अनूपदेशो ज्ञातव्यो वातश्लेष्मामयार्त्तिमान 4<br />
आकाशसम उच्चश्च स्वल्पपानीयपादपः<br />
शमीकरीरबिल्वार्कपीलुकर्कंधुसङ्कुलः 5<br />
हरिणैणर्क्षपृषतगोकर्णखरसङ्कुलः<br />
सुस्वादुफलवान्देशो वातलो जाङ्गलः स्मृतः 6<br />
बहूदकनगोऽनूपः कफमारुतरोगवान्<br />
जाङ्गलोऽल्पाम्बुशाखी च पित्तासृङ्मारुतोत्तरः 7<br />
संसृष्टलक्षणो यस्तु देशः साधारणो मतः<br />
समाः सधारणे यस्माच्छीतवर्षोष्णमारुताः<br />
समता तेन दोषाणां तस्मात्साधारणो वरः 8<br />
उचिते वर्तमानस्य नास्ति दुर्देशजं भयम<br />
आहारस्वप्नचेष्टाऽदौ तद्देशस्य कृते सति 9<br />
यस्य देशस्य यो जन्तुस्तज्जं तस्यौषधं हितम<br />
देशादन्यत्र वसतस्तत्तुल्यगुणमौषधम 10<br />
स्वे देशेनिचिता दोषा अन्यस्मिन्कोपमागताः<br />
बलवन्तस्तथा न स्युर्जलजाः स्थलजास्तथा 11<br />
मानवो येन विधिना स्वस्थस्तिष्ठति सर्वदा<br />
तमेव कारयेद्वैद्यो यतः स्वास्थ्यं सदेप्सितम 12<br />
दिनचर्यां निशाचर्यामृतुचर्यां यथोदिताम<br />
आचरन्पुरुषः स्वस्थः सदा तिष्ठति नान्यथा 13<br />
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः<br />
प्रसन्नात्मेन्द्रि यमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते 14<br />
ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत स्वस्थो रक्षाऽथमायुषः<br />
तत्र सर्वाघशान्त्यर्थं स्मरेद्धि मधुसूदनम 15<br />
दध्याज्यादर्शसिद्धार्थं बिल्वगोरोचनस्रजाम<br />
दर्शनं स्पर्शनं कार्यं प्रबुद्धेन शुभावहम 16<br />
स्वमाननं घृते पश्येद् यदीच्छेच्चिरजीवितम<br />
आयुष्यमुषसि प्रोक्तं मलादीनां विसर्जनम<br />
तदन्त्रकूजनाध्मानोदरगौरववारणम 17<br />
आटोपशूलौ परिकर्त्तिका च सङ्गः पुरीषस्य तथोर्ध्ववातः<br />
पुरीषमास्यादथवा निरेति पुरीषवेगेऽभिहते नरस्य 18<br />
वातमूत्रपुरीषाणां सङ्गो ध्मानं क्लमो रुजा<br />
जठरे वातजाश्चान्येरोगाः स्युर्वातनिग्रहात 19<br />
बस्तिमेहनयोः शूलं मूत्रकृच्छ्रं शिरोरुजा<br />
विनामो वङ्क्षणानाहः स्यालिङ्गं मूत्रनिग्रहे 20<br />
न वेगितोऽन्यकार्यः स्यान्न वेगानीरयेद्बलात<br />
कामशोकभयक्रोधान्मनोवेगान्विधारयेत 21<br />
गुदादिमलमार्गाणां शौचं कान्तिबलप्रदम<br />
पवित्रकरमाख्यातमलक्ष्मीकलिपापहृत 22<br />
प्रक्षालनं मतं पाण्योः पादयोः शुद्धिकारणम<br />
मलश्रमहरं वृष्यं चक्षुष्यं राजसापहम 23<br />
भक्षयेद्दन्तपवनं द्वादशाङ्गुलमायतम<br />
कनिष्ठिकाऽग्रवत्स्थूलमृज्वग्रन्थिं तथाऽव्रणम 24<br />
एकैकं घर्षयेद्दन्तं मृदुना कूर्चकेन तु<br />
दन्तशोधनचूर्णेन दन्तमांसान्यबाधयन 25<br />
क्षौद्र त्रिकटुकाक्तेन तैलसिन्धुभवेन वा<br />
चूर्णेन तेजोवत्याश्च दन्तान्नित्यं विशोधयेत 26<br />
मधुको मधुरे श्रेष्ठः करञ्जः कटुके तथा<br />
निम्बः स्यात्तिक्तके श्रेष्ठः कषाये खदिरस्तथा 27<br />
समयं तु समालोक्य दोषं च प्रकृतिं तथा<br />
यथोचितै रसैर्वीर्यैर्युक्तं द्रव्यं प्रयोजयेत 28<br />
तेनास्य मुखवैरस्यदन्तजिह्वाऽस्यजा गदाः<br />
रुचिवैशद्यलघुता न भवन्ति भवन्ति च 29<br />
अर्के वीर्यं वटे दीप्तिः करञ्जे विजयो भवेत<br />
प्लक्षे चैवार्थसम्पत्तिर्वैदर्यां मधुरोध्वनिः 30<br />
खदिरे मुखसौगन्ध्यं बिल्वे तु विपुलं धनम<br />
उदुम्बरे तु वाक्सिद्धिराम्रे त्वारोग्यमेव च 31<br />
कदम्बे तु धृतिर्मेधा चम्पके च दृढा मतिः<br />
शिरीषे कीर्त्तिसौभाग्यमायुरारोग्यमेव च 32<br />
अपामार्गे धृतिर्मेधा प्रज्ञाशक्तिस्तथाऽसने<br />
दाडिम्यां सुन्दराकारः ककुभे कुटजे तथा 33<br />
जातीतगरमन्दारैर्दुःस्वप्नं च विनश्यति 34<br />
गुर्वाकस्तालहिन्तालौ केतकश्च बृहत्तृणः<br />
खर्जूरं नारिकेलं च सप्तैते तृणराजकाः 35<br />
तृणराजसमुत्पन्नं यः कुर्याद्दन्तधावनम<br />
नरश्चाण्डालयोनिः स्याद्यावद्गङ्गां न पश्यति 36<br />
न खादेद्गलताल्वोष्ठजिह्वादन्तगदेषु तत<br />
मुखस्य पाके शोथे च श्वासकासवमीषु च 37<br />
दुर्बलोऽजीर्णभुक्तश्च हिक्कामूर्च्छामदान्वितः<br />
शिरोरुजार्तस्तृषितः श्रान्तः पानक्लमान्वितः 38<br />
अर्दितः कर्णशूली च नेत्ररोगी नवज्वरी<br />
वर्जयेद्दन्तकाष्ठं तु हृदामययुतोऽपि च 39<br />
जिह्वानिर्लेखनं हैमं राजतं ताम्रजं तथा<br />
पाटितं मृदु तत्काष्ठं मृदुपत्रमयं तथा 40<br />
दशाङ्गुलं मृदु स्निग्धं तेन जिह्वां लिखेत्सुखम<br />
तज्जिह्वामलवैरस्यदुर्गन्धजडताहरम् 41<br />
गण्डूषमपि कुर्वीत शीतेन पयसा मुहुः<br />
कफतृष्णामलहरं मुखान्तःशुद्धिकारकम 42<br />
सुखोष्णोदकगण्डूषः कफारुचिमलापहः<br />
दन्तजाड्यहरश्चापि मुखलाघवकारकः 43<br />
विषमूर्च्छामदार्त्तानां शोषिणां रक्तपित्तिनाम<br />
कुपिताक्षिमलक्षीणरूक्षाणां स न शस्यते 44<br />
मुखप्रक्षालनं शीतपयसा रक्तपित्तजित<br />
मुखस्य पिडिकाशोषनीलिकाव्यङ्गनाशनम 45<br />
कुर्याद्वाऽपि कदुष्णेन पयसाऽस्यविशोधनम<br />
कफवातहरं स्निग्धं मुखशोषविनाशनम 46<br />
कटुतैलादि नस्यार्थे नित्याभ्यासेन योजयेत<br />
प्रातः श्लेष्मणि मध्याह्ने पित्ते सायं समीरणे 47<br />
सुगन्धवदनाः स्निग्धनिःस्वना विमलेन्द्रि याः<br />
निर्बलीपलितव्यङ्गा भवेयुर्नस्यशीलिनः 48<br />
सौवीरमञ्जनं नित्यं हितमक्ष्णोस्ततो भजेत<br />
लोचने भवतस्तेन मनोज्ञे सूक्ष्मदर्शने 49<br />
स्रोतोऽञ्जनं मतं श्रेष्ठं विशुद्धं सिन्धुसम्भवम<br />
दृष्टेः कण्डूमलहरं दाहक्लेदरुजापहम 50<br />
अक्ष्णो रूपावहं चैव सहते मारुतातपौ<br />
नेत्रे रोगा न जायन्ते तस्मादञ्जनमाचरेत 51<br />
रात्रौ जागरितः श्रान्तश्छर्दितो भुक्तवांस्तथा<br />
ज्वरातुरः शिरः स्नातो नाक्ष्णोरञ्जनमाचरेत 52<br />
पञ्चरात्रान्नखश्मश्रुकेशरोमाणि कर्त्तयेत<br />
केशश्मश्रुनखादीनां कर्त्तनं सम्प्रसाधनम<br />
पौष्टिकं धन्यमायुष्यं शौचकान्तिकरं परम 53<br />
उत्पाटयेत्तु लोमानि नासाया न कदाचन <br />
तदुत्पाटनतो दृष्टेर्दौर्बल्यं त्वरया भवेत 54<br />
केशपाशे प्रकुर्वीत प्रसाधन्या प्रसाधनम <br />
केशप्रसाधनं केश्यं रजोजन्तुमलापहम 55<br />
आदर्शालोकनं प्रोक्तं मङ्गल्यं कान्तिकारम<br />
पौष्टिकं बल्यमायुष्यं पापालक्ष्मीविनाशनम 56<br />
लाघवं कर्मसमर्थ्यं विभक्तघनगात्रता<br />
दोषक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते 57<br />
व्यायामदृढगात्रस्य व्याधिर्नास्ति कदाचन<br />
विरुद्धं वा विदग्धं वा भुक्तं शीघ्रं विपच्यते 58<br />
भवन्ति शीघ्रं नैतस्य देहे शिथिलतादयः<br />
न चैवं सहसाऽक्रम्य जरा समधिरोहति 59<br />
न चास्ति सदृशं तेन किञ्चित्स्थौल्यापकर्षकम<br />
स सदा गुणमाधत्ते बलिनां स्निग्धभोजिनाम 60<br />
वसन्ते शीतसमये सुतरां स हितो मतः<br />
अन्यदाऽपि च कर्त्तव्यो बलार्धेन यथा बलम 61<br />
हृदयस्थो यदा वायुर्वक्त्रं शीघ्रं प्रपद्यते<br />
मुखं च शोषं लभते तद्बलार्धस्य लक्षणम 62<br />
किं वा ललाटे नासायां गात्रसन्धिषु कक्षयोः<br />
यदा सञ्जायते स्वेदो बलार्धं तु तदादिशेत 63<br />
भुक्तवान्कृतसम्भोगः कासी श्वासी कृशः क्षयी<br />
रक्तपित्ती क्षती शोषी न तं कुर्यात्कदाचन 64<br />
अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छर्दिं श्रमः क्लमः<br />
तृष्णा क्षयः प्रतमको रक्तपित्तं च जायते 65<br />
अभ्यङ्गं कारयेन्नित्यं सर्वेष्वङ्गेषु पुष्टिदम<br />
शिरः श्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत 66<br />
सार्षपं गन्धतैलं च यत्तैलं पुष्पवासितम<br />
अन्यद्र व्ययुतं तैलं न दुष्यति कदाचन 67<br />
अभ्यङ्गो वातकफहृच्छ्रमशान्तिबलं सुखम<br />
निद्रा वर्णमृदुत्वायुष्कुरुते देहपुष्टिकृत 68<br />
अभ्यङ्गः शीलितो मूर्ध्नि सकलेन्द्रि यतर्पकः<br />
दृष्टितुष्टिकरो हन्ति शिरोभूमिगतान्गदान 69<br />
केशानां बहुतां दार्ढ्यं मृदुतां दीर्घतां तथा<br />
कृष्णतां कुरुते कुर्याच्छिरसःपूर्णतामपि 70<br />
न कर्णरोगा न मलं न च मन्याहनुग्रहः<br />
नोच्चैः श्रुतिर्न बाधिर्यं स्यान्नित्यं कर्णपूरणात 71<br />
रसाद्यैः पूरणं कर्णे भोजनात्प्राक्प्रशस्यते<br />
तैलाद्यैः पूरणं कर्णे भास्करेऽस्तमुपागते 72<br />
पादाभ्यङ्गश्च तत्स्थैर्यनिद्रा दृष्टिप्रसादकृत<br />
पादसुप्तिश्रमस्तम्भसङ्कोचस्फुटनप्रणुत 73<br />
व्यायामक्षुण्णवपुषं पद्भ्यां सम्मर्दितं तथा<br />
व्याधयो नोपसर्पन्ति वैनतेयमिवोरगाः 74<br />
लोमकूपशिराजालधमनीभिः कलेवरे<br />
तर्पयेद्बलमाधत्ते स्नेहयुक्तेऽवगाहने 75<br />
अद्भिः संसिक्तमूलानां तरूणां पल्लवादयः<br />
वर्द्धन्ते हि तथा नॄणां स्नेहसंसिक्तधातवः 76<br />
नवज्वरी अजीर्णी च नाभ्यक्तव्यः कथञ्चन<br />
तथा विरिक्तो वान्तश्च निरूढो यश्च मानवः 77<br />
पूर्वयोः कृच्छ्रता व्याधेरसाध्यत्वमथापि वा<br />
शेषाणां च त्विह प्रोक्ता वह्निसादादयो गदाः 78<br />
उद्वर्त्तनं कफहरं मेदोघ्नं शुक्रदं परम<br />
बल्यं शोणितकृच्चापि त्वक्प्रसादमृदुत्वकृत 79<br />
मुखलेपादृढं चक्षुः पीनो गण्डस्तथाऽननम<br />
कान्तमव्यङ्गपिडकं भवेत्कमलसन्निभम 80<br />
दीपनंवृष्यमायुष्यं स्नानमोजोबलप्रदम<br />
कण्डूमलश्रमस्वेदतन्द्रा तृड्दाहपाप्मनुत 81<br />
बाह्यैश्च सेकैः शीताद्यैरूष्माऽन्तर्याति पीडितः<br />
नरस्य स्नानमात्रस्य दीप्यते तेन पावकः 82<br />
शीतेन पयसा स्नानं रक्तपित्तप्रशान्तिकृत<br />
तदेवोष्णेन तोयेन बल्यं वातकफापहम 83<br />
शिरः स्नानमचक्षुष्यमत्युष्णेनाग्बुना सदा<br />
वातश्लेष्मप्रकोपे तु हितं तच्च प्रकीर्त्तितम 84<br />
अशीतेनाम्भसा स्नानं पयःपानं नवाःस्त्रियः<br />
एतद्वो मानवाः पथ्यं स्निग्धमल्पं च भोजनम 85<br />
यः सदाऽमलकैः स्नानं करोति स विनिश्चितम<br />
बलीपलितनिर्मुक्तो जीवेद्वर्षशतं नरः 86<br />
स्नानं ज्वरेऽतिसारे च नेत्रकर्णानिलार्तिषु<br />
आध्मानपीनसाजीर्णभुक्तवत्सु च गर्हितम 87<br />
स्नानस्यानन्तरं सम्यग्वस्त्रेणाङ्गस्य मार्जनम<br />
कान्तिप्रदं शरीरस्य कण्डूत्वग्दोषनाशनम 88<br />
कौशेयौर्णिकवस्त्रं च रक्तवस्त्रं तथैव च<br />
वातश्लेष्महरं तत्तु शीतकाले विधारयेत 89<br />
मेध्यं सुशीतं पित्तघ्नं कषायं वस्त्रमुच्यते<br />
तद्धारयेदुष्णकाले तत्रापि लघु शस्यते 90<br />
शुक्लं तु शुभदं वस्त्रं शीतातपनिवारणम<br />
न चोष्णं न च वा शीतं तत्तुवर्षासु धारयेत 91<br />
यशस्यं काम्यमायुष्यं श्रीमदानन्दवर्धनम<br />
त्वच्यं वशीकरं रुच्यं नवनिर्मलमम्बरम 92<br />
कदाऽपि न जनैः सद्भिर्धार्यं मलिनमम्बरम<br />
तत्तु कण्डूकृमिकरं ग्लान्यलक्ष्मीकरं परम 93<br />
कुङ्कुमं चन्दनं चापि कृष्णागुरु च मिश्रितम<br />
उष्णं वातकफध्वंसि शीतकाले तदिष्यते 94<br />
चन्दनं घनसारेण बालकेन च मिश्रितम<br />
सुगन्धि परमं शीतमुष्णकाले प्रशस्यते 95<br />
चन्दनं घुसृणोपेतं मृगनाभिसमायुतम<br />
न चोष्णं न च वा शीतं वर्षाकाले तदिष्यते 96<br />
अनुलेपस्तृषामूर्च्छादुर्गन्धस्वेददाहजित<br />
सौभाग्यतेजस्त्वग्वर्णप्रीत्यौजोबलवर्धनः<br />
स स्नानानर्हलोकानाममुलेपोऽपि नो हितः 97<br />
सुगन्धिपुष्पपत्राणां धारणं कान्तिकारकम<br />
पापरक्षोग्रहहरं कामदं श्रीविवर्द्धनम 98<br />
भूषणैर्भूषयेदङ्गं यथायोग्यं विधानतः<br />
शुचिसौभाग्यसन्तोषदायकं काञ्चनं स्मृतम 99<br />
ग्रहदृष्टिहरं पुष्टिकरं दुःस्वप्ननाशनम<br />
पापदौर्भाग्यशमनं रत्नाभरणधारणम 100<br />
माणिक्यं तरणेः सुजातममलं मुक्ताफलं शीतगो<br />
र्माहेयस्य च विद्रुमो निगदितः सौम्यस्य गारुत्मतम<br />
देवेज्यस्य च पुष्परागमसुराचार्यस्य वज्रं शने<br />
र्नीलं निर्मलमन्ययोश्च गदिते गोमेदवैदूर्यके 101<br />
वासःशृङ्गाररत्नानां धारणं प्रीतिबर्धकम<br />
रक्षोघ्नमर्थ्यमोजस्यं सौभाग्यकरमुत्तमम 102<br />
सततं सिद्धमन्त्रस्य महौषध्यास्तथैव च<br />
रोचनासर्षपादीनां मङ्गल्यानां च धारणम 103<br />
आयुर्लक्ष्मीकरं रक्षोहरं मङ्गलदं शुभम<br />
हिंस्नादिभयविध्वंसि वशीकरणकारणम 104<br />
ततो भोजनवेलायां कुर्यान्मङ्गल्यदर्शनम<br />
तस्य प्रदर्शनं नित्यमायुर्धर्मविवर्धनम 105<br />
लोकेऽस्मिन्मङ्गलान्यष्टौ ब्राह्मणो गौर्हुताशनः<br />
पुष्पस्रक्सर्पिरादित्य आपो राजा तथाऽष्टमः 106<br />
पादुकाधारणं कुर्यात्पूर्वं भोजनतः परम<br />
पादरोगहरं वृष्यं चक्षुष्यं चायुषो हितम 107<br />
शरीरे जायते नित्यं वाञ्छा नॄणां चतुर्विधः <br />
बुभुक्षा च पिपासा च सुषुप्सा च रतिस्पृहा 108<br />
भोजनेच्छाविघातात्स्यादङ्गमर्दोऽरुचिः श्रमः<br />
तन्द्रा लोचनदौर्बल्य धातुदाहो बलक्षयः 109<br />
विघातेन पिपासायाः शोषः कण्ठास्ययोर्भवेत<br />
श्रवणस्यावरोधश्च रक्तशोषो हृदि व्यथा 110<br />
निद्रा विघाततो जृम्भा शिरोलोचनगौरवम<br />
अङ्गमर्दस्तथा तन्द्रा स्यादन्नापाक एव च 111<br />
बुभुक्षितो न योऽश्नाति तस्याहारेन्धनक्षयात<br />
मन्दीभवति कायाग्निर्यथा चाग्निर्निरिन्धनः 112<br />
आहारं पचति शिखी दोषानाहारवर्जितः<br />
पचेद् दोषक्षये धातून्प्राणान्धातुक्षयेऽपि च 113<br />
आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृद् देहधारणः<br />
स्मृत्यायुःशक्तिवर्णौजःसत्त्वशोभाविवर्धनः 114<br />
यथोक्तगुणसम्पन्नं नरः सेवेत भोजनम<br />
विचार्य दोषकालादीन्कालयोरुभयोरपि 115<br />
सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं श्रुतिबोधितम<br />
नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्रसमो विधिः 116<br />
याममध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लङ्घयेत<br />
याममध्ये रसोत्पत्तिर्यामयुग्माद्बलक्षयः 117<br />
क्षुत्सम्भवति पक्वेषु रसदोषमलेषु च<br />
काले वा यदि वाऽकाले सोऽन्नकाल उदाहृतः 118<br />
उद्गारशुद्धिरुत्साहो वेगोत्सर्गो यथोचितः<br />
लघुता क्षुत्पिपासा च जीर्णाहारस्य लक्षणम 119<br />
आहारं तु रहः कुर्यान्निर्हारमपि सर्वदा<br />
उभाभ्यां लक्ष्म्युपेतः स्यात्प्रकाशे हीयते श्रिया 120<br />
आहारनिर्हारविहारयोगाः सदैव सद्भिर्विजने विधेयाः 121<br />
पितृमातृसुहृद्वैद्यपाककृद्धंसबर्हिणाम<br />
सारसस्य चकोरस्य भोजने दृष्टिरुत्तमा 122<br />
दीनहीनक्षुधाऽत्तानां पापपाषण्डरोगिणाम<br />
कुक्कुटादेः शुनो दृष्टिर्भोजने नैव शोभना 123<br />
दोषहृद् दृष्टिदं पथ्यं हैमं भोजनभाजनम<br />
रौप्यं भवति चक्षुष्यं पित्तहृत्कफवातकृत 124<br />
कांस्यं बुद्धिप्रदं रुच्यं रक्तपित्तप्रसादनम<br />
पैत्तलं वातकृद्रू क्षमुष्णं कृमिकफप्रणुत 125<br />
आयसे काचपात्रे च भोजनं सिद्धिकारकम<br />
शोथपाण्डुहरं बल्यं कामलाऽपहमुत्तमम 126<br />
शैलेये मृण्मये पात्रे भोजनं श्रीनिवारणम<br />
दारूद्भवे विशेषेण रुचिदं श्लेष्मकारि च<br />
पात्रं पत्रमयं रुच्यं दीपनं विषपापनुत 127<br />
जलपात्रं तु ताम्रस्य तदभावे मृदो हितम 128<br />
पवित्रं शीतलं पात्रं रचितं स्फटिकेन यत<br />
काचेन रचितं तद्वत्तथा वैदूर्यसम्भवम 129<br />
भोजनाग्रे सदा पथ्यं लवणार्द्र कभक्षणम<br />
अग्निसन्दीपनं रुच्यं जिह्वाकण्ठविशोधनम 130<br />
अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेश्वरः<br />
इति सञ्चिन्त्य भुञ्जानं दृष्टिदोषो न बाधते 131<br />
अञ्जनागर्भसम्भूतं कुमारं ब्रह्मचारिणम<br />
दृष्टिदोषविनाशाय हनुमन्तं स्मराम्यहम 132<br />
अश्नीयात्तन्मना भूत्वा पूर्वं तु मधुरं रसम<br />
मध्येऽम्ललवणौ पश्चात्कटुतिक्तकषायकान 133<br />
फलान्यादौ समश्नीयाद्दाडिमादीनि बुद्धिमान<br />
विना मोचफलं तद्वद्वर्जनीया च कर्कटी 134<br />
मृणालबिसशालूककन्देक्षुप्रभृतीनपि<br />
पूर्वमेव हि भोज्यानि न तु भुक्त्वा कदाचन 135<br />
गुरु पिष्टमयं द्र व्यं तण्डुलान्पृथुकानपि<br />
न जातु भुक्तवान्खादेन्मात्रां खादेद्बुभुक्षितः 136<br />
घृतपूर्वं समश्नीयात्कठिनं प्राक् ततो मृदु<br />
अन्ते पुनर्द्र वाशी तु बलाद्रो गेण मुञ्चति 137<br />
यद्यत्स्वादुतरं तत्तद्विदध्यादुत्तरोत्तरम<br />
भुक्त्वा यत्प्रार्थ्यते भूयस्तदुक्तं स्वादु भोजनम 138<br />
सौमनस्यं बलं पुष्टिमुत्साहं वृद्धिमायुषः<br />
स्वादु सञ्जनयत्यन्नमस्वादु च विपर्ययम 139<br />
अत्युष्णान्नं बलं हन्ति शीतं शुष्कं च दुर्जरम<br />
अतिक्लिन्नं ग्लानिकरं युक्तियुक्तं हि भोजनम 140<br />
अतिद्रुताशिताहारे गुणान्दोषान्न विन्दति<br />
भोज्यं शीतमहृद्यं च स्याद्विलम्बितमश्नतः 141<br />
मन्दानलो नरो द्र व्यं मात्रागुरु विवर्जयेत<br />
स्वभावतश्च गुरु यत्तथा संस्कारतो गुरु 142<br />
मात्रागुरुस्तु मुद्गादिर्माषादिः प्रकृतेर्गुरुः<br />
संस्कारगुरु पिष्टान्नं प्रोक्तमित्युपलक्षणम 143<br />
आहारं षड्विधं चूष्यं पेयं लेह्यं तथैव च<br />
भोज्यं भक्ष्यं तथा चर्व्यं गुरु विद्याद्यथोत्तरम 144<br />
गुरूणामर्धसौहित्यं लघूनां तृप्तिरिष्यते<br />
द्र वो द्र वोत्तरश्चापि न मात्रागुरुरिष्यते 145<br />
विशुष्कमन्नमभ्यस्तं न पाकं साधु गच्छति 146<br />
शुष्कं निरुद्धं विष्टम्भि वह्निव्यापादकृद्भवेत 147<br />
न भुक्त्वा न रदैश्छित्त्वा न निशायां न वा बहून<br />
न जलान्तरितानद्भिः सक्तूनद्यान्न केवलान 148<br />
पुनर्दानं पृथक्पानं सामिषं पयसा निशि<br />
सदन्तच्छेदमुष्णं च सप्त सक्तुषु वर्जयेत 149<br />
सक्तूनामाशु जीर्येत मृदुत्वादवलेहिका 150<br />
यथाकालेऽतिमात्रं यत तद्भवेद्विषमाशनम<br />
बहुस्तोकमकाले वा ज्ञेयं तद्विषमाशनम 151<br />
आलस्यगौरवाटोपसादांश्च कुरुतेऽधिकम<br />
हीनमात्रं तनोःकार्श्यं करोति च बलक्षयम 152<br />
अप्राप्तकाले भुञ्जानो ह्यसमर्थतनुर्नरः<br />
तांस्तान् व्याधीनवाप्नोति मरणं चाधिगच्छति 153<br />
कालेतीतेश्नतो जन्तोर्वायुनोपहतेऽनले<br />
कृच्छ्राद्विपच्यते भुक्तं न स्याद्भोक्तुं पुनः स्पृहा 154<br />
कुक्षेर्भागद्वयं भोज्यैस्तृतीये वारि पूरयेत<br />
वायोः सञ्चारणार्थाय चतुर्थमवशेषयेत 155<br />
रसेनान्नस्य रसना प्रथमेनोपतर्पिता<br />
न तथा स्वादमाप्नोति ततः शोध्याम्बुनान्तरा 156<br />
अत्यम्बुपानान्न विपच्यतेऽन्नमनम्बुपानाच्च स एव दोषः<br />
तस्मान्नरो वह्निविवर्धनाय मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि 157<br />
भुक्तस्यादौ जलं पीतं कार्श्यमन्दाग्निदोषकृत<br />
मध्येऽग्निदीपनं श्रेष्ठमन्ते स्थौल्यकफप्रदम 158<br />
समस्थूलकृशा भुक्तमध्यान्तप्रथमाम्बुपाः 159<br />
तृषितस्तु न चाश्नीयात्क्षुधितो न पिबेज्जलम<br />
तृषितस्तु भवेद्गुल्मी क्षुधितस्तु जलोदरी 160<br />
अश्नीयात्तन्मना भूत्वा पूर्वं तु मधुरं रसम<br />
मध्येऽम्ललवणौ पश्चात्कटुतिक्तकषायकान 161<br />
दुग्धं स्वादुरसं स्निग्धमोजस्यं धातुवर्धनम<br />
वातपित्तहरं वृष्यं श्लेष्मलं गुरु शीतलम 162<br />
विदाहीन्यन्नपानानि यानि भुंङ्क्ते हि मानवः<br />
तद्विदाहप्रशान्त्यर्थं भोजनान्ते पयः पिबेत 163<br />
कुर्यात्क्षीरान्तमाहारं न दध्यन्तं कदाचन<br />
लवणाम्लकटूष्णानि विदाहीन्यत्ति यानि तु<br />
तद्दोषं हर्तुमाहारं मधुरेण समापयेत 164<br />
बलवच्छत्रुविनाशनेन शत्रुहन्तुः क्षीणता च दृश्यते तथा च<br />
नाशनात्प्रत्यनीकस्य स्वयं च क्षीयते यथा<br />
वह्निसन्तप्तलोहस्य तप्ततां नाशयेज्जलम 165<br />
ननु भोजनावसानसमये प्रयुक्ताः कटुतिक्तकषायरसाः कफं<br />
शमयिष्यन्ति वातस्य वृद्धिं विधास्यन्तीति चेतै तन्न<br />
कट्वादीनां क्षीणशक्तित्वात् तथा च<br />
यदेकं नाशयेद्दोषं तदन्यं वर्धयेत्कुतः<br />
नाशने ह्येकदोषस्य यतस्तत्क्षीणशक्तिकम 166<br />
जग्धाः सर्वेऽपि गच्छन्ति बलिनो वश्यतां रसाः<br />
यथा प्रकुपिता दोषा वशं यान्ति बलीयसः 167<br />
एवं भुक्त्वा समाचामेद्रू क्षग्रहणपूर्वकम<br />
भोजने दन्तलग्नानि निर्हृत्याचमनं चरेत 168<br />
दन्तान्तरगतं चान्नं शोधनेनाहरेच्छनैः<br />
कुर्यादनिर्हृतं तद्धि मुखस्यानिष्टगन्धताम 169<br />
दन्तलग्नमनिर्हार्यं लेपं मन्येत दन्तवत<br />
न तत्र बहुशः कुर्याद्यत्नं निर्हरणं प्रति 170<br />
आचम्य जलयुक्ताभ्यां पाणिभ्यां चक्षुषी स्पृशेत<br />
भिउ!क्त्वा पाणितलं घृष्ट्वा चक्षुषोर्यदि दीयते<br />
अचिरेणैव तद्वारि तिमिराणि व्यपोहति 171<br />
भुक्त्वा च संस्मरेन्नित्यमगस्त्यादीन्सुखावहान 172<br />
विष्णुरात्मा तथैवान्नं परिणामश्च वै यथा<br />
सत्येन तेन मद्भुक्तं जीर्यत्वन्नमिदं तथा 173<br />
अगस्तिरग्निर्वडवानलश्च भुक्तं ममान्नं जरयन्त्वशेषम<br />
सुखं च मे तत्परिणामसम्भवं यच्छन्त्वरोगं मम चास्तु देहम 174<br />
अङ्गारकमगस्तिं च पावकं सूर्यमश्विनौ<br />
पञ्चैतान्संस्मरेन्नित्यं भुक्तं तस्याशु जीर्यति 175<br />
इत्युच्चार्य स्वहस्तेन परिमार्ज्य तथोदरम<br />
अनायासप्रदायीनि कुर्यात्कर्माण्यतन्द्रि तः 176<br />
जीर्णेऽन्ने वर्धते वायुर्विदग्धे पित्तमेधते<br />
भुक्तमात्रे कफश्चापि क्रमोऽय भोजनोपरि 177<br />
धूमेनापोह्य हृद्यैर्वा कषायकटुतिक्तकैः<br />
पूगैः कर्पूरकस्तूरीलवंगसुमनः फलैः 178<br />
फलैः कटुकषायैर्वा मुखवैशद्यकारिभिः<br />
ताम्बूलपत्रसहितैः सुगन्धैर्वा विचक्षणः 179<br />
रतौ सुप्तोत्थिते स्नाते भुक्तेवान्ते च संगरे<br />
सभायां विदुषां राज्ञां कुर्यात्ताम्बूलचर्वणम 180<br />
ताम्बूलमुक्तं तीक्ष्णोष्णं रोचनं तुवरं सरम<br />
तिक्तं क्षारोषणं कामरक्तपित्तकरं लघु 181<br />
वश्यं श्लेष्मास्यदौर्गन्ध्यमलवातश्रमापहम<br />
मुखवैशद्यसौगन्ध्यकान्तिसौष्ठवकारकम 182<br />
हनुदन्तमलध्वंसि जिह्वेन्द्रि यविशोधनम<br />
मुखप्रसेकशमनं गलामयविनाशनम 183<br />
नवं तदेव मधुरं कषायानुरसं गुरु<br />
बलासजननंप्रायः पत्रशाकगुणं स्मृतम 184<br />
वङ्गदेशोद्भवं पर्णं परं कटुरसं सरम<br />
पाचनं पित्तजनकमुष्णं कफहरं स्मृतम 185<br />
पर्णं पुराणमकटु क्षुल्लकं तनु पाण्डुरम<br />
विशेषाद्गुणवद्वेद्यमन्वद्धीनगुणं स्मृतम 186<br />
पूगं गुरु हिमं रूक्षं कषायं कफपित्तनुत<br />
मोहनं दीपनं रुच्यमास्यवैरस्यनाशनम 187<br />
पूगं स्यात दृढमध्यं यत्स्विन्नं वाऽपि त्रिदोषनुत<br />
सरसङ्गुर्वभिष्यन्दि तद भृशं वह्निनाशनम 188<br />
खदिरं कफपित्तघ्नश्चूर्णं वातबलासनुत<br />
संयोगतस्त्रिदोषघ्नं सौमनस्यं करोति च 189<br />
मुखवैशद्यसौगन्ध्यकान्तिसौष्ठवकारकम<br />
प्रभाते पूगमधिकं मध्याह्ने खदिरं तथा<br />
निशासु चूर्णमधिकं ताम्बूलं भक्षयेत्सदा 190<br />
आयुरग्रे यशो मूले लक्ष्मीर्मध्ये व्यवस्थिता<br />
तस्मादग्रं तथा मूलं मध्यं पर्णस्य वर्जयेत 191<br />
पर्णमूले भवेद्व्याधिः पर्णाग्रे पापसम्भवः<br />
पर्णमध्यं हरत्यायुः शिरा बुद्धि विनाशिनी 192<br />
आद्यं विषोपमं पीतं द्वितीयं भेदि दुर्जरम<br />
तृतीयादनुपातव्यं सुधातुल्यं रसायनम 193<br />
ताम्बूलं नातिसेवेत न विरिक्तो बुभुक्षितः 194<br />
देहदृक्केशदन्ताग्निश्रोत्रवर्णबलक्षयः<br />
शोषः पित्तानिलास्रं स्यादतिताम्बूलचर्वणात 195<br />
ताम्बूलं न हितं दन्तदुर्बलेक्षणरोगिणाम<br />
विषमूर्च्छामदार्त्तानां क्षयिणां रक्तपित्तिनाम 196<br />
भुक्त्वा शतपदं गच्छेच्छनैस्तेन तु जायते<br />
अन्नसंघातशैथिल्यं ग्रीवाजानुकटीषु च 197<br />
भुक्त्वोपविशतस्तन्द्रा शयानस्य तु पुष्टता<br />
आयुश्च्रंकममाणस्य मृत्युर्धावति धावतः 198<br />
श्वासानष्टौ समुत्तानस्तान् द्विःपार्श्वे तु दक्षिणे<br />
ततस्तद्द्विगुणान्वामे पश्चात्स्वप्याद्यथासुखम 199<br />
वामदिशायामनलो नाभेरूर्ध्वेऽस्ति जन्तूनाम<br />
तस्मात्तु वामपार्श्वे शयीत भुक्तप्रपाकार्थम 200<br />
त्रिदोषशमनी षट्वा तूली वातकफापहा<br />
भूशय्या वृंहणी वृष्या काष्ठपट्टी तु वातला 201<br />
भूशय्या वातलाऽतीवरूक्षा पित्तास्रनाशिनी<br />
सुशय्याशयनं हृद्यं पुष्टिनिद्रा धृतिप्रदम<br />
श्रमानिलहरं वृष्यं विपरीतमतोऽन्यथा 202<br />
संवाहनं मांसरक्तत्वक्प्रसादकरं परम<br />
प्रीतिनिद्रा करं वृष्यं कफवातश्रमापहम 203<br />
प्रवातं रौक्ष्यवैवर्ण्यस्तम्भकृद्दाहपित्तनुत<br />
स्वेदमूर्च्छापिपासाघ्नमप्रवातमतोऽन्यथा 204<br />
सुखं प्रवातं सेवेत ग्रीष्मे शरदि चान्तरा<br />
निर्वातमायुषे सेव्यमारोग्याय च सर्वदा 205<br />
पूर्वाऽनिलो गुरुः सोष्णः स्निग्धः पित्तास्नदूषकः<br />
विदाही वातलः श्रान्तिकफशोषवतां हितः 206<br />
स्वादुः पटुरभिष्यन्दी त्वग्दोषार्शोविषकृमीन<br />
सन्निपातं ज्वरं श्वासमामवातं च कोपयेत 207<br />
दक्षिणः पवनः स्वादुः पित्तरक्तहरो लघुः<br />
वीर्येण शीतलो बल्यश्चक्षुष्यो न तु वातलः 208<br />
पश्चिमः पवनस्तीक्ष्णः शोषणो बलहृल्लघुः<br />
मेदः पित्तकफध्वंसी प्रभञ्जनविवर्धनः 209<br />
उत्तरो मारुतः शीतः स्निग्धो दोषप्रकोपकृत<br />
क्लेदनः प्रकृतिस्थानां बलदो मधुरो मृदुः 210<br />
आग्नेयो दाहकृद्रू क्षो नैरृतो न विदाहकृत<br />
वायव्यस्तु भवेत्तिक्त एशानः कटुकः स्मृतः 211<br />
विष्वग्वायुरनायुष्यः प्राणिनां बहुरोगकृत<br />
अतस्तं नैव सेवेत सेवितः स्यान्न शर्मणे 212<br />
व्यजनस्यानिलो दाहस्वेदमूर्च्छाश्रमापहः<br />
तालवृन्तभवो वातस्त्रिदोषशमको मतः 213<br />
वंशब्यजनजस्तूष्णो रक्तपित्तप्रकोपणः<br />
चामरो वस्त्रसम्भूतो मायूरो वेत्रजस्तथा 214<br />
पूते दोषजिता वाताः स्निग्धाः हृद्याः सुपूजिताः 215<br />
दिवा स्वापं न कुर्वीत यतोसौ स्यात्कफावहः<br />
ग्रीष्मवर्ज्येषु कालेषु दिवास्वप्नो निषिध्यते 216<br />
उचितो हि दिवास्वप्नो नित्यं येषां शरीरिणाम<br />
वातादयः प्रकुप्यन्ति तेषामस्वपतां दिवा 217<br />
व्यायामप्रमदाऽध्ववाहनरतान् क्लान्तानतीसारिणः<br />
शूलश्वासवतस्तृषापरिगतान् हिक्कामरुत्पीडितान्<br />
क्षीणान् क्षीणकफाञ्छिशून्मदहतान्वृद्धान् रसाजीर्णिनो<br />
रात्रौ जागरितान्नरान्निरशनान्कामं दिवा स्वापयेत 218<br />
दिवा वा यदि वा रात्रौ निद्रा सात्मीकृता तु यैः<br />
न तेषां स्वपतां दोषो जाग्रतां चोपजायते 219<br />
भोजनानन्तरं निद्रा वातं हरति पित्तहृत<br />
कफं करोति वपुषः पुष्टिं सौख्यं तनोति हि 220<br />
शयनं पित्तनाशाय वातनाशाय मर्दनम<br />
वमनं कफनाशाय ज्वरनाशाय लङ्घनम 221<br />
आसीनं घूर्णितं यत्तु नाभिष्यन्दि न रूक्षणम 222<br />
शब्दान् स्पर्शांश्च रूपाणि रसान्गन्धान्मनःप्रियान<br />
भुक्तवानपि सेवेत तेनान्नं साधु तिष्ठति 223<br />
शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धो जुगुप्सितः<br />
भुक्तमप्रयतं चान्नमतिहास्यं च वामयेत 224<br />
शयनं चाशनं चाति न भजेन्न द्र वाधिकम<br />
नाग्न्यातपौ न प्लवनं न यानं नापि वाहनम 225<br />
व्यायामं च व्यवायं च धावनं यानमेव च<br />
युंद्धं गीतं च पाठं च मुहूर्त्तं भुक्तवांस्त्यजेत 226<br />
अत्यम्बुपानाद्विषमाशनाच्च सन्धारणात् स्वप्नविपर्ययाच्च<br />
कालेऽपि सात्म्यं लघु चापि भुक्तमन्नं न पाकं भजते नरस्य 227<br />
ईर्ष्याभय क्रोधसमन्वितेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन<br />
विद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक्परिपाकमेति 228<br />
अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यशनमुच्यते 229<br />
प्राग्भुक्ते चानले मन्दे द्विरह्नि न समाहरेत 230<br />
पूर्व भुक्ते विदग्धेऽन्ने भुञ्जानो हन्ति पावकम 231<br />
सायमाशे त्वजीर्णे तु प्रातर्भुक्तं विषोपमम 232<br />
भवेद्यदि प्रातरजीर्णशङ्का तदाऽभयां नागरसैन्धवाभ्याम<br />
विचूर्णितां शीतजलेन भुक्त्वा भुञ्जीत चान्नं मितमन्नकाले 233<br />
आयुःक्षयभयाद्विद्वान्नाह्नि सेवेत कामिनीम<br />
अवशो यदि सेवेत तदा ग्रीष्मवसन्तयोः 234<br />
आस्या वर्णकफस्थौल्यसौकुमार्यसुखप्रदा<br />
अध्वा वर्णकफस्थौल्यसौकुमार्यविनाशनः 235<br />
यत्तु चंक्रमणं नातिदेहपीडाकरं भवेत<br />
तदायुर्बलमेधाऽग्निप्रदमिन्द्रि यबोधनम 236<br />
उष्णीषं कान्तिकृत्केश्यं रजोवातकफापहम<br />
लघु यच्छस्यते तस्माद् गुरु पित्ताक्षिरोगकृत 237<br />
उपानद्धारणं नेत्र्! यमायुष्यं पादरोगहृत<br />
सुखप्रचारमोजस्यं वृष्यं च परिकीर्तितम 238<br />
पादाभ्यामनुपानद्भ्यां सदा चंक्रमणं नृणाम<br />
अनारोग्यमनायुष्यमिन्द्रि यघ्नमदृष्टिदम 239<br />
छत्रस्य धारणं वर्षातपवातरजोऽपहम<br />
हिमघ्नं हितमक्ष्णोश्च मङ्गल्यमपि कीर्त्तितम 240<br />
सत्त्वोत्साहवलस्थैर्यधैर्यतेजोविवर्धनम<br />
अवष्टम्भकरं चापि भयघ्नं दण्डधारणम 241<br />
ऊर्ध्वाच्छादनसंयुक्ता शिबिका सर्ववल्लभा<br />
तस्यामारोहणं नॄणां त्रिदोषशमकं मतम 242<br />
वातश्लेष्मगदार्त्तानामहिता भ्रमकृत्तरिः<br />
पित्तानिलकरो हस्ती लक्ष्म्यायुःपुष्टिवर्द्धनः 243<br />
घोटकारोहणं वातपित्ताग्निश्रमकृन्मतम<br />
मेदोवर्णकफघ्नं च हितं तद्वलिनां परम 244<br />
आतपः स्वेदमूर्च्छाऽस्रपित्ततृष्णाक्लमश्रमान<br />
दाहं विवर्णतां कुर्यादेतांश्छाया व्यपोहति 245<br />
वृष्टिर्वृष्या हिमा बल्या निद्रा ऽलस्यविधायिनी<br />
भयावहा मोहकरी कुहेलि कफवातला 246<br />
अग्निर्वातकफस्तम्भशीतवेपथुनाशनः<br />
आमाभिष्यन्दशमनो रक्तपित्तप्रकोपणः 247<br />
सद्यः श्लेष्मकरो धूमो नेत्रयोरहितो भृशम<br />
शिरोगौरवकृच्चापि वातपित्तं च कोपयेत 248<br />
मैत्री सद्भिः समं कुर्यात्स्नेहं सत्सु तु सर्वथा<br />
संसर्गं साधुभिः कुर्यादसत्सङ्गं परित्यजेत 249<br />
सेवेत देवभूदेववृद्धवैद्यनृपातिथीन<br />
विमुखान्नार्थिनः कुर्यान्नावमन्येत कानपि 250<br />
गुरूणां सन्निधौ तिष्ठेत्सदैव विनयान्वितः<br />
पादप्रसारणादीनि तत्र नैव समाचरेत 251<br />
अपकारपरेऽपि स्यादुपकारपरः पुमान<br />
आत्मवत्सकलान्पश्येद्वैरिणो दूरतो वसेत 252<br />
न कञ्चिदात्मनः शत्रुं नात्मानं कस्यचिद्रि पुम<br />
प्रकाशयेन्नापमानं न च निःस्नेहतां प्रभोः 253<br />
नात्मानमुदके पश्येन्न नग्नः प्रविशेज्जलम<br />
तथा नाज्ञातगाम्भीर्यं न हिंस्रप्राणिसेवितम 254<br />
काले हितं मितं सत्यं संवादि मधुरं वदेत<br />
भुञ्जीत मधुरप्रायं स्निग्धं काले हितं मितम 255<br />
न रात्रौ दधि भुञ्जीत न च निर्लवणं तथा<br />
नामुद्गसूपं नाक्षौद्रं न चाप्यघृतशर्करम 256<br />
जनस्याशयमालक्ष्य यो यथा परितुष्यति<br />
तं तथैवानुवर्तेत पराराधनपण्डितः 257<br />
नैकः सुखी न सर्वत्र विश्वस्तो न च शङ्कितः<br />
नोद्यमेविरमेत्क्वापि हेतावीर्ष्येत्फले न तु 258<br />
वेगान्न धारयेज्जातु मनोवेगान्विधारयेत<br />
न पीडयेदिन्द्रि याणि न चैतान्यतिलालयेत 259<br />
वर्षाऽतपादिषु च्छत्री दण्डी रात्रौ भयेषु च<br />
सोपानत्कस्तनुं रक्षेद्विचरेद्युगमात्रदृक 260<br />
नदीं तरेन्न बाहुभ्यां नाग्निस्कन्धमभिव्रजेत<br />
सन्दिग्धनावं वृक्षं च नारोहेद्दुष्टयानकम 261<br />
नासंवृतमुखः कुर्यात्सभायां च विचक्षणः<br />
कासं हासं तथोद्गारं जृम्भणं क्षवथुं तथा 262<br />
नासिकां न विकुष्णीयान्नासीतोत्कटकः क्वचित्<br />
नोर्ध्वजानुश्चिरं तिष्ठेन्न नखेन लिखेद्भुवम 263<br />
सम्मार्जनीरजो नैव देहे दद्यात्कदाचन<br />
न नखेन तृणं छिन्द्यान्नोच्छिष्टो ब्राह्मणं स्पृशेत 264<br />
नोपरक्तं न चोद्यन्तं नास्तं यातं दिवाकरम<br />
सर्वथा न समीक्षेत न जले प्रतिबिम्बितम 265<br />
नेक्षेत सततं सूक्ष्मं दीप्तामेध्याप्रियाणि च<br />
पौरन्दरं धनुर्नैव दर्शयेत्कमपि क्वचित 266<br />
नेच्छेद्बलवता युद्धं न भारं शिरसा वहेत<br />
गात्रं न वादयेत्केशान्हस्तेन धुनुयान्न च 267<br />
न गच्छेत्पूज्ययोर्मध्ये दम्पत्योरन्तरेण च<br />
रिपोरन्नं न भुञ्जीत गणिकाऽन्नमपि क्वचित 268<br />
प्रतिभूर्न भवेत्क्वापि न च साक्षी वृथा भवेत 269<br />
स्थागं न धारयेज्जातु द्यूतं दूरात्परित्यजेत 270<br />
विश्वासं नाचरेत्स्त्रीणां ताः स्वतंत्रा न चारयेत<br />
रक्षणीयाः सदा यत्नाद्यौवने तु विशेषतः 271<br />
न भिन्ने शयने स्वप्यान्नानेकविवरेऽपि च<br />
नैको देवालये नैव रात्रौ तरुतलेऽपि च 272<br />
एवं दिनानि गमयेत्सदाचारपरः सदा<br />
ततो रात्रिप्रयुक्तानि कुर्यात्कर्माणि मानवः 273<br />
इत्याचारं समासेन भाषितं यः समाचरेत<br />
स विंदत्यायुरारोग्यं प्रीतिं धर्मं धनं यशः 274<br />
एतानि पञ्च कर्माणि सन्ध्यायां वर्जयेद् बुधः<br />
आहारं मैथुनं निद्रा ं! संपाठं गतिमध्वनि 275<br />
भोजनाज्जायते व्याधिर्मैथुनाद्गर्भवैकृतिः<br />
निद्रया निःस्वता पाठादायुर्हानिर्गतेर्भयम 276<br />
ज्योत्स्ना शीता स्मरानन्दप्रदा तृट्पित्तदाहहृत्<br />
ततो हीनगुणः कुर्यादवश्यायोऽनिलं कफम 277<br />
तमो भयावहं मोहदिङ्मोहजनकं भवेत<br />
पित्तहृत्कफहृत्कामवर्धनं क्लमकृच्च तत 278<br />
रात्रौ च भोजनं कुर्यात्प्रथमप्रहरान्तरे<br />
किञ्चिदूनं समश्नीयाद् दुर्जरं तत्र वर्जयेत 279<br />
शरीरे जायते नित्यं देहिनः सुरतस्पृहा<br />
अव्यवायान्मेहमेदोवृद्धिः शिथिलता तनोः 280<br />
बालेति गीयते नारी यावद्वर्षाणि षोडश<br />
ततस्तु तरुणी ज्ञेया द्वात्रिंशद्वत्सरावधि 281<br />
तदूर्ध्वमधिरुढा स्यात्पञ्चाशद्वत्सरावधि<br />
वृद्धा तत्परतो ज्ञेया सुरतोत्सववर्जिता 282<br />
निदाघशरदोर्वाला हिता विषयिणां मता<br />
तरुणी शीतसमये प्रौढा वर्षावसन्तयोः 283<br />
नित्यं बाला सेव्यमाना नित्यं वर्धयते वलम<br />
तरुणी ह्रासयेच्छक्तिं प्रौढोद्भावयते जराम् 284<br />
सद्यो मांसं नवं चान्नं वाला स्त्री क्षीरभोजनम<br />
घृतमुष्णोदके स्नानं सद्यः प्राणकराणिषट 285<br />
पूतिमांसं स्त्रियो वृद्धा बालाऽकस्तरुणं दधि<br />
प्रभाते मैथुनं निद्रा सद्यः प्राणहराणि षट 286<br />
वृद्धोऽपि तरुणीं गत्वा तरुणत्वमवाप्नुयात<br />
वयोधिकां स्त्रियं गत्वा तरुणः स्थविरायते 287<br />
आयुष्मन्तो मन्दजरा वपुर्वर्णबलान्विताः<br />
स्थिरोपचितमांसाश्च भवन्ति स्त्रीषु संयताः 288<br />
सेवेत कामतः कामं बलाद्वाजीकृतो हिमे<br />
प्रकामं तु निषेवेत मैथुनं शिशिरागमे 289<br />
त्र्! यहाद्वसन्तशरदोः पक्षाद् वृष्टिनिदाघयोः 290<br />
त्रिभिस्त्रिभिरहोभिर्हि समेयात्प्रमदां नरः<br />
सर्वेष्वृतुषु घर्मे तु पक्षात्पक्षाद् व्रजेद बुधः 291<br />
शीते रात्रौ दिवा ग्रीष्मे वसन्ते तु दिवा निशि<br />
वर्षासु वारिदध्वाने शरत्सु सरसः स्मरः 292<br />
उपेयात्पुरुषो नारीं संध्ययोर्न च पर्वसु<br />
गोसर्गे चार्द्धरात्रे च तथा मध्यदिनेऽपि च 293<br />
विहारं भार्यया कुर्याद् देशेऽतिशयसंवृते<br />
रम्ये श्राव्याङ्गनागाने सुगन्धे सुखमारुते 294<br />
देशे गुरुजनासन्ने विवृतेऽतित्रपाकरे<br />
श्रूयमाणे व्यथाहेतुवचने न रमेत ना 295<br />
स्नातचन्दनलिप्ताङ्गः सुगन्धः सुमनोऽन्वितः<br />
भुक्तवृष्यः सुवसनः सुवेषः समलंकृतः 296<br />
ताम्बूलवदनः पत्न्यामनुरक्तोऽधिकस्मरः<br />
पुत्रार्थी पुरुषो नारीमुपेयाच्छयने शुभे 297<br />
अत्याशितोऽधृतिः क्षुद्वान्सव्यथाङ्गः पिपासितः<br />
बालो वृद्धोऽन्यवेगार्त्तस्त्यजेद्रोगी च मैथुनम 298<br />
भार्यां रूपगुणोपेतां तुल्यशीलां कुलोद्भवाम<br />
अतिकामोऽभिकामां तु हृष्टो हृष्टामलंकृताम<br />
सेवेत प्रमदां युक्त्या वाजीकरणवृंहितः 299<br />
रजस्वलामकामां च मलिनामप्रियां तथा 300<br />
वर्णबृद्धां वयोवृद्धां तथा व्याधिप्रपीडिताम<br />
हीनाङ्गीं गर्भिणीं द्वेष्यां योनिरोगसमन्विताम 301<br />
सगोत्रां गुरुपत्नीं च तथा प्रव्रजितामपि<br />
नाधिगच्छेत् पुमान्नारीं भूरिवैगुण्यशङ्कया 302<br />
रजस्वलां गतवतो नरस्यासंयतात्मनः<br />
दृष्ट्यायुस्तेजसां हानिरधर्मश्च ततो भवेत 303<br />
लिगिनीं गुरुपत्नीं च सगोत्रामथ पर्वसु<br />
वृद्धां च सन्ध्ययोश्चापि गच्छतो जीवनक्षयः 304<br />
गर्भिण्यां गर्भपीडा स्याद्व्याधितायां बलक्षयः 305<br />
हीनाङ्गीं मलिनां द्वेष्यां क्षामां वन्ध्यामसंवृते<br />
देशेऽभिगच्छतो रेतः क्षीणं म्लानं मनो भवेत 306<br />
क्षुधितः क्षुब्धचित्तश्च मध्याह्ने तृषितोऽबलः<br />
स्थितस्य हानिं शुक्रस्य वायोः कोपं च विन्दति 307<br />
व्याधितस्य रुजा प्लीहा मूर्च्छा मृत्युश्च जायते<br />
प्रत्यूषे चार्धरात्रे च वातपित्ते प्रक्प्यतः 308<br />
तिर्यग्योनावयोनौ वा दुष्टयोनौ तथैव च<br />
उपदंशस्तथा वायोः कोपः शुक्रसुखक्षयः 309<br />
उच्चारिते मूत्रिते च रेतसश्च विधारणे<br />
उत्ताने च भवेच्छीघ्रं शुक्राश्मर्यास्तु सम्भवः 310<br />
सर्वमेतत्त्यजेत्तस्माद्यतो लोकद्वयाहितम<br />
शुक्रं तूपस्थितं मोहान्न सन्धार्यं कदा चन 311<br />
स्नानं सशर्करं क्षीरं भक्ष्यमैक्षवसंस्कृतम<br />
वातो मांसरसः स्वप्नः सुरतान्ते हिता अमी 312<br />
शूलकासज्वरश्वासकार्श्यपाण्ड्वामयक्षयाः<br />
अतिव्यवायाज्जायन्ते रोगाश्चाक्षेपकादयः 313<br />
रोत्रौ जागरणं रूक्षं कफदोषविषार्तिजित<br />
निद्रा तु सेविताकाले धातुसाम्यमतन्द्रि ताम 314<br />
पुष्टिं वर्णं बलोत्साहं वह्निदीप्तिं करोति हि 315<br />
यो लेढि शयनसमये मधुमिश्रं बीजपूरदलचूर्णम<br />
स तु लज्जाकरवातप्रसरनिरोधात्सुखं स्वपिति 316<br />
सवितुः समुदयकाले प्रसृतीः सलिलस्य यः पिबेदष्टौ<br />
रोगजरापरिमुक्तो जीवेद्वत्सरशतं साग्रम 317<br />
अर्शःशोथग्रहण्यो ज्वरजठरजराकुष्ठमेदोविकाराः<br />
मूत्राघातास्रपित्तश्रवणगलशिरःश्रोणिशूलाक्षिरोगाः<br />
ये चान्ये वातपित्तक्षतजकफकृता व्याधयः सन्ति जन्तो<br />
स्तांस्तानभ्यासयोगादपहरति पयः पीतमन्ते निशायाः 318<br />
विगतघननिशीथे प्रातरुत्थाय नित्यं पिबति खलु नरो यो घ्राणरन्ध्रेण वारि<br />
स भवति मतिपूर्णश्चक्षुषा तार्क्ष्यतुल्यो वलिपलितविहीनः सर्वरोगैर्विमुक्तः 319<br />
पातव्यं नासया नीरं प्रसृतित्रयमात्रया 320<br />
व्यङ्गवलीपलितघ्नंपीनसवैस्वर्यकासशोथहरम<br />
रजनीक्षयेऽम्बुनस्यं रसायनं दृष्टिसञ्जननम 321<br />
स्नेहे पीते क्षते शुद्धावाध्माने स्तिमितोदरे<br />
हिक्कायां कफवातोत्थे व्याधौ तद्वारि वारयेत 322<br />
क्षयकोपशमा यस्मिन्दोषाणां सम्भवन्ति हि<br />
ऋतुषट्कं तदाख्यातं रवेः राशिषु संक्रमात 323<br />
ग्रीष्मो मेषबृषौ प्रोक्तः प्रावृण्मिथुनकर्कटौ<br />
सिंहकन्ये स्मृता वर्षा तुलावृश्चिकयोः शरत 324<br />
धनुर्ग्राहौ च हेमन्तो वसन्तः कुम्भमीनयोः 325<br />
शिशिरः पुष्पसमयो ग्रीष्मो वर्षा शरद्धिमाः<br />
माघादिमासयुग्मं स्युरृतवः षट क्रमादमी 326<br />
गङ्गाया दक्षिणे देशे वृष्टेर्बहुलभावतः<br />
उभौ मुनिभिराख्यातौ प्रावृड्वर्षाभिधावृतू 327<br />
तिस्याएवोत्तरेदेशे हिमप्रचुरभावतः<br />
एतावुभौ समाख्यातौ हेमन्तशिशिरावृतू 328<br />
उत्तरायणमाद्यैस्तैः परैः स्याद्दक्षिणायनम<br />
आद्यमुष्णं बलहरं ततोऽन्यद्बलदं हिमम 329<br />
हेमन्तं शीतलः स्निग्धः स्वादुर्जठरवह्निकृत<br />
शिशिरः शीतलोऽतीव रूक्षो वाताग्निवर्धनः 330<br />
वसन्तो मधुरः स्निग्धः श्लेष्मवृद्धिकरश्च सः<br />
ग्रीष्मो रूक्षोऽतिकटुकः पित्तकृत्कफनाशनः 331<br />
वर्षाः शीता विदाहिन्यो वह्निमान्द्यानिलप्रदाः<br />
शरदुष्णा पित्तकर्त्री नृणां मध्यबलावहा 332<br />
चयप्रकोपोपशमा वायोर्ग्रीष्मादिषु त्रिषु<br />
वर्षाऽदिषु च पित्तस्य श्लेष्मणः शिशिरादिषु 333<br />
चीयते लघुरूक्षाभिरोषधीभिः समीरणः<br />
तद्विधस्तद्विधे देहे कालस्यौष्ण्यान्न कुप्यति 334<br />
अद्भिरम्लविपाकाभिरोषधीभिश्च तादृशम<br />
पित्तं याति चयं कोपं न तु कालस्य शैत्यतः 335<br />
चीयते स्निग्धशीताभिरुदकौषधिभिः कफः<br />
तुल्ये च काले देहे च स्कन्नत्वान्न प्रकुप्यति 336<br />
हिमे याति शमं पित्तं वायुः श्लेष्मा च चीयते<br />
स वायुः शिशिरे कोपं यात्येवोपचितः कफः 337<br />
हेमन्ते सञ्चितः श्लेष्मा शिशिरे त्वतिचीयते<br />
शीतस्निग्धगुरुद्र व्यैः शैत्यस्कन्नो न कुप्यति 338<br />
इति कालस्वभावोऽयमाहारादिवशात्पुनः<br />
चयादीन् यान्ति सद्योऽपि दोषाः काले विशेषतः 339<br />
चयकोपमशमान्दोषा विहाराहारसेवनैः<br />
समानैर्यान्त्यकालेऽपि विपरीतैर्विपर्ययम 340<br />
स्वस्थानस्थस्य दोषस्य वृद्धिः स्यात्स्तब्धकोषता<br />
पीतावभासता वह्निमन्दता चाङ्गगौरवम 341<br />
आलस्यं चयहेतौ तु द्वेषश्च चयलक्षणम<br />
सञ्चये ऽपहृता दोषा लभन्ते नोत्तरां गतिम 342<br />
ते तूत्तरासु गतिषु भवन्ति बलवत्तराः 343<br />
वर्षासुप्रबलो वायुस्तस्मान्मिष्टादयस्त्रयः<br />
रसाः सेव्या विशेषेण पवनस्योपशान्तये 344<br />
भवेद्वर्षासु वपुषः क्लिन्नत्वं यद्विशेषतः<br />
तत्क्लेदशान्तये सेव्या अपि कट्वादयस्त्रयः 345<br />
स्वेदनं मर्दनं सेव्यं दध्युष्णंजाङ्गलामिषम<br />
शालयो यवगोधूमा जलं कौपं जलं च्युतम 346<br />
न भजेत्पूर्वपवनं वृष्टिं घर्मं हिमं श्रमम<br />
नदीतीरं दिवास्वप्नं रूक्षं नित्यं च मैथुनम 347<br />
सर्पिः स्वादुकषायतिक्तकरसा यच्छीतलं यल्लघु<br />
क्षीरं स्वच्छसितैक्षवः पटुरसः स्वल्पं पलं जाङ्गलम<br />
गोधूमा यवमुद्गशालिसहिता नादेयमंशूदकं<br />
चन्द्र श्चन्दनमिन्दुरादिरजनी माल्यं पटो निर्मलः 348<br />
दिविसेऽककरैर्जुष्टं निशि शीतकरांशुभिः<br />
ज्ञेयमंशूदकं नाम स्निग्धं दोषत्रयापहम<br />
विश्रामः सुहृदां गणेषु मधुरा वाचः सरः क्रीडनं<br />
पित्तानां च विरेचनं बलवतो युक्तं शिरामोक्षणम<br />
एतान्यत्र घनावसानसमयेपथ्यानिऐ !<br />
मुञ्चेद्दधिव्यायामाम्लकटूष्णतीक्ष्ण दिवसस्वप्नं हिमञ्चातपम 349<br />
इक्षवः शालयो मुद्गाः सरोऽम्भ क्वथितं पयः<br />
शरद्येतानि पथ्यानि प्रदोषे चेन्दुरश्मयः 350<br />
प्रातर्भोजनमम्लमिष्टलवणानभ्यङ्गघर्मश्रमान<br />
गोधूमैक्षवशालिमाषपिशितं पिष्टं नवान्नं तिलान<br />
कस्तूरीं वरकुङ्कुमागुरुयुतामुष्णाम्बुशौचं<br />
तथौ स्निग्धं स्त्रीषु सुखं गुरूष्णवसनं सेवेत हेमन्तके 351<br />
शिशिरे शीतमधिकं रौक्ष्यं चादानकालजम<br />
विशेषतस्ततस्तत्र हेमन्तस्य मतो विधिः 352<br />
वान्तिं नस्यमथाभयां च मधुना व्यायाममुद्वर्त्तनं<br />
संसेवेत मधौ कफघ्नकवलं शूल्यं पलं जाङ्गलम<br />
गोधूमान्बहुशालिभेदसहितान्मुद्गान्यवान्षष्टिकां<br />
ल्लेपञ्चन्दनकुङ्कुमागुरुकृतं रूक्षं कटूष्णं लघु 353<br />
मिष्टमम्लं दधिस्निग्धं दिवास्वप्नं च दुर्जरम<br />
अवश्यायमपि प्राज्ञो वसन्ते परिवर्जयेत 354<br />
स्वादुस्निग्धहिमं लघु द्र वमयं द्रव्यं रसालां सितां-<br />
सक्तुंक्षीरमजाङ्गलानि सितया शालि रसं मांसजम<br />
शीतांशुं शयनं दिवा मलयजं शीतं पयः पानकं<br />
सेवेतोष्णदिने त्यजेत्तु कटुकक्षाराम्लघर्मश्रमान 355<br />
ॠतुष्वेषु य एतैस्तु विधिभिर्वर्त्तते नरः<br />
दोषानृतुकृतान्नैव लभते स कदाचन 356<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीलटकन तनय श्रीमन्मिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे </span><br />
<span style="color: red;">दिनचर्यादिप्रकरणं पञ्चमम् 5</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-28672864862482998722015-07-13T06:27:00.002-07:002015-07-13T06:27:33.593-07:00अथ षष्ठं मिश्रप्रकरणम 6<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यमरोगता<br />
रोगा दुःखस्य दातारो ज्वरप्रभृतयो हि ते 1<br />
ते च स्वाभाविकाः केचित्केचिदागन्तवः स्मृताः<br />
मानसाः केचिदाख्याताः कथिताः केऽपि कायिकाः 2<br />
कर्मजाः कथिताः केचिद्दोषजाः सन्ति चापरे<br />
कर्मदोषोद्भवाश्चान्ये व्याधयस्त्रिविधाः स्मृताः 3<br />
कर्मक्षयात्कर्मकृता दोषजाः स्वस्वभेषजैः<br />
कर्मदोषोद्भवा यान्ति कर्मदोषक्षयात् क्षयम 4<br />
साध्या याप्या असाध्याश्च व्याधयस्त्रिविधाः स्मृताः<br />
सुखसाध्यः कष्टसाध्यो द्विविधः साध्य उच्यते 5<br />
यापनीयं तु तं विद्यात्क्रिया धारयते हि यम<br />
क्रियायां तु निवृत्तायां सद्यो यश्च विनश्यति 6<br />
प्राप्ता क्रिया धारयति सुखिनं याप्यमातुरम<br />
प्रपतिष्यदिवागारं स्तम्भो यत्नेन योजितः 7<br />
साध्या याप्यत्वमायान्ति याप्याश्चासाध्यतां तथा<br />
घ्नन्ति प्राणानसाध्यास्तु नराणामक्रियावताम 8<br />
रोगारम्भकदोषस्य प्रकोपादुपजायते<br />
योऽन्यो विकारः स बुधैरुपद्र व इहोदितः 9<br />
रोगिणो मरणं यस्मादवश्यम्भावि लक्ष्यते<br />
तल्लक्षणमरिष्टं स्याद्रि ष्टं चापि तदुच्यते 10<br />
या क्रिया व्याधिहरणी सा चिकित्सा निगद्यते<br />
दोषधातुमलानां या साम्यकृत्सैव रोगृहृत 11<br />
याभिः क्रियाभिर्जायन्ते शरीरे धातवः समाः<br />
सा चिकित्सा विकाराणां कर्म तद्भिषजां मतम 12<br />
या ह्युदीर्णं शमयति नान्यं व्याधिं करोति च<br />
सा क्रिया न तु या व्याधिं हरत्यन्यमुदीरयेत 13<br />
जातमात्रश्चिकित्स्यः स्यान्नोपेक्ष्योऽल्पतया गदः<br />
वह्निशत्रुविषैस्तुल्यः स्वल्पोऽपि विकरोत्यसौ 14<br />
रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौषधम<br />
ततः कर्म भिषक पश्चाज्ज्ञानपूर्वं समाचरेत 15<br />
यस्तु रोगमविज्ञाय कर्माण्यारभते भिषक<br />
अप्यौषधविधानज्ञस्तस्य सिद्धिर्यदृच्छया 16<br />
भेषजं केवलं कर्तुं यो जानाति न चामयम<br />
वैद्यकर्म स चेत्कुर्याद्वधमर्हति राजतः 17<br />
यस्तु केवलरोगज्ञो भेषजेष्वविचक्षणः<br />
तं वैद्यं प्राप्य रोगी स्याद्यथा नौर्नाविकं विना 18<br />
यस्तु केवलशास्त्रज्ञः क्रियास्वकुशलो भिषक<br />
स मुह्यत्यातुरं प्राप्य तथा भीरुरिवाहवम 19<br />
यस्तु रोगविशेषज्ञः सर्वभैषज्यकोविदः<br />
देश कालविभागज्ञस्तस्य सिद्धिर्न संशयः 20<br />
आदावन्ते रुजां ज्ञाने प्रयतेत चिकित्सकः<br />
भेषजानां विधानेन ततः कुर्याच्चिकित्सतम 21<br />
विकारनामाकुशलो न जिह्रीयात्कदाचन<br />
न हि सर्वविकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवा स्थितिः 22<br />
नास्ति रोगो विना दोषैर्यस्मात्तस्माच्चिकित्सकः<br />
अनुक्तमपि दोषाणां लिङ्गैर्व्याधिमुपाचरेत 23<br />
ये न कुर्वन्त्यसाध्यानां चिकित्सां ते भिषग्वराः<br />
अतो वैद्यैः श्रमः कार्यः साध्यासाध्यपरीक्षणे 24<br />
शीते शीतप्रतीकारमुष्णे तूष्णनिवारणम<br />
कृत्वा कुर्यात्क्रियां प्राप्तां क्रियाकालं न हापयेत 25<br />
अप्राप्ते वा क्रियाकाले प्राप्ते वा न क्रिया कृता<br />
क्रियाहीनाऽतिरिक्ता च साध्येष्वपि न सिध्यति 26<br />
विकारेऽल्पे महत्कर्म क्रिया लघ्वी गरीयसि<br />
द्वयमेतदकौशल्यं कौशल्यं युक्तकर्मता 27<br />
क्रियायास्तु गुणालाभे क्रियामन्यां प्रयोजयेत<br />
पूर्वस्यां शान्तवेगायां न क्रियासङ्करो हितः 28<br />
क्रियाभिस्तुल्यरूपाभिर्न क्रियासङ्करो हितः<br />
ताभिस्तु भिन्नरूपाभिः साङ्कर्यं नैव दुष्यति 29<br />
न चैकान्तेन निर्दिष्टे शास्त्रे निविशते बुधः<br />
स्वयमप्यत्र भिषजा तर्कणीयं चिकित्सता 30<br />
उत्पद्यते च साऽवस्था दोषकालबलं प्रति<br />
यस्यां कार्यमकार्यं स्यात्कर्म कार्यं विवर्जितम 31<br />
क्वचिदर्थः क्वचिन्मैत्री क्वचिद्धर्मः क्वचिद्यशः<br />
कर्माभ्यासः क्वचिच्चेति चिकित्सा नास्ति निष्फला 32<br />
आयुर्वेदोदितां युक्तिं कुर्वाणाश्च हिताय ये<br />
पुण्यायुर्वृद्धिसंयुक्ता नीरोगाश्च भवन्ति ते 33<br />
नैव कुर्वीत लोभेन चिकित्सापुण्यविक्रयम <br />
ईश्वराणां वसुमतां लिप्सेतार्थं तु वृत्तये 34<br />
चिकित्सितं शरीरं यो न निष्क्रीणाति दुर्मतिः<br />
स यत्करोति सुकृतं सर्वं तद्भिषगश्नुते 35<br />
न देशो मनुजैर्हीनो न मनुष्या निरामयाः<br />
ततः सर्वत्र वैद्यानां सुसिद्धा एव वृत्तयः 36<br />
रोगी दूतो भिषग्दीर्घमायुर्द्र व्यं सुसेवकः<br />
सदौषधं चिकित्साया इत्यङ्गानि बुधा जगुः 37<br />
रोगो यस्यास्तिरोगी स सचिकित्स्यस्तु यादृशः<br />
यादृशश्चाचिकित्स्योऽपि वक्ष्यमाणो निशम्यताम 38<br />
निजप्रकृतिवर्णाभ्यां युक्तः सत्त्वेन चक्षुषा<br />
चिकित्स्यो भिषजां रोगी वैद्यभक्तो जितेन्द्रि यः 39<br />
आयुष्मान्सत्त्ववान्साध्यो द्र व्यवान्मित्रवानपि<br />
चिकित्स्यो भिषजां रोगी वैद्यवाक्यकृदास्तिकः 40<br />
चण्डः साहसिको भीरुः कृतघ्नो व्यग्र एव च<br />
शोकाकुलो मुमूर्षुश्च विहीनः करणैश्चः यः 41<br />
वैरी वैद्यविदग्धश्च श्रद्धाहीनश्च शङ्कितः<br />
भिषजामविधेयः स्युर्नोपक्रम्या भिषग्विधाः 42<br />
एतानुपाचरन वैद्यो वहून दोषानवाप्नुयात 43<br />
यश्चिकित्सकमानेतुं याति दूतः स कथ्यते<br />
स च यादृक समुचितस्तादृगत्र निगद्यते 44<br />
दूताः सुजातयोऽव्यङ्गाः पटवो निर्मलाम्बराः<br />
सुखिनोऽश्ववृषारूढाः शुभ्रपुष्पफलैर्युताः 45<br />
सजातयः सुचेष्टाश्च सजीवदिशि सङ्गताः<br />
भिषजं समये प्राप्ता रोगिणः सुखहेतवे 46<br />
वैद्याह्वानाय दूतस्य गच्छतो रोगिणः कृते<br />
न शुभं सौम्यशकुनं प्रदीप्तं तु सुखावहम 47<br />
तथाहि रिक्तहस्तो न पश्येत्तुराजानं भिषजं गुरुम<br />
दैवज्ञं देवतां मित्रं फलेन फलमादिशेत 48<br />
चिकित्सां कुरुते यस्तु स चिकित्सक उच्यते<br />
स च यादृक्समीचीनस्तादृशोऽपि निगद्यते 49<br />
तत्त्वाधिगतशास्त्रार्थो दृष्टकर्मा स्वयंकृती<br />
लघुहस्तः शुचिः शूरः सज्जोपस्करभेषजः 50<br />
प्रत्युत्पन्नमतिर्धीमान् व्यवसाथी प्रियंवदः<br />
सत्यधर्मपरो यश्च वैद्य ईदृक् प्रशस्यते 51<br />
कुचैलः कर्कशः स्तब्धो ग्रामीणः स्वयमागतः<br />
पञ्च वैद्या न पूज्यन्ते धन्वन्तरिसमा यदि 52<br />
व्याधेस्तत्त्वपरिज्ञानं वेदनायाश्च निग्रहः<br />
एतद्वैद्यस्य वैद्यत्वं न वैद्यः प्रभुरायुषः 53<br />
भिषगादौ परीक्षेत रुग्णस्यायुः प्रयत्नतः<br />
तत आयुषि विस्तीर्णे चिकित्सा सफला भवेत 54<br />
सौम्या दृष्टिर्भवेद्यस्य श्रोत्रं वक्त्रं तथैव च<br />
स्वादु गन्धं विजानाति स साध्यो नात्र संशयः 55<br />
पाणिपादौ च यस्योष्णौ दाहः स्वल्पतरो भवेत<br />
जिह्वातु कोमला यस्य स रोगी न विनश्यति 56<br />
स्वेदहीनो ज्वरो यस्य श्वासो नासिकया चरेत<br />
कण्ठश्च कफहीनः स्यात्स रोगी जीवति ध्रुवम 57<br />
यस्य निद्रा सुखेन स्याच्छरीरं द्युतिमद्भवेत<br />
इन्द्रि याणि प्रसन्नानि स रोगी नैव नश्यति 58<br />
शरीरशीलयोर्यस्य प्रकृतेर्विकृतिर्भवेत<br />
तदरिष्टं समासेन व्यासतश्च निबोध मे 59<br />
शृणोति विविधाञ्छब्दान्विपरीताञ्छृणोति च<br />
यो न शृणोति चाकस्मात्तं वदन्ति गतायुषम 60<br />
यस्तूष्णमिव गृह्णाति शीतमुष्णं च शीतवत<br />
उष्णगात्रोऽतिमात्रं यो भृशं शीतेन कम्पते 61<br />
प्रहारं नैव जानाति योऽङ्गच्छेदमथापि वा<br />
पांशुनेवावकीर्णानि यश्च गात्राणि मन्यते 62<br />
वर्णान्यता वा राज्यो वा यस्य गात्रे भवन्ति हि<br />
स्नातानुलिप्तं यं चापि भजन्ते नीलमाक्षिकाः 63<br />
विपरीतेन गृह्णाति रसान्यश्चोपयोजितान<br />
यो वा रसान्न संवेत्ति तं गतासुं प्रचक्षते 64<br />
सुगन्धं वेत्ति दुर्गन्धं दुर्गन्धं च सुगन्धवत<br />
गृह्णाति योऽन्यथा गन्धं शान्ते दीपे निरामयः 65<br />
रात्रौ सूर्यं ज्वलन्तं वा दिवा वा चन्द्र वर्चसम <br />
दिवा ज्योतींषि यश्चापि ज्वलितानीव पश्यति 66<br />
विद्युत्वतोऽसितान्मेघान् गगने निर्घने घनान<br />
विमानयानप्रासादैर्यश्च सङ्कुलमम्बरम 67<br />
यश्चानिलं मूर्त्तिमन्तमन्तरिक्षेऽवलोकते<br />
धूमनीहारवासोभिरावृतामिव मेदिनीम 68<br />
प्रदीप्तमिव यो लोकं यो वाप्लुतमिवाम्भसा<br />
भूमिमष्टापदाकारां लेखाभिर्यश्च पश्यति 69<br />
यो न पश्यति ॠक्षाणि यश्च देवीमरुन्धतीम<br />
ध्रुवमाकाशगङ्गां च तं वदन्ति गतायुषम 70<br />
आदर्शेऽम्बुनि घर्मे वा छायां यश्च न पश्यति<br />
पश्यत्येकाङ्गहीनां वा विकृतां वाऽन्यसत्वजाम 71<br />
श्वकाककङ्कगृध्राणां प्रेतानां यक्षरक्षसाम<br />
आतुरो लभते मृत्युं स्वस्थो व्याधिमवाप्नुयात 72<br />
ह्रीश्रियौ नश्यतो यस्य तेज ओजः स्मृतिः प्रभा<br />
अकस्माच्च भजन्ते यं स गतासुरसंशयम 73<br />
यस्याधरौष्ठः पतितः क्षिप्तश्चोर्ध्वं तथोत्तरः<br />
उभौ वा जाम्बवाभासौ दुर्लभं तस्य जीवितम 74<br />
आरक्ता दशना यस्य श्यावा वा स्युः पतन्ति वा<br />
खञ्जनप्रतिभा वापि तं गतायुषमादिशेत 75<br />
कृष्णा तथाऽनुलिप्ता च जिह्वा शून्या च यस्य वै<br />
कर्कशा वा भवेद्यस्य सोऽचिराद्विजहात्यसून 76<br />
कुटिला स्फुटिता वाऽपि शुष्का वा यस्य नासिका<br />
अवस्फूर्जति भग्ना वा स न जीवति मानवः 77<br />
संक्षिप्ते विषमे स्तब्धे रूक्षे सास्रे च लोचने<br />
स्यातां परिश्रुते यस्य स गतायुर्नरो ध्रुवम 78<br />
केशा सीमन्तिनो यस्य संक्षिप्ते विनते भ्रुवौ<br />
लुठन्ति चाक्षिपक्ष्माणि सोऽचिराद्याति मृत्यवे 79<br />
नाहरत्यन्नमास्यस्थं न धारयति यः शिरः<br />
एकाग्रदृष्टिर्मूढात्मा सद्यः प्राणान्विमुञ्चति 80<br />
उत्थाप्यमानो बहुशः संमोहं योऽधिगच्छति<br />
बलवान्दुर्बलो वापि तं पक्वं भिषगादिशेत 81<br />
निद्रा निरन्तरं यस्य यो जागर्त्ति च सर्वदा<br />
मुह्येद्वा वक्तुकामश्च प्रत्याख्येयः स जानता 82<br />
उत्तरौष्ठं च यो लिह्यादुत्करांश्च करोतिः यः<br />
प्रेतैर्वा भाषते सायं प्रेतरूपं तमादिशेत 83<br />
खेभ्यश्च रोमकूपेभ्यो यस्य रक्तं प्रवर्तते<br />
पुरुषस्याविषार्तस्य स सद्यो जीवितं त्यजेत 84<br />
सम्यक् चिकित्स्यमानस्य विकारो योऽभिवर्धते<br />
प्रक्षीणबलमांसस्य लक्षणं तद्गतायुषः 85<br />
भूताः प्रेताः पिशाचाश्च रक्षांसि विविधानि च<br />
मरणाभिमुखं जन्तुमुपसृत्य च नित्यशः 86<br />
तानि भेषजवीर्याणि प्रतिघ्नन्ति जिघांसया<br />
तस्मान्मोघाः क्रियाः सर्वा भवन्त्येव गतायुषः 87<br />
सर्वे द्र व्यमपेक्षन्ते रोगिप्रभृतयो यतः<br />
विना वित्तं न भैषज्यं चिकित्साऽङ्ग ततो धनम 88<br />
स्निग्धोऽजुगुप्सुर्बलवान्युक्तो व्याधितरक्षणे<br />
वैद्यवाक्यकृदश्रान्तो युज्यते परिचारकः 89<br />
वैद्यो व्याधिं हरेद्येन तद्द्र व्यं प्रोक्तमौषधम<br />
तद्यादृशमवश्यं स्याद्रो गघ्नं तादृशं ब्रुवे 90<br />
प्रशस्तदेशे सञ्जातं प्रशस्तेऽहनि चोद्धृतम<br />
अल्पमात्रं बहुगुणं गन्धवर्णरसान्वितम 91<br />
दोषघ्नमग्लानिकरमधिकं न विकारि यत<br />
समीक्ष्य काले दत्तं च भेषजं स्याद गुणावहम 92<br />
आग्नेया विन्ध्यशैलाद्या सौम्यो हिमगिरिः स्मृतः<br />
अतस्तदौषधानि स्युरनुरूपाणि हेतुभिः 93<br />
अन्येष्वपि प्ररोहन्ति वनेषूपवनेषु च<br />
गृह्णीयात्तानि सुमनाः शुचिः प्रातः सुवासरे 94<br />
आदित्यसम्मुखो मौनी नमस्कृत्य शिवं हृदि<br />
साधारणधराद्र व्यं गृह्णीयादुत्तराश्रितम 95<br />
वल्मीककुत्सितानूपश्मशानोषरमार्गजाः<br />
जन्तुवह्निहिमव्याप्ता नौषध्यः कार्यसाधिकाः 96<br />
शरद्यखिलकार्यार्थं ग्राह्यंसरसमौषधम<br />
विरेकवमनार्थं तु वसन्तान्ते समाहरेत 97<br />
अतिस्थूलजटा याः स्युस्तासां ग्राह्यास्त्वचो ध्रुवम<br />
गृह्णीयात्सूक्ष्ममूलानि सकलान्यपि बुद्धिमान 98<br />
महान्ति येषां मूलानि काष्ठगर्भाणि सर्वतः<br />
तेषां तु वल्कलं ग्राह्यं ह्रस्वमूलानि सर्वशः 99<br />
न्यग्रोधादेस्त्वचो ग्राह्या सारःस्याद्वीजकादितः<br />
तालीसादेश्च पत्राणि फलं स्यात् त्रिफलादितः 100<br />
क्वचिन्मूलं क्वचित्कन्दः क्वचित्पत्रं क्वचित्फलम<br />
क्वचित्पुष्पं क्वचित्सर्वं क्वचित्सारः क्वचित्त्वचः 101<br />
चित्रकं सूरणं निम्बो वासा च त्रिफला क्रमात<br />
धातकी कण्टकारी च खदिरः क्षीरपादपः 102<br />
क्वचिन्निम्बस्य गृह्णीयात्पत्राभावे त्वचामपि<br />
बालं फलं तु बिल्वस्य पक्वमारग्वधस्य च 103<br />
अङ्गेऽनुक्ते जटा ग्राह्या भागेऽनुक्तेऽखिलं समम<br />
पात्रेऽनुक्ते मृदः पात्रं कालेऽनुक्ते त्वहर्मुखम 104<br />
नवान्येव हि योज्यानि द्र व्याण्यखिलकर्मसु<br />
विना विडङ्गकृष्णाभ्यां गुडधान्याज्यमाक्षिकैः 105<br />
पुराणन्तु प्रशस्तं स्यात्ताम्बूलं काञ्जिकं तथा<br />
शुष्कं नवीनद्र व्यं तु योज्यं सकलकर्मसु 106<br />
आद्र रं! तु द्विगुणं युञ्ज्यादेष सर्वत्र निश्चयः<br />
गुडूची कुटजो वासा कूष्माण्डश्च शतावरी 107<br />
अश्वगन्धा सहचरः शतपुष्पा प्रसारिणी<br />
प्रयोक्तव्याः सदैवाद्रा र्! द्विगुणं नैव कारयेत 108<br />
वासानिम्बपटोलकेतकबलाकूष्माण्डकेन्दीवरी-<br />
वर्षाभूकुटजाश्च कन्दसहिता सा पूतिगन्धाऽमृता<br />
एन्द्री नागबला कुरुण्टकपुरच्छत्राऽमृताः सर्वदा<br />
साद्रा र्! एव तु न क्वचिद् द्विगुणिताः कार्येषु योज्या बुधैः 109<br />
घृतं तैलं च पानीयं कषायं व्यञ्जनादिकम<br />
पक्त्वा शीतीकृतं चोष्णं तत्सर्वं स्याद्विषोपमम 110<br />
सूक्ष्मास्थिमांसला पथ्या सर्वकर्मणि पूजिता<br />
क्षिप्ताऽम्भसि निमज्जेद्याः भल्लातक्यस्तथोत्तमाः 111<br />
वराहमूर्द्धवत्कन्दो वाराहीकन्दसंज्ञकः<br />
सौवर्चलं तु काचाभं सैन्धवं स्फटिकप्रभम 112<br />
सुवर्णच्छविकं ज्ञेयं स्वर्णमाक्षिकमुत्तमम<br />
ओड्रपुष्पप्रतीकाशा मनोह्वा चोत्तमा मता 113<br />
श्रेष्ठं शिलाजतु ज्ञेयं प्रक्षिप्तं न विशीर्यते<br />
तोयपूर्णे कांस्यपात्रे प्रतानेन विवर्धते 114<br />
कर्पूरस्तुवरः स्निग्धः एला सूक्ष्फला वरा<br />
श्वेतचन्दनमत्यन्तं सुगन्धि गुरुपूजितम 115<br />
रक्तचन्दनमत्यन्तं लोहितं प्रवरं मतम<br />
काकतुण्डनिभः स्निग्धो गुरुः श्रेष्ठो गुरुर्मतः 116<br />
सुगन्धि लघु रूक्षं च सुरदारु वरं मतम<br />
सरलं स्निग्धमत्यर्थं सुगन्धि च गुणावहम 117<br />
अतिपीता प्रशस्ता तु ज्ञेया दारुनिशा बुधैः<br />
जातीफलं गुरु स्निग्धं समं शुभ्रान्तरं वरम 118<br />
मृद्वीका सोत्तमा ज्ञेया या स्याद्गोस्तनसन्निभा<br />
करमर्दफलाकारा मध्यमा सा प्रकीर्त्तिता 119<br />
खण्डं तु विमलं श्रेष्ठं चन्द्र कान्तसमप्रभम<br />
गव्याज्यसदृशं रुच्यं गन्धं मधु वरं मतम 120<br />
शालीनां लोहितः शालि षष्टिकेषु च षष्टिकः<br />
शूकधान्येष्वपि यवो गोधूमः प्रवरो मतः 121<br />
शिम्बीधान्ये वरो मुद्गो मसूरश्चाढकी तथा<br />
रसेषु मधुरः श्रेष्ठो लवणेषु च सैन्धवः 122<br />
दाडिमामलकं द्रा क्षा खर्जूरं च परूषकम<br />
राजादनं मातुलुंगं फलवर्गेषु शस्यते 123<br />
पत्रशाकेषु वास्तूकं जीवन्ती पोतिका वरा<br />
पटोलं फलशाकेषु कन्दशाकेषु सूरणम 124<br />
एणः कुरङ्गो हरिणो जाङ्गलेषु प्रशस्यते<br />
पक्षिणां तित्तिरिर्लावो वरो मत्स्येषु रोहितः 125<br />
हरिणस्ताम्रवर्णः स्यादेणः कृष्णतया मतः<br />
कुरङ्गस्ताम्र उद्दिष्टो हरिणाकृतिको महान 126<br />
जलेषु दिव्यं दुग्धेषु गव्यमाज्येषु गोभवम<br />
तैलेषु तिलजं तैलमैक्षवेषु सिता हिता 127<br />
शिम्वीषु माषान्ग्रीष्मर्तौ लवणेष्वौषरं त्यजेत<br />
फलेषु लकुचं शाके सार्षपं न हितं मतम 128<br />
गोमांसं ग्राम्यमांसेषु न हितं महिषीवसा<br />
मेषीपयः कुसुम्भस्य तैलं त्याज्यं च फाणितम 129<br />
मत्स्यमानूपमांसं च दुग्धयुक्तं विवर्जयेत<br />
कपोतं सर्षपस्नेहभर्जितं परिवर्जयेत 130<br />
मत्स्यानिक्षोर्विकारेण तथा क्षौद्रे ण वर्जयेत<br />
सक्तून्मांसपयोयुक्तानुष्णैर्दधि विवर्जयेत 131<br />
उष्णैर्नभोऽम्बुना क्षौद्रं पायसं कृसरान्वितम<br />
रम्भाफलं त्यजेत्तक्रदधिबिल्वफलान्वितम 132<br />
दशाहमुषितं सर्पिः कांस्ये मधुघृतं समम<br />
कृतान्नं च कषायं च पुनरुष्णीकृतं त्यजेत 133<br />
एकत्र बहुमांसानि विरुध्यन्ते परस्परम<br />
मधु सर्पिर्वसा तैलं पानीयं वा पयस्तथा 134<br />
लवणं सैन्धवं प्रोक्तंचन्दनं रक्तचन्दनम<br />
चूर्णलेहासवस्नेहाः साध्या धवलचन्दनैः<br />
कषायलेपयोः प्रायो युज्यते रक्तचन्दनम 135<br />
अन्तः सम्मार्जने ज्ञेया ह्यजमोदा यवानिका<br />
बहिः सम्मार्जने सैव विज्ञातव्याऽजमोदिका 136<br />
पयः सर्पिः प्रयोगेषु गव्यमेव हि गृह्यते<br />
शकृद्र सो गोमयको मूत्रं गोमूत्रमुच्यते 137<br />
चित्रकाभावतोदन्ती क्षारः शिखरिजोऽथवा<br />
अभावे धन्वयासस्य प्रेक्षेप्यातु दुरालभा 138<br />
तगरस्याप्यभावे तु कुष्ठं दद्याद्भिषग्वरः<br />
मूर्वाऽभावे त्वचो ग्राह्या जिङ्गिनीप्रभवा बुधैः 139<br />
अहिंस्रया अभावे तु मानकन्दः प्रकीर्त्तितः<br />
लक्ष्मणाया अभावे तु नीलकण्ठशिखा मता 140<br />
वकुलाभावतो देयं कह्लारोत्पलपङ्कजम<br />
नीलोत्पलस्याभावे तु कुमुदं देयमिष्यते 141<br />
जातीपुष्पं न यत्रास्ति लवंगं तत्र दीयते<br />
अर्कपर्णादिपयसो ह्यभावे तद्र सो मतः 142<br />
पौष्करा भावतः कुष्ठं तथा लाङ्गल्यभावतः<br />
स्थौणेयकस्याभावे तु मिषग्भिर्दीयते गदः 143<br />
चविकागजपिप्पल्यौ पिप्लीमूलवत्स्मृतौ 144<br />
अभावे सोमराज्यास्तु प्रपुन्नाडफलं मतम<br />
यदि न स्याद्दारुनिशा तदा देया निशा बुधैः 145<br />
रसाञ्जनस्याभावे तु दार्वीक्वाथः प्रयुज्यते<br />
सौराष्ट्र्यभावतो देया स्फटिका तद्गुणा जनैः 146<br />
तालीसपत्रकाभावे स्वर्णताली प्रशस्यते<br />
भार्ङ्ग्यभावे तु तालीसं कण्टकारीजटाऽथवा 147<br />
रुचकाभावतो दद्याल्लवणं पांशुपूर्वकम<br />
अभावे मधुयष्ट्यास्तु धातकीं च प्रयोजयेत 148<br />
अम्लवेतसकाभावे चुक्रं दातव्यमिष्यते<br />
द्राक्षा यदि न लभ्येत प्रदेयं काश्मरीफलम 149<br />
तयोरभावे कुसुमं मधूकस्य मतं बुधैः<br />
लवङ्गकुसुमं देयं नखस्याभावतः पुनः 150<br />
कस्तूर्यभावे कङ्कोलं क्षेपणीयं विदुर्बुधाः<br />
कङ्कोलस्याप्यभावे तु जातीपुष्पं प्रदीयते 151<br />
सुगन्धिमुस्तकं देयं कर्पूराभावतो बुधैः<br />
कर्पूराभावतो देयं ग्रन्थिपर्णं विशेषतः 152<br />
कुङ्कुमाभावतो दद्यात्कुसुम्भकुसुमं नवम<br />
श्रीखण्डचन्दनाभावे कर्पूरं देयमिष्यते 153<br />
अभावे त्वेतयोर्वैद्यः प्रक्षिपेद्र क्तचन्दनम<br />
रक्तचन्दनकाभावे नवोशीरं विदुर्बुधाः 154<br />
मुस्ता चातिविषाभावे शिवाऽभावे शिवा मता<br />
अभावे नागपुष्पस्य पद्मकेशरमिष्यते 155<br />
मेदाजीवककाकोलीऋद्धिद्वन्द्वेऽपि वाऽसति<br />
दरीविदार्यश्वगन्धावाराहीश्च क्रमात् क्षिपेत 156<br />
वाराह्याश्च तथाऽभावे चर्मकारालुको मतः<br />
वाराहीकन्दसंज्ञस्तु पश्चिमे गृष्टिसंज्ञकः 157<br />
वारीहीकन्द एवान्यश्चर्मकारालुको मतः<br />
अनूपसम्भवे देशे वराह इव लोमवान 158<br />
भल्लातकासहत्वे तु रक्तचन्दनमिष्यते<br />
भल्लाताभावतश्चित्रं नलश्चेक्षोरभावतः 159<br />
सुवर्णाभावतः स्वर्णमाक्षिकं प्रक्षिपेद् बुधः<br />
श्वेतं तु माक्षिकं ज्ञेयं बुधै रजतवद ध्रुवम 160<br />
माक्षिकस्याप्यभावे तु प्रदद्यात्स्वर्णगैरिकम<br />
सुवर्णमथ वा रौप्यं मृतं यत्र न लभ्यते 161<br />
तत्र कान्तेन कर्माणि भिषक्कुर्याद्विचक्षणः<br />
कान्ताभावे तीक्ष्णलोहं योजयेद्वैद्यसत्तमः 162<br />
अभावे मौक्तिकस्यापि मुक्ताशुक्तिं प्रयोजयेत<br />
मधु यत्र न लभ्येत तत्र जीर्णगुडो मतः 163<br />
मत्स्यण्ड्यभावतो दद्युर्भिषजः सितशर्कराम<br />
असम्भवे सितायास्तु बुधैः खण्डं प्रयुज्यते 164<br />
क्षीराभावे रसो मौद्गो मासूरो वा प्रदीयते<br />
अत्र प्रोक्तानि वस्तूनि यानि तेषु च तेषु च 165<br />
योज्यमेकतराभावे परं वैद्येन जानता<br />
रसवीर्यविपाकाद्यैः समं द्र व्यं विचिन्त्य च 166<br />
युञ्ज्यात्तद्विधमन्यच्च द्र व्याणां तु रसादिवित<br />
योगे यदप्रधानं स्यात्तस्य प्रतिनिधिर्मतः 167<br />
यत्तु प्रधानं तस्यापि सदृशं नैव गृह्यते<br />
व्याधेरयुक्तं यद्द्र व्यं गणोक्तमपि तत्त्यजेत<br />
अनुक्तमपि युक्तं यद्योजयेत्तद्र सादिवित 168<br />
द्र व्ये रसो गुणो वीर्यं विपाकः शक्तिरेव च<br />
पदार्थाः पञ्च तिष्ठन्ति स्वं स्वं कुर्वन्ति कर्म च 169<br />
रसाः स्वाद्वम्ललवणतिक्तोषणकषायकाः<br />
षड् द्र व्यमाश्रितास्ते च यथापूर्वं बलावहाः 170<br />
तत्राद्या मारुतं घ्नन्ति त्रयस्तिक्तादयः कफम<br />
कषायतिक्तमधुराः पित्तमन्ये तु कुर्वते 171<br />
ये रसा वातशमना भवन्ति यदि तेषु वै<br />
रौक्ष्यलाघवशैत्यानि न ते हन्युः समीरणम 172<br />
ये रसा पित्तशमना भवन्ति यदि तेषु वै<br />
तीक्ष्णोष्णलघुताश्चैव नैते तत्कर्मकारिणः 173<br />
ये रसाः श्लेष्मशमना भवन्ति यदि तेषु वै<br />
स्नेहगौरवशैत्यानि न ते हन्युः कफं तदा 174<br />
मधुरो हि रसः शीतो धातुस्तन्यबलप्रदः<br />
चक्षुष्यो वातपित्तघ्नः कुर्यात्स्थौल्यमलकृमीन 175<br />
विषघ्नः पिच्छिलश्चापि स्निग्धः प्रीत्यायुषोर्हितः<br />
बालबृद्धक्षतक्षीणवर्णकेशेन्द्रि यौजसाम 176<br />
प्रशस्तो बृंहणः कण्ठ्यो गुरुः सन्धानकृन्मतः 177<br />
सोऽतियुक्तो ज्वरश्वासगलगण्डार्बुदकृमीन<br />
स्थौल्याग्निमान्द्यमेहांश्च कुर्यान्मेदःकफामयान 178<br />
रसोऽम्ल पाचनो रुच्यः पित्तश्लेष्मास्रदो लघुः<br />
लेखितोष्णो बहिः शीतः क्लेदनः पवनापहः 179<br />
स्निग्धस्तीक्ष्णः सरः शुक्रविबन्धानाहदृष्टिहा<br />
हर्षणो रोमदन्तानामक्षिभ्रूविनिकोचनः 180<br />
सोऽतियुक्तो भ्रमं कुर्यात्तृड्दाहतिमिरज्वरान<br />
कण्डूपाण्डुत्ववीसर्पशोथविस्फोटकुष्ठकृत 181<br />
लवणः शोधनो रुच्यः पाचनः कफपित्तदः<br />
पुंस्त्ववातहरः कायशैथिल्यमृदुताकरः<br />
बलघ्न आस्यजलदः कपोलगलदाहकृत 182<br />
सोऽति युक्तो ऽक्षिपाकास्रपित्त कोठक्षतादिकृत<br />
वलीपलितखालित्यकुष्ठवीसर्पतृट्प्रदः 183<br />
कटुरुष्णश्च तीक्ष्णश्च विशदो वातपित्तकृत<br />
श्लेष्महृल्लघुराग्नेयः कृमिकण्डूविषापहः 184<br />
शुक्रस्तन्यहरश्चापि मेदःस्थौल्यापकर्षणः<br />
अश्रुदो नासिकाऽस्याक्षिजिह्वाऽग्रोद्वेजको मतः 185<br />
दीपनः पाचनो रुच्यो नासिकाशोषणो भृशम<br />
क्लेदमेदोवसामज्जशकृन्मूत्रोपशोषणः 186<br />
स्रोतः प्रकाशको रूक्षः मेध्यो वर्चोविबन्धकृत 187<br />
सोऽतियुक्तो भ्रान्तिदाहमुखताल्वोष्ठशोषकृत<br />
कण्ठादिपीडामूर्च्छाऽन्तर्दाहदो बलकान्तिहृत 188<br />
तिक्तः शीतस्तृषामूर्च्छाज्वरपित्तकफाञ्जयेत<br />
कृमिकुष्ठविषोत्क्लेददाहरक्तगदापहः 189<br />
रुच्यः स्वयमरोचिष्णुः कण्ठस्तन्यविशोधनः<br />
वातलोऽग्निकरो नासाशोषणो रूक्षणो लघुः 190<br />
सोऽतियुक्तः शिरःशूलमन्यास्तम्भश्रमार्त्तिकृत<br />
कम्पमूर्च्छातृषाकारी बलशुक्रक्षयप्रदः 191<br />
कषायो रोपणो ग्राही स्तम्भनः शोधनस्तथा<br />
लेखनः पीडनः सौम्यः शोषणो वातकोपनः 192<br />
कफशोणितपित्तघ्नो रूक्षः शीतो लघुर्मतः<br />
त्वक्प्रसाधन आमस्य स्तम्भनो विशदो मतः<br />
जिह्वायां जाड्यकृत्कण्ठस्रोतसां च विबन्धकृत 193<br />
सोऽतियुक्तो ग्रहाध्मानहृत्पीडाक्षेपणादिकृत 194<br />
मधुरं श्लेष्मलंप्रायो जीर्णशालियवादृते<br />
मुद्गाद्गोधूमतः क्षौद्रा त्सिताया जाङ्गलामिषात 195<br />
अम्लं पित्तकरं प्रायो विना धात्रीं च दाडिमीम<br />
लवणं प्रायशो द्वेषि नेत्रयोः सैन्धवं विना 196<br />
प्रायः कटु तथा तिक्तमवृष्यं वातकोपनम<br />
शुण्ठी कृष्णारसोनानि पटोलममृतां विना 197<br />
पिप्पलीनागरं वृष्यं कटु चावृष्यमुच्यते<br />
प्रायशः स्तम्भनं प्रोक्तं कषायमभयां विना 198<br />
सामान्येनात्र निर्दिष्टा गुणाः षड्रससम्भवाः<br />
रसानां योगतस्तु स्यादन्य एव गुणोदयः 199<br />
संयोगाद्विषतां याति सममाज्येन माक्षिंकम्<br />
अमृतत्वं विषं याति सर्पदष्टस्य वै यथा 200<br />
लघुर्गुरुस्तथा स्निग्धो रूक्षस्तीक्ष्ण इति क्रमात<br />
नभोभूवारिवातानां वह्नेरेते गुणाःस्मृताः 201<br />
लघु पथ्यं परं प्रोक्तं कफघ्नं शीघ्रपाकि च 202<br />
गरु वातहरं पुष्टिश्लेष्मकृच्चिरपाकि च<br />
स्निग्धं वातहरं श्लेष्मकारि वृष्यं बलावहम<br />
रूक्षं समीरणकरं परं कफहरं मतम 203<br />
तीक्ष्णं पित्तकरं प्रायो लेखनं कफवातहृत<br />
सुश्रुते तु गुणा एते विंशतिस्तान्ब्रुवे शृणु 204<br />
गुरुर्लघुः स्निग्धरूक्षौ तीक्ष्णः श्लक्ष्णः स्थिरः सरः<br />
पिच्छिलो विशदः शीत उष्णश्च मृदुकर्कशौ<br />
स्थूलः सूक्ष्मो द्र वः शुष्क आशुर्मन्दः स्मृता गुणाः 205<br />
श्लक्ष्णः स्नेहं विनाऽपि स्यात्कठिनोऽपि हि चिक्कणः 206<br />
स्थिरो वातमलस्तम्भी सरस्तेषां प्रवर्तकः<br />
पिच्छिलस्तन्तुलो बल्यः सन्धानः श्लेष्मलो गुरुः 207<br />
क्लेदच्छेदकरः ख्यातो विशदो व्रणरोपणः<br />
शीतस्तु ह्लादनःस्तम्भी मूर्च्छातृटस्वेददाहनुत<br />
उष्णो भवति शीतस्य विपरीतश्च पाचनः 208<br />
स्थूलः स्थौल्यकरो देहे स्रोतसामवरोधकृत 209<br />
देहस्य सूक्ष्मच्छिद्रे षु विशेद्यत्सूक्ष्ममुच्यते<br />
द्रवः क्लेदकरो व्यापी शुष्कस्तद्विपरीतकः 210<br />
आशुराशुकरो देहे धावत्यम्भसि तैलवत<br />
मन्दः सकलकार्येषु शिथिलोऽल्पोऽपि कथ्यते 211<br />
पचेन्नामं वह्निकृद्यद्दीपनं तद्यथा मिसिः 212<br />
पचत्यामं न वह्निं च कुर्याद्यत्तद्धि पाचनम<br />
नागकेशरवद्विद्याच्चित्रोदीपनपाचनः 213<br />
नशोधयति यद्दोषान्समान्नोदीरयत्यपि<br />
समीकरोति विषमाञ्छमनं तद्यथाऽमृता 214<br />
कृत्वा पाकं मलानां च भित्वा बन्धमधो नयेत<br />
तच्चानुलोमनं ज्ञेयं यथा प्रोक्ता हरीतकी 215<br />
पक्तव्यं यदपक्त्वैव श्लिष्टं कोष्ठे मलादिकम<br />
नयत्यधः स्रंसनं तद्यथा स्यात्कृतमालकम 216<br />
मलादिकमबद्धं यद्बद्धं वा पिण्डितं मलैः<br />
भित्वाऽध पातयति यद्भेदनं कटुकी यथा 217<br />
विपक्वं यदपक्वं वा मलादि द्रवतां नयेत<br />
रेचयत्यपि तज्ज्ञेयं रेचनं त्रिवृता यथा 218<br />
अपक्वं पित्तश्लेष्मान्नं बलादूर्ध्वं नयेत्तु यत<br />
वमनं तद्धि विज्ञेयं मदनस्य फलं यथा 219<br />
स्थानाद्वहिर्नयेदूर्ध्वमधो वा मलसञ्चयम<br />
देहसंशोधनं तत्स्याद देवदालीफलं यथा 220<br />
दीपनं पाचनं यत्स्यादुष्णत्वाद्द्र वशोषकम<br />
ग्राहि तच्च यथा शुण्ठी जीरकं गजपिप्पली 221<br />
रौक्ष्याच्छैत्यात्कषायत्वाल्लघुपाकाच्च यद्भवेत<br />
वातकृत्स्तम्भनं तत्स्याद्यथा वत्सकटुण्टुकौ 222<br />
श्लिष्टान्कफादिकान्दोषानुन्मूलयति यद्वलात<br />
छेदनं तद्यथा क्षारा मरिचानि शिलाजतु 223<br />
धातून्मलान् वा देहस्य विशोध्योल्लेखयेच्च यत<br />
लेखनं तद्यथा क्षौद्रं नीरमुष्णं वचा यवाः 224<br />
यस्माद् द्रव्याद्भवेत्स्त्रीषु हर्षो वाजीकरं हि तत<br />
यथाऽश्वगन्धामुसली शर्करा च शतावरी 225<br />
यस्माच्छुक्रस्य वृद्धिः स्याच्छुक्रलं हि तदुच्यते<br />
यथा नागबलाऽद्या स्युर्बीजं च कपिकच्छुजम 226<br />
दुग्धं माषाश्च भल्लातफलमज्जामलानि च<br />
एतानि जनकानि स्यू रेचकानि च रेतसः 227<br />
प्रवर्तिनी स्त्री शुक्रस्य रेचनं बृहतीफलम<br />
जातीफलं स्तम्भकं स्यात्कालिङ्गं क्षयकारि च 228<br />
रसायनन्तु तज्ज्ञेयं यज्जराव्याधिनाशनम<br />
यथा हरीतकी दन्ती गुग्गुलुश्च शिलाजतु 229<br />
पूर्वं व्याप्याखिलं कायं ततः पाकञ्च गच्छति<br />
व्यवायि तद् यथा भङ्गा फेनञ्चाहि समुद्भवम 230<br />
सन्धिबन्धांस्तु शिथिलान्यत्करोति विकाशि तत<br />
विशोष्यौजश्च धातुभ्यो यथा क्रमुककोद्र वौ 231<br />
बुद्धिं लुम्पति यद् द्र व्यं मदकारि तदुच्यते<br />
तमोगुणप्रधानञ्च यथा मद्यं सुराऽदिकम 232<br />
व्यवायि च विकाशि स्याच्छ्लेष्मच्छेदि मदावहम<br />
आग्नेयं जीवितहरं योगवाहि स्मृतं विषम 233<br />
निजवीर्य्येण यद द्रव्यं स्रोतोभ्यो दोषसञ्चयम<br />
निरस्यति प्रमाथि स्यात्तद्यथा मरिचं वचा 234<br />
पैच्छिल्याद्गौरवाद द्रव्यं रुद्ध्वा रसवहाः शिराः<br />
धत्ते यद्गौरवं तत्स्यादभिष्यन्दि यथा दधि 235<br />
विदाहि द्रव्यमुद्गारमम्लं कुर्यात्तथा तृषाम<br />
हृदि दाहं च जनयेत्पाकं गच्छति तच्चिरात 236<br />
गृह्णाति योगवाहि द्रव्यं संसर्गिवस्तुगुणान<br />
पच्यमानं यथैतन्मधुजलतैलाज्यसूतलोहादिः 237<br />
उष्णशीतगुणोत्कर्षाद बुधैवीर्यं द्विधा स्मृतम<br />
यत्सर्वमग्निषोमीयं दृश्यते भुवनत्रयम 238<br />
उष्णं वातकफौ हन्यात् पित्तं तु तनुते जराम<br />
शीतं वातकफातङ्कान्कुरुते पित्तहृत्परम 239<br />
तत्रोष्णं भ्रमतृड्ग्लानिस्वेददाहाशुपाकताम<br />
शमञ्च वातकफयो करोति शिशिरं पुनः<br />
ह्लादनं जीवनं स्तम्भं प्रसादं रक्तपित्तयोः 240<br />
जाठरेणाग्निना योगाद्यदुदेति रसान्तरम<br />
रसानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः 241<br />
मिष्टः पटुश्च मधुरमम्लोऽम्ल पच्यते रसः<br />
कटुतिक्तकषायाणां पाकः स्यात्प्रायशः कटुः 242<br />
श्लेष्मकृन्मधुरः पाको वातपित्तहरो मतः<br />
अम्लस्तु कुरुते पित्तं वातश्लेष्मगदापहः 243<br />
कटुः करोति पवनं कफं पित्तञ्च नाशयेत<br />
विशेष एवं रसतो विपाकानां निदर्शितः 244<br />
रसादिसाम्ये यत्कर्म विशिष्टं तत्प्रभावजम<br />
दन्ती रसाद्यैस्तुल्यापि चित्रकस्य विरेचनी 245<br />
मधूकस्य च मृद्वीका घृतं क्षीरस्य दीपनम<br />
प्रभावस्तु यथा धात्री लकुचस्य रसादिभिः 246<br />
समाऽपि कुरुते दोषत्रितयस्य विनाशनम 247<br />
क्वचित्तुकेवलं द्र व्यं कर्म कुर्यात्प्रभावतः<br />
ज्वरं हन्ति शिरोबद्धा सहदेवीजटा यथा 248<br />
विरुद्धगुणसंयोगे भूयसाऽल्प हि जीयते<br />
रसं विपाकस्तौ वीर्यं प्रभावस्तान्व्यपोहति 249<br />
<br />
<span style="color: red;">इति मिश्रप्रकरणे मिश्रवर्गः प्रथमः समाप्तः 1</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-34405958571202544092015-07-13T06:25:00.003-07:002015-07-13T06:25:51.821-07:00भावप्रकाशनिघण्टुः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दक्षं प्रजापतिं स्वस्थमश्विनौ वाक्यमूचतुः<br />
कुतो हरीतकी जाता तस्यास्तु कति जातयः 1<br />
रसाः कति समाख्याताः कति चोपरसाः स्मृताः<br />
नामानि कति चोक्तानि किं वा तासां च लक्षणम 2<br />
के च वर्णा गुणाः के च का च कुत्र प्रयुज्यते<br />
केन द्रव्येण संयुक्ता कांश्च रोगान्व्यपोहति 3<br />
प्रश्नमेतद्यथा पृष्टं भगवन्वक्तुमर्हसि<br />
अश्विनोर्वचनं श्रुत्वा दक्षो वचनमब्रवीत 4<br />
पपात बिन्दुर्मेदिन्यां शक्रस्य पिबतोऽमृतम<br />
ततो दिव्यात्समुत्पन्ना सप्तजातिर्हरीतकी 5<br />
हरीतक्यभया पथ्या कायस्था पूतनाऽमृता<br />
हैमवत्यव्यथा चापि चेतकी श्रेयसी शिवा 6<br />
वयस्था विजया चापि जीवन्ती रोहिणीति च 7<br />
विजया रोहिणी चैव पूतना चामृताऽभया<br />
जीवन्ती चेतकी चेति पथ्यायाः सप्तजातयः 8<br />
अलाबुवृत्ता विजया वृत्ता सा रोहिणी स्मृता<br />
पूतनाऽस्थिमती सूक्ष्मा कथिता मांसलाऽमृताः 9<br />
पञ्चरेखाऽभया प्रोक्ता जीवन्ती स्वर्णवर्णिनी<br />
त्रिरेखा चेतकी ज्ञेया सप्तानामियमाकृतिः 10<br />
विजया सर्वरोगेषु रोहिणी व्रणरोहिणी<br />
प्रलेपे पूतना योज्या शोधनार्थेऽमृता हिता 11<br />
अक्षिरोगेऽभयाशस्ता जीवन्ती सर्वरोगृहृत<br />
चूर्णार्थे चेतकी शस्ता यथायुक्तं प्रयोजयेत 12<br />
चेतकी द्विविधा प्रोक्ता श्वेता कृष्णा च वर्णतः<br />
षडङ्गुलायता शुक्ला कृष्णा त्वेकाङ्गुला स्मृता 13<br />
काचिदास्वादमात्रेण काचिद्गन्धेन भेदयेत<br />
काचित्स्पर्शेन दृष्ट्याऽन्या चतुर्द्धा भेदयेच्छिवा 14<br />
चेतकीपादपच्छायामुपसर्पन्ति ये नराः<br />
भिद्यन्ते तत्क्षणादेव पशुपक्षिमृगादयः 15<br />
चेतकी तु घृता हस्ते यावत्तिष्ठति देहिनः<br />
तावद्भिद्येत वेगैस्तु प्रभावान्नात्र संशयः 16<br />
नृपाणां सुकुमाराणां कृशानां भेषजद्विषाम<br />
चेतकी परमा शस्ता हिता सुखविरेचनी 17<br />
सप्तानामपि जातीनां प्रधाना विजया स्मृता<br />
सुखप्रयोगा सुलभा सर्वरोगेषु शस्यते 18<br />
हरीतकी पञ्चरसाऽलवणातुवरा परम<br />
रूक्षोष्णा दीपनी मेध्या स्वादुपाका रसायनी 19<br />
चक्षुष्या लघुरायुष्या बृंहणी चानुलोमिनी<br />
श्वासकासप्रमेहार्शः कुष्ठशोथोदरकृमीन 20<br />
वैस्वर्यग्रहणीरोगविबन्धविषमज्वरान<br />
गुल्माध्मानतृषाछर्दिहिक्काकण्डूहृदामयान 21<br />
कामलां शूलमानाहं प्लीहानञ्च यकृत्तथा<br />
अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रञ्च मूत्राघातञ्च नाशयेत 22<br />
स्वादुतिक्तकषायत्वात्पित्तहृत्कफहृत्तु सा<br />
कटुतिक्तकषायत्वादम्लत्वाद्वातहृच्छिवा 23<br />
पित्तकृत्कटुकाम्लत्वाद्वातकृन्न कथं शिवा 24<br />
प्रभावाद्दोषहन्तृत्वं सिद्धं यत्तत्प्रकाश्यते<br />
हेतुभिः शिष्यबोधार्थं नापूर्वं क्रियतेऽधुना 25<br />
कर्मान्यत्वं गुणैः साम्यं दृष्टमाश्रयभेदतः<br />
यतस्ततो नेति चिन्त्यं धात्रीलकुचयोर्यथा 26<br />
पथ्याया मज्जनि स्वादुः स्नाय्वामम्लो व्यवस्थितः<br />
वृन्ते तिक्तस्त्वचि कटुरस्थिस्थस्तुवरो रसः 27<br />
नवा स्निग्धा घना वृत्ता गुर्वी क्षिप्ता च याऽम्भसि<br />
निमज्जेत्सा प्रशस्ता च कथिताऽतिगुणप्रदा 28<br />
नवादिगुणयुक्तत्वं तथैवात्र द्विकर्षता<br />
हरीतक्याः फले यत्र द्वयं तच्छ्रेष्ठमुच्यते 29<br />
चर्विता वर्द्धयत्यग्निं पेषिता मलशोधिनी<br />
स्विन्ना संग्राहिणी पथ्या भृष्टा प्रोक्ता त्रिदोषनुत 30<br />
उन्मीलिनी बुद्धिबलेन्द्रि याणां निर्मूलिनी पित्तकफानिलानाम<br />
विस्रंसिनी मूत्रशकृन्मलानां हरीतकी स्यात् सह भोजनेन 31<br />
अन्नपानकृतान्दोषान्वातपित्तकफोद्भवान<br />
हरीतकी हरत्याशु भुक्तस्योपरि योजिता 32<br />
लवणेन कफं हन्ति पित्तं हन्ति सशर्करा<br />
घृतेन वातजान् रोगान्सर्वरोगान्गुडान्विता 33<br />
सिंधूत्थशर्कराशुण्ठीकणामधुगुडैः क्रमात्<br />
वर्षादिष्वभया प्राश्या रसायनगुणैषिणा 34<br />
अध्वातिखिन्नो बलवर्जितश्च रूक्षः कृशो लङ्घनकर्शितश्च<br />
पित्ताधिको गर्भवती च नारी विमुक्तरक्तस्त्वभयां न खादेत 35<br />
विभीतकस्त्रिलिङ्गं स्यादक्षः कर्षफलस्तु सः<br />
कलिद्रुमो भूतवासस्तथा कलियुगालयः<br />
विभीतकं स्वादुपाकं कषायं कफपित्तनुत<br />
उष्णवीर्यं हिमस्पर्शं भेदनं कासनाशनम 36<br />
रूक्षं नेत्रहितं केश्यं कृमिवैस्वर्यनाशनम<br />
विभीतमज्जातृट्छर्दिकफवातहरी लघुः<br />
कषायो मदकृच्चाथ धात्रीमज्जाऽपि तद्गुणः 37<br />
वयस्यामलकी वृष्या जातीफलरसं शिवम<br />
धात्रीफलं श्रीफलं च तथामृतफलं स्मृतम<br />
त्रिष्वामलकमाख्यातं धात्री तिष्यफलाऽमृता 38<br />
हरीतकीसमं धात्रीफलं किन्तु विशेषतः<br />
रक्तपित्तप्रमेहघ्नं परं वृष्यं रसायनम 39<br />
हन्ति वातं तदम्लत्वात्पित्तं माधुर्यशैत्यतः<br />
कफं रूक्षकषायत्वात्फलं धात्र्! यास्त्रिदोषजित 40<br />
यस्य यस्य फलस्येह वीर्यं भवति यादृशम<br />
तस्य तस्यैव वीर्य्येण मज्जानमपि निर्दिशेत 41<br />
पथ्याविभीतधात्रीणां फलैः स्यात्त्रिफला समैः<br />
फलत्रिकञ्च त्रिफला सा वरा च प्रकीर्तिता 42<br />
त्रिफला कफपित्तघ्नी मेहकुष्ठहरा सरा<br />
चक्षुष्या दीपनी रुच्या विषमज्वरनाशिनी 43<br />
शुण्ठी विश्वा च विश्वञ्च नागरं विश्वभेषजम<br />
ऊषणं कटुभद्रञ्च शृङ्गवेरं मह्षधम 44<br />
शुण्ठी रुच्यामवातघ्नी पाचनी कटुका लघुः<br />
स्निग्धोष्णा मधुरा पाके कफवातविबन्धनुत 45<br />
वृष्या स्वर्य्यावमिश्वासशूलकासहृदामयान<br />
हन्ति श्लीपदशोथार्श आनाहोदरमारुतान 46<br />
आग्नेयगुणभूयिष्ठात् तोयांशपरिशोषि यत<br />
संगृह्णाति मलं तत्तु ग्राहि शुण्ठ्यादयो यथा 47<br />
विबन्धभेदिनी या तु सा कथं ग्राहिणी भवेत<br />
शक्तिर्विबन्धभेदे स्याद्यतो न मलपातनो 48<br />
आर्द्र कं शृङ्गवेरं स्यात्कटुभद्रं तथाऽद्रि का<br />
आर्द्रि का भेदिनी गुर्वीतीक्ष्णोष्णा दीपनी मता 49<br />
कटुका मधुरा पाके रूक्षा वातकफापहा<br />
ये गुणाः कथिता शुण्ठ्यास्तेऽपि सन्त्यार्द्र केऽखिलाः 50<br />
भोजनाग्रे सदा पथ्यं लवणार्द्र कभक्षणम<br />
अग्निसन्दीपनं रुच्यं जिह्वाकण्ठविशोधनम 51<br />
कुष्ठपाण्ड्वामये कृच्छ्रे रक्तपित्ते व्रणे ज्वरे<br />
दाहे निदाघशरदोर्नैव पूजितमार्द्रकम 52<br />
पिप्पली मागधी कृष्णा वैदेही चपला कणा<br />
उपकुल्योषणा शौण्डी कोला स्यात्तीक्ष्णतण्डुला 53<br />
पिप्पली दीपना वृष्या स्वादुपाका रसायनी<br />
अनुष्णा कटुका स्निग्धा वातश्लेष्महरी लघुः 54<br />
पिप्पली रेचनी हन्ति श्वासकासोदरज्वरान<br />
कुष्ठप्रमेहगुल्मार्शः प्लीहशूलाममारुतान 55<br />
आद्रार कफप्रदा स्निग्धा शीतला मधुरा गुरुः<br />
पित्तप्रशमनी सा तु शुष्का पित्तप्रकोपिणी 56<br />
पिप्पली मधुसंयुक्ता मेदः कफविनाशिनी<br />
श्वासकासज्वरहरी वृष्या मेध्याऽग्निवर्द्धिनी 57<br />
जीर्णज्वरेऽग्निमान्द्ये च शस्यते गुडपिप्पली<br />
कासाजीर्णारुचिश्वासहृत्पाण्डुकृमिरोगनुत<br />
द्विगुणः पिप्पलीचूर्णाद गुडोऽत्र भिषजां मतः 58<br />
मरिचं वेल्लजं कृष्णमूषणं धर्मपत्तनम 59<br />
मरिचं कटुकं तीक्ष्णं दीपनं कफवातजित<br />
उष्णं पित्तकरं रूक्षं श्वासशूलकृमीन्हरेत 60<br />
तदाद्ररं मधुरं पाके नात्युष्णं कटुकं गुरु<br />
किञ्चित्तीक्ष्णगुणं श्लेष्मप्रसेकि स्यादपित्तलम 61<br />
विश्वोपकुल्या मरिचं त्रयं त्रिकटु कथ्यते<br />
कटुत्रिकं तु त्रिकटु त्र्यूषणं व्योष उच्यते 62<br />
त्र्यूषणं दीपनं हन्ति श्वासकासत्वगामयान<br />
गुल्ममेहकफस्थौल्यमेदःश्लीपदपीनसान 63<br />
ग्रन्थिकं पिप्पलीमूलमूषणं चटकाशिरः<br />
दीपनं पिप्पलीमूलं कटूष्णं पाचनं लघु 64<br />
रूक्षं पित्तकरं भेदि कफवातोदरापहम<br />
आनाहप्लीहगुल्मघ्नं कृमिश्वासक्षयापहम 65<br />
त्र्यूषणं सकणामूलं कथितं चतुरूषणम<br />
व्योषस्येव गुणाः प्रोक्ता अधिकाश्चतुरूषणे 66<br />
भवेच्चव्यं तु चविका कथिता सा तथोषणा<br />
कणामूलगुणं चव्यं विशेषाद्गुदजापहम 67<br />
चविकायाः फलं प्राज्ञैः कथिता गजपिप्पली<br />
कपिवल्ली कोलवल्ली श्रेयसीवशिरश्च सा 68<br />
गजकृष्णा कटुर्वातश्लेप्महृद्वह्निवर्धिनी<br />
उष्णा निहन्त्यतीसारं श्वासकण्ठामयकृमीन 69<br />
चित्रकोऽनलनामाच पाठी व्यालस्तथोषणः<br />
चित्रकः कटुकः पाके वह्निकृत्पाचनो लघुः 70<br />
रूक्षोष्णो ग्रहणीकुष्ठशोथार्शः कृमिकासनुत<br />
वातश्लेष्महरो ग्राही वातघ्नः श्लेष्मपित्तहृत 71<br />
पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः<br />
पञ्चभिः कोलमात्रं यत्पञ्चकोलं तदुच्यते 72<br />
पञ्चकोलं रसे पाके कटुकं रुचिकृन्मतम<br />
तीक्ष्णोष्णं पाचनं श्रेष्ठं दीपनं कफवातनुत<br />
गुल्मप्लीहोदरानाहशूलघ्नं पित्तकोपनम 73<br />
पञ्चकोलं समरिचं षडूषणमुदाहृतम<br />
पञ्चकोलगुणं तत्तु रूक्षमुष्णं विषापहम 74<br />
यवानिकोग्रगन्धा च ब्रह्मदर्भाऽजमोदिका 75<br />
सैवोक्ता दीप्यका दीप्या तथा स्याद्यवसाह्वया<br />
यवानी पाचनी रुच्या तीक्ष्णोष्णा कटुका लघुः 76<br />
दीपनी च तथा तिक्ता पित्तला शुक्रशूलहृत<br />
वातश्लेष्मोदरानाहगुल्मप्लीहकृमिप्रणुत 77<br />
अजमोदा खराश्वा च मायूरो दीप्यकस्तथा<br />
तथा ब्रह्मकुशा प्रोक्ता कारवी लोचमस्तका 78<br />
अजमोदा कटुस्तीक्ष्णा दीपनी कफवातनुत<br />
उष्णा विदाहिनी हृद्या वृष्या बलकरी लघुः<br />
नेत्रामय कृमिच्छर्दिहिक्कावस्तिरुजो हरेत 79<br />
पारसीकयवानी तु यवानीसदृशी गुणैः<br />
विशेषात्पाचनी रुच्या ग्राहिणी मादिनी गुरुः 80<br />
जीरको जरणोऽजाजी कणा स्याद्दीर्घजीरकः 81<br />
कृष्णजीरः सुगन्धश्च तथैवोद्गारशोधनः<br />
कालाजाजी तु सुषवी कालिका चोपकालिका 82<br />
पृथ्वीका कारवी पृथ्वी पृथुकृष्णोपकुञ्चिका<br />
उपकुञ्ची च कुञ्ची च बृहज्जीरक इत्यपि 83<br />
जीरकत्रितयं रूक्षं कटूष्णं दीपनं लघु<br />
संग्राही पित्तलं मेध्यं गर्भाशयविशुद्धिकृत 84<br />
ज्वरघ्नं पाचनं वृष्यं बल्यं रुच्यं कफापहम<br />
चक्षुष्यं पवनाघ्मानगुल्मच्छर्द्यतिसार हृत 85<br />
धान्यकं धानकं धान्यं धाना धानेयकं तथा<br />
कुनटी धेनुका छत्रा कुस्तुम्बुरु वितुन्नकम 86<br />
धान्यकं तुवरं स्निग्धमवृष्यं मूत्रलं लघु<br />
तिक्तं कटूष्णवीर्यञ्च दीपनं पाचनं स्मृतम 87<br />
ज्वरघ्नं रोचकं ग्राहि स्वादुपाकि त्रिदोषनुत<br />
तृष्णादाहवमिश्वासकासकार्श्यकृमिप्रणुत<br />
आर्द्रन्तु तद्गुणं स्वादु विशेषात्पित्तनाशनम 88<br />
शतपुष्पा शताह्वा च मधुरा कारवी मिसिः<br />
अतिलम्बी सितच्छत्रा संहितच्छत्रिकाऽपि च 89<br />
छत्रा शालेयशालीनो मिश्रेया मधुरा मिसिः<br />
शतपुष्पा लघुस्तीक्ष्णा पित्तकृद्दीपनी कटुः 90<br />
उष्णा ज्वरानिलश्लेष्मव्रणशूलाक्षिरोगहृत<br />
मिश्रेया तद्गुणा प्रोक्ता विशेषाद्योनिशूलनुत 91<br />
अग्निंमान्द्यहरी हृद्या बद्धविट्कृमिशुक्रहृत<br />
रूक्षोष्णा पाचनी कासवमिश्लेष्मानिलान्हरेत 92<br />
मेथिका मेथिनी मेथी दीपनी बहुपत्रिका<br />
बोधिनी बहुबीजा च ज्योतिर्गन्धफला तथा 93<br />
वल्लरी चन्द्रि का मन्था मिश्रपुष्पा च कैरवी<br />
कुञ्चिका बहुपर्णी च पीतबीजा मुनिच्छदा 94<br />
मेथिकावातशमनीश्लेष्मघ्नीज्वरनाशिनी<br />
ततः स्वल्पगुणावन्या वाजिनां सा तु पूजिता 95<br />
चन्द्रिका चर्महन्त्री च पशुमेहनकारिका<br />
नन्दिनी कारवी भद्रा वासपुष्पा सुवासरा 96<br />
चन्द्र शूरं हितं हिक्कावातश्लेष्मातिसारिणाम<br />
असृग्वातगदद्वेषि बलपुष्टिविवर्द्धनम 97<br />
मेथिका चन्द्र शूरश्च कालाऽजाजी यवानिका<br />
एतच्चतुष्टयं युक्तं चतुर्बीजमिति स्मृतम 98<br />
तच्चूर्णं भक्षितं नित्यं निहन्ति पवनामयम<br />
अजीर्णं शूलमाध्मानं पार्श्वशूलं कटिव्यथाम 99<br />
सहस्रवेधि जतुकं बाह्लीकं हिङ्गु रामठम 100<br />
हिङ्गूष्णं पाचनं रुच्यं तीक्ष्णं वातबलासनुत<br />
शूलगुल्मोदरानाहकृमिघ्नं पित्तवर्द्धनम 101<br />
वचोग्रगन्धा षड्र्गन्था गोलोमी शतपर्विका<br />
क्षुद्र पत्री च मङ्गल्या जटिलोग्रा च लोमशा 102<br />
वचोग्रगन्धा कटुका तिक्तोष्णा वान्तिवह्निकृत<br />
विबन्धाध्मानशूलघ्नी शकृन्मूत्रविशोधिनी<br />
अपस्मारकफोन्मादभूतजन्त्वनिलान्हरेत 103<br />
पारसीक वचा शुक्ला प्रोक्ता हैमवतीति सा<br />
हैमवत्युदिता तद्वद्वातं हन्ति विशेषत 104<br />
सुगन्धाऽप्युग्रगन्धा च विशेषात्कफकासनुत<br />
सुस्वरत्वकरी रुच्या हृत्कण्ठमुखशोधिनी 105<br />
स्थूलग्रन्थिः सुगन्धा स्यात्ततो हीनगुणा स्मृता 106<br />
द्वीपान्तरवचा किञ्चित्तिक्तोष्णा वह्निदीप्तिकृत<br />
विबन्धाध्मानशूलघ्नी शकृन्मूत्रविशोधिनी 107<br />
वातव्याधीनपस्मारमुन्मादं तनुवेदनाम<br />
व्यपोहति विशेषेण फिरङ्गामयनाशिनी 108<br />
हपुषा हबुषा विस्रा पराऽश्वत्थफला मता<br />
मत्स्यगन्धाप्लीहहन्त्री विषघ्नी ध्वांक्षनाशिनी 109<br />
हपुषा दीपनी तिक्ता मृदूष्णा तुवरा गुरुः<br />
पित्तोदरसमीरार्शोग्रहणीगुल्मशूलहृत<br />
पराऽप्येतद्गुणा प्रोक्ता रूपभेदो द्वयोरपि 110<br />
पुंसि क्लीवे विडङ्गः स्यात्कृमिघ्नो जन्तुनाशनः<br />
तण्डुलश्च तथा वेल्लममोघा चित्रतण्डुलः 111<br />
विडङ्गं कटु तीक्ष्णोष्णं रूक्षं वह्निकरं लघु<br />
शूलाध्मानोदरश्लेष्मकृमिवातविबन्धनुत 112<br />
नाडी हिङ्गु पलाशाख्या जन्तुका रामठी च सा<br />
वंशपत्री च पिण्डाह्वा सुवीर्य्या हिङ्गुनाडिका<br />
तुम्बुरुः सौरभः सौरो वनजः सानुजोऽन्धकः 113<br />
तुम्बुरु प्रथितं तिक्तं कटुपाकेऽपि तत्कटु<br />
रूक्षोष्णं दीपनं तीक्ष्णं रुच्यं लघु विदाहि च 114<br />
वातश्लेष्माक्षिकर्णौष्ठशिरोरुग्गुरुताकृमीन<br />
कुष्ठशूलारुचिश्वासप्लीहकृच्छ्राणि नाशयेत 115<br />
स्याद्वंशरोचना वांशी तुगाक्षीरी तुगा शुभा<br />
त्वक्क्षीरी वंशजा शुभ्रा वंशक्षीरी च वैणवी 116<br />
वंशजा वृंहणी वृष्या बल्या स्वाद्वी च शीतला<br />
तृष्णाकासज्वरश्वासक्षयपित्तास्रकामलाः<br />
हरेत्कुष्ठं व्रणं पाण्डुं कषाया वातकृच्छ्रजित 117<br />
समुद्र फेनः फेनश्च हिण्डीरोऽब्धिकफस्तथा 118<br />
समुद्र फेनश्चक्षुष्यो लेखनः शीतलश्च सः<br />
कषायो विषपित्तघ्नः कर्णरुक्कफहृत्सरः 119<br />
जीवकर्षभकौ मेदे काकोल्यौ ऋद्धिवृद्धिके 120<br />
अष्टवर्गोऽष्टभिर्द्र व्यैः कथितश्चरकादिभिः 121<br />
अष्टवर्गो हिमः स्वादुर्बृंहणः शुक्रलो गुरुः<br />
भग्नसन्धानकृत्कामबलासबलवर्द्धनः<br />
वातपित्तास्रतृड्दाहज्वरमेहक्षयप्रणुत 122<br />
जीवकर्षभकौ ज्ञेयौ हिमाद्रि शिखरोद्भवौ<br />
रसोनकन्दवत्कन्दौ निःसारौ सूक्ष्मपत्रकौ 123<br />
जीवकः कूर्चकाकार ऋषभो वृष शृङ्गवत<br />
जीवको मधुरः शृङ्गो ह्रस्वाङ्गः कूर्चशीर्षकः 124<br />
जीवकर्षभकौ बल्यौ शीतौ शुक्रकफप्रदौ<br />
मधुरौ पित्तदाहास्रकार्श्यवातक्षयापहौ 125<br />
महामेदाऽभिधः कन्दो मोरङ्गादौ प्रजायते 126<br />
महामेदा वनीमेदा स्यादित्युक्तं मुनीश्वरैः 127<br />
शुक्लार्द्र कनिभः कन्दो लताजातः सुपाण्डुरः<br />
महामेदाभिधो ज्ञेयो मेदालक्षणमुच्यते 128<br />
शुक्लकन्दो नखच्छेद्यो मेदोधातुमिव स्रवेत<br />
यः स मेदेति विज्ञेयो जिज्ञासातत्परैर्जनैः 129<br />
शल्यपर्णी मणिच्छिद्रा मेदा मेदाभवाध्वरा<br />
महामेदा वसुच्छिद्रा त्रिदन्ती देवतामणिः 130<br />
मेदायुगं गुरु स्वादु वृष्यं स्तन्यकफावहम<br />
वृंहणं शीतलं पित्तरक्तवातज्वरप्रणुत 131<br />
जायते क्षीरकाकोली महामेदोद्भवस्थले 132<br />
यत्र स्यात्क्षीरकाकोली काकोली तत्र जायते<br />
पीवरीसदृशः कन्दः सक्षीरः प्रियगन्धवान 133<br />
सा प्रोक्ताक्षीरकाकोली काकोलीलिङ्गमुच्यते<br />
यथास्यात्क्षीरकाकोली काकोल्यपि तथा भवेत 134<br />
एषा किञ्चिद्भवेत्कृष्णा भेदोऽयमुभयोरपि<br />
काकोली वायसोली च वीरा कायस्थिका तथा 135<br />
सा शुक्ला क्षीरकाकोली वयस्था क्षीरवल्लिका<br />
कथिता क्षीरिणी धीरा क्षीरशुक्ला पयस्विनी 136<br />
काकोलीयुगलं शीतं शुक्रलं मधुरं गुरु<br />
वृंहणं वातदाहास्रपित्तशोषज्वरापहम 137<br />
ऋद्धिर्वृद्धिश्च कन्दौ द्वौ भवतः कोशलेऽचले<br />
श्वेतलोमान्वितः कन्दो लताजातः सरन्ध्रकः 138<br />
स एव ऋद्धिर्वृद्धिश्च भेदमप्येतयोर्ब्रुवे<br />
तूलग्रन्थिसमा ऋद्धिर्वामावर्त्तफला च सा 139<br />
वृद्धिस्तु दक्षिणावर्त्तफला प्रोक्ता महर्षिभिः<br />
ऋद्धिर्योग्यं सिद्धिलक्ष्म्यौ वृद्धेरप्याह्वया इमे 140<br />
ऋद्धिर्बल्या त्रिदोषघ्नी शुक्रला मधुरा गुरुः<br />
प्राणैश्वर्यकरी मूर्च्छारक्तपित्तविनाशिनी 141<br />
वृद्धिर्गर्भप्रदा शीता वृंहणी मधुरा स्मृता<br />
वृष्या पित्तास्रशमनी क्षतकासक्षयापहा 142<br />
राज्ञामप्यष्टवर्गस्तु यतोऽयमतिदुर्लभः<br />
तस्मादस्य प्रतिनिधिं गृह्णीयात्तद्गुणं भिषक 143<br />
मेदा जीवक काकोली ऋद्धि द्वन्द्वेऽपि चासति<br />
वरीविदार्यश्वगन्धावाराहींश्च क्रमात् क्षिपेत 144<br />
यष्टीमधु तथा यष्टीमधुकं क्लीतकं तथा<br />
अन्यत्क्लीतनकं तत्तु भवेत्तोये मधूलिका 145<br />
यष्टी हिमा गुरुः स्वाद्वी चक्षुष्या बलवर्णकृत<br />
सुस्निग्धा शुक्रला केश्या स्वर्या पित्तानिलास्रजित<br />
व्रण शोथ विष च्छर्दि तृष्णाग्लानिक्षयापहा 146<br />
काम्पिल्लः कर्कशश्चन्द्रो रक्ताङ्गो रोचनोऽपि च<br />
काम्पिल्लः कफपित्तास्रकृमिगुल्मोदरव्रणान<br />
हन्ति रेची कटूष्णश्च मेहानाहविषाश्मनुत 147<br />
आरग्बवधो राजवृक्षः शम्पाकश्चतुरङ्गुलः<br />
आरेवतो व्याधिघातः कृतमालः सुवर्णकः 148<br />
कर्णिकारो दीर्घफलः स्वर्णाङ्गः स्वर्णभूषणः<br />
आरग्वधोगुरुःस्वादुः शीतलः स्रंसनोत्तमः 149<br />
ज्वरहृद्रो गापित्तास्रवातोदावर्त्तशूलनुत<br />
तत्फलं स्रंसनं रुच्यं कुष्ठपित्तकफापहम<br />
ज्वरे तु सततं पथ्यं कोष्ठशुद्धिकरं परम 150<br />
कट्वी तु कटुका तिक्ता कृष्णभेदा कटम्भरा<br />
अशोका मत्स्यशकला चक्राङ्गी शकुलादनी<br />
मत्स्यपित्ता काण्डरुहा रोहिणी कटुरोहिणी 151<br />
कट्वी तु कटुका पाके तिक्ता रूक्षा हिमा लघुः<br />
भेदिनी दीपनी हृद्या कफपित्तज्वरापहा<br />
प्रमेहश्वासकासास्रदाहकुष्ठकृमिप्रणुत 152<br />
किराततिक्तः कैरातः कटुतिक्तः किरातकः 153<br />
काण्डतिक्तोऽनार्यतिक्तो भूनिम्बो रामसेनकः<br />
किरातकोऽन्यो नैपालः सोऽद्धतिक्तो ज्वरान्तकः 154<br />
किरातः सारको रूक्षः शीतलस्तिक्तको लघुः<br />
सन्निपातज्वरश्वासकफपित्तास्रदाहनुत<br />
कासशोथतृषाकुष्ठज्वरव्रणकृमिप्रणुत 155<br />
उक्तं कुटजबीजं तु यवमिन्द्र यवं तथा<br />
कलिङ्गं चापि कालिङ्गं तथा भद्र यवा अपि 156<br />
क्वचिदिन्द्र स्य नामैव भवेत्तदभिधायकम<br />
फलानीन्द्र यवास्तस्य तथा भद्र यवा अपि 157<br />
इन्द्र यवं त्रिदोषघ्नं संग्राहि कटु शीतलम 158<br />
ज्वरातीसाररक्तार्शोवमिवीसर्पकुष्ठनुत<br />
दीपनं गुदकीलास्रवातास्रश्लेष्मशूलजित 159<br />
मदनश्छर्दनः पिण्डो नटः पिण्डीतकस्तथा<br />
करहाटो मरुवकः शल्यको विषपुष्पकः 160<br />
मदनो मधुरस्तिक्तो वीर्योष्णो लेखनो लघुः<br />
वान्तिकृद्विद्र धिहरः प्रतिश्यायव्रणान्तकः<br />
रूक्ष कुष्ठकफानाहशोथगुल्मव्रणापहः 161<br />
रास्ना युक्तरसा रस्या सुवहा रसना रसा<br />
एलापर्णी च सुरसा सुगन्धा श्रेयसी तथा 162<br />
रास्नाऽमपाचिनी तिक्ता गुरूष्णा कफवातजित 163<br />
शोथश्वाससमीरास्रवातशूलोदरापहा<br />
कासज्वरविषाशीतिवातिकामयसिध्महृत 164<br />
नाकुली सुरसा नागसुगन्धा गन्धनाकुली<br />
नकुलेष्टा भुजङ्गाक्षी सर्पाङ्गी विषनाशिनी 165<br />
नाकुली तुवरा तिक्ता कटुकोष्णा विनाशयेत<br />
भोगिलूतावृश्चिकाखुविषज्वरकृमिव्रणान 166<br />
माचिकाप्रस्थिकाऽम्बष्ठा तथा चाम्बालिकांऽबिका<br />
मयूरविदला केशीसहस्रा बालमूलिका 167<br />
माचिकाऽम्ला रसे पाके कषाया शीतला लघुः<br />
पक्वातीसारपित्तास्रकफकण्ठामयापहा 168<br />
तेजस्विनी तेजवती तेजोह्वा तेजनी तथा 169<br />
तेजस्विनी कफश्वासकासास्यामयवातहृत<br />
पाचन्युष्णाकटुस्तिक्तारुचिवह्निप्रदीपिनी 170<br />
ज्योतिष्मती स्यात्कटभी ज्योतिष्का कङ्गुनीति च<br />
पारावतपदी पिण्या लता प्रोक्ता ककुन्दनी 171<br />
ज्योतिष्मती कटुस्तिक्ता सरा कफसमीरजित<br />
अत्युष्णा वामनी तीक्ष्णा वह्निबुद्धिस्मृतिप्रदा 172<br />
कुष्ठं रोगाह्वयं वाप्यं पारिभव्यं तथोत्पलम<br />
कुष्ठमुष्णं कटु स्वादु शुक्रलं तिक्तकं लघु<br />
हन्ति वातास्रवीसर्पकासकुष्ठमरुत्कफान 173<br />
उक्तं पुष्करमूलं तु पौष्करं पुष्करञ्च तत<br />
पद्मपत्रञ्च काश्मीरं कुष्ठभेदमिमं जगुः 174<br />
पौष्करं कटुकं तिक्तमुक्तं वातकफज्वरान<br />
हन्ति शोथारुचिश्वासान्विशेषात्पार्श्वशूलनुत 175<br />
कटुपर्णी हैमवती हेमक्षीरी हिमावती<br />
हेमाह्वा पीतदुग्धा च तन्मूलं चोकमुच्यते 176<br />
हेमाह्वा रेचनी तिक्ता भेदिन्युत्क्लेशकारिणी<br />
कृमिकण्डूविषानाहकफपित्तास्रकुष्ठनुत 177<br />
शृङ्गी कर्कटशृङ्गी च स्यात्कुलीरविषाणिका<br />
अजशृङ्गी च चक्रा च कर्कटाख्या च कीर्त्तिता 178<br />
शृङ्गी कषाया तिक्तोष्णा कफवातक्षयज्वरान<br />
श्वासोर्ध्ववाततृट्कासहिक्काऽरुचिवमीन्हरेत 179<br />
कट्फलः सोमवल्कश्च कैटर्य्यः कुम्भिकाऽपि च<br />
श्रीपर्णिका कुमुदिका भद्रा भद्र वतीति च 180<br />
कट्फलस्तुवरस्तिक्तः कटुर्वातकफज्वरान<br />
हन्ति श्वासप्रमेहार्शः कासकण्ठामयारुचीः 181<br />
भार्गी भृगुभवा पद्मा फञ्जी ब्राह्मणयष्टिका<br />
ब्राह्मण्यङ्गारवल्ली च खरशाकश्च हञ्जिका 182<br />
भार्गी रूक्षा कटुस्तिक्ता रुच्योष्णा पाचनी लघुः<br />
दीपनी तुवरा गुल्मरक्तनुन्नाशयेद ध्रुवम<br />
शोथकासकफश्वासपीनसज्वरमारुतान 183<br />
पाषाणभेदकोऽश्मघ्नो गिरिभिद्भिन्नयोजिनी<br />
अश्मभेदो हिमस्तिक्तः कषायो वस्तिशोधनः 184<br />
भेदनो हन्ति दोषार्शोगुल्मकृच्छ्राश्महृद्द्रुजः<br />
योनि रोगान्प्रमेहांश्च प्लीह शूल व्रणानि च 185<br />
धातकी धातुपुष्पी च ताम्रपुष्पी च कुञ्जरा<br />
सुभिक्षा बहुपुष्पी च वह्निज्वाला च सा स्मृता 186<br />
धातकी कटुका शीता मृदुकृत्तुवरा लघुः<br />
तृष्णाऽतीसारपित्तास्रविषकृमिविसर्पजित 187<br />
मञ्जिष्ठा विकसा जिङ्गी समङ्गा कालमेषिका 188<br />
मण्डूकपर्णी भण्डीरी भण्डी योजनवल्ल्यपि<br />
रसायन्यरुणा काला रक्ताङ्गी रक्तयष्टिका 189<br />
भण्डीतकी च गण्डीरी मञ्जूषा वस्त्ररञ्जिनी<br />
मञ्जिष्ठा मधुरा तिक्ता कषाया स्वरवर्णकृत 190<br />
गुरुरुष्णा विषश्लेष्मशोथयोन्यक्षिकर्णरुक<br />
रक्तातीसार कुष्ठास्र वीसर्पव्रणमेहनुत 191<br />
स्यात्कुसुम्भं वह्निशिखं वस्त्ररञ्जकमित्यपि<br />
कुसुम्भं वातलं कृच्छ्ररक्तपित्तकफापहम 192<br />
लाक्षा पलंकषालक्तो यावो वृक्षामयो जतुः<br />
लाक्षा वर्ण्या हिमा बल्या स्निग्धा च तुवरा लघुः 193<br />
ब्रिआह्मण्यङ्गारवल्ली च खरशाखा च हञ्जिका<br />
अनुष्णा कफपित्तास्रहिक्काकासज्वरप्रणुत 194<br />
व्रणोरःक्षतवीसर्पकृमिकुष्ठगदापहा<br />
अलक्तको गुणैस्तद्वद्विशेषाद्व्यङ्गनाशनः 195<br />
हरिद्रा काञ्चनी पीता निशाऽख्या वरवर्णिनी<br />
कृमिघ्नी हलदी योषित्प्रिया हट्टविलासिनी 196<br />
हरिद्रा कटुका तिक्ता रूक्षोष्णा कफपित्तनुत<br />
वर्ण्या त्वग्दोषमेहास्रशोथपाण्डुव्रणापहा 197<br />
दार्वी मेदाऽम्रगन्धा च सुरभीदारु दारु च<br />
कर्पूरा पद्मपत्रा स्यात्सुरीमत्सुरतारका 198<br />
आम्रगंधिर्हरिद्रा या सा शीता वातला मता<br />
पित्तहृन्मधुरा तिक्ता सर्वकण्डूविनाशिनी 199<br />
अरण्यहलदीकन्दः कुष्ठवातास्रनाशनः 200<br />
दार्वी दारुहरिद्रा च पर्जन्या पर्जनीति च<br />
कटङ्कटेरी पीता च भवेत्सैव पचम्पचा<br />
सैव कालीयकः प्रोक्तस्तथा कालेयकोऽपि च 201<br />
पीतद्रुश्च हरिद्रुश्च पीतदारु च पीतकम्<br />
दार्वी निशागुणा किन्तु नेत्र कर्णास्यरोगनुत 202<br />
दार्वीक्वाथसमं क्षीरं पादं पक्त्वा यदा घनम<br />
तदा रसाञ्जनाख्यं तन्नेत्रयोः परमं हितम 203<br />
रसाञ्जनं तार्क्ष्यशैलं रसगर्भश्च तार्क्ष्यजम<br />
रसाञ्जनं कटु श्लेष्मविषनेत्रविकारनुत 204<br />
उष्णं रसायनं तिक्तं छेदनं व्रणदोषहृत 205<br />
अवल्गुजो वाकुची स्यात्सोमराजी सुपर्णिका<br />
शशिलेखा कृष्णफला सोमा पूतिफलीति च 206<br />
सोमवल्ली कालमेषी कुष्ठघ्नी च प्रकीर्त्तिता<br />
बाकुची मधुरा तिक्ता कटुपाका रसायनी 207<br />
विष्टम्भहृद्धिमा रुच्या सरा श्लेष्मास्रपित्तनुत<br />
रूक्षा हृद्या श्वासकुष्ठमेहज्वरकृमिप्रणुत 208<br />
तत्फलं पित्तलं कुष्ठकफानिलहरं कटु<br />
केश्यं त्वच्यं कृमिश्वासकासशोथामपाण्डुनुत 209<br />
चक्रमर्दः प्रपुन्नाटो दद्रुघ्नो मेषलोचनः<br />
पद्माटः स्यादेडगजश्चक्री पुन्नाट इत्यपि 110<br />
चक्रमर्दो लघुः स्वादू रूक्षः पित्तानिलापहः<br />
हृद्यो हिमः कफश्वासकुष्ठदद्रुकृमीन्हरेत 211<br />
हन्त्युष्णं तत्फलं कुष्ठकण्डूदद्रुविषानिलान<br />
गुल्मकासकृमिश्वासनाशनं कटुकं स्मृतम 212<br />
विषा त्वतिविषा विश्वा शृङ्गी प्रतिविषाऽरुणा<br />
शुक्लकन्दा चोपविषा भङ्गुरा घुणवल्लभा 213<br />
विषा सोष्णा कटुस्तिक्ता पाचनी दीपनी हरेत<br />
कफपित्तातिसारामविषकासवमिकृमीन 214<br />
लोध्रस्तिल्वस्तिरीटश्च शावरो गालवस्तथा<br />
द्वितीयः पट्टिकालोध्रः क्रमुकः स्थूलवल्कलः<br />
जीर्णपत्रो बृहत्पत्रः पट्टी लाक्षाप्रसादनः 215<br />
लोध्रो ग्राही लघुः शीतश्चक्षुष्यः कफपित्तनुत<br />
कषायो रक्तपित्तासृग्ज्वरातीसारशोथहृत 216<br />
लशुनस्तु रसोनः स्यादुग्रगन्धो महौषधम<br />
अरिष्टो म्लेच्छकन्दश्च यवनेष्टो रसोनकः 217<br />
यदाऽमृतं वैनतेयो जहार सुरसत्तमात<br />
तदा ततोऽपतद् विन्दुः स रसोनोऽभवद्भुवि 218<br />
पञ्चभिश्च रसैर्युक्तो रसेनाम्लेन वर्जितः<br />
तस्माद्र सोन इत्युक्तो द्र व्याणां गुणवेदिभिः 219<br />
कटुकश्चापि मूलेषु तिक्तः पत्रेषु संस्थितः<br />
नाले कषाय उद्दिष्टो नालाग्रे लवणः स्मृतः<br />
बीजे तु मधुरः प्रोक्तो रसस्तद्गुणवेदिभिः 220<br />
रसोनो वृंहणो वृष्यः स्निग्धोष्णः पाचनः सरः<br />
रसे पाके च कटुकस्तीक्ष्णो मधुरको मतः 221<br />
भग्नसन्धानकृत्कण्ठ्यो गुरुः पित्तास्रवृद्धिदः<br />
बलवर्णकरो मेधाहितो नेत्रयो रसायनः 222<br />
हृद्रो गजीर्णज्वरकुक्षिशूलविबन्धगुल्मारुचिकासशोफान<br />
दुर्नामकुष्ठानलसादजन्तुसमीरणश्वासकफांश्च हन्ति 223<br />
मद्यं मांसं तथाऽम्लञ्च हितं लशुनसेविनाम<br />
व्यायाममातपं रोषमतिनीरं पयो गुडम 224<br />
रसोनमश्नन् पुरुषस्त्यजेदेतान् निरन्तरम 225<br />
पलाण्डुर्यवनेष्टश्च दुर्गन्धो मुखदूषकः<br />
पलाण्डुस्तु बुधैर्ज्ञेयो रसोनसदृशो गुणैः 226<br />
स्वादुः पाके रसेऽनुष्णः कफकृन्नातिपित्तलः<br />
हरते केवलं वातं बलवीर्यकरो गुरुः 227<br />
भल्लातकं त्रिषु प्रोक्तमरुष्कोरुष्करोऽग्निकः<br />
तथैवाग्निमुखी भल्ली वीरवृक्षश्च शोफकृत 228<br />
भल्लातकफलं पक्वं स्वादुपाकरसं लघु<br />
कषायं पाचनं स्निग्धं तीक्ष्णोष्णं छेदि भेदनम 229<br />
मेध्यं वह्निकरं हन्ति कफवातव्रणोदरम<br />
कुष्ठार्शोग्रहणीगुल्मशोफानाहज्वरकृमीन 230<br />
तन्मज्जा मधुरा वृष्या बृंहणी वातपित्तहा<br />
वृन्तमारुष्करं स्वादु पित्तघ्नं केश्यमग्निकृत 231<br />
भल्लातकः कषायोष्णः शुक्रलो मधुरो लघुः<br />
वातश्लेष्मोदरानाहकुष्ठार्शोग्रहणीगदान<br />
हन्ति गुल्मज्वरश्वित्रवह्निमान्द्यकृमिव्रणान 232<br />
भङ्गा गञ्जा मातुलानी मादिनी विजया जया 233<br />
भङ्गा कफ हरी तिक्ता ग्राहिणी पाचनी लघुः<br />
तीक्ष्णोष्णा पित्तला मोहमदवाग्वह्निवर्द्धिनी 234<br />
तिलभेदः खसतिलः खाखसश्चापि स स्मृतः<br />
स्यात खाखसफलोद्भूतं वल्कलं शीतलं लघु 235<br />
ग्राहि तिक्तं कषायञ्च वातकृत कफकासहृत 236<br />
धातूनां शोषकं रूक्षंमदकृद्वाग्विवर्धनम<br />
मुहुर्मोहकरं रुच्यं सेवनात्पुंस्त्वनाशनम 237<br />
उक्तं खसफलक्षीरमाफूकमहिफेनकम<br />
आफूकं शोषणं ग्राहि श्लेष्मघ्नं वातपित्तलम<br />
तथा खसफलोद्भूतवल्कलप्रायमित्यपि 238<br />
उच्यन्ते खसबीजानि ते खाखसतिला अपि 239<br />
खसबीजानिबल्यानि वृष्याणि सुगुरूणि च<br />
जनयन्ति कफं तानि शमयन्ति समीरणम 240<br />
सैन्धवोऽस्त्री शीतशिवं मणिमन्थञ्च सिन्धुजम<br />
सैन्धवं लवणं स्वादु दीपनं पाचनं लघु<br />
स्निग्धं रुच्यं हिमं वृष्यं सूक्ष्मं नेत्रयं त्रिदोषहृत 241<br />
शाकम्भरीयं कथितं गडाख्यं रोमकं तथा 242<br />
गडाख्यं लघु वातघ्नमत्युष्णं भेदिपित्तलम<br />
तीक्ष्णोष्णं चापि सूक्ष्मञ्चाभिष्यन्दिकटुपाकि च 243<br />
सामुद्रं यत्तुलवणमक्षीवं वशिरञ्च तत<br />
समुद्र जं सागरजं लवणोदधिसम्भवम 244<br />
सामुद्रं मधुरं पाके सतिक्तं मधुरं गुरु<br />
नात्युष्णं दीपनं भेदि सक्षारमविदाहि च<br />
श्लेष्मलं वातनुत्तीक्ष्णमरूक्षं नातिशीतलम 245<br />
बिडं पाक्यञ्च कृतकं तथा द्राविडमासुरम<br />
बिडं सक्षारमूर्ध्वाधः कफवातानुलोमनम 246<br />
दीपनं लघु तीक्ष्णोष्णं रूक्षं रुच्यं व्यवायि च<br />
विबन्धानाहविष्टम्भहृद्रुग्गौरवशूलनुत 247<br />
सौवर्चलं स्याद्रुचकं मन्थपाकञ्च तन्मतम<br />
रुचकं रोचनं भेदि दीपनं पाचनं परम 248<br />
सस्नेहं वातनुन्नातिपित्तलं विशदं लघु<br />
उद्गारशुद्धिदं सूक्ष्मं विबन्धानाहशूलजित 249<br />
औद्भिदं पांशुलवणं यज्जातं भूमितः स्वयम<br />
क्षारं गुरु कटु स्निग्धं शीतलं वातनाशनम 250<br />
चणकाम्लकमत्युष्णं दीपनं दन्तहर्षणम<br />
लवणानुरसं रुच्यं शूलाजीर्णविबन्धनुत 251<br />
पाक्यं क्षारो यवक्षारो यावशूको यवाग्रजः<br />
स्वर्जिकाऽपि स्मृतः क्षारः कापोतः सुखवर्चकः 252<br />
कथितः स्वर्जिकाभेदो विशेषज्ञैः सुवर्चिका<br />
यवक्षारो लघुः स्निग्धः सुसूक्ष्मो वह्निदीपनः 253<br />
निहन्ति शूलवातामश्लेष्मश्वासगलामयान<br />
पाण्ड्वर्शोग्रहणीगुल्मानाहप्लीहहृदामयान 254<br />
स्वर्जिकाऽल्पगुणा तस्माद्विज्ञेया गुल्मशूलहृत<br />
सुवर्चिका स्वर्जिकावद बोद्धव्या गुणतो जनैः 255<br />
सौभाग्यं टङ्कणं क्षारं धातुद्रा वकमुच्यते<br />
टङ्कणं वह्निकृद्रू क्षं कफहृद्वातपित्तकृत 256<br />
स्वर्जिका यावशूकश्च क्षारद्वयमुदाहृतम<br />
टङ्कणेन युतं तत्तु क्षारत्रयमुदीरितम 257<br />
मिलितं तूक्तगुणकृद्विशेषाद्गुल्महृत्परम<br />
पलाश वज्रि शिखरि चिञ्चाऽकतिलनालजाः 258<br />
यवजः स्वर्जिका चेति क्षाराष्टकमुदाहृतम<br />
क्षारा एतेऽग्निना तुल्या गुल्मशूलहरा भृशम 259<br />
चुक्रंसहस्रवेधि स्याद्र साम्लं शुक्तमित्यपि<br />
चुक्रमत्यम्लमुष्णञ्च दीपनं पाचनं परम 260<br />
शूलगुल्मविबन्धामवातश्लेष्महरं सरम<br />
वमितृष्णाऽस्यवैरस्यहृत्पीडावह्निमान्द्यहृत 261<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे मिश्रप्रकरणे </span><br />
<span style="color: red;">द्वितीयो हरीतक्यादिवर्गः समाप्तः </span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-3956173414377835522015-07-12T20:37:00.002-07:002015-07-12T20:37:16.127-07:00अथ कर्पूरादिवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पुंसि क्लीबे च कर्पूरः सिताभ्रो हिमवालुकः<br />
घनसारश्चन्द्र संज्ञो हिमनामाऽपि स स्मृतः 1<br />
कर्पूरः शीतलो वृष्यश्चक्षुष्यो लेखनो लघुः<br />
सुरभिर्मधुरस्तिक्तः कफपित्तविषापहः 2<br />
दाहतृष्णाऽस्यवैरस्यमेदोदौर्गन्ध्यनाशनः<br />
कर्पूरो द्विविधः प्रोक्तः पक्वापक्वप्रभेदतः<br />
पक्वात्कर्पूरतः प्राहुरपक्वं गुणवत्तरम 3<br />
चीनाकसंज्ञः कर्पूरः कफक्षयकरः स्मृतः<br />
कुष्ठकण्डूवमिहरस्तथा तिक्तरसश्च सः 4<br />
मृगनाभिर्मृगमदः कथितस्तु सहस्रभित<br />
कस्तूरिका च कस्तूरी वेधमुख्या च सा स्मृता 5<br />
कामरूपोद्भवा कृष्णा नैपाली नीलवर्णयुक<br />
काश्मीरी कपिलच्छाया कस्तूरी त्रिविधा स्मृता 6<br />
कामरूपोद्भवा श्रेष्ठा नैपाली मध्यमा भवेत<br />
काश्मीरदेशसम्भूता कस्तूरी ह्यधमा मता 7<br />
कस्तूरिका कटुस्तिक्ता क्षारोष्णा शुक्रला गुरुः<br />
कफवातविषच्छर्दिशीतदौर्गन्ध्यशोषहृत 8<br />
लता कस्तूरिका तिक्ता स्वाद्वी वृष्या हिमा लघुः<br />
चक्षुष्या छेदिनी श्लेष्मतृष्णाबस्त्यास्यरोगहृत 9<br />
गन्धमार्जारवीर्यन्तु वीर्यकृत्कफवातहृत<br />
कण्डूकुष्ठहरं नेत्रयं सुगन्धं स्वेदगन्धनुत 10<br />
श्रीखण्डं चन्दनं न स्त्री भद्र श्रीस्तैलपर्णिकः<br />
गन्धसारो मलजयस्तथा चन्द्र द्युतिश्च सः 11<br />
स्वादे तिक्तं कषे पीतं छेदे रक्तं तनौ सितम <br />
ग्रन्थिकोटरसंयुक्तं चन्दनं श्रेष्ठमुच्यते 12<br />
चन्दनं शीतलं रूक्षं तिक्तमाह्लादनं लघु<br />
श्रमशोषविषश्लेष्मतृष्णापित्तास्रदाहनुत 13<br />
कालीयकं तु कालीयं पीताभं हरिचन्दनम 14<br />
हरिप्रियं कालसारं तथा कालानुसार्यकम<br />
कालीयकं रक्तगुणं विशेषाद व्यङ्गनाशनम 15<br />
रक्तचन्दनमाख्यातं रक्ताङ्गं क्षुद्र चन्दनम<br />
तिलपर्णं रक्तसारं तत्प्रवालफलं स्मृतम 16<br />
रक्तं शीतं गुरु स्वादुच्छर्दितृष्णाऽस्रपित्तहृत<br />
तिक्तं नेत्रहितं वृष्यं ज्वरव्रणविषापहम 17<br />
पतङ्गं रक्तसारञ्च सुरङ्गं रञ्जनं तथा<br />
पट्टरञ्जकमाख्यातं पत्तूरञ्च कुचन्दनम 18<br />
पतङ्गं मधुरं शीतं पित्तश्लेष्मव्रणास्रनुत<br />
हरिचन्दनवद्वेद्यं विशेषाद्दाहनाशनम 19<br />
चन्दनानि तु सर्वाणि सदृशानि रसादिभिः<br />
गन्धेन तु विशेषोऽस्ति पूर्वः श्रेष्ठतमो गुणैः 20<br />
अगुरु प्रवरं लोहं राजार्हं योगजं तथा<br />
वंशिकं कृमिजं वाऽपि कृमिजग्धमनार्यकम 21<br />
अगुरूष्णं कटु त्वच्यं तिक्तं तीक्ष्णञ्च पित्तलम<br />
लघु कर्णाक्षिरोगघ्नं शीतवातकफप्रणुत 22<br />
कृष्णं गुणाधिकं तत्तु लोहवद्वारि मज्जति<br />
अगुरुप्रभवः स्नेहः कृष्णागुरुसमः स्मृतः 23<br />
देवदारु स्मृतं दारुभद्रं दार्विन्द्र दारु च<br />
मस्तदारु द्रुकिलिमं किलिमं सुरभूरुहः 24<br />
देवदारु लघु स्निग्धं तिक्तोष्णं कटुपाकि च<br />
विबन्धाध्मानशोथामतन्द्रा हिक्काज्वरास्रजित<br />
प्रमेहपीनसश्लेष्मकासकण्डूसमीरनुत 25<br />
सरलः पीतवृक्षः स्यात्तथा सुरभिदारुकः<br />
सरलो मधुरस्तिक्तो कटुपाकरसो लघुः 26<br />
स्निग्धोष्णः कर्णकण्ठाक्षिरोगरक्षोहरः स्मृतः<br />
कफानिलस्वेददाहकासमूर्छाव्रणापहः 27<br />
कालानुसार्यं तगरं कुटिलं नहुषं नतम<br />
अपरं पिण्डतगरं दण्डहस्ती च बर्हिणम् 28<br />
तगरद्वयमुष्णं स्यात्स्वादु स्निग्धं लघु स्मृतम्<br />
विषापस्मारशूलाक्षिरोगदोषत्रयापहम 29<br />
पद्मकं पद्मगन्धि स्यात्तथा पद्माह्वयं स्मृतम<br />
पद्मकं तुवरं तिक्तं शीतलं वातलं लघु 30<br />
वीसर्पदाहविस्फोटकुष्ठश्लेष्मास्रपित्तनुत<br />
गर्भसंस्थापनं रुच्यं वमिव्रणतृषाप्रणुत 31<br />
गुग्गुलर्देवधूपश्च जटायुः कौशिकः पुरः<br />
कुम्भोलूखलकं क्लीबे महिषाक्षः पलङ्कषः 32<br />
महिषाक्षो महानीलः कुमुदः पद्म इत्यपि<br />
हिरण्यः पञ्चमो ज्ञेयो गुग्गुलोः पञ्च जातयः 33<br />
भृङ्गाञ्जनसवर्णस्तु महिषाक्ष इति स्मृतः<br />
महानीलस्तु विज्ञेयः स्वनामसमलक्षणः 34<br />
कुमुदः कुमुदाभः स्यात्पद्मो माणिक्यसन्निभः<br />
हिरण्याख्यस्तु हेमाभः पञ्चानां लिङ्गमीरितम 35<br />
महिषाक्षो महानीलो गजेन्द्रा णां हितावुभौ<br />
हयानां कुमुदः पद्मः स्वस्त्यारोग्यकरौ परौ 36<br />
विशेषेण मनुष्याणां कनकः परिकीर्त्तितः<br />
कदाचिन्महिषाक्षश्च मतः कैश्चिन्नृणामपि 37<br />
गुग्गुलुर्विशदस्तिक्तो वीर्योष्णः पित्तलः सरः<br />
कषायः कटुकः पाके कटू रूक्षो लघुः परः 38<br />
भग्नसन्धानकृद् वृष्यः सूक्ष्मः स्वर्यो रसायनः<br />
दीपनः पिच्छिलो बल्यः कफवातव्रणापचीः 39<br />
मेदोमेहाश्मवातांश्च क्लेदकुष्ठाममारुतान<br />
पिडकाग्रन्थिशोफार्श्गण्डमालाकृमीञ्जयेत 40<br />
माधुर्याच्छमयेद्वातं कषायत्वाच्च पित्तहा<br />
तिक्तत्वाद् कफजित्तेन गुग्गुलुः सर्वदोषहा 41<br />
स नवो बृंहणो वृष्यः पुराणस्त्वतिलेखनः 42<br />
स्निग्धः काञ्चनसङ्काशः पक्वजम्बूफलोपमः<br />
नूतनो गुग्गुलुः प्रोक्तः सुगन्धिर्यस्तु पिच्छिलः 43<br />
शुष्को दुर्गन्धकश्चैव त्यक्तप्रकृतिवर्णकः<br />
पुराणः स तु विज्ञेयो गुग्गुलुर्वीर्यवर्जितः 44<br />
अम्लं तीक्ष्णमजीर्णञ्च व्यवायं श्रममातपम<br />
मद्यं रोषं त्यजेत्सम्यग गुणार्थी पुरसेवकः 45<br />
श्रीवासः सरलस्रावः श्रीवेष्टो वृक्षधूपकः<br />
श्रीवासो मधुरस्तिक्तः स्निग्धोष्णस्तुवरः सरः 46<br />
पित्तलो वातमूर्द्धाक्षिस्वररोगकफापहः<br />
रक्षोघ्नः स्वेददौर्गन्ध्ययूकाकण्डूव्रणप्रणुत 47<br />
रालस्तु शालनिर्यासस्तथा सर्ज्जरसः स्मृतः<br />
देवधूपो यक्षधूपस्तथा सर्वरसश्च सः 48<br />
रालो हिमो गुरुस्तिक्तः कषायो ग्राहको हरेत<br />
दोषास्रस्वेदवीसर्पज्वरव्रणविपादिकाः<br />
ग्रहभग्नाग्निदग्धांश्च शूलातीसारनाशनः 49<br />
कुन्दुरुस्तु मुकुन्दः स्यात्सुगन्धः कुन्द इत्यपि 50<br />
कुन्दुरुर्मधुरस्तिक्तस्तीक्ष्णस्त्वच्यः कटुर्हरेत<br />
ज्वरस्वेदग्रहालक्ष्मीमुखरोगकफानिलान 51<br />
सिह्लकस्तु तुरुष्कः स्याद्यतो यवनदेशजः<br />
कपितैलश्च संख्यातस्तथा च कपिनामकः 52<br />
सिह्लकःकटुकःस्वादुः स्निग्धोष्णःशुक्रकान्तिकृत<br />
वृष्यः कण्ठ्यः स्वेदकुष्ठज्वरदाहग्रहापहः 53<br />
जातीफलं जातिकोशं मालतीफलमित्यपि<br />
जातीफलं रसे तिक्तं तीक्ष्णोष्णं रोचनं लघु<br />
कटुकं दीपनं ग्राहि स्वर्यं श्लेष्मानिलापहम 54<br />
निहन्ति मुखवैरस्यं मलदौर्गन्ध्यकृष्णताः<br />
कृमिकासवमिश्वासशोषपीनसहृद्रुजः 55<br />
जातीफलस्य त्वक प्रोक्ता जातीपत्री भिषग्वरैः 56<br />
जातीपत्री लघुः स्वादुः कटूष्णा रुचिवर्णकृत<br />
कफकासवमिश्वासतृष्णाकृमिविषापहा 57<br />
लवङ्गं देवकुसुमं श्रीसंज्ञं श्रीप्रसूनकम<br />
लवङ्गं कटुकं तिक्तं लघु नेत्रहितं हिमम 58<br />
दीपनं पाचनं रुच्यं कफपित्तास्रनाशकृत<br />
तृष्णां छर्दिं तथाऽध्मानं शूलमाशु विनाशयेत<br />
कासं श्वासञ्च हिक्काञ्च क्षयं क्षपयति ध्रुवम 59<br />
एला स्थूला च बहुला पृथ्वीका त्रिपुटाऽपि च 60<br />
भद्रै ला बृहदेला च चन्द्र बाला च निष्कुटिः<br />
स्थूलैला कटुका पाके रसे चानलकृल्लघुः 61<br />
रूक्षोष्णा श्लेष्मपित्तास्रकण्डूश्वासतृषाऽपहा<br />
हृल्लासविषबस्त्यास्यशिरोरुग्वमिकासनुत 62<br />
सूक्ष्मोपकुञ्चिका तुत्था कोरङ्गी द्राविडी त्रुटिः<br />
एला सूक्ष्मा कफश्वासकासार्शोमूत्रकृच्छ्रहृत<br />
रसे तु कटुका शीता लघ्वी वातहरी मता 63<br />
त्वक्पत्रञ्च वराङ्गं स्याद् भृङ्गं चोचं तथोत्कटम<br />
त्वचं लघूष्णं कटुकं स्वादु तिक्तञ्च रूक्षकम 64<br />
पित्तलं कफवातघ्नं कण्ड्वामारुचिनाशनम<br />
हृद्बस्तिरोगवातार्शः कृमिपीनसशुक्रहृत 65<br />
त्वक्स्वाद्वी तु तनुत्वक्स्यात्तथा दारुसिता मता 66<br />
उक्ता दारुसिता स्वाद्वी तिक्ताचानिलपित्तहृत<br />
सुरभिः शुक्रलाबल्या मुखशोषतृषापहा 67<br />
पत्रं तमालपत्रञ्च तथा स्यात्पत्रनामकम<br />
पत्रकं मधुरं किञ्चित्तीक्ष्णोष्णं पिच्छिलं लघु<br />
निहन्ति कफवातार्शोहृल्लासारुचिपीनसान 68<br />
नागपुष्प स्मृतो नागः केशरो नागकेशरः<br />
चाम्पेयो नागकिञ्जल्कः कथितः काञ्चनाह्वयः 69<br />
नागपुष्पं कषायोष्णं रूक्षं लघ्वामपाचनम 70<br />
ज्वरकण्डूतृषास्वेदच्छर्दिहृल्लासनाशनम<br />
दौर्गन्ध्यकुष्ठवीसर्पकफपित्तविषापहम 71<br />
त्वगेलापत्रकैस्तुल्यैस्त्रिसुगन्धि त्रिजातकम<br />
नागकेशरसंयुक्तं चातुर्जातकमुच्यते 72<br />
तद् द्वयं रोचनं रूक्षं तीक्ष्णोष्णं मुखगन्धहृत<br />
लघुपित्ताग्निकृद्वर्ण्यं कफवातविषापहम 73<br />
कुङ्कुमं घुसृणं रक्तं काश्मीरं पीतकं वरम<br />
संकोचं पिशुनं धीरं बाह्लीकं शोणिताभिधम 74<br />
काश्मीरदेशजे क्षेत्रे कुङ्कुमं यद्भवेद्धि तत<br />
सूक्ष्मकेशरमारक्तं पद्मगन्धि तदुत्तमम 75<br />
बाह्लीकदेशसञ्जातं कुङ्कुमं पाण्डुरं स्मृतम<br />
केतकीगन्धयुक्तं तन्मध्यमं सूक्ष्मकेशरम 76<br />
कुङ्कुमं पारसीकं यन्मधुगन्धि तदीरितम<br />
ईषत्पाण्डुरवर्णं तदधमं स्थूलकेशरम 77<br />
कुङ्कुमं कटुकं स्निग्धं शिरोरुग्व्रणजन्तुजित<br />
तिक्तं वमिहरं वर्ण्यं व्यङ्गदोषत्रयापहम 78<br />
गोरोचना तु मङ्गल्या वन्द्या गौरी च रोचना<br />
गोरोचना हिमा तिक्ता वश्या मङ्गलकान्तिदा<br />
विषालक्ष्मीग्रहोन्मादगर्भस्रावक्षतास्रहृत 79<br />
नखं व्याघ्रनखं व्याघ्रायुधं तच्चक्रकारकम 80<br />
नखं स्वल्पं नखी प्रोक्ता हनुर्हट्टविलासिनी<br />
नखद्वयं ग्रहश्लेष्मवातास्रज्वरकुष्ठहृत 81<br />
लघूष्णं शुक्रलं वर्ण्यं स्वादु व्रणविषापहम<br />
अलक्ष्मीमुखदौर्गन्ध्यहृत्पाकरसयोः कटुः 82<br />
बालं ह्रीबेरबर्हिष्ठोदीच्यं केशाम्बुनाम च<br />
बालकं शीतलं रूक्षं लघु दीपनपाचनम<br />
हृल्लासारुचिवीसर्पहृद्रो गामातिसारजित 83<br />
स्याद्वीरणं वीरतरुर्वीरञ्च बहुमूलकम<br />
वीरणं पाचनं शीतं वान्तिहृल्लघु तिक्तकम 84<br />
स्तम्भनं ज्वरनुद भ्रान्तिमदजित्कफपित्तहृत<br />
तृष्णाऽस्रविषवीसर्पकृच्छ्रदाहव्रणापहम 85<br />
वीरणस्य तु मूलं स्यादुशीरं नलदञ्च तत<br />
अमृणालञ्च सेव्यञ्च समगन्धिकमित्यपि 86<br />
उशीरं पाचनं शीतं स्तम्भनं लघु तिक्तकम 87<br />
मधुरं ज्वरहृद्वान्तिमदनुत्कफपित्तहृत<br />
तृष्णाऽस्रविषवीसर्पदाहकृच्छ्र्रवणापहम 88<br />
जटामांसी भूतजटा जटिला च तपस्विनी<br />
मांसी तिक्ता कषाया च मेध्या कान्तिबलप्रदा<br />
स्वाद्वी हिमा त्रिदोषास्रदाहवीसर्पकुष्ठनुत 89<br />
शैलेयन्तु शिलापुष्पं वृद्धं कालानुसार्य्यकम 90<br />
शैलेयं शीतलं हृद्यं कफपित्तहरं लघु<br />
कण्डूकुष्ठाश्मरीदाहविष हृद् गुदरक्तहृत 91<br />
मुस्तकं न स्त्रियां मुस्तं त्रिषु वारिदनामकम<br />
कुरुविन्दश्च संख्यातोऽपरः क्रोडकसेरुकः 92<br />
भद्र मुस्तञ्च गुन्द्रा च तथा नागरमुस्तकः<br />
मुस्तं कटु हिमं ग्राहि तिक्तं दीपनपाचनम 93<br />
कषायं कफपित्तास्रतृड्ज्वरारुचिजन्तुहृत<br />
अनूपदेशे यज्जातं मुस्तकं तत्प्रशस्यते<br />
तत्रापि मुनिभिः प्रोक्तं वरं नागरमुस्तकम 94<br />
कर्चूरो वेधमुख्यश्च द्रा विडः कल्पकः शटी<br />
कर्चुरो दीपनो रुच्यः कटुकस्तिक्त एव च 95<br />
सुगन्धिः कटुपाकः स्यात्कुष्ठार्शोव्रणकासनुत<br />
उष्णो लघुर्हरेछ्वासं गुल्मवातकफकृमीन 96<br />
मुरा गन्धकुटी दैत्या सुरभिः शालपर्णिका 97<br />
मुरा तिक्ता हिमा स्वाद्वी लघ्वी पित्तानिलापहा<br />
ज्वरासृग्भूतरक्षोघ्नी कुष्ठकासविनाशिनी 98<br />
शठी पलाशी षड्ग्रन्था सुव्रता गन्धमूलिका<br />
गन्धारिका गन्धवधूर्वधूः पृथुपलाशिका 99<br />
भवेद्गन्धपलाशी तु कषाया ग्राहिणी लघुः<br />
तिक्ता तीक्ष्णा च कटुकाऽनुष्णाऽस्यमलनाशिनी<br />
शोथकासव्रणश्वासशूलसिध्मग्रहापहा 100<br />
प्रियङ्गुः फलिनी कान्ता लता च महिलाऽह्वया 101<br />
गुन्द्रा गन्धफला श्यामा विष्वक्सेनाङ्गनाप्रिया<br />
प्रियङ्गुः शीतला तिक्ता तुवराऽनिलपित्तहृत 102<br />
रक्तातीसारदौर्गन्ध्यस्वेददाहज्वरापहा<br />
विआ!न्तिभ्रान्त्यतिसारघ्नी वक्त्रजाड्यविनाशिनी<br />
गुल्मतृड्विषमोहघ्नी तद्वद् गन्धप्रियङ्गुका 103<br />
तत्फलं मधुरं रूक्षं कषायं शीतलं गुरु<br />
विबन्धाध्मानबलकृत्संग्राहि कफपित्तजित 104<br />
रेणुकाराजपुत्री च नन्दिनी कपिला द्विजा<br />
भस्मगन्धा पाण्डुपुत्री स्मृता कौन्ती हरेणुका 105<br />
रेणुका कटुका पाके तिक्ताऽनुष्णा कटुर्लघुः<br />
पित्तला दीपनी मेध्या पाचनी गर्भपातिनी<br />
बलासवातकृच्चैव तृट्कण्डूविषदाहनुत 106<br />
ग्रन्थिपर्णं ग्रन्थिकञ्च काकपुच्छञ्च गुच्छकम<br />
नीलपुष्पं सुगन्धञ्च कथितं तैलपर्णकम 107<br />
ग्रन्थिपर्णं तिक्ततीक्ष्णं कटूष्णं दीपनं लघु<br />
कफवातविषश्वासकण्डूदौर्गन्ध्यनाशनम 108<br />
स्थौणेयकं बर्हिबर्हं शुक्रबर्हञ्च कुक्कुरम<br />
शीर्णरोमशुकञ्चापि शुकपुष्पं शुकच्छदम 109<br />
स्थौणेयकं कटु स्वादु तिक्तं स्निग्धं त्रिदोषनुत 110<br />
मेधाशुक्रकरं रुच्यं रक्षोघ्नं ज्वरजन्तुजित<br />
हन्ति कुष्ठास्रतृड्दाहदौर्गन्ध्यतिलकालकान 111<br />
निशाचरो धनहरः कितवो गणहासकः<br />
चोरकः शङ्कितश्चण्डो दुष्पत्रः क्षेमको रिपुः<br />
चोरको मधुरस्तिक्तः कटुः पाके कटुर्लघुः 112<br />
तीक्ष्णो हृद्यो हिमो हन्ति कुष्ठकण्डूकफानिलान<br />
रक्षोऽश्रीस्वेदमेदोऽस्रज्वरगन्धविषव्रणान 113<br />
तालीसमुक्तं पत्राढ्यं धात्रीपत्रञ्च तत्स्मृतम 114<br />
तालीसं लघु तीक्ष्णोष्णं श्वासकासकफानिलान<br />
निहन्त्यरुचिगुल्मामवह्निमांद्यक्षयामयान 115<br />
कङ्कोलं कोलकं प्रोक्तं तथा कोषफलं स्मृतम<br />
कङ्कोलं लघु तीक्ष्णोष्णं तिक्तं हृद्यं रुचिप्रदम<br />
आस्यदौर्गन्ध्यहृद्रो गकफवातामयान्ध्यहृत 116<br />
स्निग्धोष्णा कफहृत्तिक्ता सुगन्धा गन्धकोकिला<br />
गन्धकोकिलया तुल्या विज्ञेया गन्धमालती 117<br />
लामज्जकं सुनालं स्यादमृणालं लवं लघु<br />
इष्टकापथकं सेव्यं नलदञ्चावदातकम 118<br />
लामज्जकं हिमं तिक्तं लघु दोषत्रयास्रजित<br />
त्वगामयस्वेदकृच्छ्रदाहपित्तास्ररोगनुत 119<br />
एलवालुकमैलेयं सुगन्धि हरिवालुकम<br />
एलवालुकमेलालु कपित्थत्वचमीरितम 120<br />
एलालु कटुकं पाके कषायं शीतलं लघु<br />
हन्तिकण्डूव्रणच्छर्दितृट्कासारुचिहृद्रुजः<br />
बलासविषपित्तास्रकुष्ठमूत्रगदकृमीन 121<br />
कुटन्नटं दासपुरं बालेयं परिपेलवम<br />
प्लवगोपुरगोनर्दकैवर्तीमुस्तकानि च 122<br />
मुस्तावत्पेलवपुरं शुकाभं स्याद्बितुन्नकं 123<br />
वितुन्नकं हिमं तिक्तं कषायं कटु कान्तिदम<br />
कफपितास्रवीसर्पकुष्ठकण्डूविषप्रणुत 124<br />
स्पृक्काऽसृग् ब्राह्मणी देवी मरुन्माला लता लघुः<br />
समुद्रान्ता वधूः कोटिवर्षा लङ्कोपिकेत्यपि 125<br />
स्पृक्का स्वाद्वी हिमा वृष्या तिक्ता निखिलदोषनुत<br />
कुष्ठकण्डूविषस्वेददाहाश्री ज्वररक्तहृत 126<br />
पर्पटी रञ्जना कृष्णा जतुका जननी जनी<br />
जतुकृष्णाऽग्निसंस्पर्शा जतुकृच्चक्रवर्त्तिनी 127<br />
पर्पटी तुवरा तिक्ता शिशिरा वर्णकृल्लघुः<br />
विषव्रणहरी कण्डूकफपित्तास्रकुष्ठनुत 128<br />
नलिका विद्रुमलता कपोतचरणा नटी<br />
धमन्यञ्जनकेशी च निर्मध्या सुषिरा नली 129<br />
नलिका शीतला लघ्वी चक्षुष्या कफपित्तहृत<br />
कृच्छ्राश्मवाततृष्णाऽस्रकुष्ठकण्डूज्वरापहा 130<br />
प्रपौण्डरीकं पौण्डर्यं चक्षुष्यं पौण्डरीयकम<br />
पौण्डर्यं मधुरं तिक्तं कषायं शुक्रलं हिमम<br />
चक्षुष्यं मधुरं पाके वर्ण्यं पित्तकफप्रणुत 131<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे वर्गप्रकरणे </span><br />
<span style="color: red;">तृतीयः कर्पूरादिवर्गः समाप्तः 3</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-38818706972127644512015-07-12T20:25:00.002-07:002015-07-12T20:25:17.568-07:00अथ गुडूच्यादिवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अथ लङ्केश्वरो मानी रावणो राक्षसाधिपः<br />
रामपत्नीं बलात्सीतां जहार मदनातुरः 1<br />
ततस्तं वलवान् रामो रिपुं जायाऽपहारिणम<br />
वृतो बानरसैन्येन जघान रणमूर्धनि 2<br />
हते तस्मिन्सुरारातौ रावणे बलगर्विते<br />
देवराजः सहस्राक्षः परितुष्टश्चराघवे 3<br />
तत्र ये वानराः कैचिद्रा क्षसैर्निहता रणे<br />
तानिन्द्रो जीवयामास संसिच्यामृतवृष्टिभिः 4<br />
ततो येषु प्रदेशेषु कपिगात्रात्परिच्युताः<br />
पीयूषबिन्दवः पेतुस्तेभ्यो जाता गुडूचिका 5<br />
गुडूची मधुपर्णी स्यादमृताऽमृतवल्लरी<br />
छिन्ना छिन्नरुहा छिन्नोद्भवा वत्सादनीति च 6<br />
जीवन्ती तन्त्रिका सोमा सोमवल्ली च कुण्डली<br />
चक्रलक्षणिका धीरा विशल्या च रसायनी 7<br />
चन्द्र हासा वयस्था च मण्डली देवनिर्मिता<br />
गुडूची कटुका तिक्ता स्वादुपाका रसायनी 8<br />
<br />
संग्राहिणी कषायोष्णा लघ्वी बल्याऽग्निदीपिनी<br />
दोषत्रयामतृड्दाहमेहकासांश्च पाण्डुताम 9<br />
<br />
कामलाकुष्ठवातास्रज्वरकृमिवमीन्हरेत<br />
प्रिमेहश्वासकासार्शः कृच्छ्रहृद्रो गवातनुत 10<br />
<br />
ताम्बूलवल्ली ताम्बूली नागिनी नागवल्लरी<br />
ताम्बूलं विशदं रुच्यं तीक्ष्णोष्णं तुवरं सरम 11<br />
<br />
वश्यं तिक्तं कटु क्षारं रक्तपित्तकरं लघु<br />
बल्यं श्लेष्मास्यदौर्गन्ध्यमलवातश्रमापहम 12<br />
<br />
बिल्वः शाण्डिल्यशैलूषौ मालूरश्रीफलावपि<br />
श्रीफलस्तुवरस्तिक्तो ग्राही रूक्षोऽग्निपित्तकृत<br />
वातश्लेष्महरो बल्यो लघुरुष्णश्च पाचनः 13<br />
<br />
गम्भारी भद्र पर्णी च श्रीपर्णी मधुपर्णिका<br />
काश्मीरी काश्मरी हीरा काश्मर्यः पीतरोहिणी 14<br />
<br />
कृष्णवृन्ता मधुरसा महाकुसुमिकाऽपि च<br />
काश्मीरी तुवरा तिक्ता वीर्योष्णा मधुरा गुरुः 15<br />
<br />
दीपनी पाचनी मेध्या भेदिनी भ्रमशोषजित<br />
दोषतृष्णाऽमशूलार्शोविषदाहज्वरापहा 16<br />
<br />
तत्फलं बृंहणं वृष्यं गुरु केश्यं रसायनम<br />
वातपित्ततृषारक्तक्षयमूत्रविबन्धनुत 17<br />
<br />
स्वादु पाके हिमं स्निग्धं तुवराम्लं विशुद्धिकृत<br />
हन्याद्दाहतृषावातरक्तपित्तक्षतक्षयान 18<br />
<br />
पाटलि पाटलाऽमोघा मधुदूतो फलेरुहा<br />
कृष्णवृन्ता कुबेराक्षी कालस्थाल्यलिवल्लभा 19<br />
<br />
ताम्रपुष्पी च कथिताऽपरा स्यात्पाटला सिता<br />
मुष्कको मोक्षको घण्टापाटलिकाष्टपाटला 20<br />
<br />
पाटला तुवरा तिक्ताऽनुष्णा दोषत्रयापहा<br />
अरुचिश्वासशोथास्रच्छर्दिहिक्कातृषाहरी 21<br />
<br />
पुष्पं कषायं मधुरं हिमं हृद्यं कफास्रनुत<br />
पित्तातिसारहृत्कण्ठ्यं फलं हिक्काऽस्रपित्तहृत 22<br />
<br />
अग्निमन्थो जयः सस्याच्छ्रीपर्णी गणिकारिका<br />
जया जयन्ती तर्कारी नादेयी वैजयन्तिका 23<br />
<br />
अग्निमन्थः श्वयथुनुद्वीर्योष्णः कफवातहृत <br />
पाण्डुनुत्कटुकस्तिक्तस्तुवरो मधुरोऽग्निदः 24<br />
<br />
श्योनाकः शोषणश्च स्यान्नटकट्वङ्गटुण्टुकाः<br />
मण्डूकपर्णपत्रोर्णशुकनासकुटन्नटाः 25<br />
<br />
दीर्घवृन्तोऽरलुश्चापि पृथुशिम्बः कटम्भरः<br />
श्योनाको दीपनः पाके कटुकस्तुवरो हिमः<br />
ग्राही तिक्तोऽनिलश्लेष्मपित्तकासप्रणाशनः 26<br />
<br />
टुण्टुकस्य फलं बालं रूक्षं वातकफापहम 27<br />
<br />
हृद्यं कषायं मधुरं रोचनं लघु दीपनम<br />
गुल्मार्शःकृमिहृत् प्रौढं गुरु वातप्रकोपणम 28<br />
<br />
श्रीफलः सर्वतोभद्रा पाटला गणिकारिका<br />
श्योनाकः पञ्चभिश्चैतैः पञ्चमूलं महन्मतम 29<br />
<br />
पञ्चमूलं महत् तिक्तं कषायँ कफवातनुत<br />
मधुरं श्वासकासघ्नमुष्णं लघ्वग्निदीपनम 30<br />
<br />
शालपर्णी स्थिरा सौम्या त्रिपर्णी पीवरी गुहा<br />
विदारिगन्धा दीर्घाङ्गी दीर्घपत्रांऽशुमत्यपि 31<br />
<br />
शालपर्णी गुरुश्छर्दिज्वरश्वासातिसारजित 32<br />
<br />
शोषदोषत्रयहरी बृंहण्युक्ता रसायनी<br />
तिक्ता विषहरी स्वादुः क्षतकासकृमिप्रणुत 33<br />
<br />
पृश्निपर्णी पृथक्पर्णी चित्रपर्ण्यहिपर्ण्यपि<br />
क्रोष्टुविन्ना सिंहपुच्छी कलशी धावनिर्गुहा 34<br />
<br />
पृश्निपर्णी त्रिदोषघ्नी वृष्योष्णा मधुराऽसरा<br />
हन्ति दाहज्वरश्वासरक्तातीसारतृड्वमीः 35<br />
<br />
वार्त्ताकी क्षुद्र भण्टाकी महती बृहती कुली<br />
हिङ्गुली राष्ट्रिका सिंही महोष्ट्री दुष्प्रधर्षिणी<br />
बृहती ग्राहिणी हृद्या पाचनी कफवातहृत 36<br />
<br />
कटुतिक्ताऽस्यवैरस्यमलारोचकनाशिनी<br />
उष्णा कुष्ठज्वरश्वासशूलकासाग्निमान्द्यजित 37<br />
<br />
कण्टकारी तु दुःस्पर्शा क्षुद्रा व्याघ्री निदिग्धिका<br />
कण्टालिका कण्टकिनी धावनी बृहती तथा 38<br />
<br />
श्वेता क्षुद्रा चन्द्र हासा लक्ष्मणा क्षेत्रदूतिका<br />
गर्भदा चन्द्र मा चन्द्री चन्द्र पुष्पा प्रियङ्करी 39<br />
<br />
कण्टकारी सरा तिक्ता कटुका दीपनी लघुः 40<br />
<br />
रूक्षोष्णा पाचनी कासश्वासज्वरकफानिलान<br />
निहन्ति पीनसं पार्श्वपीडाकृमिहृदामयान 41<br />
<br />
तयोः फलं कटु रसे पाके च कटुकं भवेत<br />
शुक्रस्य रेचनं भेदि तिक्तं पित्ताग्निकृल्लघु<br />
हन्यात्कफमरुत्कण्डूकासमेदः कृमिज्वरान 42<br />
<br />
तद्वत्प्रोक्ता सिता क्षुद्रा विशेषाद् गर्भकारिणी 43<br />
<br />
गोक्षुरः क्षुरकोऽपि स्यात्त्रिकण्टः स्वादुकण्टकः<br />
गोकण्टको गोक्षुरको वनशृङ्गाट इत्यपि 44<br />
<br />
पलङ्कषा श्वदंष्ट्रा च तथा स्यादिक्षुगन्धिका<br />
गोक्षुरः शीतलःस्वादुर्बलकृद्बस्तिशोधनः 45<br />
<br />
मधुरो दीपनो वृष्यः पुष्टिदश्चाश्मरीहरः<br />
प्रमेहश्वासकासार्शः कृच्छ्रहृद्रो गवातनुत 46<br />
<br />
शालपर्णी पृश्निपर्णी वार्त्ताकी कण्टकारिका<br />
गोक्षुरः पञ्चभिश्चैतैः कनिष्ठं पञ्चमूलकम 47<br />
<br />
पञ्चमूलं लघु स्वादु बल्यं पित्तानिलापहम<br />
नात्युष्णं बृंहणं ग्राहि ज्वरश्वासाश्मरीप्रणुत 48<br />
<br />
उभाभ्यां पञ्चमूलाभ्यां दशमूलमुदाहृतम्<br />
दशमूलं त्रिदोषघ्नं श्वासकासशिरोरुजः<br />
तन्द्रा शोथज्वरानाहपार्श्वपीडाऽरुचीर्हरेत 49<br />
<br />
जीवन्ती जीवनी जीवा जीवनीया मधुस्रवा<br />
माङ्गल्यनामधेया च शाकश्रेष्ठा पयस्विनी 50<br />
<br />
जीवन्ती शीतला स्वादुः स्निग्धा दोषत्रयापहा<br />
रसायनी बलकरी चक्षुष्या ग्राहिणी लघुः 51<br />
<br />
मुद्गपर्णी काकपर्णी सूर्यपर्ण्यल्पिका सहा 52<br />
<br />
काकमुद्गा च सा प्रोक्ता तथा मार्जारगन्धिका<br />
मुद्गपर्णी हिमा रूक्षा तिक्ता स्वादुश्च शुक्रला 53<br />
<br />
चक्षुष्या क्षतशोथघ्नी ग्राहिणी ज्वरदाहनुत<br />
दोषत्रयहरी लघ्वी ग्रहण्यर्शोऽतिसारजित 54<br />
<br />
माषपर्णी सूर्यपर्णी काम्बोजी हयपुच्छिका<br />
पाण्डुलोमशपर्णी च कृष्णवृन्ता महासहा 55<br />
<br />
माषपर्णी हिमा तिक्ता रूक्षा शुक्रबलासकृत<br />
मधुरा ग्राहिणी शोथवातपित्तज्वरास्रजित 56<br />
<br />
अष्टवर्गः सयष्टीको जीवन्ती मुद्गपर्णिका<br />
माषपर्णी गणोऽय तु जीवनीय इति स्मृतः 57<br />
<br />
जीवनो मधुरश्चापि नाम्ना स परिकीर्त्तितः<br />
जीवनीयगणः प्रोक्तः शुक्रकृद् बृंहणो हिमः 58<br />
<br />
गुरुर्गर्भप्रदः स्तन्यकफकृत्पित्तरक्तहृत<br />
तृष्णां शोषं ज्वरं दाहं रक्तपित्तं व्यपोहति 59<br />
<br />
शुक्ल एरण्ड आमण्डश्चित्रो गन्धर्वहस्तकः<br />
पञ्चाङ्गुलो वर्द्धमानो दीर्घदण्डो व्यडम्बकः 60<br />
<br />
वातारिस्तरुणश्चापि रुबूकश्च निगद्यते<br />
रक्तोऽपरो रुबूकः स्यादुरुबूको रुबुस्तथा 61<br />
<br />
व्याघ्रपुच्छश्च वातारिश्चञ्चुरुत्तानपत्रकः<br />
एरण्डयुग्मं मधुरमुष्णं गुरु विनाशयेत 62<br />
<br />
शूलशौथकटीबस्तिशिरःपीडोदरज्वरान<br />
व्रघ्नश्वासकफानाहकासकुष्ठाप्तमारुतान 63<br />
<br />
एरण्डपत्रं वातघ्नं कफक्रिमिविनाशनम<br />
मूत्रकृच्छ्रहरं चापि पित्तरक्तप्रकोपणम<br />
वातार्यग्रदलं गुल्मबस्तिशूलहरं परम 64<br />
<br />
कफवातकृमीन्हन्ति वृद्धिं सप्तविधामपि<br />
एरण्डफलमत्युष्णं गुल्मशूलानिलापहम 65<br />
<br />
यकृत्प्लीहोदरार्शोघ्नं कटुकं दीपनं परम<br />
तद्वन्मज्जा च विडभेदी वातश्लेष्मोदरापहः 66<br />
<br />
श्वेतार्को गणरूपः स्यान्मन्दारो वसुकोऽपि च<br />
श्वेतपुष्पः सदापुष्पः स चालर्कः प्रतापसः 67<br />
<br />
रक्तोऽपरोऽकनामा स्यादर्कपर्णो विकीरणः<br />
रक्तपुष्पः शुक्लफलस्तथाऽस्फोटः प्रकीर्त्तितः 68<br />
<br />
अर्कद्वयं सरं वातकुष्ठकण्डूविषव्रणान<br />
निहन्ति प्लीहगुल्मार्शःश्लेष्मोदरशकृत्कृमीन 69<br />
<br />
अलर्ककुसुमं वृष्यं लघु दीपनपाचनम<br />
अरोचकप्रसेकार्शः कासश्वासनिवारणम 70<br />
<br />
रक्तार्कपुष्पं मधुरं सतिक्तं कुष्ठकृमिघ्नं कफनाशनञ्च<br />
अर्शो विषं हन्ति च रक्तपित्तं संग्राहि गुल्मे श्वयथौ हितं तत 71<br />
<br />
क्षीरमर्कस्य तिक्तोष्णं स्निग्धं सलवणं लघु<br />
कुष्ठगुल्मोदरहरं श्रेष्ठमेतद्विरेचनम 72<br />
<br />
सेहुण्डः सिंहतुण्डः स्याद्वज्री वज्रद्रुमोऽपि च<br />
सुधासमन्तदुग्धा च स्नुक्स्त्रियां स्यात्स्नुही गुडा 73<br />
<br />
सेहुण्डो रेचनस्तीक्ष्णो दीपनः कटुको गुरुः<br />
शूलामाष्ठीलिकाऽध्मानकफगुल्मोदरानिलान 74<br />
<br />
उन्मादमोहकुष्ठार्शः शोथमेदोऽश्मपाण्डुताः<br />
व्रणशोथज्वरप्लीहविषदूषीविषं हरेत 75<br />
<br />
उष्णवीर्यं स्नुहीक्षीरं स्निग्धञ्च कटुकं लघु<br />
गुल्मिनां कुष्ठिनाञ्चापि तथैवोदररोगिणाम 76<br />
<br />
हितमेतद्विरेकार्थं ये चान्ये दीर्घरोगिणः 77<br />
<br />
शातला सप्तला सारा विमला विदुला च सा<br />
तथा निगदिता भूरिफेना चर्मकषेत्यपि 78<br />
<br />
शातला कटुका पाके वातला शीतला लघुः<br />
तिक्ता शोथकफानाहपित्तोदावर्त्तरक्तजित 79<br />
<br />
कलिहारी तु हलिनी लाङ्गली शक्रपुष्प्यपि<br />
विशल्याऽग्निशिखाऽनन्तावह्निवक्त्रा च गर्भनुत<br />
कलिहारी सरा कुष्ठशोफार्शोव्रणशूलजित 80<br />
<br />
सक्षारा श्लेष्मजित्तिक्ताकटुका तुवराऽपि च<br />
तीक्ष्णोष्णा कृमिहृल्लघ्वी पित्तलागर्भपातिनी 81<br />
<br />
करवीरः श्वेतपुष्पः शतकुम्भोऽश्वमारकः<br />
द्वितीयो रक्तपुष्पश्च चण्डातो लगुडस्तथा 82<br />
<br />
करवीरद्वयं तिक्तं कषायं कटुकञ्च तत<br />
व्रणलाघवकृन्नेत्रकोपकुष्ठव्रणापहम 83<br />
<br />
वीर्योष्णं कृमिकण्डूघ्नं भक्षितं विषवन्मतम 84<br />
<br />
धत्तूरधूर्त्तधुत्तूरा उन्मत्तः कनकाह्वयः<br />
देवता कितवस्तूरी महामोही शिवप्रियः 85<br />
<br />
मातुलो मदनश्चास्य फले मातुलपुत्रकः<br />
धत्तूरो मदवर्णाग्निवातकृज्ज्वरकुष्ठनुत 86<br />
<br />
कषायो मधुरस्तिक्तो यूकालिक्षाविनाशकः<br />
उष्णो गुरुर्व्रणश्लेष्मकण्डूकृमिविषापहः 87<br />
<br />
वासको वासिका वासा भिषङ्माता च सिंहिका<br />
सिंहास्यो वाजिदन्ता स्यादाटरूषोऽटरूषकः 88<br />
<br />
अटरूषो वृषस्ताम्रः सिंहपर्णश्च स स्मृतः<br />
वासको वातकृत्स्वर्यः कफपित्तास्रनाशनः 89<br />
<br />
तिक्तस्तुवरको हृद्यो लघुशीतस्तृडर्त्तिहृत<br />
श्वासकासज्वरच्छर्दिमेहकुष्ठक्षयापहः 90<br />
<br />
पर्पटो वरतिक्तश्च स्मृतः पर्पटकश्च सः<br />
कथितः पांशुपर्यायस्तथा कवचनामकः 91<br />
<br />
पर्पटो हन्ति पित्तास्रभ्रमतृष्णाकफज्वरान<br />
संग्राही शीतलस्तिक्तो दाहनुद्वातलो लघुः 92<br />
<br />
निम्बः स्यात्पिचुमर्दश्च पिचुमन्दश्च तिक्तकः<br />
अरिष्टः पारिभद्र श्च हिङ्गुनिर्यास इत्यपि 93<br />
<br />
निम्बः शीतो लघुर्ग्राही कटुपाकोऽग्निवातनुत<br />
अहृद्यः श्रमतृट्कासज्वरारुचिकृमिप्रणुत<br />
व्रणपित्तकफच्छर्दिकुष्ठहृल्लासमेहनुत् 94<br />
<br />
निम्बपत्रं स्मृतं नेत्रयं कृमिपित्तविषप्रणुत<br />
वातलं कटुपाकञ्च सर्वारोचककुष्ठनुत 95<br />
<br />
निम्बफलं रसे तिक्तं पाके तु कटुभेदनम<br />
स्निग्धं लघूष्णं कुष्ठघ्नं गुल्मार्शःकृमिमेहनुत 96<br />
<br />
महानिम्बः स्मृतो द्रे का रम्यको विषमुष्टिकः<br />
केशमुष्टिर्निम्बकश्च कार्मुको जीव इत्यपि 97<br />
<br />
महानिम्बो हिमो रूक्षस्तिक्तो ग्राही कषायकः 98<br />
<br />
कफपित्तभ्रमच्छर्दिकुष्ठहृल्लासरक्तजित<br />
प्रमेहश्वासगुल्मार्शोमूषिकाविषनाशनः 99<br />
<br />
पारिभद्रो निम्बतरुर्मन्दारः पारिजातकः<br />
पारिभद्रो ऽनिलश्लेष्मशोथमेदः कृमिप्रणुत<br />
तत्पत्रं पित्तरोगघ्नं कर्णव्याधिविनाशनम 100<br />
<br />
काञ्चनारः काञ्चनको गण्डारिः शोणपुष्पकः 101<br />
<br />
कोविदारश्च मरिकः कुद्दालो युगपत्रकः<br />
कुण्डली ताम्रपुष्पश्चाश्मन्तकः स्वल्पकेशरी 102<br />
<br />
काञ्चनारो हिमो ग्राही तुवरः श्लेष्मपित्तनुत<br />
कृमिकुष्ठगुदभ्रंशगण्डमालाव्रणापहः 103<br />
<br />
कोविदारोऽपि तद्वत्स्यात्तयोः पुष्पं लघु स्मृतम<br />
रूक्षं संग्राहि पित्तास्रप्रदरक्षयकासनुत् 104<br />
<br />
शोभाञ्जनः शिग्रुतीक्ष्णगन्धकाक्षीवमोचकाः<br />
तद्बीजं श्वेतमरिचंमधुशिग्रुः सलोहितः<br />
शिग्रुः कटुः कटुः पाके तीक्ष्णोष्णो मधुरो लघुः 105<br />
<br />
दीपनो रोचनो रूक्षः क्षारस्तिक्तो विदाहकृत<br />
संग्राही शुक्रलो हृद्यः पित्तरक्तप्रकोपणः 106<br />
<br />
चक्षुष्यः कफवातघ्नो विद्र धिश्वयथुक्रिमीन<br />
मेदोऽपचीविषप्लीहगुल्मगण्डव्रणान्हरेत 107<br />
<br />
श्वेतः प्रोक्तगुणो ज्ञेयो विशेषाद्दाहकृद्भवेत<br />
प्लीहानं विद्रधिं हन्ति व्रणघ्नः पित्तरक्तहृत<br />
मधुशिग्रुः प्रोक्तगुणो विशेषाद्दीपनः सरः 108<br />
<br />
शिग्रुवल्कलपत्राणां स्वरसः परमार्त्तिहृत 109<br />
<br />
चक्षुष्यं शिग्रुजं बीजं तीक्ष्णोष्णं विषनाशनम<br />
अवृष्यं कफवातघ्नं तन्नस्येन शिरोऽत्तिनुत 110<br />
<br />
आस्फोता गिरिकर्णीस्याद्विष्णुक्रान्ताऽपराजिता<br />
अपराजिते कटू मेध्ये शीते कण्ठ्येसुदृष्टिदे 111<br />
<br />
कुष्ठमूत्रत्रिदोषामशोथव्रणविषापहे<br />
कषाये कटुके पाके तिक्ते च स्मृतिबुद्धिदे 112<br />
<br />
सिन्दुवारः श्वेतपुष्पः सिन्दुकः सिन्दुवारकः<br />
नीलपुष्पी तु निर्गुण्डी शेफाली सुवहा च सा 113<br />
<br />
सिन्दुकः स्मृतिदस्तिक्तः कषायः कटुको लघुः<br />
केश्यो नेत्रहितो हन्ति शूलशोथाममारुतान<br />
कृमिकुष्ठारुचिश्लेष्मज्वरान्नीलापि तद्विधा 114<br />
<br />
सिन्दुवारदलं जन्तुवातश्लेष्महरं लघु 115<br />
<br />
कुटजः कूटजः कौटो वत्सको गिरिमल्लिका 116<br />
<br />
कालिङ्गः शक्रशाखी च मल्लिकापुष्प इत्यपि<br />
इन्द्रो यवफलः प्रोक्तो वृक्षकः पाण्डुरद्रुमः 117<br />
<br />
कुटजः कटुको रूक्षो दीपनस्तुवरो हिमः<br />
अर्शोऽतिसारपित्तास्नकफतृष्णाऽमकुष्ठनुत 118<br />
<br />
करञ्जो नक्तमालश्च करजश्चिरबिल्वकः<br />
घृतपूर्णकरञ्जोऽन्य प्रकीर्यः पूतिकोऽपि च 119<br />
<br />
स चोक्तः पूतिकरञ्जः सोमवल्कश्च स स्मृतः<br />
करञ्जः कटुकस्तीक्ष्णो वीर्योष्णो योनिदोषहृत<br />
कुष्ठोदावर्त्तगुल्मार्शोव्रणक्रिमिकफापहः 120<br />
<br />
तत्पत्रं कफवातार्शः कृमिशोथहरं परम<br />
भेदनं कटुकं पाके वीर्योष्णं पित्तलं लघुः 121<br />
<br />
तत्फलं कफवातघ्नं मेहार्शःकृमिकुष्ठजित<br />
घृतपूर्णकरञ्जोऽपि करञ्जसदृशो गुणैः 122<br />
<br />
उदकीर्यस्तृतीयोऽन्य षड्ग्रन्था हस्तिवारुणी<br />
मर्कटी वायसी चापि करञ्जी करभञ्जिका 123<br />
<br />
करञ्जी स्तम्भनी तिक्ता तुवरा कटुपाकिनी<br />
वीर्योष्णा वमिपित्तार्शः कृमिकुष्ठप्रमेहजित 124<br />
<br />
श्वेता गुञ्जोच्चटा प्रोक्ता कृष्णला चापि सा स्मृता<br />
रक्ता सा काकचिञ्ची स्यात्काकणन्ती च रक्तिका 125<br />
<br />
काकादनी काकपीलुः सा स्मृता काकवल्लरी<br />
गुञ्जाद्वयन्तु केश्यं स्याद्वातपित्तज्वरापहम 126<br />
<br />
मुखशोषभ्रमश्वासतृष्णामदविनाशनम<br />
नेत्रामयहरं वृष्यं बल्यं कण्डूं व्रणं हरेत 127<br />
<br />
कृमीन्द्र लुप्तकुष्ठानि रक्ता च धवलाऽपि च 128<br />
<br />
कपिच्छूरात्मगुप्ता वृष्या प्रोक्ता च मर्कटी<br />
अजडा कण्डुरा व्यङ्गा दुःस्पर्शा प्रावृषायणी 129<br />
<br />
लाङ्गली शूकशिम्बी च सैव प्रोक्ता महर्षिभिः<br />
कपिकच्छूर्भृशं वृष्या मधुरा बृंहणी गुरुः<br />
तिक्ता वातहरी बल्या कफपित्तास्रनाशिनी 130<br />
<br />
तद्बीजं वातशमनं स्मृतं वाजीकरं परम 131<br />
<br />
मांसरोहिण्यतिरुहा वृत्ता चर्मकषा वसा<br />
प्रहारवल्ली विकशा वीरवत्यपि कथ्यते<br />
स्यान्मांसरोहिणी वृष्या सरा दोषत्रयापहा 132<br />
<br />
चिह्लकोवातनिर्हारः श्लेष्मघ्नो धातुपुष्टिकृत<br />
आग्नेयो विषवद्यस्य फलं मत्स्यनिषूदनम 133<br />
<br />
टङ्कारी वातजित्तिक्ता श्लेष्मघ्नी दीपनी लघुः<br />
शोथोदरव्यथाहन्त्री हिता पीठविसर्पिणाम 134<br />
<br />
वेतसो नम्रकः प्रोक्तो वानीरो वञ्जुलस्तथा<br />
अभ्रपुष्पश्च विदुलो रथः शीतश्च कीर्त्तितः 135<br />
<br />
वेतसः शीतलो दाहशोथार्शोयोनिरुक्प्रणुत<br />
हन्ति वीसर्पकृच्छ्रास्रपित्ताश्मरिकफानिलान 136<br />
<br />
निकुञ्जकः परिव्याधो नादेयो जलवेतसः<br />
जलजो वेतसः शीतः कुष्ठहृद्वातकोपनः 137<br />
<br />
इज्जलो हिज्जलश्चापि निचुलश्चाम्बुजस्तथा<br />
जलवेतसवद्वेद्यो हिज्जलोऽय विषापहः 138<br />
<br />
अङ्कोटो दीर्घकीलः स्यादङ्कोलश्च निकोचकः<br />
अङ्कोटकः कटुस्तीक्ष्णः स्निग्धोष्णस्तुवरो लघुः 139<br />
<br />
रेचनः कृमिशूलामशोफग्रहविषापहः<br />
विसर्पकफपित्तास्रमूषकाहिविषापहः 140<br />
<br />
तत्फलं शीतलं स्वादु श्लेष्मघ्नं बृंहणं गुरु<br />
बल्यं विरेचनं वातपित्तदाहक्षयास्रजित 141<br />
<br />
बलावाट्यालिका वाट्या सैव वाट्यालकाऽपि च<br />
महाबला पीतपुष्पा सहदेवी च सा स्मृता 142<br />
<br />
ततोऽन्याऽतिबला ऋष्यप्रोक्ता कङ्कतिका च सा<br />
गाङ्गेरुकी नागबला झषा ह्रस्वगवेधुका 143<br />
<br />
बलाचतुष्टयं शीतं मधुरं बलकान्तिकृत्<br />
स्निग्धं ग्राहि समीरास्रपित्तास्रक्षतनाशनम 144<br />
<br />
बलामूलत्वचश्चूर्णं पीतं सक्षीरशर्करम<br />
मूत्रातिसारं हरति दृष्टमेतन्न संशयः 145<br />
<br />
हरेन्महाबला कृच्छ्रम भवेद्वातानुलोमिनी<br />
हन्यादतिवला मेहं पयसा सितया समम 146<br />
<br />
पुत्रकाकाररक्ताल्पबिन्दुभिर्लाञ्छितच्छदा 147<br />
<br />
लक्ष्मणा पुत्रजननी वस्तगन्धाकृतिर्भवेत<br />
कथिता पुत्रदाऽवश्या लक्ष्मणा मुनिपुङ्गवैः 148<br />
<br />
स्वर्णवल्लीरक्तफला काकायुः काकवल्लरी<br />
स्वर्णवल्ली शिरः पीडां त्रिदोषान्हन्ति दुग्धदा 149<br />
<br />
कार्पासी तुण्डकेशी च समुद्रा न्ता चकथ्यते<br />
कर्पासकी लघु कोष्णा मधुरा वातनाशिनी 150<br />
<br />
तत्पलाशं समीरघ्नं रक्तकृन्मूत्रवर्द्धनम<br />
तत्कर्णपिडकानादपूयास्रावविनाशनम 151<br />
<br />
तद्बीजं स्तन्यदं वृष्यं स्निग्धं कफकरं गुरु 152<br />
<br />
वंशस्त्वक्सारकर्मारत्वचिसारतृणध्वजाः<br />
शतपर्वा यवफलो वेणुमस्करतेजनाः 153<br />
<br />
वंशः सरो हिमः स्वादुः कषायो वस्तिशोधनः<br />
छेदनः कफपित्तघ्नः कुष्ठास्रव्रणशोथजित 154<br />
<br />
तत्करीरः कटुः पाके रसे रूक्षो गुरुः सरः<br />
कषायः कफकृत्स्वादुर्विदाही वातपित्तलः 155<br />
<br />
तद्यवास्तु सरा रूक्षाः कषायाः कटुपाकिनः<br />
वातपित्तकरा उष्णा बद्धमूत्राः कफापहाः 156<br />
<br />
नलः पोटगलः शून्यमध्यश्च धमनस्तथा<br />
नलस्तुमधुरस्तिक्तः कषायः कफरक्तजित<br />
उष्णो हृद्वस्तियोन्यर्त्तिदाहपित्तविसर्पहृत 157<br />
<br />
भद्र मुञ्जः शरो बाणस्तेजनश्चेक्षुवेष्टनः 158<br />
<br />
मुञ्जो मुञ्जातको बाणः स्थूलदर्भः सुमेखलः<br />
मुञ्जद्वयन्तु मधुरं तुवरं शिशिरं तथा 159<br />
<br />
दाहतृष्णाविसर्पास्रमूत्रकृच्छ्राक्षिरोगजित<br />
दोषत्रयहरं वृष्यं मेखलासूपयुज्यते 160<br />
<br />
कासः कासेक्षुरुद्दिष्टः स स्यादिक्षुरसस्तथा<br />
इक्ष्वालिकेक्षुगन्धा च तथा पोटगलः स्मृतः 161<br />
<br />
कासः स्यान्मधुरस्तिक्तः स्वादुपाको हिमः खरः<br />
मूत्रकृच्छ्राश्मदाहास्रक्षयपित्तजरोगजित 162<br />
<br />
गुन्द्रः पटेरको गुल्मः शृङ्गवेराभमूलकः<br />
गुन्द्रः कषायो मधुरः शिशिरः पित्तरक्तजित<br />
स्तन्यशुक्ररजोमूत्रशोधनो मूत्रकृच्छ्रहृत 163<br />
<br />
एरका गुन्द्र मूला च शिविर्गुन्द्रा शरीति च<br />
एरका शिशिरा वृष्या चक्षुष्या वातकोपिनी<br />
मूत्रकृच्छ्राश्मरीदाहपित्तशोणितनाशिनी 164<br />
<br />
कुशो दर्भस्तथा बर्हिः सूच्यग्रो यज्ञभूषणः<br />
ततोऽन्यो दीर्घपत्रः स्यात्क्षुरपत्रस्तथैव च 165<br />
<br />
दर्भद्वयं त्रिदोषघ्नं मधुरं तुवरं हिमम्<br />
मूत्रकृच्छ्राश्मरीतृष्णावस्तिरुक्प्रदरास्रजित 166<br />
<br />
कत्तृणं रौहिषं देवजग्धं सौगन्धिकं तथा<br />
भूतिकं ध्यामपौरञ्च श्यामकं धूपगन्धिकम 167<br />
<br />
रौहिषं तुवरं तिक्तं कटुपाकं व्यपोहति<br />
हृत्कण्ठव्याधिपित्तास्रशूलकासकफज्वरान 168<br />
<br />
गुह्यबीजं तु भूतीकं सुगन्धं जम्बुकप्रियम<br />
भूतृणं तु भवेच्छत्रा मालातृणकमित्यपि 169<br />
<br />
भूतृणं कटुकं तिक्तं तीक्ष्णोष्णं रेचनं लघु<br />
विदाहि दीपनं रूक्षमनेत्र्! यं मुखशोधनम 170<br />
<br />
अवृष्यं बहुविट्कञ्च पित्तरक्तप्रदूषणम 171<br />
<br />
नीलदूर्बा रुहाऽनन्ता भार्गवी शतपर्विका<br />
शष्पं सहस्रवीर्या च शतवल्ली च कीर्त्तिता 172<br />
<br />
नीलदूर्वा हिमा तिक्ता मधुरा तुवरा हरेत<br />
कफपित्तास्रवीसर्पतृष्णादाहत्वगामयान 173<br />
<br />
दूर्वा शुक्ला तु गोलोमी शतवीर्या च कथ्यते<br />
श्वेता दूर्वा कषाया स्यात्स्वाद्वी व्रण्या च जीवनी<br />
तिक्ता हिमा विसर्पास्रतृट्पित्तकफदाहहृत 174<br />
<br />
गण्डदूर्वा तु गण्डाली मत्स्याक्षी शकुलादनी<br />
गण्डदूर्वा हिमा लोहद्रा विणी ग्राहिणी लघुः 175<br />
<br />
तिक्ता कषाया मधुरा वातकृत्कटुपाकिनी<br />
दाहतृष्णाबलासास्रकुष्ठपित्तज्वरापहा 176<br />
<br />
वाराहीकन्दसंज्ञस्तु पश्चिमे गृष्टिसंज्ञकः<br />
वाराहीकन्द एवान्यैश्चर्मकारालुको मतः 177<br />
<br />
अनूपसम्भवे देशे वराह इव लोमवान<br />
वाराहवदना गृष्टिर्वरदेत्यपि कथ्यते 178<br />
<br />
वाराही तु रसे स्वाद्वी तिक्ता पाके पुनः कटुः<br />
शुक्रायुःस्वरवर्णाग्निबलपित्तविवर्द्धिनी<br />
कफकुष्ठमरुन्मेहकृमिहृच्च रसायनी 179<br />
<br />
विदारी स्वादुकन्दा च सा तु क्रोष्ट्रीसिता स्मृता<br />
इक्षुगन्धा क्षीरवल्ली क्षीरशुक्ला पयस्विनी 180<br />
<br />
विदारी मधुरा स्निग्धा बृंहणी स्तन्यशुक्रदा 181<br />
<br />
शीता स्वर्या मूत्रला च जीवनी बलवर्णदा<br />
गुरुः पित्तास्रपवनदाहान् हन्ति रसायनी 182<br />
<br />
तालमूली तु विद्वद्भिर्मुशली परिकीर्त्तिता<br />
मुशली मधुरा वृष्या वीर्योष्णा बृंहणी गुरुः<br />
तिक्ता रसायनी हन्ति गुदजान्यनिलं तथा 183<br />
<br />
शतावरी बुहसुता भीरुरिन्दीवरी वरी<br />
नारायणी शतपदी शतवीर्या च पीवरी 184<br />
<br />
महाशतावरी चान्या शतमूल्यूर्ध्वकण्टिका<br />
सहस्रवीर्या हेतुश्च ऋष्यप्रोक्ता महोदरी 185<br />
<br />
शतावरी गुरुः शीता तिक्ता स्वाद्वी रसायनी<br />
मेधाऽग्निपुष्टिदा स्निग्धा नेत्र या गुल्मातिसारजित 186<br />
<br />
शुक्रस्तन्यकरी बल्या वातपित्तास्रशोथजित<br />
महाशतावरी मेध्या हृद्या वृष्या रसायनी 187<br />
<br />
शीतवीर्या निहन्त्यर्शोग्रहणीनयनामयान<br />
तदङ्कुरस्रिदोषघ्नो लघुरर्शःक्षयापहा 188<br />
<br />
गन्धान्ता वाजिनामादिरश्वगन्धा हयाह्वया<br />
वराहकर्णी वरदा बलदा कुष्ठगन्धिनी 189<br />
<br />
अश्वगन्धाऽनिलश्लेष्मश्वित्रशोथक्षयापहा<br />
बल्या रसायनी तिक्ता कषायोष्णाऽतिशुक्रला 190<br />
<br />
पाठाऽम्बष्ठाऽम्बष्ठकी च प्राचीना पापचेलिका<br />
एकाष्ठीला रसा प्रोक्ता पाठिका वरतिक्तिका 191<br />
<br />
पाठोष्णा कटुका तीक्ष्णा वातश्लेष्महरी लघुः<br />
हन्ति शूलज्वरच्छर्दिकुष्ठातीसारहृद्रुजः<br />
दाहकण्डूविषश्वासकृमिगुल्मगरव्रणान 193<br />
<br />
श्वेता त्रिर्वृत् त्रिभण्डी स्यात् त्रिवृतात्रिपुटाऽपि च<br />
सर्वानुभूतिः सरला निशोत्रा रेचनीति च 193<br />
<br />
श्वेता त्रिवृद्रे चनी स्यात्स्वादुरुष्णा समीरहृत<br />
रूक्षा पित्तज्वरश्लेष्मपित्तशोथोदरापहा 194<br />
<br />
त्रिवृच्छ्यामाऽद्धचन्द्रा च पालिन्दी च सुषेणिका<br />
मसूरविदला काली कैषिका कालमेषिका 195<br />
<br />
श्यामा त्रिवृत्ततो हीनगुणा तीव्रविरेचिनी<br />
मूर्च्छादाहमदभ्रान्तिकण्ठोत्कर्षणकारिणी 196<br />
<br />
लघुदन्ती विशल्या च स्यादुदुम्बरपर्ण्यपि<br />
तथैरण्डफला शीघ्रा श्वेतघण्टा घुणप्रिया 197<br />
<br />
वाराहाङ्गी च कथिता निकुम्भश्च मकूलकः<br />
द्रवन्ती शम्बरी चित्रा प्रत्यक्पर्ण्याखुपर्ण्यपि 198<br />
<br />
उपचित्रा श्रुतश्रोणी न्यग्रोधी च तथा वृषा<br />
दन्तीद्वयं सरं पाकं रसे च कटु दीपनम 199<br />
<br />
गुदाङ्कुराश्मशूलास्रकण्डूकुष्ठविदाहनुत्<br />
तीक्ष्णोष्णं हन्ति पित्तास्रकफशोथोदरक्रिमीन 200<br />
<br />
क्षुद्र दन्तीफलं तु स्यान्मधुरं रसपाकयोः<br />
शीतलं सृष्टविण्मूत्रं गरशोथकफापहम 201<br />
<br />
जयपालो दन्तिबीजं विख्यातं तिन्तिडीफलम<br />
जयपालो गुरुः स्निग्धो रेची पित्तकफापहः 202<br />
<br />
अथेन्द्र वारुणी महेन्द्र वारुणी च <br />
<br />
एन्द्रीन्द्र वारुणी चित्रा गवाक्षी च गवादनी<br />
वारुणी च पराऽप्युक्ता सा विशाला महाफला 203<br />
<br />
श्वेतपुष्पा मृगाक्षी च मृगैर्वारुर्मृगादनी <br />
गवादनीद्वयं तिक्तं पाके कटु सरं लघु 204<br />
<br />
वीर्योष्णं कामलापित्तकफप्लीहोदरापहम 205<br />
<br />
श्वासकासापहं कुष्ठगुल्मग्रन्थिव्रणप्रणुत<br />
प्रमेहमूढगर्भामगण्डामयविषापहम 206<br />
<br />
नीली तु नीलिनी तूणी काला दोला च नीलिका<br />
रञ्जनी श्रीफली तुच्छा ग्रामीणा मधुपर्णिका 207<br />
<br />
क्लीतका कालकेशी च नीलपुष्पा च सा स्मृता<br />
नीलिनी रेचनी तिक्ता केश्या मोहभ्रमापहा 208<br />
<br />
उष्णा हन्त्युदरप्लीहवातरक्तकफानिलान<br />
आमवातमुदावर्त्तं मदं च विषमुद्धतम 209<br />
<br />
शरपुङ्खः प्लीहशत्रुर्नीलीवृक्षाकृतिश्च सः<br />
शरपुङ्खो यकृत्प्लीहगुल्मव्रणविषापहः<br />
तिक्तः कषायः कासास्रश्वासज्वरहरो लघुः 210<br />
<br />
विऋद्धदारुक आवेगी छागान्त्री वृष्यगन्धिका <br />
वृद्धद्वारुः कषायोष्णः कटुस्तिक्तो रसायनः 1<br />
<br />
वृष्यो वातामवातार्शः शोथमेहकफप्रणुत्<br />
शुक्रायुर्बलमेधाऽग्निस्वरकान्तिकरःसरः 2<br />
<br />
थासो यवासो दुःस्पर्शो धन्वयासः कुनाशकः<br />
दुरालभा दुरालम्भा समुद्रा न्ता च रोदिनी 211<br />
<br />
गान्धारी कच्छुराऽनन्ता काषाया हरिविग्रहा<br />
यासः स्वादुः सरस्तिक्तस्तुवरः शीतलो लघुः 212<br />
<br />
कफमेदोमदभ्रान्तिपित्तासृक्कुष्ठकासजित<br />
तृष्णाविसर्पवातास्रवमिज्वरहरः स्मृतः 213<br />
<br />
यवासस्य गुर्णैस्तुल्या बुधैरुक्ता दुरालभा 214<br />
<br />
मुण्डी भिक्षुरपि प्रोक्ता श्रावणी च तपोधना<br />
श्रवणाह्वा मुण्डतिका तथा श्रवणशीर्षका 215<br />
<br />
महाश्रावणिकाऽन्या तु सा स्मृता भूकदम्बिका<br />
कदम्बपुष्पिका च स्यादव्यथाऽतितपस्विनी 216<br />
<br />
मुण्डतिका कटुः पाके वीर्योष्णा मधुरा लघुः<br />
मेध्या गण्डापचीकृच्छ्रकृमियोन्यर्त्तिपाण्डुनुत 217<br />
<br />
श्लीपदारुच्यपस्मारप्लीहमेदोगुदार्तिहृत<br />
महामुण्डी च तत्तुल्या गुणैरुक्ता महर्षिभिः 218<br />
<br />
अपामार्गस्तु शिखरी ह्यधः शल्यो मयूरकः<br />
मर्कटी दुर्ग्रहा चापि किणिही खरमञ्जरी 219<br />
<br />
अपामार्गः सरस्तीक्ष्णो दीपनस्तिक्तकः कटुः<br />
पाचनो रोचनश्छर्दिकफमेदोऽनिलापहः<br />
निहन्ति हृद्रुजाध्मार्शः कण्डूशूलोदरापचीः 220<br />
<br />
रक्तोऽन्यो वशिरो वृत्तफलो धामार्गवोऽपि च <br />
प्रत्यक्पर्णी केशपर्णी कथिता कपिपिप्पली 221<br />
<br />
अपामार्गोऽरुणो वातविष्टम्भी कफहृद्धिमः<br />
रूक्षः पूर्वगुणैर्न्यूनः कथितो गुणवेदिभिः 222<br />
<br />
अपामार्गफलं स्वादु रसे पाके च दुर्जरम<br />
विष्टम्भि वातलं रूक्षं रक्तपित्तप्रसादनम 223<br />
<br />
कोकिलाक्षस्तु काकेक्षुरिक्षुरः क्षुरकः क्षुरः<br />
भिक्षुः काण्डेक्षुरप्युक्त इक्षुगन्धेक्षुबालिका 224<br />
<br />
क्षुरकः शीतलो वृप्यः स्वाद्वम्लः पिच्छिलस्तथा<br />
तिक्तो वातामशोथाश्मतृष्णादृष्ट्यनिलास्रजित 225<br />
<br />
ग्रन्थिमानस्थिसंहारीवज्राङ्गीवाऽस्थिशृङ्खला<br />
अस्थिसंहारकः प्रोक्तो वातश्लेष्महरोऽस्थियुक 226<br />
<br />
उष्णः सरः कृमिघ्नश्चदुर्नामघ्नोऽक्षिरोगजित<br />
रूक्षः स्वादुर्लघुर्वृष्यः पाचनः पित्तलः स्मृतः 227<br />
<br />
काण्डं त्वग्विरहितमस्थिशृङ्खलायामाषार्द्र द्विदलमकञ्चुकं तदर्द्धम<br />
संपिष्टं सुतनु ततस्तिलस्य तैलेसंपक्वं वटकमतीव वातहारि 228<br />
<br />
कुमारी गृहकन्या च कन्या घृतकुमारिका<br />
कुमारी भेदनी शीता तिक्ता नेत्र्! या रसायनी 229<br />
<br />
मधुरा बृंहणी बल्या वृष्या वातविषप्रणुत<br />
गुल्मप्लीहयकृद्वृद्धिकफज्वरहरी हरेत<br />
ग्रन्थ्यग्निदग्धविस्फोटपित्तरक्तत्वगामयान 230<br />
<br />
पुनर्नवा श्वेतमूला शोथघ्नी दीर्घपत्रिका<br />
कटु कषायानुरसा पाण्डुघ्नी दीपनी परा<br />
शोफानिलगरश्लेष्महरी ब्रघ्नोदरप्रणुत 231<br />
<br />
पुनर्नवाऽपरा रक्ता रक्तपुष्पा शिलाटिका<br />
शोथघ्नी क्षुद्र वर्षाभूर्वर्षकेतुः कठिल्लकः 232<br />
<br />
पुनर्नवाऽरुणा तिक्ता कटुपाका हिमा लघुः<br />
वातला ग्राहिणी श्लेष्मपित्तरक्तविनाशिनी 233<br />
<br />
प्रसारणी राजबला भद्र पर्णी प्रतानिनी<br />
सरणी सारणी भद्रा बला चापि कटम्भरा 234<br />
<br />
प्रसारणी गुरुर्वृष्या वलसन्धानकृत्सरा<br />
वीर्योष्णा वातहृत्तिक्ता वातरक्तकफापहा 235<br />
<br />
कृष्णा तु शारिवा श्यामा गोपी गोपवधूश्च सा 236<br />
<br />
धवला शारिवा गोपा गोपकन्या कृशोदरी<br />
स्फोटा श्यामा गोपवल्ली लताऽस्फोता च चन्दना 237<br />
<br />
सारिवायुगलं स्वादु स्निग्धं शुक्रकरं गुरु<br />
अग्निमान्द्यारुचिश्वासकासामविषनाशनम<br />
दोषत्रयास्रप्रदरज्वरातीसारनाशनम 238<br />
<br />
भृङ्गराजो भृङ्गरजो मार्कवो भृङ्ग एव च<br />
अङ्गारकः केशराजो भृङ्गारः केशरञ्जनः 239<br />
<br />
भृङ्गारः कटुकस्तीक्ष्णो रूक्षोष्णः कफवातनुत 240<br />
<br />
केश्यस्त्वच्यः कृमिश्वासकासशोथामपाण्डुनुत<br />
दन्त्यो रसायनो बल्यः कुष्ठनेत्रशिरोऽत्तिनुत 241<br />
<br />
शणपुष्पी स्मृता घण्टा शणपुष्पसमाकृतिः<br />
शणपुष्पी कटुस्तिक्ता वामिनी कफपित्तजित 242<br />
<br />
बलभद्रा त्रायमाणा त्रायन्ती गिरिजाऽनुजा<br />
त्रायन्ती तुवरा तिक्ता सरा पित्तकफापहा<br />
ज्वरहृद्रो गगुल्मार्शोभ्रमशूलविषप्रणुत 243<br />
<br />
मूर्वा मधुरसा देवी मोरटा तेजनी स्रुवा<br />
मधुलिका मधुश्रेणी गोकर्णी पीलुपर्ण्यपि 244<br />
<br />
मूर्वा सरा गुरुः स्वादुस्तिक्ता पित्तास्रमेहनुत<br />
त्रिदोषतृष्णाहृद्रो गकण्डूकुष्ठज्वरापहाः 245<br />
<br />
काकमाची ध्वाङ्क्षमाची काकाह्वा चैव वायसी<br />
काकमाची त्रिदोषघ्नी स्निग्धोष्णा स्वरशुक्रदा 246<br />
<br />
तिक्ता रसायनी शोथकुष्टार्शोज्वरमेहजित<br />
कटुर्नेत्रहिता हिक्काच्छर्दिहृद्रो गनाशिनी 247<br />
<br />
काकनासा तु काकाङ्गी काकतुण्डफला च सा 248<br />
<br />
काकनासा कषायोष्णा कटुका रसपाकयोः<br />
कफघ्नी वामनी तिक्ता शोथार्शश्वित्रकुष्ठहृत 249<br />
<br />
काकजङ्घा नदीकान्ता काकतिक्ता सुलोमशा<br />
पारावतपदी दासी काका चापि प्रकीर्त्तिता 250<br />
<br />
काकजंघा हिमा तिक्ता कषाया कफपित्तजित<br />
निहन्ति ज्वरपित्तास्रव्रणकण्डूविषक्रिमीन् 251<br />
<br />
नागपुष्पी श्वेत पुष्पा नागिनी रामदूतिका<br />
नागिनी रोचनी तिक्ता तीक्ष्णोष्णा कफपित्तनुत<br />
विनिहन्ति विषं शूलं योनिदोषवमिक्रिमीन 252<br />
<br />
मेषशृङ्गी विषाणी स्यान्मेषवल्ल्यजशृङ्गिका<br />
मेषशृङ्गी रसे तिक्ता वातला श्वासकासहृत 253<br />
<br />
रूक्षा पाके कटुः पित्तव्रणश्लेष्माक्षिशूलनुत 254<br />
<br />
मेषशृङ्गीफलं तिक्तं कुष्ठमेहकफप्रणुत<br />
दीपनं स्रंसनं कासक्रिमिव्रणविषापहम 255<br />
<br />
हंसपादी हंसपदी कीटमाता त्रिपादिका<br />
हंसपादी गुरुः शीता हन्ति रक्तविषव्रणान<br />
विसर्पदाहातीसारलूताभूताग्निरोहिणीः 256<br />
<br />
सोमवल्ली सोमलता सोमक्षीरी द्विजप्रिया<br />
सोमवल्ली त्रिदोषघ्नी कटुस्तिक्ता रसायनी 257<br />
<br />
आकाशवल्ली तु बुधैः कथिताऽमरवल्लरी 258<br />
<br />
खवल्ली ग्राहिणी तिक्ता पिच्छिलाऽक्ष्यामयापहा<br />
तुवराऽग्निकरी हृद्या पित्तश्लेष्मामनाशिनी 259<br />
<br />
छिलिहिण्टो महामूलःपातालगरुडाह्वयः<br />
छिलिहिण्टः परं वृष्यः कफघ्नः पवनापहः 260<br />
<br />
वन्दा वृक्षादनी वृक्षभक्ष्या वृक्षरुहाऽपि च<br />
वन्दाकः स्याद्धिमस्तिक्तः कषायो मधुरो रसे<br />
मङ्गल्यः कफवातास्ररक्षोव्रणविषापहः 261<br />
<br />
वटपत्री तु कथिता मोहिन्यैरावती बुधैः <br />
वटपत्री कषायोष्णा योनिमूत्रगदापहा 262<br />
<br />
हिङ्गुपत्री तु कवरी पृथ्वीका पृथुका पृथुः 263<br />
<br />
हिङ्गुपत्री भवेद्रुच्या तीक्ष्णोष्णा पाचनी कटुः<br />
हृद्बस्तिरुग्विबन्धार्शःश्लेष्मगुल्मानिलापहा 264<br />
<br />
वंशपत्री वेणुपत्री पिण्डा हिङ्गुशिवाटिका<br />
हिङ्गुपत्रीगुणा विज्ञैर्वंशपत्री च कीर्त्तिता 265<br />
<br />
मत्स्याक्षी बाह्लिका मत्स्यगन्धा मत्स्यादनीति च<br />
मत्स्याक्षी ग्राहिणी शीतकुष्ठपित्तकफास्रजित<br />
लघुस्तिक्ता कषाया च स्वाद्वी कटुविपाकिनी 266<br />
<br />
सर्पाक्षी स्यात्तु गण्डाली तथा नाडीकलापकः 267<br />
<br />
सर्पाक्षी कटुका तिक्ता सोष्णा कृमिनिकृन्तनी<br />
वृश्चिकोन्दुरुसर्पाणां विषघ्नी व्रणरोपिणी 268<br />
<br />
शङ्ख्नपुष्पी तु शङ्खाह्वा मङ्गल्यकुसुमाऽपि च<br />
शङ्खपुष्पी सरा मेध्या वृष्या मानसरोगहृत 269<br />
<br />
रसायनी कषायोष्णा स्मृतिकान्तिबलाग्निदा<br />
दोषापस्मारभूताश्रीकुष्ठक्रिमिविषप्रणुत 270<br />
<br />
अर्कपुष्पी क्रूरकर्मा पयस्या जलकामुका<br />
अर्कपुष्पी कृमिश्लेष्ममेहपित्तविकारजित 271<br />
<br />
लज्जालुः स्वाच्छमीपत्रा समङ्गा जलकारिका<br />
रक्तपादी नमस्कारी नाम्ना खदिरकेत्यपि 272<br />
<br />
लज्जालुः शीतला तिक्ता कषाया कफपित्तजित<br />
रक्तपित्तमतीसारं योनिरोगान विनाशयेत 273<br />
<br />
अलम्बुषा खरत्वक च तथा मेदोगला स्मृता<br />
अलम्बुषा लघुः स्वादुः क्रिमिपित्तकफापहा 274<br />
<br />
दुग्धिका स्वादुपर्णी स्यात्क्षीरा विक्षीरिणी तथा<br />
दुग्धिकोष्णा गुरू रूक्षा वातलागर्भकारिणी 275<br />
<br />
स्वादुक्षीरा कटुस्तिक्ता सृष्टमूत्रा मलापहा<br />
स्वादुविष्टम्भिनी वृष्या कफकुष्ठक्रिमिप्रणुत 276<br />
<br />
भूम्यामलकिका प्रोक्ता शिवा तामलकीति च<br />
बहुपत्रा बहुफला बहुवीर्याऽजटाऽपि च 277<br />
<br />
भूधात्री वातकृत्तिक्ता कषाया मधुरा हिमा<br />
पिपासाकासपितास्रकफकण्डूक्षतापहा 278<br />
<br />
ब्राह्मी कपोतवङ्का च सोमवल्ली सरस्वती<br />
मण्डूकपर्णी माण्डूकी त्वाष्ट्री दिव्या महौषधी 279<br />
<br />
ब्राह्मी हिमा सरा तिक्ता लघुर्मध्या च शीतला<br />
कषाया मधुरा स्वादुपाकाऽयुष्या रसायनी 280<br />
<br />
स्वर्या स्मृतिप्रद्रा कुष्ठपाण्डुमेहास्रकासजित<br />
विषशोथज्वरहरी तद्वन्मण्डूकपर्णिनी 281<br />
<br />
द्रोणा च द्रोणपुष्पी च फलेपुष्पा च कीर्त्तिता<br />
द्रोणपुष्पी गुरुः स्वादू रूक्षोष्णा वातपित्तकृत 282<br />
<br />
सतीक्ष्णलवणा स्वादुपाका कट्वी च भेदिनी<br />
कफामकामलाशोथतमकश्वासजन्तुजित 283<br />
<br />
सुवर्चला सूर्यभक्ता वरदा बदराऽपि च<br />
सूर्यावर्त्ता रविप्रीताऽपरा ब्रह्मसुदुर्लभा 284<br />
<br />
सुवर्चला हिमा रूक्षा स्वादुपाका सरा गुरुः<br />
अपित्तला कटुः क्षारा विष्टम्भकफवातजित 285<br />
<br />
अन्या तिक्ता कषायोष्णा सरा रुक्षा लघुः कटुः<br />
निहन्ति कफपित्तास्रश्वासकासारुचिज्वरान<br />
विस्फोटकुष्ठमेहास्रयोनिरुक्कृमिपाण्डुताः 286<br />
<br />
वन्ध्याकर्कोटकी देवी कन्या योगीश्वरीति च<br />
नागरिर्नक्रदमनी विषकण्टकिनी तथा 287<br />
<br />
बन्ध्याकर्कोटकी लघ्वी कफनुद् व्रणशोधिनी<br />
सर्पदर्पहरी तीक्ष्णा विसर्पविषहारिणी 288<br />
<br />
मार्कण्डिका भूमिवल्ली मार्कण्डी मृदुरेचनी 289<br />
<br />
मार्कण्डिका कुष्ठहरी ऊर्ध्वाधःकायशोधिनी<br />
विषदुर्गंन्धकासघ्नी गुल्मोदरविनाशिनी 290<br />
<br />
देवदाली यु वेणी स्यात्कर्कटी च गरागरी<br />
देवताडो वृत्तकोशस्तथा जीमूत इत्यपि 291<br />
<br />
पीता परा खरस्पर्श विषघ्नी गरनाशिनी<br />
देवदाली रसे तिक्ता कफार्शःशोफपाण्डुताः<br />
नाशयेद्वामनी तीक्ष्णा क्षयहिक्काकृमिज्वरान 292<br />
<br />
देवदालीफलं तिक्तं कृमिश्लेष्मविनाशनम<br />
स्रंसनं गुल्मशूलघ्नमर्शोघ्नं वातजित्परम 293<br />
<br />
जलपिप्पल्यभिहिता शारदी शकुलादनी<br />
मत्स्यादनी मत्स्यगन्धा लाङ्गलीत्यपि कीर्त्तिता 294<br />
<br />
जलपिप्पलिका हृद्या चक्षुष्या शुक्रला लघुः 295<br />
<br />
संग्राहिणी हिमा रूक्षा रक्तदाहव्रणापहा<br />
कटुपाकरसा रुच्या कषाया वह्निवर्द्धिनी 296<br />
<br />
गोजिह्वा गोजिका गोभी दार्विका खरपर्णिनी<br />
गोजिह्वा वातला शीता ग्राहिणी कफपित्तनुत 297<br />
<br />
हृद्या प्रमेहकासास्रव्रणज्वरहरी लघुः<br />
कोमला तुवरा तिक्ता स्वादुपाकरसा स्मृता 298<br />
<br />
विज्ञेया नागदमनी बलमोदा विषापहा<br />
नागपुष्पी नागपत्रा महायोगेश्वरीति च 299<br />
<br />
बलामोटा कटुस्तिक्ता लघुः पित्तकफापहा<br />
मूत्रकृच्छ्रव्रणान् रक्षो नाशयेज्जालगर्दभम 300<br />
<br />
सर्वग्रहप्रशमनी निःशेषविषनाशिनी<br />
जयं सर्वत्र कुरुते धनदासुमतिप्रदा 301<br />
<br />
वेल्लन्तरो जगति वीरतरुः प्रसिद्धः श्वेतासितारुणविलोहितनीलपुष्पः<br />
स्याज्जातितुल्यकुसुमः शमिसूक्ष्मपत्रः स्यात्कण्टकी विजलदेशज एव वृक्षः 302<br />
<br />
वेल्लन्तरो रसे पाके तिक्तस्तृष्णाकफापहः<br />
मूत्राघाताश्मजिद्ग्राही योनिमूत्रानिलार्त्तिजित 303<br />
<br />
छिक्क्नी क्षवकृत्तीक्ष्णा छिक्किका घ्राणदुःखदा<br />
छिक्कनी कटुका रुक्ष्या तीक्ष्णोष्णावह्निपित्तकृत<br />
वातरक्तहरी कुष्ठक्रिमिवातकफापहा 304<br />
<br />
कुकुन्दर स्ताम्रचूडः सूक्ष्मपत्रो मृदुच्छदः 305<br />
<br />
कुकुन्दरः कटुस्तिक्तो ज्वररक्तकफापहः<br />
तन्मूलमाद्ररं! निक्षिप्तं वदने मुखशोषहृत 306<br />
<br />
सुदर्शना सोमवल्ली चक्राह्वा मधुपर्णिका<br />
सुदर्शना स्वादुरुष्णा कफशोथास्रवातजित 307<br />
<br />
आखुकर्णी त्वाखुपर्णी पर्णिका भूदरीभवा<br />
आखुकर्णी कटुस्तिक्ता कषाया शीतला लघुः<br />
विपाके कटुका मूत्रकफामयकृमिप्रणुत् 308<br />
<br />
मयूराह्वशिखा प्रोक्ता सहस्राहिर्मधुच्छदा<br />
नीलकण्ठशिखा लघ्वी पित्तश्लेष्मातिसारजित 309<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकनतनयश्रीमिश्रभावविरचिते भावप्रकाशे पूर्वखण्डे मिश्रप्रकरणे</span><br />
<span style="color: red;">चतुर्थो गुडूच्यादिवर्गः समाप्तः 4</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-44394909107557564572015-07-12T20:23:00.002-07:002015-07-12T20:23:46.521-07:00अथ पुष्पवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वा पुंसि पद्मं नलिनमरविन्दं महोत्पलम<br />
सहस्रपत्रं कमलं शतपत्रं कुशेशयम 1<br />
<br />
पङ्केरुहं तामरसं सारसं सरसीरुहम<br />
बिसप्रसूनराजीवपुष्कराम्भोरुहाणि च 2<br />
<br />
कमलं शीतलं वर्ण्यं मधुरं कफपित्तजित<br />
तृष्णादाहास्रविस्फोटविषवीसर्पनाशनम 3<br />
<br />
विशेषतः सितं पद्मं पुण्डरीकमिति स्मृतम<br />
रक्तं कोकनदं ज्ञेयं नीलमिन्दीवरं स्मृतम 4<br />
<br />
धवलं कमलं शीतं मधुरं कफपित्तजित<br />
तस्मादल्पगुणं किञ्चिदन्यद्र क्तोत्पलादिकम 5<br />
<br />
मूलनालदलोत्फुल्लफलैः समुदिता पुनः<br />
पद्मिनी प्रोच्यते प्राज्ञैर्बिसिन्यादि च सा स्मृता 6<br />
<br />
पद्मिनी शीतला गुर्वी मधुरा लवणा च सा<br />
पित्तासृक्कफनुद्रू क्षा वातविष्टम्भकारिणी 7<br />
<br />
संवर्त्तिका नवदलं बीजकोशस्तु कर्णिका<br />
किञ्जल्कः केशरः प्रोक्तो मकरन्दो रसः स्मृतः<br />
पद्मनालं मृणालं स्यात्तथा बिसमिति स्मृतम 8<br />
<br />
संवर्त्तिका हिमा तिक्ता कषाया दाहतृट्प्रणुत<br />
मूत्रकृच्छ्रगुदव्याधिरक्तपित्तविनाशिनी 9<br />
<br />
पद्मस्य कर्णिका तिक्ता कषाया मधुरा हिमा<br />
मुखवैशद्यकृल्लघ्वी तृष्णाऽस्रकफपित्तनुत 10<br />
<br />
किञ्जल्कः शीतलो वृष्यः कषायो ग्राहकोऽपिसः<br />
कफपित्ततृषादाहरक्तार्शोविषशोथजित 11<br />
<br />
मृणालं शीतलं वृष्यं पित्तदाहास्रजिद गुरु 12<br />
<br />
दुर्जरं स्वादुपाकञ्च स्तन्यानिलकफप्रदम<br />
संग्राहि मधुरं रूक्षं शालूकमपि तद्गुणम 13<br />
<br />
पद्मचारिण्यतिचराऽव्यथा पद्मा च शारदा<br />
पद्माऽनुष्णा कटुस्तिक्ता कषाया कफवातजित<br />
मूत्रकृच्छ्श्मशूलघ्नो श्वासकासविषापहा 14<br />
<br />
श्वेतं कुवलयं प्रोक्तं कुमुदं कैरवं तथा<br />
कुमुदं पिच्छिलं स्निग्धं मधुरं ह्लादि शीतलम 15<br />
<br />
कुमुद्वती कैरविका तथा कुमुदिनीति च 16<br />
<br />
सा तु मूलादिसर्वाङ्गैरुक्ता समुदिता बुधैः<br />
पद्मिन्या ये गुणाः प्रोक्ताः कुमुदिन्याश्च ते स्मृताः 17<br />
<br />
सौगन्धिकं तु कल्हारं हल्लकं रक्तसन्ध्यकम <br />
कल्हारं शीतलं ग्राहि विष्टम्भि गुरु रूक्षणम 18<br />
<br />
वारिपर्णी कुम्भिका स्याद्वारिमूली खमूलिका<br />
शैवालं जलनीली स्याच्छैवलं जलजञ्च तत 19<br />
<br />
वारिपर्णी हिमा तिक्ता लघ्वी स्वाद्वी सरा कटुः<br />
दोषत्रयहरी रूक्षा शोणितज्वरशोषकृत 20<br />
<br />
शैवालं तुवरं तिक्तं मधुरं शीतलं लघु<br />
स्निग्धं दाहतृषापित्तरक्तज्वरहरं परम 21<br />
<br />
शतपत्री तरुण्युक्ता कर्णिका चारुकेशरा<br />
महाकुमारी गन्धाढ्या लाक्षापुष्पा ऽतिमञ्जुला 22<br />
<br />
शतपत्री हिमा हृद्या ग्राहिणी शुक्रला लघुः<br />
दोषत्रयास्रजिद्वर्ण्या कट्वी तिक्ता च पाचनी 23<br />
<br />
नेपाली कथिता तज्ज्ञैः सप्तला नवमालिका<br />
वासन्ती शीतला लघ्वी तिक्ता दोषत्रयास्रजित 24<br />
<br />
श्रीपदी षट्पदानन्दा वार्षिकी मुक्तबन्धना 25<br />
<br />
वार्षिकी शीतला लघ्वी तिक्ता दोषत्रयापहा<br />
कर्णाक्षिमुखरोगघ्नी तत्तैलं तद्गुणं स्मृतम 26<br />
<br />
जातिर्जाती च सुमना मालती राजपुत्रिका<br />
चेतिका हृद्यगन्धा च सा पीता स्वर्णजातिका 27<br />
<br />
जातीयुगं तिक्तमुष्णं तुवरं लघु दोषजित्<br />
शिरोऽक्षिमुखदन्तार्त्तिविषकुष्ठानिलास्रजित 28<br />
<br />
यूथिका गणिकाऽम्बष्ठा सा पीता हेमपुष्पिका<br />
यूथीयुगं हिमं तिक्तं कटुपाकरसं लघु 29<br />
<br />
मधुरं तुवरं हृद्यं पित्तघ्नं कफवातलम<br />
व्रणास्रमुखदन्ताक्षिशिरोरोगविषापहम 30<br />
<br />
चाम्पेयश्चम्पकः प्रोक्तोहेमपुष्पश्च स स्मृतः<br />
एतस्य कलिका गन्धफलेति कथिता बुधैः 31<br />
<br />
चम्पकः कटुकस्तिक्तः कषायो मधुरो हिमः<br />
विषक्रिमिहरः कृच्छ्रकफवातास्नपित्तजित 32<br />
<br />
बकुलो मधुगन्धश्च सिंहकेसरकस्तथा<br />
बकुलस्तुवरोऽनुष्णः कटुपाकरसो गुरुः<br />
कफपित्तविषश्वित्रकृमिदन्तगदापहः 33<br />
<br />
शिवमल्ली पाशुपत एकाष्ठीलो वको वसुः 34<br />
<br />
वकोऽनुष्णः कटुस्तिक्तः कफपित्तविषापहः<br />
योनिशूलतृषादाहकुष्ठशोथास्रनाशनः 35<br />
<br />
कदम्बः प्रियको नीपो वृत्तपुष्पो हलिप्रियः<br />
कदम्बो मधुरः शीतः कषायो लवणो गुरुः<br />
सरो विष्टम्भकृद्रू क्षः कफस्तन्यानिलप्रदः 36<br />
<br />
कुब्जको भद्र तरुणी वृत्तपुष्पोऽतिकेसरः<br />
महासहा कण्टकाढ्या नीलालिकुलसंकुला 37<br />
<br />
कुब्जकः सुरभिः स्वादुः कषायानुरसः सरः<br />
त्रिदोषशमनो वृष्यः शीतहर्त्ता च स स्मृतः 38<br />
<br />
मल्लिका मदयन्ती च शीतभीरुश्च भूपदी 39<br />
<br />
मल्लिकोष्णा लघुर्वृष्या तिक्ता च कटुका हरेत<br />
वातपित्तास्यदृग्व्याधिकुष्ठारुचिविषव्रणान 40<br />
<br />
माधवी स्यात्तु वासन्ती पुण्ड्रको मण्डकोऽपि च<br />
अतिमुक्तो विमुक्तश्च कामुको भ्रमरोत्सवः<br />
माधवी मधुरा शीता लघ्वी दोषत्रयापहा 41<br />
<br />
केतकः सूचिकापुष्पो जम्बुकः क्रकचच्छदः<br />
सुवर्णकेतकी त्वन्या लघुपुष्पा सुगन्धिनी 42<br />
<br />
केतकः कटुकः स्वादुर्लघुस्तिक्तः कफापहः<br />
उष्णा तिक्तरसा ज्ञेया चक्षुष्या हेमकेतकी 43<br />
<br />
किङ्किरातो हेमगौरः पीतकः पीतभद्र कः 44<br />
<br />
किङ्किरातो हिमस्तिक्तः कषायश्च हरेदसौ<br />
कफपित्तपिपासाऽस्रदाहशोषवमिक्रिमीन 45<br />
<br />
कर्णिकारः परिव्याधः पादपोत्पल इत्यपि<br />
कर्णिकारः कटुस्तिक्तस्तुवरो शोधनो लघुः<br />
रञ्जनः सुखदः शोथश्लेष्मास्रव्रणकुष्ठजित 46<br />
<br />
अशोको हेमपुष्पश्च वञ्जुलस्ताम्रपल्लवः<br />
कङ्केलि पिण्डपुष्पश्च गन्धपुष्पो नटस्तथा 47<br />
<br />
अशोकः शीतलस्तिक्तो ग्राही वर्ण्यः कषायकः<br />
दोषापचीतृषादाहकृमिशोषविषास्रजित 48<br />
<br />
अम्लातोऽम्लाटनः प्रोक्तस्तथाऽम्लातक इत्यपि 49<br />
<br />
कुरण्टको वर्णपुष्पः स एवोक्तो महासहः<br />
अम्लाटनः कषायोष्णः स्निग्धः स्वादुश्च तिक्तकः 50<br />
<br />
सैरेयकः श्वेतपुष्पः सैरेयः कटसारिका<br />
सहाचरः सहचरः स च भिन्द्यपि कथ्यते 51<br />
<br />
कुरण्टकोऽत्रपीते स्याद्र क्त कुरबकः स्मृतः<br />
नीले बाणा द्वयोरुक्तो दासी चार्त्तगलश्च सः 52<br />
<br />
र्स्यैः! कुष्ठवातास्रकफकण्डूविषापहः<br />
तिक्तोष्णो मधुरोऽनम्लः सुस्निग्धः केशरञ्जनः 53<br />
<br />
कुन्दं तु कथितं माध्यं सदापुष्पञ्च तत्स्मृतम<br />
कुन्दं शीतं लघु श्लेष्मशिरोरुग्विषपित्तहृत 54<br />
<br />
मुचुकुन्दः क्षत्रवृक्षश्चित्रकः प्रतिविष्णुकः<br />
मुचुकुन्दः शिरःपीडापित्तास्रविषनाशनः 55<br />
<br />
तिलकः क्षुरकः श्रीमान्पुरुषश्छिन्नपुष्पकः<br />
तिलकः कटुकः पाके रसे चोष्णो रसायनः<br />
कफकुष्ठक्रिमीन्वस्तिमुखदन्तगदान्हरेत 56<br />
<br />
बन्धूको बन्धुजीवश्च रक्तो माध्याह्निकोऽपि च<br />
बन्धूकः कफकृद् ग्राही वातपित्तहरो लघुः 57<br />
<br />
ओड्रपुष्पं जपा चाथ त्रिसन्ध्या साऽरुणा सिता<br />
जपा संग्राहिणी केश्या त्रिसन्ध्या कफवातजित 58<br />
<br />
सिन्दूरी रक्तबीजा च रक्तपुष्पा सुकोमला<br />
सिन्दूरी विषपित्तास्रतृष्णावान्तिहरी हिमा 59<br />
<br />
अथागस्त्यो वङ्गसेनो मुनिपुष्पो मुनिद्रुमः 60<br />
<br />
अगस्तिः पित्तकफजिच्चातुर्थिकहरो हिमः<br />
रूक्षो वातकरस्तिक्तः प्रतिश्यायनिवारणः 61<br />
<br />
तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमञ्जरी<br />
अपेतराक्षसी गौरी भूतघ्नी देवदुन्दभिः 62<br />
<br />
तुलसी कटुका तिक्ता हृद्योष्णा दाहपित्तकृत<br />
दीपनी कुष्ठकृच्छ्रास्रपार्श्वरुक्कफवातजित<br />
शुक्ला कृष्णा च तुलसी गुणैस्तुल्या प्रकीर्त्तिता 63<br />
<br />
मारुतोऽसौ मरुबको मरुन्मरुरपि स्मृतः<br />
फणी फणिज्जकश्चापि प्रस्थपुष्पः समीरणः 64<br />
<br />
मरुदग्निप्रदो हृद्यस्तीक्ष्णोष्णः पित्तलो लघुः 65<br />
<br />
वृश्चिकादिविषश्लेष्मवातकुष्ठक्रिमिप्रणुत<br />
कटुपाकरसो रुच्यस्तिक्तो रूक्षः सुगन्धिकः 66<br />
<br />
उक्तो दमनको दान्तो मुनिपुत्रस्तपोधनः<br />
गन्धोत्कटो ब्रह्मजटो विनीतः कलपत्रकः 67<br />
<br />
दमनस्तुवरस्तिक्तो हृद्यो वृष्यः सुगन्धिकः<br />
ग्रहणाद विषकुष्ठास्रक्लेदकण्डूत्रिदोषजित 68<br />
<br />
बर्बरी तुवरी तुङ्गी खरपुष्पाऽजगन्धिका<br />
पर्णाशस्तत्र कृष्णे तु कठिल्लककुठेरकौ 69<br />
<br />
तत्र शुक्लेऽजकः प्रोक्तो वटपत्रस्ततोऽपरः<br />
बर्बरीत्रितयं रूक्षं शीतं कटु विदाहि च 70<br />
<br />
तीक्ष्णं रुचिकरं हृद्यं दीपनं लघुपाकि च<br />
पित्तलं कफवातास्रकण्डूकृमिविषापहम 71<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे मिश्रप्रकरणे पञ्चमः </span><br />
<span style="color: red;">पुष्पवर्गः समाप्तः 5</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-68341765446475343752015-07-12T20:22:00.004-07:002015-07-12T20:22:50.779-07:00अथ वटादिवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वटो रक्तफलः शृङ्गीन्यग्रोधः स्कन्धजो ध्रुवः <br />
क्षीरी वैश्रवणो वासो बहुपादो वनस्पतिः 1<br />
<br />
वटः शीतो गुरुर्ग्राही कफपित्तव्रणापहः<br />
वर्ण्यो विसर्पदाहघ्नः कषायो योनिदोषहृत 2<br />
<br />
बोधिद्रुः पिप्पलोऽश्वत्थश्चलपत्रो गजाशनः<br />
पिप्पलो दुर्जरः शीतःपित्तश्लेष्मव्रणास्रजित<br />
गुरुस्तुवरको रूक्षो वर्ण्यो योनिविशोधनः 3<br />
<br />
पारीषोऽन्य पलाशश्च कपिचूतः कमण्डलुः<br />
गर्दभाण्डः कन्दरालः कपीतनसुपार्श्वकौ 4<br />
<br />
पारीषो दुर्जरः स्निग्धः कृमिशुक्रकफप्रदः<br />
फलेऽम्लो मधुरो मूले कषायस्वादुमज्जकः 5<br />
<br />
नन्दीवृक्षोऽश्वत्थभेदः प्ररोही गजपादपः<br />
स्थालीवृक्षः क्षयतरुः क्षीरी च स्याद्वनस्पतिः 6<br />
<br />
नन्दीवृक्षो लघुः स्वादुस्तिक्तस्तुवर उष्णकः<br />
कटुपाकरसो ग्राही विषपित्तकफास्रजित 7<br />
<br />
उदुम्बरो जन्तुफलो यज्ञाङ्गो हेमदुग्धकः 8<br />
<br />
उदुम्बरो हिमो रूक्षो गुरुः पित्तकफास्रजित<br />
मधुरस्तुवरो वर्ण्यो व्रणशोधनरोपणः 9<br />
<br />
काकोदुम्बरिका फल्गुर्मलयूर्जघनेफला<br />
मलयुः स्तम्भकृत्तिक्ता शीतला तुवरा जयेत<br />
कफपित्तव्रणश्वित्रकुष्ठपाण्ड्वर्शकामलाः 17<br />
<br />
प्लक्षो जटी पर्करी च पर्कटी च स्त्रियामपि 11<br />
<br />
प्लक्षः कषायः शिशिरो व्रणयोनिगदापहः<br />
दाहपित्तकफास्रघ्नः शोथहा रक्तपित्तहृत 12<br />
<br />
शिरीषो भण्डिलो भण्डी भण्डीरश्च कपीतनः<br />
शुकपुष्पः शुकतरुर्मृदुपुष्पः शुकप्रियः 13<br />
<br />
शिरीषो मधुरोऽनुष्णस्तिक्तश्च तुवरो लघुः<br />
दोषशोथविसर्पघ्नः कासव्रणविषापहः 14<br />
<br />
अथ क्षीरिवृक्षपञ्चकं त्वक्पञ्चकञ्च<br />
<br />
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थपारीषप्लक्षपादपाः<br />
पञ्चैते क्षीरिणो वृक्षास्तेषां त्वक्पञ्चवल्कलम 15<br />
<br />
क्षीरिवृक्षा हिमा वर्ण्या योनिरोगव्रणापहाः<br />
रूक्षाः कषाया मेदोघ्ना विसर्पामथनाशनाः 16<br />
<br />
शोथपित्तकफास्रघ्नाः स्तन्या भग्नास्थियोजकः<br />
त्वक्पञ्चकं हिमं ग्राहि व्रणशोथविसर्पजित 17<br />
<br />
तेषां पत्रं हिमं ग्राहि कफवातास्रनुल्लघु<br />
विष्टम्भाघ्मानजित्तिक्तं कषायं लघु लेखनम 18<br />
<br />
शालस्तु सर्जकार्श्याश्वकर्णकाः शस्यशम्बरः<br />
अश्वकर्णः कषायः स्याद् व्रणस्वेदकफक्रिमीन<br />
ब्रध्नविद्रधिबाधिर्ययोनिकर्णगदान हरेत 19<br />
<br />
सर्जकोऽन्योऽजकर्णः स्याच्छालो मरिचपत्रकः 27<br />
<br />
अजकर्णः कटुस्तिक्तः कषायोष्णो व्यपोहति<br />
कफपाण्डुश्रुतिगदान् मेहकुष्ठविषव्रणान 21<br />
<br />
शल्लकी गजभक्ष्या च सुवहा सुरभी रसा<br />
महेरुणा कुन्दुरुकी वल्लकी च बहुस्रवा 22<br />
<br />
शल्लकी तुवरा शीता पित्तश्लेष्मातिसारजित<br />
रक्तपित्तव्रणहरी पुष्टिकृत्समुदीरिता 23<br />
<br />
शिंशपा पिच्छिला श्यामा कृष्णसारा च सा गुरु<br />
कपिला सैव मुनिभिर्भस्मगर्भेतिकीर्त्तिता 24<br />
<br />
शिंशपा कटुका तिक्ता कषाया शोषहारिणी<br />
उष्णवीर्या हरेन्मेदः कुष्ठश्वित्रवमिक्रिमीन<br />
बस्तिरुग्व्रणदाहास्रबलासान् गर्भपातिनी 25<br />
<br />
ककुभोऽजुननामाख्यो नदीसर्जश्च कीर्त्तितः<br />
इन्द्र द्रुर्वीरवृक्षश्च वीरश्च धवलः स्मृतः 26<br />
<br />
कुकुभः शीतलो हृद्यः क्षतक्षयविषास्रजित<br />
मेदोमेहव्रणान हन्ति तुवरः कफपित्तहृत 27<br />
<br />
बीजकः पीतसारश्च पीतशालक इत्यपि<br />
बन्धूकपुष्पः प्रियकः सर्जकश्चासनः स्मृतः 28<br />
<br />
बीजकः कुष्ठवीसर्पश्वित्रमेहगुद क्रिमीन<br />
हन्ति श्लेष्मास्रपित्तञ्च त्वच्यः केश्यो रसायनः 29<br />
<br />
खदिरो रक्तसारश्च गायत्री दन्तधावनः<br />
कण्टकी बालपत्रश्च बहुशल्यश्च यज्ञियः 37<br />
<br />
खदिरः शीतलो दन्त्यः कण्डूकासारुचिप्रणुत 31<br />
<br />
तिक्तः कषायो मेदोघ्नः कृमिमेहज्वरव्रणान<br />
श्वित्रशोथामपित्तास्रपाण्डुकुष्ठकफान हरेत 32<br />
<br />
खदिरः श्वेतसारोऽन्य कदरः सोमवल्कलः <br />
कदरो विशदो वर्ण्यो मुखरोगकफास्रजित 33<br />
<br />
इरिमेदो विट्खदिरः कालस्कन्धोऽरिमेदकः<br />
इरिमेदः कषायोष्णो मुखदन्तगदास्रजित<br />
हन्ति कण्डूविषश्लेष्मकृमिकुष्ठविषव्रणान 34<br />
<br />
रोहीतको रोहितको रोही दाडिमपुष्पकः<br />
रोहीतकः प्लीहघाती रुच्यो रक्तप्रसादनः 35<br />
<br />
बब्बूलः किङ्किरातः स्यात्किङ्किराटः सपीतकः 36<br />
<br />
स एव कथितस्तज्ज्ञैराभाषट्पदमोदिनी<br />
बब्बूलः कफनुद् ग्राही कुष्ठक्रिमिविषापहः 37<br />
<br />
अरिष्टकस्तु मङ्गल्यः कृष्णवर्णोऽथसाधनः<br />
रक्तबीजः पीतफेनः फेनिलो गर्भपातनः<br />
अरिष्टकस्त्रिदोषघ्नो ग्रहजिद् गर्भपातनः 38<br />
<br />
पुत्रजीवो गर्भकरो यष्टीपुष्पोऽथसाधकः 39<br />
<br />
पुत्रजीवी गुरुर्वृष्यो गर्भदः श्लेष्मवातहृत <br />
सृष्टमूत्रमलो रूक्षो हिमः स्वादुः पटुः कटुः 47<br />
<br />
इङ्गुदोऽङ्गारवृक्षश्च तिक्तकस्तापसद्रुमः<br />
इङ्गुदः कुष्ठभूतादिग्रहव्रणविषक्रिमीन<br />
हन्त्युष्णः श्वित्रशूलघ्नस्तिक्तकः कटुपाकवान 41<br />
<br />
जिङ्गिनी झिङ्गिनी झिङ्गी सुनिर्यासा प्रमोदिनी 42<br />
<br />
जिङ्गिनी मधुरा सोष्णा कषाया योनिशोधिनी<br />
कटुका व्रणहृद्रो गवातातीसारहृत पटुः 43<br />
<br />
तमाल उक्तस्तापिच्छः कालस्कन्धोऽमितद्रुमः<br />
लोकस्कन्धो नीलध्वजो नीलतालश्च स स्मृतः<br />
तमालः शालवद्वेद्यो दाहविस्फोटहृत पुनः 44<br />
<br />
तूणी तुन्नक आपीनस्तुणिकः कच्छकस्तथा<br />
कुठेरकः कान्तलको नन्दीवृक्षश्च नन्दकः 45<br />
<br />
तूणी रक्तः कटुः पाके कषायो मधुरो लघुः<br />
तिक्तो ग्राही हिमो वृष्यो व्रणकुष्ठास्रपित्तजित 46<br />
<br />
भूर्जपत्रः स्मृतो भूर्जश्चर्मी बहुलवल्कलः<br />
भूर्जो भूतग्रहश्लेष्मकर्णरुक्पित्तरक्तजित 47<br />
<br />
कषायो राक्षसघ्नश्च मेदोविषहरः परः 48<br />
<br />
पलाशः किंशुकः पर्णो यज्ञियो रक्तपुष्पकः<br />
क्षारश्रेष्ठो वातपोथो ब्रह्मवृक्षः समिद्वरः 49<br />
<br />
पलाशो दीपनो वृष्यः सरोष्णो व्रणगुल्मजित<br />
भग्नसंधानकृद दोषग्रहण्यर्शः क्रिमीन हरेत 57<br />
<br />
तत्पुष्पं स्वादु पाके तु कटु तिक्तं कषायकम 51<br />
<br />
वातलं कफपित्तास्रकृच्छ्रजिद् ग्राहि शीतलम<br />
तृड्दाहशमकं वातरक्तकुष्ठहरं परम 52<br />
<br />
फलं लघूष्णं मेहार्शःकृमिवातकफापहम<br />
विपाके कटुकं रूक्षं कुष्ठं गुल्मोदरप्रणुत 53<br />
<br />
शाल्मलिस्तु भवेन्मोचा पिच्छिला पूरणीति च<br />
रक्तपुष्पा स्थिरायुश्च कण्टकाढ्या च तूलिनी 54<br />
<br />
शाल्मली शीतला स्वाद्वी रसे पाके रसायनी<br />
श्लेष्मला पित्तवातास्रहारिणी रक्तपित्तजित 55<br />
<br />
निर्यासः शाल्मलेः पिच्छा शाल्मलीवेष्टकोऽपि च<br />
मोचास्रावोमोचरसो मोचनिर्यास इत्यपि 56<br />
<br />
मोचास्रावो हिमो ग्राही स्निग्धो वृष्यः कषायकः<br />
प्रवाहिकाऽतिसारामकफपित्तास्रदाहनुत 57<br />
<br />
कुत्सितः शाल्मलि प्रोक्तो रोचनः कूटशाल्मलि<br />
कूटशाल्मलिकस्तिक्तः कटुकः कफवातनुत 58<br />
<br />
भेद्युष्णः प्लीहजठरयकृद्गुल्मविषापहः<br />
भूतानाहविबन्धास्रमेदः शूलकफापहः 59<br />
<br />
धवो धटो नन्दितरुः स्थिरो गौरो धुरन्धरः<br />
धवः शीतः प्रमेहार्शः पाण्डुपित्तकफापहः<br />
मधुरस्तुवरस्तस्य फलञ्च मधुरं मनाक 67<br />
<br />
धन्वङ्गस्तु धनुर्वृक्षो गोत्रवृक्षः सुतेजनः 61<br />
<br />
धन्वङ्गः कफपित्तास्रकासहृत्तुवरो लघुः<br />
बृंहणो बलकृद्रू क्षः सन्धिकृद् व्रणरोपणः 62<br />
<br />
करीरः क्रकरीपत्रो ग्रन्थिलो मरुभूरुहः<br />
करीरः कटुकस्तिक्त स्वेद्युष्णो भेदनः स्मृतः<br />
दुर्नामकफवातामगरशोथव्रणप्रणुत 63<br />
<br />
शाखोटः पीतफलको भूतावासः खरच्छदः<br />
शाखोटो रक्तपित्तार्शोवातश्लेष्मातिसारजित 64<br />
<br />
वरुणो वरणः सेतुस्तिक्तशाकः कुमारकः<br />
वरुणः पित्तलो भेदीश्लेष्मकृच्छ्राश्ममारुतान 65<br />
<br />
निहन्ति गुल्मवातास्रकृमींश्चोष्णोऽग्निदीपनः<br />
कषायो मधुरस्तिक्तः कटुकोरूक्षको लघुः 66<br />
<br />
कटभी स्वादुपुष्पश्च मधुरेणुः कटम्भरः<br />
कटभी तु प्रमेहार्शोनाडीव्रणविषक्रिमीन 67<br />
<br />
हन्त्युष्णा कफकुष्ठघ्नी कटू रूक्षा च कीर्तिता<br />
तत्फलं तुवरं ज्ञेयं विशेषात्कफशुक्रहृत 68<br />
<br />
मोक्षस्तु मोक्षकोऽपि स्याद् गोलीढोगोलिहस्तथा<br />
क्षारश्रेष्ठः क्षारवृक्षो द्विविधः श्वेतकृष्णकः 69<br />
<br />
मोक्षकः कटुकस्तिक्तो ग्राह्युष्णः कफवातहृत<br />
विषमेदोगुल्मकण्डूबस्तिरुक्कृमिशुक्रनुत 77<br />
<br />
शिरीषिका टिण्टिनिका दुर्बलाऽम्बुशिरीषिका<br />
त्रिदोषविषकुष्ठार्शोहरी वारिशिरीषिका 71<br />
<br />
शमी शक्तुफला तुङ्गा केशहन्त्री शिवाफला<br />
मंगल्या च तथा लक्ष्मीः शमीरः साऽल्पिका स्मृता 72<br />
<br />
शमी तिक्ता कटुः शीता कषाया रेचनी लघुः<br />
कफकासभ्रमश्वासकुष्ठार्शः कृमिजित् स्मृता 73<br />
<br />
सप्तपर्णो विशालत्वक् शारदो विषमच्छदः 74<br />
<br />
सप्तपर्णो व्रणश्लेष्मवातकुष्ठास्रजन्तुजित्<br />
दीपनः श्वासगुल्मघ्नः स्निग्धोष्णस्तुवरः सरः 75<br />
<br />
तिनिशः स्यन्दनो नेमी रथद्रुर्वञ्जुलस्तथा<br />
तिनिशः श्लेष्मपित्तास्रमेदःकुष्ठप्रमेहजित<br />
तुवरः श्वित्रदाहघ्नो व्रणपाण्डुकृमिप्रणुत 76<br />
<br />
भूमीसहो द्वारदारुर्वरदारुः खरच्छदः<br />
भूमीसहस्तु शिशिरो रक्तपित्तप्रसादनः 77<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे मिश्रप्रकरणे </span><br />
<span style="color: red;">षष्ठो वटादिवर्गः समाप्तः 6</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-632102517491198832015-07-12T20:22:00.001-07:002015-07-12T20:22:01.482-07:00अथ आम्रादिफलवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आम्रश्चूतो रसालश्च सहकारोऽतिसौरभः<br />
कामाङ्गो मधुदूतश्च माकन्दः पिकवल्लभः 1<br />
<br />
आम्रपुष्पमतीसारककफपित्तप्रमेहनुत<br />
असृग्दुष्टिहरं शीतं रुचिकृद् ग्राहि वातलम 2<br />
<br />
आमं बालं कषायाम्लं रुच्यं मारुतपित्तकृत<br />
तरुणं तु तदत्यम्लं रूक्षं दोषत्रयास्रकृत 3<br />
<br />
आम्रमामं त्वचाहीनमातपेऽतिविशोषितम<br />
अम्लं स्वादु कषायं स्याद्भेदनं कफवातजित 4<br />
<br />
पक्वं तु मधुरं वृष्यं स्निग्धं बलसुखप्रदम<br />
गुरु वातहरं हृद्यं वर्ण्यं शीतमपित्तलम<br />
कषायानुरसं वह्निश्लेश्मशुक्रविवर्द्धनम 5<br />
<br />
तदेव वृक्षसम्पक्वं गुरु वातहरं परम<br />
मधुराम्लरसं किञ्चिद्भवेत्पित्तप्रकोपणम 6<br />
<br />
आम्रं कृत्रिमपक्वञ्च तद्भवेत्पित्तनाशनम<br />
रसस्याम्लस्य हीनस्तु माधुर्याच्च विशेषतः 7<br />
<br />
चूषितं तत्परं रुच्यं बलवीर्यकरं लघु<br />
शीतलं शीघ्रपाकि स्याद्वातपित्तहरं सरम 8<br />
<br />
तद्र सो गालितो बल्यो गुरुर्वातहरः सरः<br />
अहृद्यस्तर्पणोऽतीव बृंहणः कफवर्द्धनः 9<br />
<br />
तस्य खण्डं गुरु परं रोचनं चिरपाकि च<br />
मधुरं बृंहणं बल्यं शीतलं वातनाशनम 10<br />
<br />
वातपित्तहरं रुच्यं बृंहणं बलवर्द्धनम<br />
वृष्यं वर्णकरं स्वादु दुग्धाम्र गुरु शीतलम 11<br />
<br />
मन्दानलत्वं विषमज्वरं च रक्तामयं बद्धगुदोदरं च<br />
आम्रातियोगो नयनामयं वा करोति तस्मादति तानि नाद्यात 12<br />
<br />
एतदम्लाम्रविषयं मधुराम्लपरं न तु<br />
मधुरस्य परं नेत्रहितत्वाद्या गुणा यतः 13<br />
<br />
शुण्ठ्यम्भसोऽनुपानं स्यादाम्राणामतिभक्षणे<br />
जीरकं वा प्रयोक्तव्यं सह सौवर्चलेन च 14<br />
<br />
पक्वस्य सहकारस्य पटे विस्तारितो रसः<br />
घर्मशुष्को मुहुर्दत्त आम्रावर्त्त इति स्मृतः 15<br />
<br />
आम्रावर्त्तस्तृषाच्छर्दि वातपित्तहरः सरः<br />
रुच्यः सूर्यांशुभिः पाकाल्लघुश्च स हि कीर्त्तितः 16<br />
<br />
आम्रबीजं कषायं स्याच्छर्द्यतीसारनाशनम<br />
ईषदम्लञ्च मधुरं तथा हृदयदाहनुत 17<br />
<br />
आम्रस्य पल्लवो रुच्यः कफपित्तविनाशनः 18<br />
<br />
आम्रातकः पीतनश्च मर्कटाम्रः कपीतनः<br />
आम्रातमम्लं वातघ्नं गुरूष्णं रुचिकृत्सरम 19<br />
<br />
पक्वन्तु तुवरं स्वादु रसे पाके हिमं स्मृतम<br />
तर्पणं श्लेष्मलं स्निग्धं वृष्यं विष्टम्भि बृंहणम<br />
गुरु बल्यं मरुत्पित्तक्षतदाहक्षयास्रजित 20<br />
<br />
राजाम्रष्टङ्क आम्रातः कामाह्वो राजपुत्रकः 21<br />
<br />
राजाम्रं तुवरं स्वादु विशदं शीतलं गुरु<br />
ग्राहि रूक्षं विबन्धाध्मवातकृत्कफपित्तनुत 22<br />
<br />
कोशाम्र उक्तः क्षुद्रा म्रः कृमिवृक्षः सुकोशकः<br />
कोशाम्रः कुष्ठशोथास्रपित्तव्रणकफापहः 23<br />
<br />
तत्फलं ग्राहि वातघ्नमम्लोष्णं गुरु पित्तलम<br />
पक्वन्तु दीपनं रुच्यं लघूष्णं कफवातनुत 24<br />
<br />
पनशः कण्टकिफलः पलसोऽतिबृहत्फलः<br />
पनसं शीतलं पक्वं स्निग्धं पित्तानिलापहम 25<br />
<br />
तर्पणं बृंहणं स्वादु मांसलं श्लेष्मलंभृशम<br />
बल्यं शुक्रपदं हन्ति रक्तपित्तक्षतव्रणान 26<br />
<br />
आमं तदेव विष्टम्भि वातलं तुवरं गुरु<br />
दाहकृन्मधुरं बल्यं कफमेदोविवर्द्धनम 27<br />
<br />
पनसोद्भूतबीजानि वृष्याणि मधुराणि च<br />
गुरूणि बद्धविट्कानि सृष्टमूत्राणि संवदेत 28<br />
<br />
मज्जा पनसजो वृष्यो वातपित्तकफापहः<br />
विशेषात्पनसो वर्ज्यो गुल्मिभिर्मन्दवह्निभिः 29<br />
<br />
लकुचः छुद्र पनसो लिकुचो डहुर्रित्यपि<br />
आमं लकुचमुष्णञ्च गुरु विष्टम्भकृत्तथा 30<br />
<br />
मधुरश्च तथाऽम्लञ्च दोषत्रितयरक्तकृत<br />
शुक्राग्निनाशनं वाऽपि नेत्रयोरहितं स्मृतम 31<br />
<br />
सुपक्वं तत्तु मधुरमम्लं चानिलपित्तहृत्<br />
कफवह्निकरं रुच्यं वृष्यं विष्टम्भकञ्च तत 32<br />
<br />
कदली वारणा मोचाऽम्बुसारांऽशुमतीफला<br />
मोचाफलं स्वादु शीतं विष्टम्भि कफकृद गुरु 33<br />
<br />
स्निग्धं पित्तास्रतृड्दाहक्षतक्षयसमीरजित<br />
पक्वं स्वादु हिमं पाके स्वादु वृष्यञ्च बृंहणम<br />
क्षुत्तृष्णानेत्रगदहृन्मेहघ्नं रुचिमांसकृत 34<br />
<br />
माणिक्यमर्त्यामृतचम्पकाद्या भेदाः कदल्या बहवोऽपि सन्ति<br />
उक्ता गुणास्तेष्वधिका भवन्ति निर्दोषता स्याल्लघुता च तेषाम 35<br />
<br />
चिर्भिटं धेनुदुग्धं च तथा गोरक्षकर्कटी 36<br />
<br />
चिर्भिटं मधुरं रूक्षं गुरु पित्तकफापहम<br />
अनुष्णं ग्राहि विष्टम्भि पक्वं तूष्णञ्च पित्तलम 37<br />
<br />
नारिकेलो दृढफलो लाङ्गली कूर्चर्श्षकः<br />
तुङ्गः स्कन्धफलश्चैव तृणराजः सदाफलः 38<br />
<br />
नारिकेलफलं शीतं दुर्जरं बस्तिशोधनम<br />
विष्टम्भि बृंहणं बल्यं वातपित्तास्रदाहनुत 39<br />
<br />
विशेषतः कोमलनारिकेलं निहन्ति पित्तज्वरपित्तदोषान<br />
तदेव जीर्णं गुरु पित्तकारि विदाहि विष्टम्भि मतं भिषग्भिः 40<br />
<br />
तस्याम्भः शीतलं हृद्यं दीपनं शुक्रलं लघु<br />
पिपासापित्तजित्स्वादु बस्तिशुद्धिकरं परम 41<br />
<br />
नारिकेलस्य तालस्य खर्जूरस्य शिरांसि तु <br />
कषायस्निग्धमधुरबृंहणानि गुरूणि च 42<br />
<br />
कालिन्दं कृष्णबीजं स्यात्कालिङ्गञ्च सुवर्त्तुलम<br />
कालिन्दं ग्राहि दृक्पित्त शुक्र हृच्छीतलं गुरु<br />
पक्वन्तु सोष्णं सक्षारं पित्तलं कफवातजित 43<br />
<br />
दशाङ्गुलं तु खर्बूजं कथ्यन्ते तद्गुणा अथ 44<br />
<br />
खर्बूजं मूत्रलं बल्यं कोष्ठशुद्धिकरं गुरु<br />
स्निग्धं स्वादुतरं शीतं वृष्यं पित्तानिलापहम 45<br />
<br />
तेषु यच्चाम्लमधुरं सक्षारञ्च रसाद्भवेत<br />
रक्तपित्तकरं तत्तु मूत्रकृच्छ्रकरं परम 46<br />
<br />
त्रपुसं कण्टकिफलं सुधावासः सुशीतलम<br />
त्रपुसं लघु नीलञ्च नवं तृट्क्लमदाहजित 47<br />
<br />
स्वादु पित्तापहं शीतं रक्तपित्तहरं परम<br />
तत्पक्वमम्लमुष्णं स्यात्पित्तलं कफवातनुत<br />
तद्बीजं मूत्रलं शीतं रूक्षं पित्तास्रकृच्छ्रजित 48<br />
<br />
घोरण्टः पूगी पूगश्च गुवाकः क्रमुकोऽस्य तु<br />
फलं पूगीफलं प्रोक्तमुद्वेगं च तदीरितम 49<br />
<br />
पूगं गुरु हिमं रूक्षं कषायं कफपित्तजित<br />
मोहनं दीपनं रुच्यमास्यवैरस्यनाशनम 50<br />
<br />
आद्ररं! तद् गुर्वभिष्यन्दि वह्निदृष्टिहरं स्मृतम<br />
स्विन्नं दोषत्रयच्छेदि दृढमध्यं तदुत्तमम 51<br />
<br />
तालस्तु लेख्यपत्रः स्यात्तृणराजो महोन्नतः 52<br />
<br />
पक्वं तालफलं पित्तरक्तश्लेष्मविवर्द्धनम<br />
दुर्जरं बहुमूत्रञ्च तन्द्रा ऽभिष्यन्दशुक्रदम 53<br />
<br />
तालमज्जा तु तरुणः किञ्चिन्मदकरो लघुः<br />
श्लेष्मलो वातपित्तघ्नः सस्नेहो मधुरः सरः 54<br />
<br />
तालजं तरुणं तोयमतीव मदकृन्मतम<br />
अम्लीभूतं तदा तु स्यात्पित्तकृद्वातदोषहृत 55<br />
<br />
बिल्वः शाण्डिल्यशैलूषौ मालूरश्रीफलावपि<br />
बालं बिल्बफलं बिल्वकर्कटी बिल्वपेशिका<br />
ग्राहिणी कफवातामशूलघ्नी बिल्वपेषिका 56<br />
<br />
बालं बिल्वफलं ग्राहि दीपनं पाचनं कटु<br />
कषायोष्णं लघु स्निग्धं तिक्तं वातकफापहम 57<br />
<br />
पक्वं गुरु त्रिदोषं स्याद दुर्जरं पूतिमारुतम<br />
विदाहि विष्टम्भकरं मधुरं वह्निमान्द्यकृत 58<br />
<br />
फलेषु परिपक्वं यद् गुणवत्तदुदाहृतम 59<br />
<br />
बिल्वादन्यत्र विज्ञेयमामं तद्धि गुणाधिकम्<br />
द्राक्षाबिल्वशिवाऽदीनां फलं शुष्कं गुणाधिकम 60<br />
<br />
कपित्थस्तु दधित्थः स्यात्तथा पुष्पफलः स्मृतः<br />
कपिप्रियो दधिफलस्तथा दन्तशठोऽपि च 61<br />
<br />
कपित्थमामं संग्राहि कषायं लघु लेखनम <br />
पक्वं गुरु तृषाहिक्काशमनं वातपित्तजित<br />
स्यादम्लं तुवरं कण्ठशोधनं ग्राहि दुर्जरम 62<br />
<br />
नारङ्गो नागरङ्गः स्यात्त्वक्सुगन्धो मुखप्रियः 63<br />
<br />
नारङ्गो मधुराम्लः स्याद्रो चनो वातनाशनः<br />
अपरं त्वम्लमत्युष्णं दुर्जरं वातहृत सरम 64<br />
<br />
तिन्दुकः स्फूर्जकः कालस्कन्धश्चासितकारकः<br />
स्यादामं तिन्दुकं ग्राहि वातलं शीतलं लघु<br />
पक्वं पित्तप्रमेहास्रश्लेष्मघ्नं मधुरं गुरु 65<br />
<br />
तिन्दुको यस्तु कथितो जलदो दीर्घपत्रकः 66<br />
<br />
कुपीलुः कुलकः काकतिन्दुकः काकपीलुकः<br />
काकेन्दुर्विषतिन्दुश्च तथा मर्कटतिन्दुकः 67<br />
<br />
कुपीलुः शीतलं तिक्तं वातलं मदकृल्लघु <br />
परं व्यथाहरं ग्राहि कफपित्तास्रनाशनम 68<br />
<br />
फलेन्द्रा कथिता नन्दी राजजम्बूर्महाफला<br />
तथा सुरभिपत्रा च महाजम्बूरपि स्मृता<br />
राजजम्बूफलं स्वादु विष्टम्भि गुरु रोचनम 69<br />
<br />
क्षुद्र जम्बुः सूक्ष्मपत्रा नादेयी जलजम्बुका<br />
जम्बूः संग्राहिणी रूक्षा कफपित्तास्रदाहजित 70<br />
<br />
पुंसि स्त्रियाञ्च कर्कन्धूर्बदरी कोलमित्यपि 71<br />
<br />
फेनिलं कुवलं घोण्टा सौवीरं बदरं महत<br />
अजप्रिया कुहा कोली विषमोभयकण्टका 72<br />
<br />
पच्यमानं सुमधुरं सौवीरं बदरं महत<br />
सौवीरं बदरं शीतं भेदनं गुरु शुक्रलम 73<br />
<br />
बृंहणं पित्तदाहास्रक्षयतृष्णानिवारणम<br />
सौवीरं लघु सम्पक्वं मधुरं कोलमुच्यते 74<br />
<br />
कोलन्तु बदरं ग्राहि रुच्यमुष्णञ्च वातहृत<br />
कफपित्तकरं चापि गुरु सारकमीरितम 75<br />
<br />
कर्कन्धूः क्षुद्र वदरं कथितं पूर्वसूरिभिः<br />
अम्लं स्यात्क्षुद्र वदरं कषायं मधुरं मनाक 76<br />
<br />
स्निग्धं गुरु च तिक्तञ्च वातपित्तापहं स्मृतम<br />
शुष्कं भेद्यग्निकृत्सर्वं लघु तृष्णाक्लमास्रजित 77<br />
<br />
प्राचीनामलकं लोके पानीयामलकं स्मृतम<br />
प्राचीनामलकं दोषत्रयजिज्ज्वरघाति च 78<br />
<br />
सुगन्धमूला लवली पाण्डुः कोमलवल्कला 79<br />
<br />
लवलीफलमश्मार्शःकफपित्तहरं गुरु<br />
विशदं रोचनं रूक्षं स्वाद्वम्लं तुवरं रसे 80<br />
<br />
करमर्दः सुषेणः स्यात्कृष्णपाकफलस्तथा<br />
तस्माल्लघुफला या तु सा ज्ञेया करमर्दिका 81<br />
<br />
करमर्दद्वयं त्वाममम्लं गुरु तृषाहरम<br />
उष्णं रुचिकरं प्रोक्तं रक्तपित्तकफप्रदम<br />
तत्पक्वं मधुरं रुच्यं लघु पित्तसमीरजित 82<br />
<br />
प्रियालस्तु खरस्कन्धश्चारो बहुलवल्कलः<br />
राजादनस्तापसेष्टः सन्नकद्रुर्धनुष्पटः 83<br />
<br />
चारः पित्तकफास्रघ्नस्तत्फलं मधुरं गुरु<br />
स्निग्धं सरं मरुत्पित्तदाहज्वरतृषाऽपहम 84<br />
<br />
प्रियालमज्जा मधुरो वृष्यः पित्तानिलापहः<br />
हृद्योऽतिदुर्जरः स्निग्धो विष्टम्भी चामवर्द्धनः 85<br />
<br />
राजादनः फलाध्यक्षो राजन्या क्षीरिकाऽपि च 86<br />
<br />
क्षीरिकायाः फलं वृष्यं बल्यं स्निग्धं हिमं गुरु <br />
तृष्णामूर्च्छामदभ्रान्तिक्षयदोषत्रयास्रजित 87<br />
<br />
विकङ्कतः स्रुवावृक्षो ग्रन्थिलः स्वादुकण्टकः<br />
स एव यक्षवृक्षश्च कण्टकी व्याघ्रपादपि<br />
विकङ्कतफलं पक्वं मधुरं सर्वदोषजित 88<br />
<br />
पद्मबीजं तु पद्माक्षं गालोड्यं पद्मकर्कटी<br />
पद्मबीजं हिमं स्वादु कषायं तिक्तकं गुरु 89<br />
<br />
विष्टम्भि वृष्यं रूक्षञ्च गर्भसंस्थापकं परम<br />
कफवातकरं बल्यं ग्राहि पित्तास्रदाहनुत 90<br />
<br />
मखान्नं पद्मबीजाभं पानीयफलमित्यपि<br />
मखान्नं पद्मबीजस्य गुणैस्तुल्यं विनिर्दिशेत 91<br />
<br />
शृङ्गाटकं जलफलं त्रिकोणफलमित्यपि 92<br />
<br />
शृङ्गाटकं हिमं स्वादु गुरु वृष्यं कषायकम<br />
ग्राही शुक्रानिलश्लेष्मप्रदं पित्तास्रदाहनुत 93<br />
<br />
उक्तं कुमुदबीजन्तु बुधैः कैरविणीफलम<br />
भवेत्कुमुद्वतीबीजं स्वादु रूक्षं हिमं गुरु 94<br />
<br />
मधूको गुडपुष्पः स्यान्मधुपुष्पो मधुस्रवः<br />
वानप्रस्थो मधुष्ठीलो जलजेऽत्र मधूलकः 95<br />
<br />
मधूकपुष्पं मधुरं शीतलं गुरु बृंहणम<br />
बलशुक्रकरं प्रोक्तं वातपित्तविनाशनम 96<br />
<br />
फलं शीतं गुरु स्वादु शुक्रलं वातपित्तनुत<br />
अहृद्यं हन्ति तृष्णाऽस्रदाहश्वासक्षतक्षयान 97<br />
<br />
परूषकं तु परुषमल्पास्थि च परापरम<br />
परूषकं कषायाम्लमामं पित्तकरं लघु 98<br />
<br />
तत्पक्वं मधुरं पाके शीतं विष्टम्भि बृंहणम <br />
हृद्यन्तु पित्तदाहास्रज्वरक्षयसमीरहृत 99<br />
<br />
तूतस्तूलश्च पूगश्च क्रमुको ब्रह्मदारु च<br />
तूतं पक्वं गुरु स्वादु हिमं पित्तानिलापहम<br />
तदेवामं गुरु सरमम्लोष्णं रक्तपित्तकृत 100<br />
<br />
दाडिमः करको दन्तबीजो लोहितपुष्पकः<br />
तत्फलं त्रिविधं स्वादु स्वाद्वम्लं केवलाम्लकम 101<br />
<br />
तत्तु स्वादु त्रिदोषघ्नं तृड्दाहज्वरनाशनम<br />
हृत्कण्ठमुखगन्धघ्नं तर्पणं शुक्रलं लघु 102<br />
<br />
कषायानुरसं ग्राहि स्निग्धं मेधाबलावहम 103<br />
<br />
स्वाद्वम्लं दीपनं रुच्यं किञ्चित्पित्तकरं लघु<br />
अम्लन्तु पित्तजनकमामं वातकफापहम 104<br />
<br />
अथ बहुवारः इलिसोडांइ! तस्य नामानि<br />
बहुवारस्तु शीतः स्यादुद्दालो बहुवारकः<br />
शेलुः श्लेष्मातकश्चापि पिच्छिलो भूतवृक्षकः 105<br />
<br />
बहुवारो विषस्फोटव्रणवीसर्पकुष्ठनुत<br />
मधुरस्तुवरस्तिक्तः केश्यश्च कफपित्तहृत 106<br />
<br />
फलमामन्तु विष्टम्भि रूक्षं पित्तकफास्रजित<br />
तत्पक्वं मधुरं स्निग्धं श्लेष्मलं शीतलं गुरु 107<br />
<br />
पयः प्रसादी कतकः कतकं तत्फलं च तत<br />
कतकस्य फलं नेत्र्! यं जलनिर्मलताकरम<br />
वातश्लेष्महरं शीतं मधुरं तुवरं गुरु 108<br />
<br />
द्राक्षास्वादुफला प्रोक्ता तथा मधुरसाऽपि च<br />
मृद्वीका हारहूरा च गोस्तनी चापि कीर्त्तिता 109<br />
<br />
द्राक्षा पक्वा सरा शीता चक्षुष्या बृंहणी गुरुः<br />
स्वादुपाकरसा स्वर्या तुवरा सृष्टमूत्रविट 110<br />
<br />
कोष्ठमारुतकृद् वृष्या कफपुष्टिरुचिप्रदा 111<br />
<br />
हन्ति तृष्णाज्चरश्वासवातवातास्रकामलाः<br />
कृच्छ्रास्रपित्तसंमोहदाहशोषमदात्ययान 112<br />
<br />
आमा स्वल्पगुणा गुर्वी सैवाम्ला रक्तपित्तकृत<br />
वृष्या स्याद गोस्तनी द्राक्षा गुर्वी च कफपित्तनुत 113<br />
<br />
अबीजाऽन्या स्वल्पतरा गोस्तनीसदृशी गुणैः<br />
द्राक्षा पर्वतजा लघ्वी साऽम्ला श्लेष्माम्लपित्तकृत<br />
द्राक्षा पर्वतजा यादृक तादृशी करमर्दिका 114<br />
<br />
भूमिखर्जूरीका स्वाद्वी दुरारोहाः मृदुच्छदा <br />
तथा स्कन्धफला काककर्कटी स्वादुमस्तका 115<br />
<br />
पिण्डखर्जूरिका त्वन्या सा देशे पश्चिमे भवेत<br />
खर्जुरी गोस्तनाकारा परद्वीपादिहागता 116<br />
<br />
जायते पश्चिमे देशे सा छोहारेति कीत्तर्यते<br />
खर्जूरीत्रितयं शीतं मधुरं रसपाकयोः 117<br />
<br />
स्निग्धं रुचिकरं हृद्यं क्षतक्षयहरं गुरु<br />
तर्पणं रक्तपित्तघ्नं पुष्टिविष्टम्भशुक्रदम 118<br />
<br />
कोष्ठमारुतहृद् बल्यं वान्तिवातकफापहम<br />
ज्वरातिसारक्षुत्तृष्णाकासश्वासनिवारकम 119<br />
<br />
मदमूर्च्छामरुत्पित्तमद्योद्भूतगदान्तकृत<br />
महतीभ्यां गुणैरल्पास्वल्पखर्जूरिका स्मृता 120<br />
<br />
खर्जूरीतरुतोयं तु मदपित्तकरं भवेत<br />
वातश्लेष्महरं रुच्यं दीपनं बलशुक्रकृत 121<br />
<br />
सुलेमानी तु मृदुला दलहीनफला च सा<br />
सुलेमानी श्रमभ्रान्तिदाहमूर्च्छाऽस्रपित्तहृत 122<br />
<br />
वातादौ वातवैरी स्यान्नेत्रोपमफलस्तथा<br />
वातादः उष्णः सुस्निग्धो वातघ्नः शुक्रकृद गुरुः 123<br />
<br />
वातादमज्जा मधुरो वृष्यः पित्तानिलापहः<br />
स्निग्धोष्णः कफकृन्नेष्टो रक्तपित्तविकारिणाम 124<br />
<br />
मुष्टिप्रमाणं बदरं सेवं सिवितिकाफलम 125<br />
<br />
सेवं समीरपित्तघ्नं बृंहणं कफकृद गुरु<br />
रसे पाके च मधुरं शिशिरं रुचिशुक्रकृत 126<br />
<br />
अमृतफलं लघु वृष्यं सुस्वादु त्रीन्हरेद्दोषान<br />
देशेषु मुद्गलानां-बहुलं तल्लभ्यते लोकैः 127<br />
<br />
पीलुर्गुडफलः स्रंसी तथा शीतफलोऽपि च<br />
पीलु श्लेष्मसमीरघ्नं पित्तलं भेदि गुल्मनुत<br />
स्वादु तिक्तञ्च यत्पीलु तन्नात्युष्णं त्रिदोषहृत 128<br />
<br />
पीलुः शैलभवोऽक्षोटः कर्परालश्च कीर्तितः<br />
अक्षोटकोपि वातादसदृशः कफपित्तकृत 129<br />
<br />
बीजपूरो मातुलुङ्गो रुचकः फलपूरकः<br />
बीजपूरफलं स्वादु रसेऽम्ल दीपनं लघु 130<br />
<br />
रक्तपित्तहरं कण्ठजिह्वाहृदयशोधनम<br />
श्वासकासारुचिहरं हृद्यं तृष्णाहरं स्मृतम 131<br />
<br />
बीजपूरोऽपरः प्रोक्तो मधुरो मधुकर्कटी 132<br />
<br />
मधुकर्कटिका स्वाद्वी रोचनी शीतला गुरुः<br />
रक्तपित्तक्षयश्वासकासहिक्काभ्रमापहा 133<br />
<br />
स्याज्जम्बीरो दन्तशठो जम्भजम्भीरजम्भलाः<br />
जम्बीरमुष्णं गुर्वम्लं वातश्लेष्मविबन्धनुत 134<br />
<br />
शूलकासकफोत्क्लेशच्छर्दितृष्णाऽमदोषजित<br />
आस्यवैरस्यहृत्पीडावह्निमान्द्यक्रिमीन हरेत<br />
स्वल्पजम्बीरिका तद्वत्तृष्णाच्छर्दिनिवारिणी 135<br />
<br />
निम्बूः स्त्री निम्बुकं क्लीबे निम्बूकमपि कीर्त्तितम<br />
निम्बूकमम्लं वातघ्नं दीपनं पाचनं लघु 136<br />
<br />
निम्बुकं कृमिसमूहनाशनं तीक्ष्णमम्लमुदरग्रहापहम<br />
वातपित्तकफशूलिने हितं कष्टनष्टरुचिरोचनं परम 137<br />
<br />
त्रिदोषवह्निक्षयवातरोगनिपीडितानां विषविह्वलानाम<br />
मन्दानले बद्धगुदे प्रदेयं विषूचिकायां मुनयो वदन्ति 138<br />
<br />
मिष्टनिम्बूफलं स्वादु गुरु मारुतपित्तनुत 139<br />
<br />
गलरोगविषध्वंसिकफोत्क्लेशि च रक्तहृत<br />
शोषारुचितृषाच्छर्दिहरं बल्यञ्च बृंहणम 140<br />
<br />
कर्मरङ्गं शिरालं च बृहदम्लं रुजाकरम<br />
कर्मरङ्गं हिमं ग्राहि स्वाद्वम्लं कफवातहृत 141<br />
<br />
अम्लिका चुक्रिकाऽम्ली च चुका दन्तशठाऽपि च<br />
अम्ला च चिञ्चिका चिञ्चा तिन्तिडीका च तिन्तिडी 142<br />
<br />
अम्लिकाऽम्ला गुरुर्वातहरी पित्तकफास्रकृत<br />
पक्वा तु दीपनी रूक्षा सरोष्णा कफवातनुत 143<br />
<br />
स्यादम्लवेतसश्चुक्रं शतवेधि सहस्रनुत<br />
अम्लवेतसमत्यम्लं भेदनं लघु दीपनम 144<br />
<br />
हृद्रो गशूलगुल्मघ्नं पित्तलं लोमहर्षणम<br />
रूक्षं विण्मूत्रदोषघ्नं प्लीहोदावर्त्तनाशनम 145<br />
<br />
हिक्काऽनाहारुचिश्वासकासाजीर्णवमिप्रणुत<br />
कफवातामयध्वंसिच्छागमांसद्र वत्वकृत<br />
चणकाम्लगुणं ज्ञेयं लोहसूचीद्र वत्वकृत 146<br />
<br />
वृक्षाम्लं तिन्तिडीकञ्चचुक्रं स्यादम्लवृक्षकम<br />
वृक्षाम्लमाममम्लोष्णं वातघ्नं कफपित्तलम 147<br />
<br />
पक्वन्तु गुरु संग्राहि कटुकं तुवरं लघु 148<br />
<br />
अम्लोष्णं रोचनं रूक्षं दीपनं कफवातकृत<br />
तृष्णाऽशोग्रहणीगुल्मशूलहृद्रो गजन्तुजित 149<br />
<br />
अम्लवेतसवृक्षाम्लबृहज्जम्बीरनिम्बुकैः<br />
चतुरम्लं हि पञ्चाम्लं बीजपूरयुतैर्भवेत 150<br />
<br />
फलेषु परिपक्वं यद् गुणवत्तदुदाहृतम<br />
बिल्वादन्यत्र विज्ञेयमामं तद्धि गुणाधिकम<br />
फलेषु सरसं यत्स्याद गुणवत्तदुदाहृतम 151<br />
<br />
द्राक्षाबिल्वशिवाऽदीनां फलं शुष्कं गुणाधिकम<br />
फलतुल्यगुणं सर्वं मज्जानमपि निर्दिशेत 152<br />
<br />
फलं हिमाग्निदुर्वातव्यालकीटादिदूषितम<br />
अकालजं कुभूमीजं पाकातीतं न भक्षयेत 153<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे मिश्रप्रकरणे </span><br />
<span style="color: red;">सप्तम आम्रादिफलवर्गः समाप्तः 7</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-48950539955627157542015-07-12T20:20:00.002-07:002015-07-12T20:20:45.899-07:00अथाष्टमो धात्वादिवर्गोपरनामको धातूपधातुरसोपरसरत्नोपरत्नविषोपविषवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
स्वर्णं रूप्यञ्च ताम्रं च रङ्गं यशदमेव च<br />
सीसं लौहञ्च सप्तैते धातवो गिरिसम्भवः 1<br />
<br />
वली पलित खालित्य कार्श्याबल्य जरामयान<br />
निवार्य देहं दधति नृणां तद्धातवो मताः 2<br />
<br />
पुरा निजाश्रमस्थानां सप्तर्षीणां जितात्मनाम<br />
पत्नीर्विलोक्य लावण्यलक्ष्मीसम्पन्नयौवनाः 3<br />
<br />
कन्दर्पदर्पविध्वस्तचेतसो जातवेदसः<br />
पतितं यद्धरापृष्ठे रेतस्तद्धेमतामगात<br />
कृत्रिमञ्चापि भवति तद्र सेन्द्र स्य वेधतः 4<br />
<br />
स्वर्णं सुवर्णं कनकं हिरण्यं हेम हाटकम 5<br />
<br />
तपनीयं च गाङ्गेयं कलधौतञ्च काञ्चनम<br />
चामीकरं शातकुम्भं तथा कार्त्तस्वरं च तत 6<br />
<br />
जाम्बूनदं जातरूपं महारजतमित्यपि 7<br />
<br />
दाहे रक्तं सितं छेदे निकषे कुङ्कुमप्रभम<br />
तारशुल्वोज्झितं स्निग्धं कोमलं गुरु हेम सत 8<br />
<br />
तच्छ्वेतं कठिनं रूक्षं विवर्णं समलं दलम<br />
दाहे छेदेऽसितं श्वेतं कषे त्याज्यं लघु स्फुटम 9<br />
<br />
सुवर्णं शीतलं वृष्यं बल्यं गुरु रसायनम<br />
स्वादु तिक्तं च तुवरं पाके च स्वादु पिच्छिलम 10<br />
<br />
पवित्रं बृंहणं नेत्र्यं मेधास्मृतिमतिप्रदम<br />
हृद्यमायुष्करं कान्तिवाग्विशुद्धिस्थिरत्वकृत<br />
विषद्वयक्षयोन्मादत्रिदोषज्वरशोषजित 11<br />
<br />
बलं सवीर्यं हरते नराणां रोगव्रजान् पोषयतीह काये<br />
असौख्यकृच्चापि सदा सुवर्णमशुद्धमेतन्मरणञ्च कुर्यात 12<br />
<br />
असम्यङ्मारितं स्वर्णं बलं वीर्य्यञ्च नाशयेत<br />
करोति रोगान् मृत्युं च तद्धन्याद्यत्नतस्ततः 13<br />
<br />
त्रिपुरस्य वधार्थाय निर्निमेषैर्विलोचनैः<br />
निरीक्षयामास शिवः क्रोधेन परिपूरितः 14<br />
<br />
अग्निस्तत्कालमपतत्तस्यकस्माद्विलोचनात<br />
ततो रुद्रः! समभवद वैश्वानर इव ज्वलन 15<br />
<br />
द्वितीयादपतन्नेत्रादश्रुबिन्दुस्तु वामकात<br />
तस्माद्र जतमुत्पन्नमुक्तकर्मसु योजयेत 16<br />
<br />
कृत्रिमं च भवेत्तद्धि वङ्गादिरसयोगतः 17<br />
रूप्यं तु रजतं तारं चन्द्र कान्ति सितप्रभम 18<br />
<br />
गुरु स्निग्धं मृदु श्वेतं दाहे छेदे घनक्षमम<br />
वर्णाढ्यं चन्द्र वत्स्वच्छं रूप्यं नवगुणं शुभम<br />
कठिनं कृत्रिमं रूक्षं रक्तं पीतदलं लघु<br />
दाहच्छेदघनैर्नष्टं रूप्यं दुष्टं प्रकीर्त्तितम 19<br />
<br />
रूप्यं शीतं कषायाम्लं स्वादुपाकरसं सरम<br />
वयसः स्थापनं स्निग्धं लेखनं वातपित्तजित<br />
प्रमेहादिकरोगांश्च नाशयत्यचिराद ध्रुवम 20<br />
<br />
तारं शरीरस्य करोति तापं विध्वंसनं यच्छति शुक्रनाशम<br />
वीर्यं बलं हन्ति तनोश्च पुष्टिं महागदान्पोषयति ह्यशुद्धम 21<br />
<br />
शुक्रं यत् कार्त्तिकेयस्य पतितं धरणीतले <br />
तस्मात्ताम्रं समुत्पन्नमिदमाहुः पुराविदः 22<br />
<br />
ताम्रमौदुम्बरं शुल्वमुदुम्बरमपि स्मृतम<br />
रविप्रियं म्लेच्छमुखं सूर्यपर्यायनामकम 23<br />
<br />
जपाकुसुमसङ्काशं स्निग्धं मृदु घनक्षमम<br />
लौहनागोज्झितं ताम्रं मारणाय प्रशस्यते 24<br />
<br />
कृष्णं रूक्षमतिस्तब्धं श्वेतञ्चापि घनासहम<br />
लौहनागयुतञ्चेति शुल्बं दुष्टं प्रकीर्त्तितम 25<br />
<br />
ताम्रं कषायं मधुरं च तिक्तमम्लं च पाके कटु सारकं च<br />
पित्तापहं श्लेष्महरं च शीतं तद्रो पणं स्याल्लघु लेखनञ्च 26<br />
<br />
पाण्डूदरार्शोज्व्रकुष्ठकासश्वासक्षयान् पीनसमम्लपित्तम<br />
शोथं कृमिं शूलमपाकरोति प्राहुः परे बृंहणमल्पमेतत 27<br />
<br />
एको दोषो विषे ताम्रेत्वसम्यङ्मारितेऽष्टते<br />
दाहः स्वेदोऽरुचिर्मूर्च्छाक्लेदो रेको वमिर्भ्रमः 28<br />
<br />
रङ्गं वङ्गं त्रपु प्रोक्तं तथा पिच्चटमित्यपि<br />
क्षुरकं मिश्रकं चापि द्विविधं वङ्ग मुच्यते 29<br />
<br />
उत्तमं क्षुरकं तत्र मिश्रकं त्ववरं मतम 30<br />
<br />
रङ्गं लघु सरं रूक्षमुष्णं मेहकफक्रिमीन<br />
निहन्ति पाण्डुं सश्वासं चक्षुष्यं पित्तलं मनाक 31<br />
<br />
सिंहो यथा हस्तिगणं निहन्ति तथैव वङ्गोऽखिलमेहवर्गम<br />
देहस्य सौख्यं प्रबलेन्द्रि यत्वं नरस्य पुष्टिं विदधाति नूनम 32<br />
<br />
यशदं रङ्गसदृशं रीतिहेतुश्च तन्मतम्<br />
यशदं तुवरं तिक्तं शीतलं कफपित्तहृत्<br />
चक्षुष्यं परमं मेहान पाण्डुं श्वासं च नाशयेत 33<br />
<br />
दृष्ट्वा भोगिसुतां रम्यां वासुकिस्तुमुमोच यत<br />
वीर्यं जातस्ततो नागः सर्वरोगापहा नृणाम 34<br />
<br />
सीसं ब्रध्नं च वप्रं च योगेष्टं नागनामकम 35<br />
<br />
सीसं रङ्गगुणं ज्ञेयं विशेषान्मेहनाशनम 36<br />
<br />
नागस्तु नागशततुल्यबलं ददाति व्याधिं विनाशयति जीवनमातनोति<br />
बह्निं प्रदीपयति कामबलं करोति मृत्युं च नाशयति सन्ततसेवितः सः37<br />
<br />
पाकेन हीनौ किल वङ्गनागौ कुष्ठानि गुल्मांश्च तथाऽतिकष्टान<br />
कण्डूप्रमेहानिलसादशोथभगन्दरादीन कुरुतः प्रयुक्तौ 38<br />
<br />
पुरा लोमिनदैत्यानां निहतानां सुरैर्युधि<br />
उत्पन्नानि शरीरेभ्यो लोहानि विविधानि च<br />
लोहोऽस्त्री शस्त्रकं तीक्ष्णं पिण्डं कालायसायसी 39<br />
<br />
गुरुता दृढतोत्क्लेदः कश्मलं दाहकारिता<br />
अश्मदोषः सुदुर्गन्धो दोषाः सप्तायसस्य तु 40<br />
<br />
लोहं तिक्तं सरं शीतं मधुरं तुवरं गुरु<br />
रूक्षं वयस्यं चक्षुष्यं लेखनं वातलं जयेत 41<br />
<br />
कफं पित्तं गरं शूलं शोथार्शः प्लीहपाण्डुताः<br />
मेदोमेहकृमीन् कुष्ठं तत्किट्टं तद्वदेव हि 42<br />
<br />
षण्ढत्वकुष्ठामयमृत्युदं भवेद् हृद्रो गशूलौ कुरुतेऽश्मरीञ्च<br />
नानारुजानाञ्च तथा प्रकोपं करोति हृल्लासमशुद्धलोहम 43<br />
<br />
जीवहारि मदकारि चायसं चेदशुद्धिमदसंस्कृतं ध्रुवम<br />
पाटवं न तनुते शरीरके दारुणां हृदि रुजाञ्च यच्छति 44<br />
<br />
कूष्माण्डं तिलतैलञ्च माषान्नं राजिकां तथा<br />
मद्यम्लरसं चापि त्यजेल्लोहस्य सेवकः 45<br />
<br />
क्षमाभृच्छिखराकाराण्यङ्गान्यम्लेन लेपिते<br />
लौहे स्युर्यत्र सूक्ष्माणि तत्सारमभिधीयते<br />
लौहं साराह्वयं हन्याद ग्रहणीमतिसारकम 46<br />
<br />
अर्द्धं सर्वाङ्गजं वातं शूलं च परिणामजम<br />
छर्दिं च पीनसं पित्तं श्वासं कासं व्यपोहति 47<br />
<br />
यत्पात्रे न प्रसरति जले तैलविन्दुः प्रतप्ते<br />
हिङ्गुर्गन्धं त्यजति च निजं तिक्ततां निम्बवल्कः<br />
तप्तं दुग्धं भवति शिखराकारकंनैति भूमिं<br />
कृष्णाङ्गः स्यात् सजलचणकः कान्तलोहंतदुक्तम 48<br />
<br />
गुल्मोदरार्शःशूलाममामवातं भगन्दरम<br />
कामलाशोथकुष्ठानि क्षयं कान्तमयो हरेत 49<br />
<br />
प्लीहानमम्लपित्तञ्च यकृच्चापि शिरोरुजम 50<br />
<br />
सर्वान् रोगान् विजयते कान्तलोहं न संशयः<br />
बलं वीर्यं वपुःपुष्टिं कुरुतेऽग्नि विवर्द्धयेत 51<br />
<br />
ध्मायमानस्य लोहस्य मलं मण्डूर मुच्यते<br />
लोहसिंहानिका किट्टी सिंहानञ्च निगद्यते<br />
यल्लोहं यद्गुणंप्रोक्तं तत्किट्टमपि तद्गुणम 52<br />
<br />
सप्तोपधातवः स्वर्णमाक्षिकं तारमाक्षिकं<br />
तुत्थं कांस्यं च रीतिश्च सिन्दूरञ्च शिलाजतु 53<br />
<br />
उपधातुषु सर्वेषु तत्तद्धातुगुणा अपि<br />
सन्ति किन्त्वेषु ते गौणास्तत्तदंशाल्पभावतः 54<br />
<br />
स्वर्णमाक्षिकमाख्यातं तापीजं मधुमाक्षिकम 55<br />
<br />
ताप्यं माक्षिकधातुश्च मधुधातुश्च स स्मृतः<br />
किञ्चित्सुवर्णं साहित्यात्स्वर्णमाक्षिकमीरितम 56<br />
<br />
उपधातुः सुवर्णस्य किञ्चित्स्वर्णगुणान्वितम<br />
तथा च काञ्चनाभावे दीयते स्वर्णमाक्षिकम 57<br />
<br />
किन्तु तस्यानुकल्पत्वात्किञ्चिदूनगुणास्ततः<br />
न केवलं स्वर्णगुणा वर्त्तन्ते स्वर्णमाक्षिके 58<br />
<br />
द्रव्यान्तरस्य संसर्गात्सन्त्यन्येऽपि गुणा यतः<br />
सुवर्णमाक्षिकं स्वादु तिक्तं वृष्यं रसायनम 59<br />
<br />
चक्षुष्यं बस्तिरुक्कुष्ठपाण्डुमेहविषोदरान<br />
अर्शः शोथं विषं कण्डूं त्रिदोषमपि नाशयेत 60<br />
<br />
मन्दानलत्वं बलहानिमुग्रां विष्टम्भितां नेत्रगदान्सकुष्ठान<br />
तथैव मालां व्रणपूर्विकां च करोति तापीजमशुद्धमेतत 61<br />
<br />
तारमाक्षिकमन्यत्तु तद्भवेद्र जतोपमम<br />
किञ्चिद्र जतसाहित्यात्तारमाक्षिकमीरितम 62<br />
<br />
अनुकल्पतया तस्य ततो हीनगुणाः स्मृताः<br />
न केवलं रूप्यगुणा यतः स्यात्तारमाक्षिकम 63<br />
<br />
स्वादु पाके रसे किञ्चित्तिक्तं वृष्यं रसायनम<br />
चक्षुष्यं वस्तिरुक्कुष्ठपाण्डुमेहविषोदरान<br />
अर्शः शोथं क्षयङ्कण्डूं त्रिदोषमपि नाशयेत 64<br />
<br />
मन्दानलत्वं बलहानिमुग्रां विष्टग्भितां नेत्रगदान्सकुष्ठान<br />
तथैव मालां व्रणपूर्विकाञ्च करोति तापीजमिदञ्च तद्वत 65<br />
<br />
तुत्थं वितुन्नकं चापि शिखिग्रीवं मयूरकम<br />
तुत्थं ताम्रोपधातुर्हि किञ्चित्ताम्रेण तद्भवेत 66<br />
<br />
किञ्चित्ताम्रगुणं तस्माद्वक्ष्यमाणगुणं च तत<br />
तुत्थकं कटुकं क्षारं कषायं वामकं लघु 67<br />
<br />
लेखनं भेदनं शीतं चक्षुष्यं कफपित्तहृत<br />
विषाश्मकुष्ठकण्डूघ्नं खर्परं चापि तद्गुणम 68<br />
<br />
ताम्रत्रपुजमाख्यातं कांस्यं घोषं च कंसकम<br />
उपधातुर्भवेत्कांस्यं द्वयोस्तरणिरङ्गयोः 69<br />
<br />
कांस्यस्य तु गुणा ज्ञेयाः स्वयोनिसदृशाजनैः<br />
संयोगजप्रभावेण तस्यान्येऽपि गुणाः स्मृताः 70<br />
<br />
कांस्यं कषायं तिक्तोष्णं लेखनं विशदं सरम<br />
गुरु नेत्रहितं रूक्षं कफपित्तहरं परम् 71<br />
<br />
पित्तलं त्वारकूटं स्यादारो रीतिश्च कथ्यते<br />
राजरीतिर्ब्रह्मरीतिः कपिला पिङ्गलापि च 72<br />
<br />
रीतिरप्युपधातुः स्यात्ताम्रस्य यशदस्य च<br />
पित्तलस्य गुणा ज्ञेयाः स्वयोनिसदृशा जनैः 73<br />
<br />
संयोगजप्रभावेण तस्याप्यन्ये गुणाः स्मृताः 74<br />
<br />
रीतिकायुगलं रूक्षं तिक्तञ्च लवणं रसे<br />
शोधनं पाण्डुरोगघ्नं कृमिघ्नं नातिलेखनम 75<br />
<br />
सिन्दूरं रक्तरेणुश्च नागगर्भश्च सीसजम<br />
सीसोपधातुः सिन्दूरं गुणैस्तत्सीसवन्मतम 76<br />
<br />
संयोगजप्रभावेण तस्यान्येऽपि गुणाः स्मृताः<br />
सिन्दूरमुष्णं वीसर्पकुष्ठकण्डूविषापहम<br />
भग्नसन्धानजननं व्रणशोधनरोपणम 77<br />
<br />
निदाघे घर्मसन्तप्ता धातुसारं धराधराः<br />
निर्यासवत्प्रमुञ्चन्ति तच्छिलाजतु कीर्त्तितम 78<br />
<br />
सौवर्णं राजतं ताम्रमायसं तच्चतुर्विधम<br />
शिलाजत्वद्रि जतु च शैलनिर्यास इत्यपि 79<br />
<br />
गैरेयमश्मजं चापि गिरिजं शैलधातुजम<br />
शिलाजं कटु तिक्तोष्णं कटुपाकं रसायनम 80<br />
<br />
छेदि योगवहं हन्ति कफमेहाश्मशर्कराः<br />
मूत्रकृच्छ्रं क्षयं श्वासं वातार्शांसि च पाण्डुताम 81<br />
<br />
अपस्मारं तथोन्मादं शोथकुष्ठोदरकृमीन 82<br />
<br />
सौवर्णं तु जपापुष्पवर्णं भवति तद्र सात<br />
मधुरं कटु तिक्तं च शीतलं कटुपाकि च 83<br />
<br />
राजतं पाण्डुरं शीतं कटुकं स्वादुपाकि च<br />
ताम्रं मयूरकण्ठाभं तीक्ष्णमुष्णं च जायते 84<br />
<br />
लौहं जटायुपक्षाभं सत्तिक्तं लवणं भवेत<br />
विपाके कटुकं शीतं सर्वं श्रेष्ठमुदाहृतम 85<br />
<br />
रसायनार्थिभिर्लोकैः पारदो रस्यते यतः<br />
ततो रस इति प्रोक्तः स च धातुरपि स्मृतः 86<br />
<br />
शिवाङ्गात्प्रच्युतं रेतः पतितं धरणीतले<br />
तद्देहसारजातत्वाच्छुक्लमच्छमभूच्च तत 87<br />
<br />
क्षेत्रभेदेन विज्ञेयं शिववीर्यं चतुर्विधम्<br />
श्वेतं रक्तं तथा पीतं कृष्णं तत्तु भवेत्क्रमात<br />
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्र श्च खलु जातितः 88<br />
<br />
श्वेतं शस्तं रुजां नाशे रक्तं किल रसायने<br />
धातुवादे तु तत्पीतं खे गतौ कृष्णमेव च 89<br />
<br />
पारदो रसधातुश्च रसेन्द्र श्च महारसः 90<br />
<br />
चपलः शिववीर्यश्च रसः सूतः शिवाह्वयः<br />
पारदः षड्रसः स्निग्धस्त्रिदोषघ्नो रसायनः 91<br />
<br />
योगवाही महावृष्यः सदा दृष्टिबलप्रदः<br />
सर्वामयहरः प्रोक्तो विशेषात्सर्वकुष्ठनुत 92<br />
<br />
स्वस्थो रसो भवेद् ब्रह्मा बद्धो ज्ञेयो जनार्दनः<br />
रञ्जितः कामितश्चापि साक्षाद्देवो महेश्वरः 93<br />
<br />
मूर्च्छितो हरति रुजं बन्धनमनुभूय खे गतिं कुरुते<br />
अजरीकरोति हि मृतः कोऽन्य करुणाऽकरः सूतात 94<br />
<br />
असाध्यो यो भवेद्रो गो यस्य नास्ति चिकित्सितम<br />
रसेन्द्रो हन्ति तं रोगं नरकुञ्जरवाजिनाम 95<br />
<br />
मलं विषं वह्निगिरित्वचापलं नैसर्गिकं दोषमुशन्ति पारदे<br />
उपाधिजौ द्वौ त्रपुनागयोगजौ दोषौ रसेन्द्रे कथितौ मुनीश्वरैः 96<br />
<br />
मलेन मूर्च्छा मरणं विषेण दाहोऽग्निना कष्टतरः शरीरे<br />
देहस्य जाड्यं गिरिणा सदा स्युश्चाञ्चल्यतो वीर्यहृतिश्च पुंसाम<br />
वङ्गेन कुष्ठं भुजगेन षण्ढो भवेदतोऽसौ परिशोधनीयः 97<br />
<br />
वह्निर्विषं मलं चेति मुख्या दोषास्त्रयो रसे<br />
एते कुर्वन्ति सन्तापं मृतिं मूर्च्छां नृणां क्रमात 98<br />
<br />
अन्येऽपि कथिता दोषा भिषग्भिः पारदे यदि<br />
तथाऽप्येते त्रयो दोषाहरणीया विशेषतः 99<br />
<br />
संस्कारहीनं खलु सूतराजं यः सेवते तस्य करोति बाधाम<br />
देहस्य नाशं विदधाति नूनं कष्टांश्च रोगाञ्जनयेन्नराणाम 100<br />
<br />
गन्धो हिङ्गुलमभ्रतालकशिलाः स्रोतोऽञ्जनं टङ्कणं<br />
राजावर्तकचुम्बकौ स्फटिकया शङ्खः खटी गैरिकम<br />
कासीसं रसकं कपर्दसिकताबोलाश्च कुङ्कष्ठकं<br />
सौराष्ट्री च मता अमी उपरसाः सूतस्य किञ्चिद्गुणैः 101<br />
<br />
हिङ्गुलं दरदं म्लेच्छमिङ्गुलं चूर्णपारदम<br />
दरदस्त्रिविधः प्रोक्तश्चर्मारः शुकतुण्डकः 102<br />
<br />
हंसपादस्तृतीयः स्याद् गुणवानुत्तरोत्तरम 103<br />
<br />
चर्मारः शुक्लवर्णः स्यात्स पीतः शुकतुण्डकः<br />
जपाकुसुमसङ्काशो हंसपादो महोत्तमः 104<br />
<br />
तिक्तं कषायं कटु हिङ्गुलं स्यान्नेत्रामयघ्नं कफपित्तहारि<br />
हृल्लासकुष्ठज्वरकामलाश्च प्लीहामवातौ च गरं निहन्ति 105<br />
<br />
उर्ध्वपातनयुक्त्या तु डमरुयंत्रपाचितम<br />
हिङ्गुलं तस्य सूतं तु शुद्धमेव न शोधयेत 106<br />
<br />
श्वेतद्वीपे पुरा देव्याः क्रीडन्त्या रजसाऽप्लुतम<br />
दुकूलं तेन वस्त्रेण स्नातायाः क्षीरनीरधौ 107<br />
<br />
प्रसृतं यद्र जस्तस्माद्गन्धकः समभूत्ततः<br />
गन्धको गान्धिकश्चापि गन्धपाषाण इत्यपि 108<br />
<br />
सौगन्धिकश्च कथितो बलिर्बलरसोऽपि च<br />
चतुर्धा गन्धकः प्रोक्तो रक्तः पीतः सितोऽसितः 109<br />
<br />
रक्तो हेमक्रियासूक्तः पीतश्चैव रसायने<br />
व्रणादिलेपने श्वेतः कृष्णः श्रेष्ठः सुदुर्लभः 110<br />
<br />
गन्धकः कटुकस्तिक्तो वीर्योष्णस्तुवरः सरः<br />
पित्तलः कटुकः पाके जन्तुकण्डूविसर्पजित<br />
हन्ति कुष्ठक्षयप्लीहकफवातान् रसायनः 111<br />
<br />
अशोधितो गन्धक एव कुष्ठं करोति तापं विषमं शरीरे<br />
सौख्यं च रूपं च वलं तथौजः शुक्रं निहन्त्येव करोति चास्रम 112<br />
<br />
पुरा वधाय वृत्रस्य वज्रिणा वज्रमुद्धृतम<br />
विस्फुलिङ्गास्ततस्तस्य गगने परिसर्पिताः 113<br />
<br />
ते निपेतुर्घनध्वानाच्छिखरेषु महीभृताम<br />
तेभ्य एव समुत्पन्नं तत्तद्गिरिषु चाभ्रकम 114<br />
<br />
तद्वज्रं वज्रजातत्वादभ्रमभ्ररवोद्भवात<br />
गगनात्स्खलितं यस्माद्गगनं च ततो मतम 115<br />
<br />
विप्रक्षत्रियविट्शूद्र भेदात्तत्स्याच्चतुर्विधम<br />
क्रमेणैव सितं रक्तं पीतं कृष्णं च वर्णतः 116<br />
<br />
प्रशस्यते सितं तारे रक्तं तत्तु रसायने<br />
पीतं हेमनि कृष्णं तु गदेषु द्रुतयेऽपि च 117<br />
<br />
पिनाकं दर्दुरं नागं वज्रं चेति चतुर्विधम<br />
मुच्चत्यग्नौ विनिक्षिप्तं पिनाकं दलसञ्चयम 118<br />
<br />
अज्ञानाद्भक्षणं तस्य महाकुष्ठप्रदायकम<br />
दुर्दरं त्वग्निनिक्षिप्तं कुरुते दुर्दरध्वनिम 119<br />
<br />
गोलकान्बहुशः कृत्वा स स्यान्मृत्युप्रदायकः<br />
नागं तु नागवद्बह्वौ फूत्कारं परिमुञ्चति 120<br />
<br />
तद्भक्षितमवश्यं तु विदधाति भगन्दरम<br />
वज्रं तु वज्रवत्तिष्टेत्तन्नाग्नौ विकृतिं व्रजेत 121<br />
<br />
सर्वाभ्रेषु वरं वज्रं व्याधिवार्द्धक्यमृत्युहृत 122<br />
<br />
अभ्रमुत्तरशैलोत्थं बहुसत्त्वं गुणाधिकम<br />
दक्षिणाद्रि भवं स्वल्पसत्वमल्पगुणप्रदम 123<br />
<br />
अभ्रं कषायं मधुरं सुशीतमायुष्करं धातुविवर्द्धनं च<br />
हन्यात्त्रिदोषं व्रणमेहकुष्टप्लीहोदरग्रन्थिविषकृमींश्च 124<br />
<br />
रोगान्हन्ति द्र ढयति वपुर्वीर्यवृद्धिं विधत्ते<br />
तारुण्याढ्यं रमयति शतं योषितां नित्यमेव<br />
दीर्घायुष्काञ्जनयति सुतान्विक्रमैः सिंहतुल्यान<br />
मृत्योर्भीतिं हरति सततं सेव्यमानं मृताभ्रम् 125<br />
<br />
पीडां विधत्ते विविधां नराणां कुष्ठं क्षयं पाण्डुगदं च शोथम<br />
हृत्पार्श्वपीडां च करोत्यशुद्धमभ्रं त्वसिद्धं गुरु तापदं स्यात 126<br />
<br />
हरितालं तु तालं स्यादालं तालकमित्यपि <br />
हरितालं द्विधा प्रोक्तं पत्राख्यं पिण्डसंज्ञकम 127<br />
<br />
तयोराद्यं गुणैः श्रेष्ठं ततो हीनगुणं परम<br />
स्वर्णवर्णं गुरु स्निग्धं सपत्रं चाभ्रपत्रवत 128<br />
<br />
पत्राख्यं तालकं विद्याद् गुणाढ्यं तद्र सायनम<br />
निष्पत्रं पिण्डसदृशं स्वल्पसत्त्वं तथा गुरु 129<br />
<br />
स्त्रीपुष्पहारकं स्वल्पगुणं तत्पिण्डतालकम<br />
हरितालं कटु स्निग्धं कषायोष्णं हरेद्विषम<br />
कण्डूकुष्ठास्यरोगास्रकफपित्तकचव्रणान 130<br />
<br />
हरति च हरितालं चारुतां देहजातां<br />
सृजति च बहुतापञ्चाङ्गसङ्कोचपीडाम<br />
वितरति कफवातौ कुष्ठरोगं विदध्यात<br />
इदमशितमशुद्धं मारितं चाप्यसम्यक् 131<br />
<br />
मनःशिला मनोगुप्ता मनोह्वा नागजिह्विका<br />
नैपाली कुनटी गोला शिला दिव्यौषधिः स्मृता 132<br />
<br />
मनःशिला गुरुर्वर्ण्या सरोष्णा लेखनी कटुः<br />
तिक्ता स्निग्धा विषश्वासकासभूतकफास्रनुत 133<br />
<br />
मनःशिला मन्दबलं करोति जन्तुं ध्रुवं शोधनमन्तरेण <br />
मलानुबन्धं किल मूत्ररोधं सशर्करं कृच्छ्रगदं च कुर्यात 134<br />
<br />
अञ्जनं यामुनं चापि कापोताञ्जनमित्यपि<br />
तत्तु स्रोतोऽञ्जनं कृष्णं सौवीरं श्वेतमीरितम 135<br />
<br />
वल्मीकशिखराकारे भिन्नमञ्जनसन्निभम<br />
घृष्टं तु गैरिकाकारमेतत्स्रोतोऽञ्जनं स्मृतम 136<br />
<br />
स्रोतोऽञ्जनसमं ज्ञेयं सौवीरं तत्तु पाण्डुरम<br />
स्रोतोऽञ्जनं स्मृतं स्वादु चक्षुष्यं कफपित्तनुत 137<br />
<br />
कषायं लेखनं स्निग्धं ग्राहि च्छर्दिविषापहम<br />
सिध्मक्षयास्रहृच्छीतं सेवनीयं सदा बुधैः 138<br />
<br />
स्रोतोऽञ्जनगुणाः सर्वे सौवीरेऽपि मता बुधैः<br />
किन्तु द्वयोरञ्जनयोः श्रेष्ठं स्रोतोऽञ्जनं स्मृतम 139<br />
<br />
टङ्कणोऽग्निकरो रूक्षः कफघ्नो वातपित्तकृत 140<br />
<br />
स्फटी च स्फटिका प्रोक्ता श्वेता शुभ्रा च रङ्गदा<br />
दृढरङ्गा रङ्गदृढा रङ्गाङ्गापि च कथ्यते 141<br />
<br />
स्फटिका तु कषायोष्णा वातपित्तकफव्रणान<br />
निहन्ति श्वित्रवीसर्पान् योनिसङ्कोचकारिणी 142<br />
<br />
राजावर्त्तो नृपावर्त्तो राजन्यावर्त्तकस्तथा<br />
आवर्त्तमणिसंज्ञश्च ह्यावर्त्तोऽपि तथैव च 143<br />
<br />
राजावर्त्तं कटुस्तिक्तः शिशिरः पित्तनाशनः<br />
राजावर्त्तः प्रमेहघ्नश्छर्दिहिक्कानिवारणः 144<br />
<br />
चुम्बकः कान्तपाषाणोऽयस्कान्तो लौहकर्षकः<br />
चुम्बको लेखनः शीतो मेदोविषगरापहः 145<br />
<br />
गैरिकं रक्तधातुश्च गैरेयं गिरिजं तथा<br />
सुवर्णगैरिकं त्वन्यत्ततो रक्ततरं हि तत 146<br />
<br />
गैरिकद्वितयं स्निग्धं मधुरं तुवरं हिमम<br />
चक्षुष्यं दाहपित्तास्रकफहिक्काविषापहम 147<br />
<br />
खटिका कठिनी चापि लेखनी च निगद्यते<br />
खटी दाहास्रजिच्छीता मधुरा विषशोथजित 148<br />
<br />
लेपादेतद्गुणा प्रोक्ता भक्षिता मृत्तिकासमा<br />
खटी गौरखटी द्वे च गुणैस्तुल्ये प्रकीर्त्तिते 149<br />
<br />
बालुका सिकता प्रोक्ता शर्करा रेतजाऽपि च<br />
वालुका लेखनी शीता व्रणोरःक्षतनाशिनी 150<br />
<br />
खर्परी तुत्थकं तुत्थादन्यत्तद्र सकं स्मृतम<br />
ये गुणास्तुत्थके प्रोक्तास्ते गुणा रसके स्मृता 151<br />
<br />
काशीशं धातुकाशीशं पांशुकाशीशमित्यपि<br />
तदेव किञ्चित्पीतं तु पुष्पकाशीशमुच्यते 152<br />
<br />
काशीशमम्लमुष्णं च तिक्तञ्च तुवरं तथा<br />
वातश्लेष्महरं केश्यं नेत्रकण्डूविषप्रणुत<br />
मूत्रकृच्छ्राश्मरीश्वित्रनाशनं परिकीर्त्तितम 153<br />
<br />
सौराष्ट्री तुवरी काली मृत्तालकसुराष्ट्रजे 154<br />
<br />
आढकी चापि सा ख्याता मृत्स्ना च सुरमृत्तिका<br />
स्फटिकायागुणाः सर्वे सौराष्ट्र्या अपि कीर्त्तिताः 155<br />
<br />
मृन्मृदा मृत्तिका मृत्स्ना क्षेत्रजा कृष्णमृत्तिका<br />
कृष्णमृत क्षतदाहास्रप्रदरश्लेष्मपित्तनुत 156<br />
<br />
पङ्कस्तु जलकल्कश्च चुलुकः कर्दमो मलः<br />
चिकिलः पलितो द्रा पः पललश्च निषद्वरः<br />
कर्दमो दाहपित्तास्रशोथघ्नः शीतलः सरः 157<br />
<br />
कपर्दको वराटश्च कपर्दी च वराटिका<br />
कर्णस्रावाग्निमान्द्यघ्नी पित्तास्रकफनाशिनी 158<br />
<br />
शङ्खः समुद्र जः कम्बुः सुनादः पावनध्वनिः<br />
शङ्खो नेत्र्यो हिमः शीतो लघुः पित्तकफास्रजित 159<br />
<br />
बोलगन्धरसप्राणपिण्डगोपरसाः समाः<br />
बोलं रक्तहरं शीतं मेध्यं दीपनपाचनम<br />
मधुरं कटु तिक्तं च दाहस्वेदत्रिदोषजित<br />
ज्वरापस्मारकुष्ठघ्नं गर्भाशयविशुद्धिकृत 160<br />
<br />
हिमवत्पादशिखरे कङ्कुष्ठमुपजायते<br />
तत्रैकं रक्तकालं स्यात्तदन्यद्दण्डकं स्मृतम 161<br />
<br />
पीतप्रभं गुरु स्निग्धं श्रेष्ठं कङ्कुष्ठमादिमम<br />
श्यामं पीतं लघु त्यक्तसत्त्वं नेष्टं तथाऽण्डकम 162<br />
<br />
कङ्कुष्टं काककुष्ठं च विरङ्गं कोलकाकुलम 163<br />
<br />
कङ्कुष्ठं रेचनं तिक्तं कटूष्णं वर्णकारकम<br />
कृमिशोथोदराध्मानगुल्मानाहकफापहम 164<br />
<br />
धनार्थिनो जनाःसर्वे रमन्तेऽस्मिन्नतीव यत<br />
ततो रत्नमिति प्रोक्तं शब्दशास्त्रविशारदैः 165<br />
<br />
रत्नं क्लीबे मणिः पुंसि स्त्रियामपि निगद्यते<br />
तत्तु पाषाणभेदोऽस्ति मुक्तादि च तदुच्यते 166<br />
<br />
रत्नं गारुत्मतं पुष्परागो माणिक्यमेव च<br />
इन्द्र नीलश्च गोमेदस्तथा वैदूर्यमित्यपि<br />
मौक्तिकं विद्रुमश्चेति रत्नान्युक्तानि वै नव 167<br />
<br />
मुक्ताफलं हीरकं च वैदूर्यं पद्मरागकम 168<br />
<br />
पुष्परागं च गोमेदं नीलं गारुत्मतं तथा<br />
प्रवालयुक्तान्येतानि महारत्नानि वै नव 169<br />
<br />
हीरकः पुंसि वज्रोऽस्त्री चन्द्रो मणिवरश्च सः<br />
स तु श्वेतः स्मृतो विप्रो लोहितः क्षत्रियः स्मृतः<br />
पीतो वैश्योऽसितः शूद्र श्चतुर्वर्णात्मकश्च सः 170<br />
<br />
रसायने मतो विप्रः सर्वसिद्धिप्रदायकः<br />
क्षत्रियो व्याधिविध्वंसी जरामृत्युहरः स्मृतः 171<br />
<br />
वैश्यो धनप्रदः प्रोक्तस्तथा देहस्यदार्ढ्यकृत<br />
शूद्रो नाशयति व्याधीन् वयःस्तम्भं करोति च 172<br />
<br />
अथ पुंस्त्रीनपुंसकभेदात् त्रिविधस्य तस्य<br />
पुंस्त्रीनपुंसकानीह लक्षणीयानि लक्षणैः<br />
सुवृत्ताः फलसम्पूर्णास्तेजोयुक्ता बृहत्तराः 173<br />
<br />
पुरुषास्ते समाख्याता रेखाविन्दु विवर्जिताः<br />
रेखाविन्दुसमायुक्ताः षडस्रास्ते स्त्रियः स्मृताः 174<br />
<br />
त्रिकोणाश्च सुदीर्घास्ते विज्ञेयाश्च नपुंसकाः<br />
तेषु स्युः पुरुषाः श्रेष्ठा रसबन्धनकारिणः 175<br />
<br />
स्त्रियः कुर्वन्ति कायस्य कान्तिं स्त्रीणां सुखप्रदाः<br />
नपुंसकास्त्ववीर्याः स्युरकामा सत्ववर्जिताः176<br />
<br />
स्त्रियः स्त्रीभ्यः प्रदातव्याः क्लीबं क्लीबे प्रयोजयेत<br />
सर्वेभ्यः सर्वदादेयाः पुरुषा वीर्यवर्धनाः 177<br />
<br />
अशुद्धं कुरुते वज्रं कुष्ठं पार्श्वव्यथां तथा<br />
पाण्डुतां पङ्गुलत्वं च तस्मात्संशोध्य मारयेत 178<br />
<br />
आयुः पुष्टिं बलं वीर्यं वर्णं सौख्यं करोति च<br />
सेवितं सर्वरोगघ्नं मृतं वज्रं न संशयः 179<br />
<br />
गारुत्मतं मरकतमश्मगर्भो हरिन्मणिः 180<br />
<br />
माणिक्यं पद्मरागः स्याच्छोणरत्नञ्च लोहितम 181<br />
<br />
पुष्परागो मञ्जुमणिः स्याद्वाचस्पतिवल्लभः 182<br />
<br />
नीलं तथेन्द्र नीलञ्च गोमेदः पीतरत्नकम 183<br />
<br />
वैदूर्यं दूरजं रत्नं स्यात्केतुग्रहवल्लभम् 184<br />
<br />
मौक्तिकं शौतिक्तं मुक्ता तथा मुक्ताफलञ्च तत<br />
शुक्तिः शङ्खो गजः क्रोडः फणी मत्स्यश्च दर्दुरः<br />
वेणुरेते समाख्यातास्तज्ज्ञैर्मौक्तिकयोनयः<br />
मौक्तितं शीतलं वृष्यं चक्षुष्यं बलपुष्टिदम 185<br />
<br />
पुंसि क्लीबे प्रवालः स्यात्पुमानेव तु विद्रुमः 186<br />
<br />
रत्नानि भक्षितानि स्युर्मधुराणि सराणि च<br />
चक्षुष्याणि च शीतानि विषघ्नानि धृतानि च<br />
मङ्गल्यानि मनोज्ञानि ग्रहदोषहराणि च 187<br />
<br />
किं रत्नं कस्य ग्रहस्य प्रीतिकारित्वेन दोषहरं भवतीति प्रश्ने<br />
तदुत्तरमाहै रत्नमालायाम<br />
माणिक्यं तरणेः सुजातममलं मुक्ताफलं शीतगो<br />
र्माहेयस्य तु विद्रुमो निगदितः सौम्यस्य गारुत्मतम<br />
देवेज्यस्य च पुष्परागमसुराचार्यस्य वज्रं शने<br />
र्नीलं निर्मलमन्ययोर्निगदिते गोमेदवैदूर्यके 188<br />
<br />
उपरत्नानि काचश्च कर्पूराश्मा तथैव च<br />
मुक्ताशुक्तिस्तथा शङ्ख इत्यादीनि बहून्यपि 189<br />
<br />
गुणा यथैव रत्नानामुपरत्नेषु ते तथा<br />
किन्तु किञ्चित्ततो हीना विशेषोऽयमुदाहृतः 190<br />
<br />
विषं तु गरलः क्षवेडस्तस्य भेदानुदाहरे<br />
वत्सनाभः सहारिद्र ः! सक्तुकश्च प्रदीपनः<br />
सौराष्ट्रिकः शृङ्गिकश्च कालकूटस्तथैव च<br />
हालाहलो ब्रह्मपुत्रो विषभेदा अमी नव 191<br />
<br />
सिन्दुवारसदृक्पत्रो वत्सनाभ्याकृतिस्तथा<br />
यत्पार्श्वे न तरोर्वृद्धिर्वत्सनाभः स भाषितः 192<br />
<br />
हरिद्रा तुल्यमूलो यो हारिद्रः! स उदाहृतः 193<br />
<br />
यद्ग्रन्थिः सक्तुकेनैव पूर्णमध्यः स सक्तुकः 194<br />
<br />
वर्णतो लोहितो यः स्याद्दीप्तिमान् दहनप्रभः<br />
महादाहकरः पूर्वैः कथितं स प्रदीपनः 195<br />
<br />
सुराष्ट्रविषये यः स्यात्स सौराष्ट्रिक उच्यते 196<br />
<br />
यस्मिन् गोशृङ्गके बद्धे दुग्धं भवति लोहितम<br />
स शृङ्गिक इति प्रोक्तो द्र व्यतत्त्वविशारदैः 197<br />
<br />
देवासुररणे देवैर्हतस्य पृथुमालिनः<br />
दैत्यस्य रुधिराज्जातस्तरुरश्वत्थसन्निभः<br />
निर्यासः कालकूटोऽस्य मुनिभिः परिकीर्त्तितः<br />
सोऽहिक्षेत्रे शृङ्गवेरे कोङ्कणे मलये भवेत 198<br />
<br />
गोस्तनाभफलो गुच्छस्तालपत्रच्छदस्तथा<br />
तेजसा यस्य दह्यन्ते समीपस्था द्रुमादयः<br />
असौ हालाहलो ज्ञेयः किष्किन्धायां हिमालये<br />
दक्षिणाब्धितटे देशे कोङ्कणेऽपि च जायते 199<br />
<br />
वर्णतः कपिलो यः स्यात्तथा भवति सारतः<br />
ब्रह्मपुत्रः सविज्ञेयो जायते मलयाचले 200<br />
<br />
ब्राह्मणः पाण्डुरस्तेषु क्षत्रियो लोहितप्रभः<br />
वैश्यः पीतोऽसितः शूद्रो विष उक्तश्चतुर्विधः 201<br />
<br />
रसायने विषं विप्रं क्षत्रियं देहपुष्टये<br />
वैश्यं कुष्ठविनाशाय शूद्रं दद्याद्वधाय हि 202<br />
<br />
विषं प्राणहरं प्रोक्तं व्यवायि च विकाशि च<br />
आग्नेयं वातकफहृद्योगवाहि मदावहम 203<br />
<br />
तदेव युक्तियुक्तं तु प्राणदायि रसायनम<br />
योगवाहि त्रिदोषघ्नं बृंहणं वीर्यवर्द्धनम 204<br />
<br />
ये दुर्गुणा विषेऽशुद्धे ते स्युर्हीना विशोधनात<br />
तस्माद्विषं प्रयोगेषु शोधयित्वा प्रयोजयेत 205<br />
<br />
अर्कक्षीरं स्नुहीक्षीरं लाङ्गली करवीरकः<br />
गुञ्जाऽहिफेनो धत्तूरः सप्तोपविषजातयः 206<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे मिश्रप्रकरणे </span><br />
<span style="color: red;">अष्टमः धात्वादिवर्गः समाप्तः 8</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-56476573999384975882015-07-12T20:19:00.002-07:002015-07-12T20:19:29.931-07:00अथ नवमो धान्यवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
शालिधान्यं व्रीहिधान्यं शूकधान्यं तृतीयकम<br />
शिम्बीधान्यं क्षुद्र धान्यमित्युक्तं धान्यपञ्चकम 1<br />
<br />
शालयो रक्तशाल्याद्या व्रीहयः षष्टिकादयः<br />
यवादिकं शूकधान्यं मुद्गाद्यंशिम्बिधान्यकम<br />
कङ्ग्वादिकं क्षुद्र धान्यं तृणधान्यञ्च तत्स्मृतम 2<br />
<br />
कण्डनेन विना शुक्ला हैमन्ताः शालयः स्मृताः 3<br />
<br />
रक्तशालि सकलमः पाण्डुकः शकुनाहृतः<br />
सुगन्धकः कर्दमको महाशालिश्च दूषकः 4<br />
<br />
पुष्पाण्डकः पुण्डरीकस्तथा महिषमस्तकः<br />
दीर्घशूकः काञ्चनको हायनो लोध्रपुष्पकः 5<br />
<br />
इत्याद्याः शालयः सन्ति बहवो बहुदेशजाः<br />
ग्रन्थविस्तरभीतेस्ते समस्ता नात्र भाषिताः 6<br />
<br />
शालयो मधुरा स्निग्धा बल्या बद्धाल्पवर्चसः<br />
कषाया लघवो रुच्याः स्वर्या वृष्याश्च बृंहणाः<br />
अल्पानिलकफाः शीताः पित्तघ्ना मूत्रलास्तथा 7<br />
<br />
शालयो दग्धमृज्जाताः कषाया लघुपाकिनः<br />
सृष्टमूत्रपुरीषाश्च रूक्षाः श्लेष्मापकर्षणाः 8<br />
<br />
कैदारा वातपित्तघ्ना गुरवः कफशुक्रलाः<br />
कषायाश्चाल्पवर्चस्का मेध्याश्चैव बलावहाः 9<br />
<br />
स्थलजाः स्वादवः पित्तकफघ्ना वातपित्तदाः<br />
किञ्चित्तिक्ताः कषायाश्च विपाके कटुका अपि 10<br />
<br />
वापिता मधुरा वृष्या बल्याः पित्तप्रणाशनाः<br />
श्लेष्मलाश्चाल्पवर्चस्काः कषाया गुरवो हिमाः 11<br />
<br />
वापितेभ्यो गुणैः किञ्चिद्धीनाः प्रोक्ता अवापिताः 12<br />
<br />
रोपितास्तु नवा वृष्या पुराणा लघवः स्मृताः<br />
तेभ्यस्तुरोपिता भूयः शीघ्रपाका गुणाधिकाः 13<br />
<br />
छिन्नरूढा हिमा रूक्षा बल्याः पित्तकफापहाः<br />
बद्धविट्काः कषायाश्च लघवश्चाल्पतिक्तकाः 14<br />
<br />
रक्तशालिर्वरस्तेषु बल्यो वर्ण्यस्त्रिदोषजित्<br />
चक्षुष्यो मूत्रलः स्वर्यः शुक्रलस्तृड्ज्वरापहः 15<br />
<br />
विषव्रणश्वासकासदाहनुद् वह्निपुष्टिदः<br />
तस्मादल्पान्तरगुणाः शालयो महदादयः 16<br />
<br />
वार्षिकाः कण्डिताः शुक्ला व्रीहयश्चिरपाकिनः<br />
कृष्णव्रीहिः पाटलश्च कुक्कुटाण्डक इत्यपि 17<br />
<br />
शालामुखो जतुमुख इत्याद्या व्रीहयः स्मृताः<br />
कृष्णब्रीहिः स विज्ञेयो यत्कृष्णतुषतण्डुलः 18<br />
<br />
पाटलः पाटलापुष्पवर्णको ब्रीहिरुच्यते<br />
कुक्कुटाण्डाकृतिव्रीहिः कुक्कुटाण्डक उच्यते 19<br />
<br />
शालामुखः कृष्णशूकः कृष्णतण्डुल उच्यते<br />
लाक्षावर्णं मुखं यस्य ज्ञेयो जतुमुखस्तु सः 20<br />
<br />
व्रीहयः कथिताः पाके मधुरा वीर्यतो हिमाः<br />
अल्पाभिष्यदिनो बद्धवर्चस्काः षष्टिकैः समाः<br />
कृष्णव्रीहिर्वरस्तेषां तस्मादल्पगुणाः परे 21<br />
<br />
गर्भस्था एव ये पाकं यान्ति ते षष्टिका मताः 22<br />
<br />
षष्टिकः शतपुष्पश्च प्रमोदकमुकुन्दकौ <br />
महाषष्टिक इत्याद्याः षष्टिकाः समुदाहृताः<br />
एतेऽपि व्रीहयः प्रोक्ता व्रीहिलक्षणदर्शनात् 23<br />
<br />
षष्टिका मधुरा शीता लघवो बद्धवर्चसः<br />
वातपित्तप्रशमनाः शालिभिः सदृशा गुणैः 24<br />
<br />
षष्टिका प्रवरा तेषां लघ्वी स्निग्धा त्रिदोषजित 25<br />
<br />
स्वाद्वी मृद्वी ग्राहिणी च बलदा ज्वरहारिणी<br />
रक्तशालिगुणैस्तुल्या ततः स्वल्पगुणाः परे 26<br />
<br />
यवस्तु सितशूकः स्यान्निःशूकोऽतियवः स्मृतः<br />
तोक्यस्तद्वत्स हरितस्ततः स्वल्पश्च कीर्त्तितः 27<br />
<br />
यवः कषायो मधुरः शीतलो लेखनो मृदुः<br />
व्रणेषु तिलवत्पथ्यो रूक्षो मेधाऽग्निवर्धनः 28<br />
<br />
कटुपाकोऽनभिष्यन्दी स्वर्यो बलकरो गुरुः<br />
बहुवातमलो वर्णस्थैर्यकारी च पिच्छिलः 29<br />
<br />
कण्ठत्वगामयश्लेष्मपित्तमेदःप्रणाशनः<br />
पीनसश्वासकासोरुस्तम्भलोहिततृट्प्रणुत<br />
अस्मादतियवो न्यूनस्तोक्यो न्यूनतरस्ततः 30<br />
<br />
गोधूमः सुमनोऽपि स्यात्त्रिविधः स च कीर्त्तितः<br />
महागोधूम इत्याख्यः पश्चाद्देशात्समागतः 31<br />
<br />
मधूली तु ततः किञ्चिदल्पा सा मध्यदेशजा<br />
निः शूको दीर्घगोधूमः क्वचिन्नन्दीमुखाभिघः 32<br />
<br />
गोधूमः मधुरः शीतो वातपित्तहरो गुरुः<br />
कफशुक्रप्रदो बल्यः स्निग्धः सन्धानकृत्सरः 33<br />
<br />
जीवनो बृंहणो वर्ण्यो व्रण्यो रुच्यः स्थिरत्वकृत 34<br />
<br />
मधूली शीतला स्निग्धा पित्तघ्नी मधुरा लघुः<br />
शुक्रला वृंहणी पथ्या तद्वन्नन्दीमुखः स्मृतः 35<br />
<br />
शमीजाः शिम्बिजाः शिम्बीभवाः सूप्याश्च वैदलाः 36<br />
<br />
वैदला मधुरा रूक्षाः कषायाः कटुपाकिनः<br />
वातलाः कफपित्तघ्ना बद्धमूत्रमला हिमाः<br />
ऋते मुद्गमसूराभ्यामन्ये त्वाध्मानकारिणः 37<br />
<br />
मुद्गो रूक्षो लघुर्ग्राही कफपित्तहरो हिमः<br />
स्वादुरल्पानिलो नेत्र्! यो ज्वरघ्नो वनजस्तथा 38<br />
<br />
मुद्गो बहुविधः श्यामो हरितः पीतकस्तथा<br />
श्वेतो रक्तश्च तेषान्तु पूर्वः पूर्वो लघुः स्मृतः 39<br />
<br />
सुश्रुतेन पुनः प्रोक्तो हरितः प्रवरो गुणैः<br />
चरकादिभिरप्युक्त एष एव गुणाधिकः 40<br />
<br />
माषो गुरुः स्वादुपाकः स्निग्धो रुच्योऽनिलापहः<br />
स्रंसनस्तर्पणो बल्यः शुक्रलो वृंहणः परः 41<br />
<br />
भिन्नमूत्रमलः स्तन्यो मेदःपित्तकफप्रदः<br />
गुदकीलार्दितश्वासपक्तिशूलानि नाशयेत 42<br />
<br />
कफपित्तकरा माषाः कफपित्तकरं दधि<br />
कफपित्तकरा मत्स्या वृन्ताकं कफपित्तकृत 43<br />
<br />
राजमाषो महामाषश्चपलश्च बलः स्मृतः<br />
राजमाषो गुरुः स्वादुस्तुवरस्तर्पणः सरः 44<br />
<br />
रूक्षो वातकरो रुच्यः स्तन्यो भूरिबलप्रदः<br />
श्वेतो रक्तस्तथा कृष्णस्त्रिविधः स प्रकीर्त्तितः<br />
यो महांस्तेषु भवति स एवोक्तो गुणाधिकः 45<br />
<br />
निष्पावो राजशिम्बिः स्याद्वल्लकः श्वेतशिम्बिकः<br />
निष्पावो मधुरो रूक्षो विपाकेऽम्लो गुरुः सरः 46<br />
<br />
कषायः स्तन्यपित्तास्रमूत्रवातविबन्धकृत<br />
विदाह्युष्णो विषश्लेष्मशोथहृच्छुक्रनाशनः 47<br />
<br />
मकुष्ठो वनमुद्गः स्यान्मकुष्ठकमुकुष्ठकौ 48<br />
<br />
मकुष्ठो वातलो ग्राही कफपित्तहरो लघुः<br />
वह्निजिन्मधुरः पाके कृमिकृज्ज्वरनाशनः 49<br />
<br />
मङ्गल्यको मसूरः स्यान्मङ्गल्या च मसूरिका<br />
मसूरो मधुरः पाके संग्राही शीतलो लघुः<br />
कफपित्तास्रजिद्रू क्षो वातलो ज्वरनाशनः 50<br />
<br />
आढकी तुवरी चापि सा प्रोक्ता शणपुष्पिका 51<br />
<br />
आढकी तुवरा रूक्षा मधुरा शीतला लघुः<br />
ग्राहिणी वातजननी वर्ण्या पित्तकफास्रजित 52<br />
<br />
चणको हरिमन्थः स्यात्सकलप्रिय इत्यपि<br />
चणकः शीतलो रूक्षः पित्तरक्तकफापहः<br />
लघुः कषायो विष्टम्भी वातलो ज्वरनाशनः 53<br />
<br />
स चाङ्गारेण सम्भृष्टस्तैलभृष्टश्च तद्गुणः<br />
आर्द्र भृष्टो बलकरो रोचनश्च प्रकीर्त्तितः 54<br />
<br />
शुष्कभृष्टोऽतिरूक्षश्च वातकुष्ठप्रकोपणः<br />
स्विन्नः पित्तकफौ हन्यात् सूपः क्षोभकरो मतः 55<br />
<br />
आद्रो र्!ऽतिकोमलो रुच्यः पित्तशुक्रहरो हिमः<br />
कषायो वातलो ग्राही कफपित्तहरो लघुः 56<br />
<br />
कलायो वर्त्तुलः प्रोक्तः सतीनश्च हरेणुकः<br />
कलायो मधुरः स्वादुः पाके रूक्षश्च शीतलः 57<br />
<br />
त्रिपुटः खण्डिकोऽपि स्यात्कथ्यन्ते तद्गुणा अथ<br />
त्रिपुटो मधुरस्तिक्तस्तुवरो रूक्षणो भृशम 58<br />
<br />
कफपित्तहरो रुच्यो ग्राहकः शीतलस्तथा<br />
किन्तु खञ्जत्वपङ्गुत्वकारी वातातिकोपनः 59<br />
<br />
कुलत्थिका कुलत्थश्च कथ्यन्ते तद्गुणा अथ 60<br />
<br />
कुलत्थः कटुकः पाके कषायः पित्तरक्तकृत<br />
लघुर्विदाही वीर्योष्णः श्वासकासकफानिलान 61<br />
<br />
हन्ति हिक्काऽश्मरीशुक्रदाहानाहान् सपीनसान<br />
स्वेदसंग्राहको मेदोज्वरकृमिहरः सरः 62<br />
<br />
तिलः कृष्णः सितो रक्तः स वन्योऽल्पतिलःस्मृतः<br />
तिलो रसे कटुस्तिक्तो मधुरस्तुवरो गुरुः 63<br />
<br />
विपाके कटुकः स्वादुः स्निग्धोष्णः कफपित्तनुत<br />
बल्यः केश्यो हिमस्पर्शस्त्वच्यः स्तन्यो व्रणे हितः 64<br />
<br />
दन्त्योऽल्पमूत्रकृद् ग्राही वातघ्नोऽग्निमतिप्रदः<br />
कृष्णः श्रेष्ठतमस्तेषु शुक्रलो मध्यमः सितः<br />
अन्ये हीनतराः प्रोक्तास्तज्ज्ञै रक्तादयस्तिलाः 65<br />
<br />
अतसी नीलपुष्पी च पार्वती स्यादुमा क्षुमा 66<br />
<br />
अतसी मधुरा तिक्ता स्निग्धा पाके कटुर्गुरुः <br />
उष्णा दृक्छुक्रवातघ्नी कफपित्तविनाशिनी 67<br />
<br />
तुवरी ग्राहिणी प्रोक्ता लघ्वी कफविषास्रजित<br />
तीक्ष्णोष्णा वह्निदा कण्डूकुष्ठकोष्ठकृमिप्रणुत 68<br />
<br />
सर्षपः कटुकः स्नेहस्तुन्तुभश्च कदम्बकः<br />
गौरस्तु सर्षपः प्राज्ञैः सिद्धार्थ इति कथ्यते 69<br />
<br />
सर्षपस्तु रसे पाके कटुः स्निग्धः सतिक्तकः<br />
तीक्ष्णोष्णः कफवातघ्नो रक्तपित्ताग्निवर्धनः 70<br />
<br />
रक्षोहरो जयेत्कण्डूं कुष्ठकोष्ठकृमिग्रहान्<br />
यथा रक्तस्तथा गौरः किन्तु गौरो वरो मतः 71<br />
<br />
राजीतु राजिका तीक्ष्णगन्धा क्षुज्जनिकाऽसुरी<br />
क्षवः क्षुताभिजनकः कृष्णीका कृष्णसर्षपः 72<br />
<br />
राजिका कफपित्तघ्नी तीक्ष्णोष्णा रक्तपित्तकृत<br />
किञ्चित रूक्षाऽग्निदा कण्डूकुष्ठकोष्ठकृमीन्हरेत<br />
अतितीक्ष्णा विशेषेण तद्वत्कृष्णाऽपि राजिका 73<br />
<br />
क्षुद्र धान्यं कुधान्यं च तृणधान्यमिति स्मृतम<br />
क्षुद्र धान्यमनुष्णं स्यात्कषायं लघु लेखनम 74<br />
<br />
मधुरं कटुकं पाके रूक्षं च क्लेदशोषकम<br />
वातकृद् बद्धविट्कं च पित्तरक्तकफापहम 75<br />
<br />
स्त्रियां कङ्गुप्रियङ्गु द्वे कृष्णारक्ता सिता तथा<br />
पीता चतुर्विधा कङ्गुस्तासां पीता वरा स्मृता 76<br />
<br />
कङ्गुस्तु भग्नसन्धानवातकृद् बृंहणी गुरुः <br />
रूक्षा श्लेष्महराऽतीव वाजिनां गुणकृद भृशम 77<br />
<br />
चीनाकः काककङ्गुश्च सुश्लक्ष्णः श्लक्ष्णकः स्मृतः<br />
चीनाकः कङ्गुभेदोऽस्ति स ज्ञेयः कङ्गुवद गुणैः 78<br />
<br />
श्यामाकः श्यामकः श्यामास्त्रिबीजः स्यादविप्रियः<br />
सुकुमारो राजधान्यं तृणबीजोत्तमश्च सः<br />
श्यामाकः शोषणो रूक्षो वातलः कफपित्तहृत 79<br />
<br />
कोद्र वः कोरदूषः स्यादुद्दालो वनकोद्र वः<br />
कोद्र वो वातलो ग्राही हिमः पित्तकफापहः<br />
उद्दालस्तु भवेदुष्णो ग्राही वातकरो भृशम 80<br />
<br />
चारुकः शरबीजः स्यात्कथ्यन्ते तद्गुणा अथ <br />
चारुको मधुरो रूक्षो रक्तपित्तकफापहः<br />
शीतलो लघुवृष्यश्च कषायो वातकोपनः 81<br />
<br />
यवा वंशभवा रूक्षाः कषायाः कटुपाकिनः<br />
बद्धमूत्राः कफघ्नाश्च वातपित्तकराः सराः 82<br />
<br />
कुसुम्भबीजं वरटा सैव प्रोक्ता वरट्टिका 83<br />
<br />
वरटा मधुरा स्निग्धा रक्तपित्तकफापहा<br />
कषाया शीतला गुर्वी स्यादवृष्याऽनिलापहा 84<br />
<br />
गवेधुका तु विद्वद्भिर्गवेधुः कथिता स्त्रियाम<br />
गवेधुः कटुका स्वाद्वी कार्श्यकृत्कफनाशिनी 85<br />
<br />
प्रसाधिका तु नीवारस्तृणान्नमिति च स्मृतम<br />
नीवारः शीतलो ग्राही पित्तघ्नः कफवातकृत 86<br />
<br />
यावनालो हिमः स्वादुर्लोहितः श्लेष्मपित्तजित<br />
अवृष्यस्तुवरो रूक्षः क्लेदकृत्कथितो लघुः 87<br />
<br />
धान्यं सर्वं नवं स्वादु गुरु श्लेष्मकरं स्मृतम<br />
तत्तु वर्षोषितं पथ्यं यतो लघुतरं हि तत 88<br />
<br />
वर्षोषितं सर्वधान्यं गौरवं परिमुञ्चति <br />
न तु त्यजति वीर्यं स्वं क्रमान्मुञ्चत्यतः परम 89<br />
<br />
एतेषु यवगोधूमतिलमाषा नवा हिताः<br />
पुराणा विरसा रूक्षा न तथा गुणकारिणः 90<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे मिश्रप्रकरणे </span><br />
<span style="color: red;">नवमो धान्यवर्गः समाप्तः 9</span><br />
<br /></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-76310110973704337042015-07-12T20:18:00.001-07:002015-07-12T20:18:29.058-07:00अथ शाकवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पत्रं पुष्पं फलं नालं कन्दं संस्वेदजं तथा<br />
शाकं षड्विधमुदृष्टं गुरुं विद्याद्यथोत्तरम 1<br />
<br />
प्रायः शाकानि सर्वाणि विष्टम्भीनि गुरूणि च<br />
रूक्षाणि बहुवर्चांसि सृष्टविण्मारुतानि च 2<br />
<br />
शाकं भिनत्ति वपुरस्थि निहन्ति नेत्रं वर्णं विनाशयति रक्तमथापि शुक्रम<br />
प्रज्ञाक्षयं च कुरुते पलितं च नूनं हन्ति स्मृतिं गतिमिति प्रवदन्ति तज्ज्ञाः3<br />
<br />
शाकेषु सर्वेषु वसन्ति रोगास्ते हेतवो देहविनाशनाय<br />
तस्माद् बुधः शाकविवर्जनं तु कुर्यात्तथाऽम्लेषु स एव दोषः 4<br />
<br />
वास्तूकं वास्तुकं च स्यात्क्षारपत्रं च शाकराट<br />
तदेव तु बृहत्पत्रं रक्तं स्याद्गौडवास्तुकम 5<br />
<br />
प्रायशो यवमध्ये स्याद्यवशाकमतः स्मृतम<br />
वास्तूकद्वितयं स्वादु क्षारं पाके कटूदितम 6<br />
<br />
दीपनं पाचनं रुच्यं लघु शुक्रबलप्रदम<br />
सरं प्लीहास्रपित्तार्शः कृमिदोषत्रयापहम 7<br />
<br />
पोतक्युपोदिका सा तु मालवाऽमृतवल्लरी<br />
पोतकी शीतला स्निग्धा श्लेष्मला वातपित्तनुत 8<br />
<br />
अकण्ठ्या पिच्छिला निद्रा शुक्रदा रक्त पित्तजित <br />
बलदा रुचिकृत्पथ्या बृंहणी तृप्तिकारिणी 9<br />
<br />
मारिषो वाष्पको मार्ष श्वेतो रक्तश्च संस्मृतः<br />
मारिषो मधुरः शीतो विष्टम्भी पित्तनुद गुरुः 10<br />
<br />
वातश्लेष्मकरो रक्तपित्तनुद् विषमाग्निजित<br />
रक्तमार्षो गुरुर्नाति सक्षारो मधुरः सरः<br />
श्लेष्मलः कटुकः पाके स्वल्पदोष उदीरितः 11<br />
<br />
तण्डुलीयो मेघनादः काण्डेरस्तण्डुलेरकः<br />
भण्डीरस्तण्डुलीबीजो विषघ्नश्चाल्पमारिषः 12<br />
<br />
तण्डुलीयो लघुः शीतो रूक्षः पित्तकफास्रजित<br />
सृष्टमूत्रमलो रुच्यो दीपनो विषहारकः 13<br />
<br />
पानीयतण्डुलीयं तु कञ्चटं समुदाहृतम<br />
कञ्चटं तिक्तकं रक्तपित्तानिलहरं लघु 14<br />
<br />
पलक्या वास्तुकाकारा छुरिका चीरितच्छदा 15<br />
<br />
पलक्या वातला शीता श्मेष्मला भेदिनी गुरुः<br />
विष्टम्भिनी मदश्वासपित्तरक्तकफापहा 16<br />
<br />
नाडिकं कालशाकं च श्राद्धशाकं च कालकम<br />
कालशाकं सरं रुच्यं वातकृत्कफशोथहृत<br />
बल्यं रुचिकरं मेध्यं रक्तपित्तहरं हिमम 17<br />
<br />
पट्टशाकस्तु नाडीको नाडीशाकश्च स स्मृतः<br />
नाडीको रक्तपित्तघ्नो विष्टम्भो वातकोपनः 18<br />
<br />
कलम्बी शतपर्वी च कथ्यन्ते तद्गुणा अथ<br />
कलम्बी स्तन्यदा प्रोक्ता मधुरा शुक्रकारिणी 19<br />
<br />
लोणालोणी च कथिता वृहल्लोणी तु घोटिका<br />
लोणी रूक्षा स्मृता गुर्वी वातश्लेष्महरी पटुः 20<br />
<br />
अर्शोघ्नी दीपनी चाम्ला मन्दाग्निविषनाशिनी<br />
घोटिकाऽम्ला सराचोष्णा वातकृत्कफपित्तहृत 21<br />
<br />
वाग्दोषव्रणगुल्मघ्नी श्वासकासप्रमेहनुत<br />
शोथे लोचनरोगे च हिता तज्ज्ञैरुदाहृता 22<br />
<br />
चाङ्गेरी चुक्रिका दन्तशठाम्बष्ठाऽम्ललोणिका<br />
अश्मन्तकस्तु शफरी कुशली चाम्लपत्रकः 23<br />
<br />
चाङ्गेरी दीपनी रुच्या रुक्षोष्णा कफवातनुत<br />
पित्तलाऽम्ला ग्रहण्यर्शः कुष्ठातीसारनाशिनी 24<br />
<br />
चुक्रिका स्यात्तु पत्राम्ला रोचनी शतवेधिनी 25<br />
<br />
चुक्रा त्वम्लतरा स्वाद्वी वातघ्नी कफपित्तकृत<br />
रुच्या लघुतरा पाके वृन्ताकेनातिरोचनी 26<br />
<br />
चिञ्चा चञ्चुश्चञ्चुकी च दीर्घपत्रा सतिक्तका<br />
चञ्चुः शीता सरा रुच्या स्वाद्वी दोषत्रयापहा<br />
धातुपुष्टिकरी बल्या मेध्या पिच्छिलका स्मृता 27<br />
<br />
ब्राह्मी शङ्खधराऽचारी मत्स्याक्षी हिलमोचिका<br />
शोथं कुष्ठं कफं पित्तं हरते हिलमोचिका 28<br />
<br />
शितिवारः शितिवरः स्वस्तिकः सुनिषण्णकः<br />
श्रीवारकः सूचिपत्रः पर्णकः कुक्कुटः शिखी 29<br />
<br />
चाङ्गेरीसदृशः पत्रैश्चतुर्दल इतीरितः<br />
शाको जलान्विते देशे चतुष्पत्रीति चोच्यते 30<br />
<br />
सुनिषण्णो हिमो ग्राही मेदोदोषत्रयापहः 31<br />
<br />
अविदाही लघुः स्वादुः कषायो रूक्षदीपनः<br />
वृष्यो रुच्योज्वरश्वासमेहकुष्ठभ्रम प्रणुत् 32<br />
<br />
पाचनं लघु रुच्योष्णं पत्रं मूलकजं नवम<br />
स्नेहसिद्धं त्रिदोषघ्नमसिद्धं कफपित्तकृत 33<br />
<br />
द्रोणपुष्पीदलं स्वादु रूक्षं गुरु च पित्तकृत<br />
भेदनं कामलाशोथमेहज्वरहरं कटु 34<br />
<br />
यवानीशाकमाग्नेयं रुच्यं वातकफप्रणुत्<br />
उष्णं कटु च तिक्तं च पित्तलं लघु शूलहृत 35<br />
<br />
दद्रुघ्नपत्रं दोषघ्नमम्लं वातकफापहम<br />
कण्डूकासक्रिमिश्वासदद्रुकुष्ठप्रणुल्लघु 36<br />
<br />
सेहुण्डस्य दलं तीक्ष्णं दीपनं रेचनं हरेत<br />
आध्मानाष्ठीलिकागुल्मशूलशोथोदराणि च 37<br />
<br />
पर्पटो हन्ति पित्तास्रज्वरतृष्णाकफभ्रमान<br />
संग्राही शीतलस्तिक्तो दाहनुद्वातलो लघुः 38<br />
<br />
गोजिह्वा कुष्ठमेहास्रकृच्छ्रज्वरहरी लघुः 39<br />
<br />
पटोलपत्रं पित्तघ्नं दीपनं पाचनं लघु<br />
स्निग्धं वृष्यं तथोष्णं च ज्वरकासक्रिमिप्रणुत 40<br />
<br />
गुडूचीपत्रमाग्नेयं सर्वज्वरहरं लघु<br />
कषायं कटुतित्तं च स्वादुपाकं रसायनम 41<br />
<br />
बल्यमुष्णं च संग्राहि हन्याद्दोषत्रयं तृषाम<br />
दाहप्रमेहवातासृक्कामलाकुष्ठपाण्डुताः 42<br />
<br />
कासमर्दोऽरिमर्दश्च कासारिः कर्कशस्तथा<br />
कासमर्ददलं रुच्यं वृष्यं कासविषास्रनुत 43<br />
<br />
मधुरं कफवातघ्नं पाचनं कण्ठशोधनम <br />
विशेषतः कासहरं पित्तघ्नं ग्राहकं लघु 44<br />
<br />
रुच्यं चणकशाकं स्याद् दुर्जरं कफवातकृत<br />
अम्लं विष्टम्भजनकं पित्तनुदृन्तशोथहृत 45<br />
<br />
कलायशाकं भेदि स्याल्लघु तिक्तं त्रिदोषजित 46<br />
<br />
कटुकं सार्षपं शाकं बहुमूत्रमलं गुरु<br />
अम्लपाकं विदाहि स्यादुष्णं रूक्षं त्रिदोषकृत<br />
सक्षारलवणं तीक्ष्णं स्वादु शाकेषु निन्दितम 47<br />
<br />
अगस्तिकुसुमं शीतं चातुर्थिकनिवारणम<br />
नक्तान्ध्यनाशनं तिक्तं कषायं कटुपाकि च<br />
पीनसश्लेष्मपित्तघ्नं वातघ्नं मुनिभिर्मतम 48<br />
<br />
कदल्याः कुसुमं स्निग्धं मधुरं तुवरं गुरु<br />
वातपित्तहरं शीतं रक्तपित्तक्षयप्रणुत 49<br />
<br />
शिग्रोः पुष्पं तु कटुकं तीक्ष्णोष्णं स्नायुशोथनुत<br />
कृमिहृत्कफवातघ्नं विद्र धिप्लीहगुल्मजित<br />
मधु शिग्रोस्त्वक्षिहितं रक्तपित्तप्रसादनम 50<br />
<br />
शाल्मलीपुष्पशाकं तु घृतसैन्धवसाधितम<br />
प्रदरं नाशयत्येव दुःसाध्यं च न संशयः 51<br />
<br />
रसे पाके च मधुरं कषायं शीतलं गुरु<br />
कफपित्तास्रजिद ग्राहि वातलं च प्रकीर्त्तितम 52<br />
<br />
इति पुष्पशाकानि<br />
<br />
अथ फलशाकानि <br />
<br />
कूष्माडं स्यात्पुष्पफलं पीतपुष्पं बृहत्फलम 53<br />
<br />
कूष्माण्डं बृंहणं वृष्यं गुरु पित्तास्रवातनुत<br />
बालं पित्तापहं शीतं मध्यमं कफकारकम 54<br />
<br />
बृद्धंनातिहिमं स्वादु सक्षारं दीपनं लघु<br />
बस्तिशुद्धिकरं चेतोरोगहृत्सर्वदोषजित 55<br />
<br />
कूष्माण्डी तु भृशं लघ्वी कर्कारुरपि कीर्त्तिता<br />
कर्कारुग्राहिणी शीता रक्तपित्तहरा गुरुः<br />
पक्वा तिक्ताऽग्निजननी सक्षारा कफवातनुत 56<br />
<br />
अलाबूः कथिता तुम्बी द्विधा दीर्घा च वर्तुला 57<br />
<br />
मिष्टतुम्बीफलं हृद्यं पित्तश्लेष्मापहं गुरु<br />
वृष्यं रुचिकरं प्रोक्तं धातु पुष्टिविवर्धनम 58<br />
<br />
इक्ष्वाकुः कटुतुम्बी स्यात्सा तूम्बी च महाफला<br />
कटुतुम्बी हिमा हृद्या पित्तकासविषापहा<br />
तिक्ता कटुर्विपाके च वातपित्तज्वरान्तकृत 59<br />
<br />
एर्वारुः कर्कटी प्रोक्ता कथ्यन्ते तद्गुणा अथ 60<br />
<br />
कर्कटी शीतला रूक्षा ग्राहिणी मधुरा गुरुः<br />
रुच्या पित्तहरा सामा पक्वा तृष्णाऽग्निपित्तकृत 61<br />
<br />
चिचिण्डः श्वेतराजिः स्यात्सुदीर्घो गृहकूलकः<br />
चिचिण्डो वातपित्तघ्नो बल्यः पथ्यो रुचिप्रदः<br />
शोषणोऽतिहितः किञ्चिद् गुणैर्न्यूनः पटोलतः 62<br />
<br />
कारवेल्लं कटिल्लं स्यात्कारवेल्ली ततोलघुः<br />
कारवेल्लं हिमं भेदि लघुतिक्तमवातलम 63<br />
<br />
ज्वरपित्तकफास्रघ्नं पाण्डुमेहकृमीन् हरेत<br />
तद्गुणा कारवेल्ली स्याद्विशेषाद्दीपनी लघुः 64<br />
<br />
महाकोशातकी प्रोक्ता हस्तिघोषा महाफला 65<br />
<br />
धामार्गवो घोषकश्च हस्तिपर्णश्च स स्मृतः<br />
महाकोशातकीस्निग्धा रक्तपित्तानिलापहा 66<br />
<br />
धामार्गवः पीतपुष्पो जालिनी कृतवेधना<br />
राजकोशातकी चेति तथोक्ता राजिमत्फला 67<br />
<br />
राजकोशातकी शीता मधुरा कफवातकृत<br />
पितघ्नी दीपनी श्वासज्वरकासकृमिप्रणुत 68<br />
<br />
पटोलः कुलकस्तिक्तः पाण्डुकः कर्कशच्छदः<br />
राजीफलः पाण्डुफलो राजेयश्चामृतफलः 69<br />
<br />
बीजगर्भः प्रतीकश्च कुष्ठहा कासभञ्जनः<br />
पटोलं पाचनं हृद्यं वृष्यं लघ्वग्निदीपनम<br />
स्निग्धोष्णं हन्ति कासास्रज्वरदोषत्रयक्रिमीन 70<br />
<br />
पटोलस्य भवेन्मूलं विरेचनकरं सुखात 71<br />
<br />
नालं श्लेष्महरं पत्रं पित्तहारी फलं पुनः<br />
दोषत्रयहरं प्रोक्तं तद्वतिक्ता पटोलिका 72<br />
<br />
बिम्बी रक्तफला तुण्डी तुण्डीकेरी च बिम्बिका<br />
ओष्ठोपमफला प्रोक्ता पीलुपर्णी च कथ्यते 73<br />
<br />
बिम्बीफलं स्वादु शीतं गुरु पित्तास्रवातजित<br />
स्तभनं लेखनं रुच्यं विबन्धाध्मानकारकम् 74<br />
<br />
शिम्बिः शिम्बी पुस्तशिम्बी तथा पुस्तकशिम्बिका<br />
शिम्बीद्वयं च मधुरं रसे पाके हिमं गुरु<br />
बल्यं दाहकरं प्रोक्तं श्लेष्मलं वातपित्तजित 75<br />
<br />
कोलशिम्बिः कृष्णफला तथा पर्यङ्कपट्टिका 76<br />
<br />
कोलशिम्बिः समीरघ्नी गुर्व्युष्णा कफपित्तकृत<br />
शुक्राग्निसादकृत वृष्या रुचिकृद बद्धविड गुरुः 77<br />
<br />
शोभाञ्जनफलं स्वादु कषायं कफपित्तनुत्<br />
शूलकुष्ठक्षयश्वासगुल्महृद दीपनं परम 78<br />
<br />
वृन्ताकं स्त्री तु वार्त्ताकुर्भण्टाकी भाण्टिकाऽपि च<br />
वृन्ताकं स्वादु तीक्ष्णोष्णं कटुपाकमपित्तलम<br />
ज्वरवातबलासघ्नं दीपनं शुक्रलं लघु 79<br />
<br />
तद्बालं कफपित्तघ्नं वृद्धं पित्तकरं गुरु 80<br />
<br />
वृन्ताकं पित्तलं किञ्चिदङ्गारपरिपाचितम<br />
कफमेदोऽनिलामघ्नमत्यर्थं लघु दीपनम 81<br />
<br />
तदेव हि गुरु स्निग्धं सतैलं लवणान्वितम<br />
अपरं श्वेतवृन्ताकं कुक्कुटाण्डसमं भवेत<br />
तदर्शःसु विशेषेण हितं हीनं च पूर्वतः 82<br />
<br />
डिण्डिशो रोमशफलो मुनिनिर्मित इत्यपि 83<br />
<br />
डिण्डिशो रुचिकृद्भेदी पित्तश्लेष्मापहः स्मृतः<br />
सुशीतो वातलो रूक्षो मूत्रलश्चाश्मरीहरः 84<br />
<br />
पिण्डारं शीतलं बल्यं पित्तघ्नंरुचिकारकम<br />
पाके लघु विशेषेण विषशान्तिकरं स्मृतम 85<br />
<br />
कर्कोटकी पीतपुष्पा महाजालीति चोच्यते<br />
कर्कोटी मलहृत्कुष्ठहृल्लासारुचिनाशिनी<br />
श्वासकासज्वरान्हन्ति कटुपाका च दीपनी 86<br />
<br />
डोडिका विषमुष्टिश्च डोडित्यपि सुमुष्टिका 87<br />
<br />
डोडिका पुष्टिदा वृष्या रुच्या वह्निप्रदा लघुः<br />
हन्ति पित्तकफार्शांसि कृमिगुल्मविषामयान 88<br />
<br />
कण्टकारीफलं तिक्तं कटुकं दीपनं लघु<br />
रूक्षोष्णं श्वासकासघ्नं ज्वरानिलकफापहम 89<br />
<br />
इति फल शाकानि<br />
<br />
तीक्ष्णोष्णं सार्षपं नालं वातश्लेष्मव्रणापहम<br />
कण्डूकृमिहरं दद्रुकुष्ठघ्नं रुचिकारकम 90<br />
<br />
इति नालशाकानि<br />
<br />
अथ कन्दशाकानि<br />
<br />
सूरणः कन्द ओलश्च कन्दलोऽशोघ्न इत्यपि<br />
सूरणो दीपनो रूक्षः कषायः कण्डुकृत् कटुः 91<br />
<br />
विष्टम्भी विशदो रुच्यः कफार्शः कृन्तनो लघुः<br />
विशेषादर्शसे पथ्यः प्लीहगुल्मविनाशनः 92<br />
<br />
सर्वेषां कन्दशाकानां सूरणः श्रेष्ठ उच्यते<br />
दद्रू णां कुष्ठिनां रक्तपित्तिनां न हितो हि सः<br />
सन्धानयोगं सम्प्राप्तः सूरणो गुणवत्तरः 93<br />
<br />
आरूकं वीरसेनञ्च वीरं वीरारुकं तथा<br />
आरुकमप्यालुकं तत्कथितं वीरसेनकम 94<br />
<br />
काष्ठालुकशङ्खालुकहस्त्यालुकानि कथ्यन्ते<br />
पिण्डालुकमघ्वालुक रक्तालुकानि चोक्तानि 95<br />
आलुकं शीतलं सर्वं विष्टम्भि मधुरं गुरु 96<br />
<br />
सृष्टमूत्रमलं रूक्षं दुर्जरं रक्तपित्तनुत<br />
कफानिलकरं बल्यं वृष्यं स्वल्पाग्निवर्द्धनम 97<br />
<br />
रक्तालुभेदो या दीर्घा तन्वी च प्रथिताऽलुकी<br />
आलुकी बलकृत्स्निग्धा गुर्वी हृत्कफनाशिनी<br />
विष्टम्भकारिणी तैले तलिताऽतिरुचिप्रदा 98<br />
<br />
मूलकं द्विविधं प्रोक्तं तत्रैकं लघुमूलकम<br />
शालामर्कटकं विस्रं शालेयं मरुसम्भवम 99<br />
<br />
चाणक्यमूलकं तीक्ष्णं तथा मूलकपोतिका<br />
नेपालमूलकं चान्यत्तद्भवेद्गजदन्तवत 100<br />
<br />
लघुमूलं कटूष्णं स्याद्रुच्यं लघु च पाचनम<br />
दोषत्रयहरं स्वर्यं ज्वरश्वासविनाशनम 101<br />
<br />
नासिकाकण्ठरोगघ्नं नयनामयनाशनम 102<br />
<br />
महत्तदेव रूक्षोष्णं गुरु दोषत्रयप्रदस<br />
स्नेहसिद्धं तदेव स्याद् दोषत्रयविनाशनम 103<br />
<br />
गृञ्जनं गाजरं प्रोक्तं तथा नारङ्गवर्णकम<br />
गाजरं मधुरं तीक्ष्णं तिक्तोष्णं दीपनं लघु<br />
संग्राहि रक्तपित्तार्शोग्रहणीकफवातजित 104<br />
<br />
शीतलः कदलीकन्दो बल्यः केश्योऽम्लपित्तजित<br />
वह्निकृद्दाहहारी च मधुरो रुचिकारकः 105<br />
<br />
मानकः स्यान्महापत्रः कथ्यन्ते तद्गुणा अथ<br />
मानकः शोथहृच्छीतो रक्तपित्तहरो लघुः 106<br />
<br />
वाराही पित्तला बल्या कट्वी तिक्ता रसायनी<br />
आयुःशुक्राग्निकृन्मेहकफकुष्ठानिलापहा 107<br />
<br />
गजकर्णा तु तिक्तोष्णा तथा वातकफाञ्जयेत<br />
शीतज्वरहरी स्वादुः पाके तस्यास्तु कन्दकः 108<br />
<br />
पाण्डुशोथकृमिप्लीहगुल्मानाहोदरापहः<br />
ग्रहण्यर्शोविकारघ्नी वनसूरणकन्दवत 109<br />
<br />
केमुकं कटुकं पाके तिक्तं ग्राहि हिमं लघु 110<br />
दीपनं पाचनं हृद्यं कफपित्तज्वरापहम<br />
कुष्ठकासप्रमेहास्रनाशनं वातलं कटु 111<br />
<br />
कसेरु द्विविधं तत्तु महद्रा जकसेरुकम्<br />
मुस्ताकृति लघु स्याद्यत्तच्चिचोढमिति स्मृतम 112<br />
<br />
कसेरुकद्वयं शीतं मधुरं तुवरं गुरु<br />
पित्तशोणितदाहघ्नं नयनामयनाशनम<br />
ग्राहि शुक्रानिलश्लेष्मारुचिस्तन्यकरं स्मृतम 113<br />
<br />
पद्मादिकन्दः शालूकं करहाटश्च कथ्यते 114<br />
<br />
मृणालमूलं भिस्साण्डं जलालूकञ्च कथ्यते<br />
शालूकं शीतलं वृष्यं पित्तदाहास्रनुद गुरु 115<br />
<br />
दुर्जरं स्वादुपाकश्च स्तन्यानिलकफप्रदम्<br />
संग्राहि मधुरं रूक्षं भिस्साण्डमपि तद्गुणम 116<br />
<br />
बालं ह्यनार्त्तवं जीर्णं व्याधितं कृमिभक्षितम<br />
कन्दं विवर्जयेत्सर्वं यद्वाऽग्न्यादिविदूषितम<br />
अतिजीर्णमकालोत्थं रूक्षसिद्धमदेशजम 117<br />
<br />
कर्कशं कोमलं चातिशीतव्यालादिदूषितम<br />
संशुष्कं सकलं शाकं नाश्नीयान्मूलकं विना 118<br />
<br />
इति कन्द शाकानि<br />
<br />
उक्तं संस्वेदजं शाकं भूमिच्छत्रं शिलीन्ध्रकम<br />
क्षितिगोमयकाष्ठेषु वृक्षादिषु तदुद्भवेत 119<br />
<br />
सर्वे संस्वेदजाः शीता दोषलाः पिच्छिलाश्च ते<br />
गुरवश्छर्द्यतीसारज्वरश्लेष्मामयप्रदाः 120<br />
<br />
श्वेताशुचिस्थलीकाष्ठवंशगोमयसम्भवाः<br />
नातिदोषकरास्ते स्युः शेषास्तेभ्यो विगर्हिताः 121<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे मिस्रप्रकरणे</span><br />
<span style="color: red;">दशमः शाकवर्गं समाप्तः 10</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-43979701521116013882015-07-12T06:22:00.000-07:002015-07-12T06:22:01.705-07:00अथैकादशो मांसवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मासं तु पिशितं क्रव्यमामिषं पललं पलम<br />
मांसं वातहरं सर्वं बृंहणं बलपुष्टिकृत<br />
प्रीणनं गुरु हृद्यञ्च मधुरं रसपाकयोः 1<br />
<br />
मांसवर्गो द्विधा ज्ञेयो जाङ्गलानूपभेदतः 2<br />
<br />
मांसवर्गेऽत्र जङ्घाला बिलस्थाश्च गुहाशयाः<br />
तथा पर्णमृगा ज्ञेया विष्किराः प्रतुदस्तथा 3<br />
<br />
प्रसहा अथ च ग्राम्या अष्टौ जाङ्गलजातयः<br />
जाङ्गला मधुरा रूक्षास्तुवरा लघवस्तथा 4<br />
<br />
बल्यास्ते बृंहणं वृष्या दीपना दोषहारिणः<br />
मूकतां मिन्मिनत्वं च गद्गदत्वार्दिते तथा 5<br />
<br />
बाधिर्य्यमरुचिच्छर्दिप्रमेहमुखजान् गदान<br />
श्लीपदं गलगण्डञ्च नाशयत्यनिलामयान 6<br />
<br />
कूलेचराः प्लवाश्चापि कोशस्थाः पादिनस्तथा<br />
मत्स्या एते समाख्याताः पञ्चधाऽनूपजातयः 7<br />
<br />
अनूपा मधुराः स्निग्धा गुरवो वह्निसादनाः<br />
श्लेष्मलाः पिच्छिलाश्चापि मांसपुष्टिप्रदा भृशम<br />
तथाऽभिष्यन्दिनस्ते हि प्रायः पथ्यतमाः स्मृताः 8<br />
<br />
हरिणैणकुरङ्गर्ष्यपृषतन्यङ्कुशम्बराः 9<br />
<br />
राजीवोऽपि च मुण्डी चेत्याद्या जङ्घालसंज्ञकाः<br />
हरिणस्ताम्रवर्णः स्यादेणः कृष्णः प्रकीर्त्तितः 10<br />
<br />
कुरङ्गईषत्ताम्रः स्यादेणतुल्याकृतिर्महान<br />
ऋष्यो नीलाङ्गको लोके स रोझ इति कीर्त्तितः 11<br />
<br />
पृषतश्चन्द्र बिन्दुः स्याद्धरिणात्किञ्चिदल्पकः<br />
न्यङ्कुर्बहुविषाणोऽथ शम्बरो गवयो महान 12<br />
<br />
राजीवस्तु मृगो ज्ञेयो राजिभिः परितोवृतः<br />
यो मृगः शृङ्गहीनः स्यात्स मुण्डीति निगद्यते 13<br />
<br />
जङ्घालाः प्रायशः सर्वे पित्तश्लेष्महराः स्मृतः<br />
किञ्चिद्वातकराश्चापि लघवो बलवर्द्धनाः 14<br />
<br />
गोधाशशभुजङ्गाखुशल्लक्याद्या बिलेशयाः<br />
बिलेशया वातहरा मधुरा रसपाकयोः<br />
बृंहणा बद्धविण्मूत्रा वीर्योष्णाश्च प्रकीर्त्तिताः 15<br />
<br />
सिंहव्याघ्रवृका ॠक्षतरक्षुद्वीपिनस्तथा<br />
बभ्रुजम्बूकमार्जारा इत्याद्याः स्युर्गुहाशयाः 16<br />
<br />
गुहाशया वातहरा गुरूष्णा मधुराश्च ते<br />
स्निग्धा बल्या हिता नित्यं नेत्र गुद विकारिणाम 17<br />
<br />
अथ पर्णमृगाः विऋ!क्षॐ पर चढने वाले प्राणीइ! तेषां गणनां<br />
वनौका वृक्षमार्जारो वृक्षमर्कटिकाऽदयः<br />
एते पर्णमृगाः प्रोक्ताः सुश्रुताद्यैर्महर्षिभिः 18<br />
<br />
स्मृताः पर्ण मृगा वृष्याश्चक्षुष्या शोषिणे हिताः<br />
श्वासार्शः कास शमनाः सृष्ट मूत्र पुरीषकाः 19<br />
<br />
वर्त्तका लाववर्त्तीरकपिञ्जलकतित्तिराः<br />
कुलिङ्गकुक्कुटाद्याश्च विष्किरा समुदाहृताः 20<br />
<br />
विकीर्य भक्षयन्त्येते यस्मात्तस्माद्धि विष्किराः<br />
कपिञ्जल इति प्राज्ञैः कथितो गौरतित्तिरिः 21<br />
<br />
विष्किरा मधुराः शीताः कषायाः कटुपाकिनः<br />
बल्या वृष्यास्रिदोषघ्नाः पथ्यास्ते लघवः स्मृताः 22<br />
<br />
कालकण्ठकहारीतकपोतशतपत्रकाः<br />
पारावतः खञ्जरीटः पिकाद्याः प्रतुदाः स्मृताः<br />
प्रतुद्य भक्षयन्त्येते तुण्डेन प्रतुदास्ततः 23<br />
<br />
प्रतुदा मधुराः पित्तकफघ्नास्तुवरा हिमाः<br />
लघवो बद्धवर्चस्काः किञ्चिद्वातकराःस्मृताः 24<br />
<br />
काको गृध्र उलूकश्च चिल्लश्च शशघातकः<br />
चाषो भासश्च कुरर इत्याद्याः प्रसहाः स्मृताः 25<br />
<br />
प्रसहाः कीर्त्तिता एते प्रसह्याच्छिद्य भक्षणात 26<br />
<br />
प्रसहाः खलु वीर्योष्णास्तन्मांसं भक्षयन्ति ये<br />
ते शोषभस्मकोन्मादशुक्रक्षीणा भवन्ति हि 27<br />
<br />
छागमेषवृषाश्वाद्या ग्राम्याः प्रोक्ता महर्षिभिः<br />
ग्राम्या वातहराः सर्वे दीपनाः कफपित्तलाः<br />
मधुरा रसपाकाभ्यां बृंहणा बलवर्द्धनाः 28<br />
<br />
लुलायगण्डवाराहचमरीवारणादयः<br />
एते कूलेचराः प्रोक्ता यतः कूले चरन्त्यपाम 29<br />
<br />
कूलेचरा मरुत्पित्तहरा वृष्या बलावहाः<br />
मधुराः शीतलाः स्निग्धामूत्रलाः श्लेष्म वर्धना 30<br />
<br />
हंससारसकारण्डबकक्रौञ्चशरारिकाः 31<br />
<br />
नन्दीमुखी सकादम्बा बलाकाद्याः प्लवाः स्मृताः<br />
प्लवन्ति सलिले यस्मादेते तस्मात्प्लवाः स्मृताः 32<br />
<br />
प्लवाः पित्तहराः स्निग्धा मधुरा गुखो हिमाः<br />
वात श्लेष्म प्रदाश्चापि बल शुक्र कराः सराः 33<br />
<br />
शङ्खः शङ्खनखश्चापिशुक्तिशम्बूककर्कटाः<br />
जीवा एवंविधाश्चान्येकोशस्थाः परिकीर्त्तिताः 34<br />
<br />
कोशस्था मधुराःस्निग्धा वातपित्तहरा हिमाः<br />
बृंहणा बहुवर्चस्का वृष्याश्च बलवर्द्धनाः 35<br />
<br />
कुम्भीरकूर्मनक्राश्च गोधामकरशङ्कव<br />
घण्टिकः शिशुमारश्चेत्यादयः पादिनः स्मृताः 36<br />
<br />
पादनोऽपि च ये तेतु कोशस्थानां गुणैः समाः 37<br />
<br />
मत्स्यो मीनो विसारश्च झषो वैसारिणोऽण्डजः<br />
शकुली पृथुरोमा च स सुदर्शन इत्यपि 38<br />
<br />
रोहिताद्यास्तु ये जीवास्ते मत्स्याः परिकीर्त्तिताः<br />
मत्स्याः स्निग्धोष्णमधुरा गुरवः कफपित्तलाः 39<br />
<br />
वातघ्ना बृंहणा वृष्या रोचका बलवर्द्धनाः<br />
मद्यव्यवायसक्तानां दीप्ताग्नीनाञ्च पूजिताः 40<br />
<br />
हरिणः शीतलो बद्धविण्मूत्रो दीपनो लघुः<br />
रसे पाके च मधुरः सुगन्धिः सन्निपातहा 41<br />
<br />
एणः कषायो मधुरः पित्तासृक्कफवातहृत<br />
संग्राही रोचनो बल्यो ज्वरप्रशमनः स्मृतः 42<br />
<br />
कुरङ्गो बृंहणो बल्यः शीतलः पित्तहृद गुरुः<br />
मधुरो वातहृद् ग्राही किञ्चित्कफकरः स्मृतः 43<br />
<br />
ऋष्यो नीलाण्डकश्चापि गवयो रोझ इत्यपि<br />
गवयो मधुरो बल्यः स्निग्धोष्णः कफपित्तलः 44<br />
<br />
पृषतस्तु भवेत्स्वादुर्ग्राहकः शीतलो लघुः<br />
दीपनो रोचनः श्वासज्वरदोषत्रयास्रजित 45<br />
<br />
न्यङ्कुः स्वादुर्लघुर्बल्यो वृष्यो दोषत्रयापहः 46<br />
<br />
साबरं पललं स्निग्धं शीतलं गुरु च स्मृतम<br />
रसे पाके च मधुरं कफदं रक्तपित्तहृत 47<br />
<br />
राजीवस्तु गुणैर्ज्ञेयः पृषतेन समो जनैः 48<br />
<br />
मुण्डी तु ज्वरकासास्रक्षयश्वासापहो हिमः 49<br />
<br />
लम्बकर्णः शशः शूली लोमकर्णो बिलेशयः<br />
शशः शीतो लघुर्ग्राही रूक्षः स्वादुः सदा हितः<br />
वह्निकृत्कफपित्तघ्नो वातसाधारणः स्मृतः<br />
ज्वरातीसारशोषास्रश्वासामयहरश्च सः 50<br />
<br />
सेधा तु शल्यकः श्वावित्कथ्यन्ते तद्गुणा अथ<br />
शल्यकः श्वासकासास्रशोषदोषत्रयापहः 51<br />
<br />
पक्षी खगो विहङ्गश्च विहगश्च विहङ्गमः<br />
शकुनिर्विः पतत्री च विष्किरो विकिरोऽण्डजः<br />
धान्याङ्कुरचरा येऽत्र तेषां मांसं लघूत्तमम्<br />
आनूपं बलकृन्मांसं स्निग्धं गुरुतरं स्मृतम 52<br />
<br />
वर्तीको वर्त्तकश्चित्रस्ततोऽन्या वर्त्तका स्मृता<br />
वर्त्तकोऽग्निकरः शीतो ज्वरदोषत्रयापहः<br />
सुरुच्यः शुक्रदो बल्यो वर्त्तकाऽल्पगुणा ततः 53<br />
<br />
लावा विष्करवर्गेषु ते चतुर्धा मता बुधैः 54<br />
<br />
पांशुलोगौरकोऽन्यस्तु पौण्ड्रको दर्भरस्तथा<br />
लावा वह्निकराः स्निग्धा गरघ्ना ग्राहका हिताः 55<br />
<br />
पांशुलः श्लेष्मलस्तेषु वीर्योऽष्णोनिलनाशनः<br />
गौरोलघुतरो रूक्षो वह्निकारी त्रिदोषजित 56<br />
<br />
पौण्ड्रकः पित्तकृत्किञ्चिल्लघुर्वातकफापहः<br />
दर्भरो रक्तपित्तघ्नो हृदामयहरो हिमः 57<br />
<br />
वर्त्तीको वर्त्तिचटको वार्त्तीकश्चैव स स्मृतः<br />
वर्त्तीको मधुरः शीतो रूक्षश्च कफपित्तनुत 58<br />
<br />
तित्तिरिः कृष्णवर्णः स्यात्स तु गौरः कपिञ्जलः<br />
तित्तिरिर्बलदो ग्राही हिक्कादोषत्रयापहः<br />
श्वासकासज्वरहरस्तस्माद्गौरोऽधिको गुणैः 59<br />
<br />
चटकः कलविङ्कः स्यात्कुलिङ्गः कालकण्ठकः 60<br />
<br />
कुलिङ्गः शीतलः स्निग्धः स्वादुः शुक्रकफप्रदः<br />
सन्निपातहरो वेश्मचटकश्चातिशुक्रलः 61<br />
<br />
कुक्कुटः कृकवाकुः स्यात्कालज्ञश्चरणायुधः<br />
ताम्रचूडस्तथा दक्षो यामनादी शिखण्डिकः 62<br />
<br />
कुक्कुटो बृंहणः स्निग्धो वीर्योष्णोऽनिलहृद गुरुः<br />
चक्षुष्यः शुक्रकफकृद् बल्यो वृष्यः कषायकः 63<br />
<br />
आरण्यकुक्कुटः स्निग्धो बृंहणः श्लेष्मलो गुरुः<br />
वातपित्तक्षयवमिविषमज्वरनाशनः 64<br />
<br />
हारीतो रक्तपीतः स्याद्धरितोऽपि स कथ्यते<br />
हारीतो रूक्ष उष्णश्च रक्तपित्तकफापहः<br />
स्वेदस्वरकरः प्रोक्तः ईषद्वातकरश्च सः 65<br />
<br />
पाण्डुस्तु द्विविधो ज्ञेयश्चित्रपक्षः कलध्वनिः 66<br />
<br />
द्वितीयो धवलः प्रोक्तः स कपोतः स्फुटध्वनिः<br />
चित्रपक्षः कफहरो वातघ्नो ग्रहणीप्रणुत 67<br />
<br />
धवलः पाण्डुरुद्दिष्टो रक्तपित्तहरो हिमः<br />
रसे पाके च मधुरः संग्राही वातशान्तिकृत 68<br />
<br />
मयूरश्चन्द्र की केकी मेघरावो भुजङ्गभुक<br />
शिखी शिखावलो बर्ही शिखण्डी नीलकण्ठकः 69<br />
<br />
शुक्लापाङ्गः कलापी च मेघनादानुलास्यपि<br />
रसे पाके च मधुरः संग्राही वातशान्तिकृत 70<br />
<br />
पारावतः कलरवः कपोतो रक्तलोचनः<br />
पारावतो गुरुः स्निग्धो रक्तपित्तानिलापहः<br />
संग्राही शीतलस्तज्ज्ञैः कथितो वीर्यवर्द्धनः 71<br />
<br />
नातिस्निग्धानि वृष्याणि स्वादुपाकरसानि च<br />
वातघ्नान्यतिशुक्राणि गुरूण्यण्डानि पक्षिणाम 72<br />
<br />
छागलो बर्करश्छागो बस्तोऽजश्छेलकः स्तुभः 73<br />
<br />
अजा छागी स्तुभा चापि छेलिका च गलस्तनी<br />
छागमांसं लघु स्निग्धं स्वादुपाकं त्रिदोषनुत 74<br />
<br />
नातिशीतमदाहि स्यात्स्वादु पीनसनाशनम<br />
परं बलकरं रुच्यं बृहणं वीर्यवर्द्धनम 75<br />
<br />
अजायास्त्वप्रसूताया मांसं पीनसनाशनम<br />
शुष्ककासेऽरुचौ शोषे हितमग्नेश्च दीपनम 76<br />
<br />
अजासुतस्य बालस्य मांसं लघुतरं स्मृतम<br />
हृद्यं ज्वरहरं श्रेष्ठं सुखदं बलदं भृशम 77<br />
<br />
मासंनिष्कासिताण्डस्य छागस्य कफकृद गुरु<br />
स्रोतःशुद्धिकरं बल्यं मांसदं वातपित्तनुत 78<br />
<br />
वृद्धस्य वातलं रूक्षं तथा व्याधिमृतस्य च<br />
ऊर्ध्वजत्रुविकारघ्नं छागमुण्डं रुचिप्रदम 79<br />
<br />
अथ मेषः मिए!ढाइ! तस्य नामान्यण्डविहीनस्य तस्य च<br />
मेढ्रो मेढो हुडो मेष उरणोऽप्येडकोऽपि च<br />
अविर्वृष्णिस्तथोर्णायुः कथ्यन्ते तद्गुणा अथ 80<br />
<br />
मेषस्य मांसं पुष्टौ स्यात्पित्तश्लेष्मकरं गुरु <br />
तस्यैवाण्डविहीनस्य मांसं किञ्चिल्लघु स्मृतम 81<br />
<br />
अथैडकः दिउ!म्बा मेढाइ! तस्य नामानि तद्भेदस्य च<br />
एडकः पृथुशृङ्गः स्यान्मेदः पुच्छस्तु दुम्बकः<br />
एडकस्य पलं ज्ञेयं मेषामिषसमं गुणैः 82<br />
<br />
मेदः पुच्छोद्भवं मांसं हृद्यं वृष्यं श्रमापहम<br />
पित्तश्लेष्मकरं किञ्चिद्वातव्याधिविनाशानम 83<br />
<br />
बलीवर्दस्तु वृषभः ऋषभश्च तथा वृषः<br />
अनड्वान्सौरभेयोऽपि गौरुक्षा भद्र इत्यपि 84<br />
<br />
सुरभिः सौरभेयी च माहेयी गौरुदाहृता<br />
गोमांसं सुगुरु स्निग्धं पित्तश्लेष्मविवर्द्धनम<br />
बृंहणं वातहृत् बल्यमपथ्यं पीनसप्रणुत 85<br />
<br />
घोटकेऽप्यश्वतुरगास्तुरङ्गमाश्च तुरङ्गाः<br />
बाजिवाहार्वगन्धर्वहयसैन्धवसप्तयः 86<br />
<br />
अश्वमांसन्तु तुवरं वह्निकृत्कफपित्तलम<br />
वातहृद् बृहणं बल्यं चक्षुष्यं मधुरं लघु 87<br />
<br />
महिषो घोटकारिः स्यात्कासरश्च रजस्वलः 88<br />
<br />
पीनस्कन्धः कृष्णकायो लुलायो यमवाहनः<br />
महिषस्यामिषं स्वादु स्निग्धोष्णं वातनाशनम 89<br />
<br />
निद्रा शुक्रप्रदं बल्यं तनुदार्ढ्यकरं गुरु<br />
वृष्यञ्च सृष्टविण्मूत्रं वातपित्तास्रनाशनम 90<br />
<br />
मण्डूकः प्लवगो भेको वर्षाभूर्दर्दुरो हरिः<br />
मण्डूकः श्लेष्मलो नातिपित्तलो बलकारकः 91<br />
<br />
कच्छपो गूढपात्कूर्मः कमठो दृढपृष्ठकः<br />
कच्छपो बलदो वातपित्तनुत्पुंस्त्वकारकः 92<br />
<br />
सद्योहतस्य मांसं स्थाद्व्याधिघाति यथाऽमृतम<br />
वयस्यं बृंहणं सात्म्यमन्यथा तद् विवर्जयेत 93<br />
<br />
स्वयं मृतस्य चाबल्यमतीसारकरं गुरु 94<br />
<br />
वृद्धानां दोषलं मांसं बालानां बलदं लघु 95<br />
<br />
सर्पदष्टस्य मांसञ्च शुष्कमांस त्रिदोषकृत<br />
त्रिदोषकृद व्यालदष्टं शुष्कं शूलकरं परम 96<br />
<br />
विषाम्बुरुङ्मृतस्यैतन्मृत्युदोषरुजाकरम<br />
क्लिन्नमुत्क्लेशजनकं कृशं वातप्रकोपणम<br />
तोयपूर्णं शिराराजं मृतमप्सु त्रिदोषकृत 97<br />
<br />
विहङ्गेषु पुमाञ्छ्रेष्ठः स्त्री चतुष्पदजातिषु<br />
परार्द्धं लघु पुंसां स्यात्स्त्रीणां पूर्वार्द्धमादिशेत<br />
देहमध्यं गुरुप्रायं सर्वेषां प्राणिनां स्मृतम 98<br />
<br />
पक्षक्षेपाद्विहङ्गानां तदेव लघु कथ्यते<br />
गुरूण्यण्डानि सर्वेषां गुर्वी ग्रीवा च पक्षिणाम 99<br />
<br />
उरः स्कन्धोदरं कुक्षी पादौ पाणी कटी तथा<br />
पृष्ठत्वग्यकृदन्त्राणि गुरूणीह यथोत्तरम 100<br />
<br />
लघुवातकरं मांसं खगानां धान्यचारिणाम<br />
मत्स्याशिनां पित्तकरं वातघ्नं गुरु कीर्त्तितम 101<br />
<br />
फलाशिनां श्लेष्मकरं लघु रूक्षमुदीरितम<br />
बृंहणं गुरु वातघ्नं तेषामेव पलाशिनाम 102<br />
<br />
तुल्यजातिष्वल्पदेहा महादेहेषु पूजिताः<br />
अल्पदेहेषु शस्यन्ते तथैव स्थूलदेहिनाः 103<br />
<br />
रक्तोदरो रक्तमुखो रक्ताक्षो रक्तपक्षतिः<br />
कृष्णपुच्छो झषः श्रेष्ठो रोहितः कथितो बुधैः 104<br />
<br />
रोहितः सर्वमत्स्यानां वरो वृष्योऽदितार्त्तिजित<br />
कषायानुरसः स्वादुर्वातघ्नो नातिपित्तकृत<br />
ऊर्ध्वजत्रुगतान रोगान हन्याद्रो हितमुण्डकम 105<br />
<br />
शिलीन्ध्रः श्लेष्मलो बल्यो विपाके मधुरो गुरुः<br />
वातपित्तहरो हृद्यः आमवातकरश्च सः 106<br />
<br />
भाकुरो मधुरः शीतो वृष्यः श्लेष्मकरो गुरुः<br />
विष्टम्भजनकश्चापि रक्तपित्तहरः स्मृतः 107<br />
<br />
मोचिका वातहृद् बल्या बृंहणी मधुरा गुरुः<br />
पित्तहृत्कफकृद्रुच्या वृष्या दीप्ताग्नये हिता 108<br />
<br />
पाठीनः श्लेष्मलो बल्यो निद्रा लुः पिशिताशनः<br />
दूषयेद्रुधिरं पित्तं कुष्ठरोगं करोति च 109<br />
<br />
शृङ्गी तु वातशमनी स्निग्धा श्लेष्मप्रकोपणी<br />
रसे तिक्ता कषाया च लघ्वी रुच्या स्मृताबुधैः 110<br />
<br />
इल्लीसो मधुरः स्निग्धो रोचनो वह्निवर्द्धनः<br />
पित्तहृत्कफकृत्किञ्चिल्लघुर्वृष्योऽनिलापहः 111<br />
<br />
शष्कुली ग्राहिणी हृद्या मधुरा तुवरा स्मृता 112<br />
<br />
गर्गरः पित्तलः किञ्चिद्वातजित्कफकोपनः 113<br />
<br />
कविका मधुरा स्निग्धा कफघ्नी रुचिकारिणी<br />
कञ्चित्पित्तकरी वातनाशिनी वह्निवर्द्धिनी 114<br />
<br />
वर्मिमत्स्यो हरेद्वातं पित्तं रुचिकरो लघुः 115<br />
<br />
दण्डमत्स्यो रसे तिक्तः पित्तरक्तं कफं हरेत<br />
वातसाधारणः प्रोक्तः शुक्रलो बलवर्द्धनः 116<br />
<br />
एरङ्गो मधुरः स्निग्धो विष्टम्भी शीतलो लघुः 117<br />
<br />
महाशफरसंज्ञस्तु तिक्तः पित्तकफापहः<br />
शिशिरो मधुरो रुच्यो वातसाधारणः स्मृतः 118<br />
<br />
गरघ्नी मधुरा तिक्ता तुवरा वातपित्तहृत<br />
कफघ्नी रुचिकृल्लघ्वी दीपनी बलवीर्यकृत 119<br />
<br />
मद्गुरो वातहृद् बल्यो वृष्यः कफकरो लघुः 120<br />
<br />
सपादमत्स्यो मेधाकृन्मेदः क्षयकरश्च सः<br />
वातपित्तकरश्चापि रुचिकृत्परमो मतः 121<br />
<br />
प्रोष्ठी तिक्ता कटुः स्वादुः शुक्रदा कफवातजित<br />
स्निग्धाऽस्यकण्ठरोगघ्नी रोचनी च लघुः स्मृता 122<br />
<br />
क्षुद्र मत्स्याः स्वादुरसा दोषत्रयविनाशनाः<br />
लघुपाका रुचिकरा बलदास्ते हिता मताः 123<br />
<br />
अतिसूक्ष्माः पुंस्त्वहरा रुच्याः कासानिलापहाः 124<br />
<br />
मत्स्यगर्भो भृशं वृष्यः स्निग्धः पुष्टिकरो लघुः<br />
कफमेदःप्रदो बल्यो ग्लानिकृन्मेहनाशनः 125<br />
<br />
शुष्कमत्स्या नवा बल्या दुर्जरा विड्विबन्धिनः 126<br />
<br />
दग्धमत्स्यो गुणैः श्रेष्ठः पुष्टिकृद् बलवर्द्धनः 127<br />
<br />
कौपमत्स्याः शुक्रमूत्रकुष्ठश्लेष्मविवर्द्धनाः<br />
सरोजा मधुराः स्निग्धा बल्या वातविनाशनाः<br />
नादेया बृंहणा मत्स्या गुरवोऽनिलनाशनाः<br />
रक्तपित्तकरा वृष्याः स्निग्धोष्णाः स्वल्पवर्चसः<br />
चौञ्ज्याः पित्तकराः स्निग्धा मधुरा लघवो हिमाः<br />
तडागा गुरवो वृष्याः शीतला मलमूत्रदाः<br />
ताडागवन्निर्झरजा बलायुर्मतिदृक्कराः 128<br />
<br />
हेमन्ते कूपजा मत्स्याः शिशिरे सारसा हिताः <br />
वसन्ते ते तु नादेया ग्रीष्मे चौञ्ज्यसमुद्भवाः<br />
तडागजाता वर्षासु तास्वपथ्या नदीभवाः<br />
नैर्झरा शरदि श्रेष्ठा विशेषोऽयमुदाहृतः 129<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे</span><br />
<span style="color: red;">मिश्रप्रकरणे एकादशो मांसवर्गः समाप्तः 11</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-79597850780158462852015-07-12T06:20:00.002-07:002015-07-12T06:20:53.444-07:00 अथ द्वादशः कृतान्नवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
समवायिनि हेतौ ये मुनिभिर्गणिता गुणाः<br />
कार्येऽपि तेऽखिलाज्ञेयाः परिभाषेति भाषिताः 1<br />
<br />
क्वचित्संस्कारभेदेन गुणभेदो भवेद्यतः<br />
भक्तं लघु पुराणस्यशालेस्तच्चिपिटो गुरुः 2<br />
<br />
क्वचिद्योगप्रभावेण गुणान्तरमपेक्षते<br />
कदन्नं गुरु सर्पिश्च तद्युक्तं सुपचं भवेत 3<br />
<br />
भक्तमन्नं तथाऽन्धश्च क्वचित्कूरं च कीर्त्तितम<br />
ओदनोऽस्त्री स्रियां भिस्सा दीदिविः पुंसि भाषितः 4<br />
<br />
सुधौतांस्तण्डुलान स्फीतांस्तोये पञ्चगुणे पचेत<br />
तदुक्तं प्रस्रुतं चोष्णं विशदं गुणवन्मतम 5<br />
<br />
भक्तं वह्निकरं पथ्यं तर्पणं रोचनं लघु<br />
अधौतमस्रुतं शीतं गुर्वरुच्यं कफप्रदम 6<br />
<br />
दलितन्तु शमीधान्यं दालिर्दाली स्त्रियामुभे<br />
दाली तु सलिले सिद्धा लवणार्द्र कहिङ्गुभिः 7<br />
<br />
संयुक्ता सूपनाम्नी स्यात्कथ्यन्ते तद्गुणा अथ<br />
सूपो विष्टम्भको रूक्षः शीतस्तु स विशेषतः<br />
निस्तुषो भृष्टसंसिद्धो लाघवं सुतरां व्रजेत 8<br />
<br />
तण्डुला दालिसंमिश्रा लवणार्द्र कहिङ्गुभिः<br />
संयुक्ताः सलिले सिद्धाः कृशरा कथिता बुधैः 9<br />
<br />
कृशरा शुक्रला बल्या गुरुः पित्तकफप्रदा<br />
दुर्जरा बुद्धिविष्टम्भमलमूत्रकरी स्मृता 10<br />
<br />
वृते हरिद्रा संयुक्ते माषजा भर्जयेद्वटीम 11<br />
<br />
तण्डुलांश्चापि निर्धौतान्सहैव परिभर्जयेत<br />
सिद्धयोग्यं जलं तत्र प्रक्षिप्य कुशलः पचेत 12<br />
<br />
लवणार्द्र कहिङ्गूनि मात्रया तत्र निक्षिपेत<br />
एषा सिद्धि समायाता प्रोक्ता तापहरी बुधैः 13<br />
<br />
भवेत्तापहरी बल्या वृष्या श्लेष्माणमाचरेत<br />
बृंहणी तर्पणी रुच्या गुर्वी पित्तहरी स्मृता 14<br />
<br />
पायसं परमान्नं स्यात्क्षीरिकाऽपि तदुच्यते<br />
शुद्धेर्द्धऽपक्वे दुग्धे तु घृताक्तांस्तण्डुलान्पचेत 15<br />
<br />
ते सिद्धाः क्षीरिका ख्याताः ससिताऽज्ययुतोत्तमा<br />
क्षीरिका दुर्जरा प्रोक्ता बृंहणी बलवर्द्धिनी<br />
विष्टम्भिनी हरेत् पित्तं रक्तपित्ताग्निमारुतान 16<br />
<br />
नारिकेरं तनूकृत्य छिन्नं पयसि गोः क्षिपेत<br />
सितागव्याज्यसंयुक्ते तत्पचेन्मृदुनाऽग्निना 17<br />
<br />
नारिकेरोद्भवा क्षीरी स्निग्धा शीताऽतिपुष्टिदा<br />
गुर्वी सुमधुरावृष्या रक्तपित्तानिलापहा 18<br />
<br />
समितावर्त्तिकाः कृत्वा सुसूक्ष्मा यवसन्निभा<br />
शुष्काः क्षीरेणसंसाध्या भोज्यावृत्तसिताऽन्विताः 19<br />
<br />
सेविका तर्पणी बल्या गुर्वी पित्तानिलापहा<br />
ग्राहिणी सन्धिकृद्रुच्या तां खादेन्नातिमात्रया 20<br />
<br />
गोधूमा धवला धौताः कुट्टिताः शोषितास्ततः<br />
प्रोक्षितायन्त्रनिष्पष्टाश्चालिताः समिताः स्मृताः 21<br />
<br />
वारिणा कोमलां कृत्वा समितां साधु मर्दयेत<br />
हस्तचालनया तस्या लोप्त्रद्यं सम्यक्प्रसारयेत 22<br />
<br />
अधोमुखघटस्यैतद्बिस्तृतं प्रक्षिपेद बहिः<br />
मृदुना वह्निना साध्या सिद्धो मण्डक उच्यते 23<br />
<br />
दुग्धेन साज्यखण्डेन मण्डकं भक्षयेन्नरः<br />
अथवा सिद्धमांसेन सतक्रवटकेन वा 24<br />
<br />
मण्डको बृंहणो वृष्यो बल्यो रुचिकरो भृशम <br />
पाकेऽपि मधुरो ग्राही लघुर्दोषत्रयापहः25<br />
<br />
कुर्यात्समितयाऽतीव तन्वी पर्पटिका ततः 26<br />
<br />
स्वेदयेत्तप्तके तां तु पोलिकां जगदुर्बुधाः<br />
तां खादेल्लप्सिकायुक्तां तस्या मण्डकवद गुणाः 27<br />
<br />
समितां सर्पिषा भृष्टां शर्करां पयसि क्षिपेत<br />
तस्मिन्घनीकृते न्यस्येल्लवङ्गं मरिचादिकम<br />
सिद्धषा लप्सिका ख्याता गुणानस्या वदाम्यहम 28<br />
<br />
लप्सिका बृंहणी वृष्या बल्या पित्तानिलापहा<br />
स्निग्धा श्लेष्मकरी गुर्वी रोचनी तर्पणी परम 29<br />
<br />
शुष्कगोधूमचूर्णेन किञ्चित्पुष्टाञ्च पोलिकाम 30<br />
<br />
तप्तके स्वेदयेत्कृत्वा भूर्यङ्गारेऽपि तां पचेत<br />
सिद्धैषारोटिका प्रोक्ता गुणानस्याः प्रचक्ष्महे 31<br />
<br />
रोटिका बलकृद्रुच्या बृंहणी धातुवर्द्धनी<br />
वातघ्नी कफकृद् गुर्वी दीप्ताग्नीनां प्रपूजिता 32<br />
<br />
शुष्कगोधूमचूर्णन्तु साम्बु गाढं विमर्दयेत<br />
विधाय वटकाकारं निर्धूमेऽग्नौ शनैः पचेत 33<br />
<br />
अङ्गारकर्कटी ह्येषा बृंहणी शुक्रला लघुः<br />
दीपनी कफकृद्बल्या पीनसश्वासकासजित 34<br />
<br />
यवजारोटिका रुच्या मधुरा विशदा लघुः<br />
मलशुक्रानिलकरी बल्या हन्ति कफामयान 35<br />
<br />
चूर्ण यच्छुष्कमाषाणां चमसी साऽभिधीयते<br />
चमसीरचिता रोटी कथ्यते बलभद्रिका<br />
रूक्षोष्णा वातला बल्या दीप्ताग्नीनां सुपूजिता 36<br />
<br />
माषाणां दालयस्तोये स्यापितास्त्यक्तकञ्चुकाः<br />
आतपे शोषिता यन्त्रे पिष्टास्ता धूमसी स्मृता 37<br />
<br />
धूमसीरचिता चैव प्रोक्ता झर्झरिका बुधैः<br />
झर्झरी कफपित्तघ्नी किञ्चिद्वातकरी स्मृता 38<br />
<br />
चणक्या रोटिका रूक्षा श्लेष्मपित्तास्रनुद्गुरुः<br />
विष्टम्भिनी न चक्षुष्या तद्गुणा चापि शष्कुली 39<br />
<br />
दालि संस्थापिता तोये ततोऽपहृतकञ्चुका<br />
शिलायां साधु सम्पिष्टा पिष्टिका कथिता बुधैः 40<br />
<br />
माषपिष्टिकया पूर्णगर्भा गोधूमचूर्णतः<br />
रचिता रोटिका सैव प्रोक्ता बेढमिका बुधैः 41<br />
<br />
भवेद्बेढमिका बल्या वृष्या रुच्याऽनिलापहा<br />
उष्णा सन्तर्पणी गुर्वी बृंहणी शुक्रला परम 42<br />
<br />
भिन्नमूत्रमला स्तन्यमेदःपित्तकफप्रदा<br />
गुदकीलार्दितश्वासपक्तिशूलानि नाशयेत 43<br />
<br />
धूमसीरचिता हिङ्गुहरिद्रा लवणैर्युताः<br />
जीरकस्वर्जिकाभ्याञ्च तनूकृत्य च वेल्लिताः 44<br />
<br />
पर्पटास्ते सदाऽङ्गारभृष्टाः परमरोचकाः<br />
दीपनाः पाचनाः रूक्षा गुरवः किञ्चिदीरिताः 45<br />
<br />
मौद्गाश्च तद्गुणाः प्रोक्ता विशेषाल्लघवो हिताः 46<br />
<br />
चणकस्य गुणैर्युक्ताः पर्पटाश्चणकोद्भवाः<br />
स्नेहभृष्टास्तु ते सर्वे भवेयुर्मध्यमा गुणैः 47<br />
<br />
माषाणां पिष्टिकां पूर्याल्लवणार्द्र कहिङ्गुभिः<br />
तया पिष्टिकया पूर्णा समिता कृत पोलिका 48<br />
<br />
ततस्तैलेन पक्वा सा पूरिका कथिता बुधैः<br />
रुच्या स्वादी गुरुः स्निग्धा बल्या पितास्रदूषिका 49<br />
<br />
चक्षुस्तेजोहरी चोष्णा पाके वातविनाशिनी<br />
तथैव घृतपक्वाऽपि चक्षुष्या रक्तपित्तहृत 50<br />
<br />
अथ वटकः शुष्कः सरसश्च सूखा व रसदार बरा<br />
माषाणांपिष्टिकां युक्तां लवणार्द्र कहिङ्गुभिः<br />
कृत्वा विदध्याद्वटकांस्तांस्तैलेषु पचेच्छनैः 51<br />
<br />
विशुष्का वटका बल्या बृंहणा वीर्य्यवर्द्धनाः<br />
वातामयहरा रुच्या विशेषादर्दितापहाः 52<br />
<br />
विबन्धभेदिनः श्लेष्मकारिणोऽत्यग्निपूजिताः<br />
संचूर्ण्यनिक्षिपेत्तक्रे भृष्टं जीरकहिङ्गु च 53<br />
<br />
लवणं तत्र वटकान्सकलानपि मज्जयेत<br />
शुक्रलस्तत्र वटको बलकृद्रो चनो गुरुः 54<br />
<br />
विबन्धहृद्विदाही च श्लेष्मलः पवनापहः<br />
राज्यक्तयाऽतिरोचन्या पाचन्या तांस्तु भक्षयेत 55<br />
<br />
मन्थनी नूतना धार्या कटुतैलेन लेपिता<br />
निर्मलेनाम्बुनाऽपूर्य तस्यां चूर्णं विनिक्षिपेत<br />
राजिकाजीरकलवणहिङ्गुशुण्ठीनिशाकृतम 56<br />
<br />
निक्षिपेद्वटकांस्तत्र भाण्डस्यास्यञ्च मुद्रयेत<br />
ततो दिनत्रयादूर्ध्वमम्लाः स्युर्वटका ध्रुवम 57<br />
<br />
काञ्जिकावटको रुच्यो वातघ्नः श्लेष्मकारकः<br />
शूलघ्नोऽजीर्णदाहनुद् नेत्ररोगे तु नो हितः 58<br />
<br />
अम्लिकां स्वेदयित्वा तु जलेन सह मर्दयेत<br />
तन्नीरे कृतसंस्कारे वटकान्मज्जयेज्जनः 59<br />
<br />
अम्लिकावटकास्ते तु रुच्या वह्निप्रदीपनाः<br />
वटकस्य गुणैः पूर्वै रेतेऽपि च समन्विताः 60<br />
<br />
मुद्गानां वटकास्तक्रे मज्जिता लघवो हिमाः<br />
संस्कारजप्रभावेण त्रिदोषशमना हिताः 61<br />
<br />
माषाणां पिष्टिका हिङ्गुलवणार्द्र कसंस्कृता<br />
तया विरचिता वस्त्रे वटिकाः साधु शोषिताः 62<br />
<br />
भर्जितास्तप्ततैलैस्ता अथवाऽम्बुप्रयोगतः<br />
वटकस्य गुणैर्युक्ता ज्ञातव्या रोचना भृशम 63<br />
<br />
कूष्माण्डकवटी ज्ञेया पूर्वोक्तवटिकागुणा<br />
विशेषात्पित्तरक्तघ्नी लघ्वी च कथिता बुधैः 64<br />
<br />
मूद्गानां वटिका तद्वद्र चिता साधिता तथा<br />
पथ्या रुच्या तथा लघ्वी मुद्गसूपगुणा स्मृता 65<br />
<br />
माषपिष्टिकया लिप्तं नागवल्लीदलं महत 66<br />
<br />
तत्तु संस्वेदयेद्युक्त्या स्थाल्यामास्तारकोपरि<br />
ततो निष्कास्य तं खण्ड्यं ततस्तैलेन भर्जयेत 67<br />
<br />
अलीकमत्स्य उक्तोऽय प्रकारः पाक पण्डितैः<br />
तं वृन्ताक भटित्रेण वास्तूकेन च भक्षयेत 68<br />
<br />
स्थाल्यां घृते वा तैले वा हरिद्रां हिङ्गु भर्जयेत<br />
अवलेहनसंयुक्तं तक्रं तत्रैव निक्षिपेत<br />
एषा सिद्धा समरिचा क्वथिता कथिता बुधैः 69<br />
<br />
क्वथिता पाचनी रुच्या लघ्वी वह्निप्रदीपनी<br />
कफानिलाविबन्धघ्नी किञ्चित्पित्तप्रकोपणी 70<br />
<br />
अलीकमत्स्याः शुष्का वा किं वा क्वथितया पुनः<br />
बृंहणा रोचना वृष्या बल्या वातगदापहः 71<br />
<br />
कोष्ठशुद्धिकराः शुष्काः किञ्चित्पित्तप्रकोपणाः<br />
अर्दिते सहनुस्तम्भे विशेषेण हिताः स्मृताः 72<br />
<br />
मुद्गपिष्टीविरचितान वटकांस्तैलपाचितान<br />
हस्तेन चूर्णयेत्सम्यक तस्मिंश्चूर्णं विनिक्षिपेत 73<br />
<br />
भृष्टं हिङ्ग्वार्द्रकं सूक्ष्मं मरिचं जीरकं तथा<br />
निम्बूरसं यवानीं च युक्त्या सर्वं विमिश्रयेत 74<br />
<br />
मुद्गपिष्टि पचेत्सम्यक् स्थाल्याभास्तारकोपरि<br />
तस्यास्तु गोलकं कुर्यात्तन्मध्ये पूरण क्षिपेत 75<br />
<br />
तैले तान्गोलकान्पक्त्वा क्वथितायां निमज्जयेत<br />
गोलकाःपाचक्! प्रोक्तास्ते त्वार्द्र कवटा अपि 76<br />
<br />
मुद्गार्द्र कवटा रुच्या लघ्वो बलकारकाः<br />
दीपनास्तर्पणाः पथ्यास्त्रिषु दोषेषु पूजिताः 77<br />
<br />
दालयश्चणकानां तु निस्तुषा यन्त्रपेषिताः<br />
तच्चूर्णं वेसनं प्रोक्तं पाकशास्त्रविशारदैः 78<br />
<br />
वटिकावेसनस्यापि क्वथितायां निमज्जिता<br />
रुच्या विष्टम्भजननी बल्या पुष्टिकरी स्मृता 79<br />
<br />
पाकपात्रे घृतं दद्यात्तैलञ्च तदभावतः<br />
तत्र हिङ्गुहरिद्रां च भर्जयेत्तदनन्तरम 80<br />
<br />
छागादेरस्थिरहितं मांसं तत्खण्डितं ध्रुवम्<br />
धौतं निर्गालितं तस्मिन्घृते तद्भर्जयेच्छनैः 81<br />
<br />
सिद्धयोग्यं जलं दत्वा लवणन्तु पचेत्ततः<br />
सिद्धे जलेन सम्पिष्य वेशवारं परिक्षिपेत 82<br />
<br />
द्रव्याणि वेशवारस्य नागवल्लीदलानि च<br />
तण्डुलाश्च लवङ्गानि मरिचानि समासतः 83<br />
<br />
अनेन विधिना सिद्धं शुद्धमांसमिति स्मृतम 84<br />
<br />
शुद्धमांसं परं वृष्यं बल्यं रुच्यञ्च बृंहणम<br />
त्रिदोषशमनं श्रेष्ठं दीपनं धातुवर्द्धनम 85<br />
<br />
छागादेर्मांसमूर्वादेः कुट्टितं खण्डितं पुनः<br />
शुद्धमांसविधानेन पचेदेतत्सहद्र कम<br />
सहद्रकं गुणैर्ग्रन्थे शुद्धमांसगुणं स्मृतम 86<br />
<br />
पाकपात्रे घृतं दत्त्वा हरिद्रां हिङ्गु भर्जयेत<br />
छागादेः सकलस्यापि खण्डान्यपि च भर्जयेत 87<br />
<br />
सिद्धयोग्यं जलं दत्त्वा पचेन्मृदुतरं तथा<br />
जीरकादियुते तक्रे मांसखण्डानि भावयेत 88<br />
<br />
तक्रमांसन्तु वातघ्नं लघु रुच्यं बलप्रदम<br />
कफघ्नं पित्तलं किञ्चित्सर्वाहारस्य पाचनम 89<br />
<br />
पाकपात्रे तु बृहति मांसखण्डानि निक्षिपेत<br />
पानीयं प्रचुरं सर्पिः प्रभूतं हिङ्गु जीरकम 90<br />
<br />
हरिद्रा मार्द्रकं शुण्ठीं लवणं मरिचानि च<br />
तण्डुलांश्चापि गोधूमाञ्जम्बीराणां रसान बहून 91<br />
<br />
यथा सर्वाणि वस्तूनि सुपक्वानि भवन्ति हि<br />
तथा पचेत्तु निपुणो बहुमण्डस्थितिर्यथा 92<br />
<br />
एषा हरीसा बलकृद्वातपित्तापहा गुरुः<br />
शीतोष्णा शुक्रदा स्निग्धा सरा सन्धानकारिणी 93<br />
<br />
शुद्धमांसविधानेन मांसं सम्यक्प्रसाधितम<br />
पुनस्तदाज्ये सम्भृष्टं तलितं प्रोच्यते बुधैः 94<br />
<br />
तलितं बलमेधाऽग्निमांसौजःशुक्रवृद्धिकृत<br />
तर्पणं लघु सुस्निग्धं रोचनं दृढताकरम 95<br />
<br />
कालखण्डादिमांसानि ग्रथितानि शलाकया <br />
घृतं सलवणं दत्त्वा निर्धूमे दहने पचेत 96<br />
<br />
तत्तु शूल्यमिति प्रोक्तं पाककर्मविचक्षणैः 97<br />
<br />
शूल्यं पलं सुधातुल्यं रुच्यं बह्निकरं लघु<br />
कफवातहरं बल्यं किञ्चित्पित्तकरं हि तत 98<br />
<br />
शुद्धमांसं तनूकृत्य कर्त्तितं स्वेदितं जले<br />
लवङ्गहिङ्गुलवणमरिचार्द्र कसंयुतम 99<br />
<br />
एलाजीरकधान्याकनिम्बूरससमन्वितम<br />
घृते सुगन्धे तद् भृष्टं पूरणं प्रोच्यते बुधैः 100<br />
<br />
शृङ्गाटकं समितया कृतं पूरणपूरितम<br />
पुनः सर्पिषि सभृष्टं मांसशृङ्गाटकं वदेत 101<br />
<br />
मांसशृङ्गाटकं रुच्यं बृंहणं बलकृद् गुरु<br />
वातपित्तहरं वृष्यं कफघ्नं वीर्यवर्धनम 102<br />
<br />
सिद्धमांसरसो रुच्यः श्रमश्वासक्षयापहः<br />
प्रीणनो वातपित्तघ्नः क्षीणानामल्परेतसाम<br />
विश्लिष्टभग्नसन्धीनां शुद्धानां शुद्धिकाङ्क्षिणाम 103<br />
<br />
स्मृत्योजोबलहीनानां ज्वरक्षीणक्षतोरसाम<br />
शस्यते स्वरहीनानां दृष्ट्यायुःश्रवणार्थिनाम 104<br />
<br />
प्रकाराः कथिताः सन्ति बहवो मांससम्भवाः<br />
ग्रन्थविस्तरभीतेस्ते मया नात्र प्रकीर्त्तिताः 105<br />
<br />
हिङ्गुजीरयुते तैले क्षिपेच्छाकं सुखण्डितम् 106<br />
<br />
लवणं चात्र चूर्णादि सिद्धे हिङ्गूदकं क्षिपेत<br />
इत्येवं सर्वशाकानां साधनेऽभिहितो विधिः 107<br />
<br />
समितां मर्दयेदाज्यैर्जलेनापि च सन्नयेत<br />
तस्यास्तु वटिकां कृत्वा पचेत्सर्पिषि नीरसम<br />
एलालवङ्गकर्पूरमरिचाद्यैरलङ्कृते 108<br />
<br />
मज्जयित्वा सितापाके ततस्तञ्च समुद्धरेत<br />
अयं प्रकारः संसिद्धौ मण्ठ इत्यभिधीयते 109<br />
<br />
मण्ठस्तु बृंहणो वृष्यो बल्यः सुमधुरो गुरुः<br />
पित्तानिलहरो रुच्यो दीप्ताग्नीनां सुपूजितः 110<br />
<br />
समिताशर्करासर्पिर्निर्मिता अपरेऽपि ये<br />
प्रकारा अमुना तुल्यास्तेऽपि चेत्तद्गुणाः स्मृताः 111<br />
<br />
पर्पट्यः साज्यसमिता निर्मिता घृतभर्जिताः<br />
कुट्टिताश्चालिताः शुद्धशर्कराभिर्विमर्दिताः 112<br />
<br />
तत्र चूर्णं क्षिपेदेलालवङ्गमरिचानि च<br />
नारिकेरं सकर्पूरं चारबीजान्यनेकधा 113<br />
<br />
घृताक्तसमिता पुष्टरोटिका रचिता ततः<br />
तस्यान्तःपूरणं तस्य कुर्यान्मुद्रां! दृढां सुधीः 114<br />
<br />
सर्पिषि प्रचुरे तान्तु सुपचेन्निपुणो जनः<br />
प्रकारज्ञैः प्रकारोऽय सम्पाव इति कीर्त्तितः 115<br />
<br />
मण्ठकेन समो ज्ञेयः सम्पावोऽपि गुणैर्जनैः 116<br />
<br />
घृताढ्यया समितया लम्बं कृत्वा पुटं ततः<br />
लवङ्गोषणकर्पूरयुतया सितयाऽन्वितम 117<br />
<br />
पचेदाज्येन सिद्धैषा ज्ञेया कर्पूरनालिका<br />
सम्पावसदृशा ज्ञेया गुणैः कर्पूरनालिका 118<br />
<br />
समिताया घृताढ्याया वर्त्तीर्दीर्घाः समाचरेत<br />
तास्तु सन्निहिता दीर्घाः पीठस्योपरि धारयेत 119<br />
<br />
वेल्लयेद्वेल्लनेनैता यथैका पर्पटी भवेत<br />
ततश्छुरिकया तान्तु संलग्नामेव कर्त्तयेत 120<br />
<br />
ततस्तु वेल्लयेद्भूयः सट्टकेन च लेपयेत<br />
शालिचूर्णं घृतं तोयं मिश्रितं सट्टकं वदेत 121<br />
<br />
ततः संवृत्य तल्लोप्त्रद्यं विदधीत पृथक्पृथक<br />
पुनस्तां वेल्लययेल्लोप्त्रद्यं यथा स्यान्मण्डलाकृतिः 122<br />
<br />
ततस्तां सुपचेदाज्ये भवेयुश्च स्फुटाः स्फुटाः<br />
सुगन्धया शर्करया तद्धूलनमाचरेत 123<br />
<br />
सिद्धैषा फेनिकानाम्नी मण्ठकेन समा गुणैः<br />
ततः किञ्चिल्लघुरियं विशेषोऽयमुदाहृतः 124<br />
<br />
समिताया घृताक्ताया लोप्त्रद्यं कृत्वा च वेल्लयेत<br />
आज्ये तां भर्जयेत्सिद्धा शष्कुली फेनिकागुणा 125<br />
<br />
वृताढ्यया समितया कृत्वा सूत्राणि तानि तु<br />
निपुणो भर्जयेदाज्ये खण्डपाकेन योजयेत<br />
युक्तेन मोदकान् कुर्यात्ते गुणैर्मण्ठका यथा 126<br />
<br />
मुद्गानां धूमसीं सम्यग्घोलयेन्निर्मलाऽम्बुना 127<br />
<br />
कटाहस्य घृतस्योर्ध्वं झर्झरं स्थापयेत्ततः<br />
घूमसीन्तु द्रवीभूतां प्रक्षिपेज्झर्झरोपरि 128<br />
<br />
पतन्ति बिन्दवस्तस्मात्तान्सुपक्वान्समुद्धरेत<br />
सितापाकेन संयोज्य कुर्याद्धस्तेन मोदकान 129<br />
<br />
लघुर्ग्राही त्रिदोषघ्नः स्वादुः शीतो रुचिप्रदः<br />
चक्षुष्यो ज्वरहृद्बल्यस्तर्पणो मुद्गमोदकः 130<br />
<br />
एवमेव प्रकारेण कार्या वेसनमोदकाः 131<br />
<br />
ते बल्या लघवः शीताः किञ्चिद्वातकरास्तथा<br />
विष्टम्भिनो ज्वरघ्नाश्च पित्तरक्तकफापहाः 132<br />
<br />
तण्डुलचूर्णविमिश्रितनष्टक्षीरेण सान्द्र पिष्टेन<br />
दृढकूपिकां विदध्यात्ताञ्च पचेत्सर्पिषा सम्यक 133<br />
<br />
अथ तां कोरितमध्यां घनपयसा पूर्णगर्भाञ्च<br />
सट्टकमुद्रि तवदनां तप्तघृते सुपक्ववदनाञ्च<br />
अथ पाण्डुखण्डपाके स्नपयेत्कर्पूरवासिते कुशलः<br />
अथ दुग्धकूपिका सा बल्या पित्तानिलापहाचैव 134<br />
<br />
वृष्या शीता गुर्वी शुक्रकरी च तर्पणी रुच्या<br />
विदधाति कायपुष्टिं दृष्टिं दूरप्रसारिणीं सुचिरम 135<br />
<br />
नूतनं घटमानीय तस्यान्तः कुशलो जनः<br />
प्रस्थार्द्धपरिमाणेन दध्नाऽम्लेन प्रलेपयेत 137<br />
<br />
द्विप्रस्थां समितां तत्र दध्यम्ल प्रस्थसम्मितम<br />
घृतमर्द्धशरावञ्च घोलयित्वा घटे क्षिपेत 138<br />
<br />
आतपे स्थापयेत्तावद यावद्याति तदम्लताम<br />
ततस्तत्प्रक्षिपेत्पात्रे सच्छिद्रे भाजने तु तत 139<br />
<br />
परिभ्राम्य परिभ्राम्य सुसन्तप्ते घृते क्षिपेत<br />
पुनः पुनः स्तदावृत्त्या विदध्यान्मण्डलाकृतिम 140<br />
<br />
तां सुपक्वां घृतान्नीत्वा सितापाके तनुद्र वे<br />
कर्पूरादिसुगन्धे च स्नापयित्वोद्धरेत्ततः 141<br />
<br />
एषा कुण्डलिनी नाम्ना पुष्टिकान्तिबलप्रदा<br />
धातुवृद्धिकरी वृष्या रुच्या चेन्द्रि यतर्पणी 142<br />
<br />
आदौ माहिषमम्लमम्बुरहितं दध्याढकं शर्करां<br />
शुभ्रां प्रस्थयुगोन्मितां शुचिपटे किञ्चिच्च किञ्चित्क्षिपेत<br />
दुग्धेनार्द्धघटेन मृण्मयनवंस्थाल्यां दृढं स्रावये<br />
देलाबीजलवङ्गचन्द्र मरिचैर्योग्यैश्च तद्योजयेत 143<br />
<br />
भीमेन प्रियभोजनेन रचिता नाम्ना रसाला स्वयं<br />
श्रीकृष्णेन पुरा पुनः पुनरियं प्रीत्या समास्वादिता<br />
एषा येन वसन्तवर्जितदिने संसेव्यते नित्यश<br />
स्तस्य स्यादतिवीर्य्यवृद्धिरनिशं सर्वेन्द्रि याणां बलम् 144<br />
<br />
ग्रीष्मे तथाशरदि ये रविशोषिताङ्गा ये च प्रमत्तवनितासुरतातिखिन्नाः<br />
ये चापि मार्गपरिसर्पणशीर्णगात्रास्तेषामियं वपुषि पोषणमाशु कुर्यात 145<br />
<br />
रसाला शुक्रला वल्या रोचनी वातपित्तजित 146<br />
<br />
दीपनी बृंहणी स्निग्धा मधुरा शिशिरा सरा<br />
रक्तपित्तं तृषां दाहं प्रतिश्यायं विनाशयेत 147<br />
<br />
जलेन शीतलेनैव घोलिता शुभ्रशर्करा<br />
एलालवङ्गकर्पूरमरिचैश्च समन्विता 148<br />
<br />
शर्करोदकनाम्ना तत्प्रसिद्धं विदुषां मुखैः<br />
शर्करोदकमाख्यातं शुक्रलं शिशिरं सरम 149<br />
<br />
बल्यं रुच्यं लघु स्वादु वातपित्तप्रणाशनम<br />
मूर्च्छाछर्दितृषादाहज्वरशान्तिकरं परम 150<br />
<br />
आम्रमामं जले स्विन्नं मर्दितं दृढपाणिना<br />
सिताशीताम्बुसंयुक्तं कर्पूरमरिचान्वितम 151<br />
<br />
प्रपाणकमिदं श्रेष्ठं भीमसेनेन निर्मितम<br />
सद्यो रुचिकरं बल्यं शीघ्रमिन्द्रि वतर्पणम 152<br />
<br />
अम्लिकायाः फलं पक्वं मर्दितं वारिणा दृढम<br />
शर्करामरिचैर्मिश्रं लवङ्गेन्दुसुवासितम 153<br />
<br />
अम्लिकाफलसम्भूतं पानकं वातनाशनम<br />
पित्तश्लेष्मकरं किञ्चित्सुरुच्यं वह्निबोधनम 154<br />
<br />
भागैकं निम्बुजं तोयं षड्भागं शर्करोदकम<br />
लवङ्गमरिचैर्मिश्रं पानं पानकमुत्तमम 155<br />
<br />
निम्बूकफलभवं पानमत्यम्लं वातनाशनम<br />
वह्निदीप्तिकरं रुच्यं समस्ताहारपाचकम 156<br />
<br />
शिलायां साधु सम्पिष्टं धान्याकं वस्त्रगालितम<br />
शर्करोदकसंयुक्तं कर्पूरादिसुसंस्कृतम<br />
नूतने मृण्मये पात्रे स्थितं पित्तहरं परम 157<br />
<br />
काञ्जिकं रोचनं रुच्यं पाचनं वह्निदीपनम 158<br />
<br />
शूलाजीर्णविबन्धघ्नं कोष्ठशुद्धिकरं परम<br />
न भवेत्काञ्जिकं यत्र तत्र जालि प्रदीयते 159<br />
<br />
आममाम्रफलं पिष्टं राजिकालवणान्वितम<br />
मृष्टहिङ्गुयुतं पूतं घोलितं जालिरुच्यते 160<br />
<br />
जालिर्हरति जिह्वायाः कुण्ठत्वं कण्ठशोधिनी<br />
मन्दं मन्दन्तु पीता सा रोचनी वह्निबोधिनी 161<br />
<br />
तुर्यांशेन जलेन संयुतमतिस्थूलं सदम्लं दधि<br />
प्रायोमाहिषमम्बुकेन विमले मृद्भाजने गालयेत<br />
भृष्टं हिंगुच जीरकञ्चलवणं राजीञ्च किञ्चिन्मितां<br />
पिष्टां तत्र विमिश्रयेद्भवति तत्तक्रं न कस्य प्रियम 162<br />
<br />
तक्रं रुचिकरं वह्निदीपनं पाचनं परम <br />
उदरे ये गदास्तेषां नाशनं तृप्तिकारकम 163<br />
<br />
विदाहीन्यन्नपानानि यानि भुङ्क्ते हि मानवः<br />
तद्विदाहप्रशान्त्यर्थं भोजनान्ते पयः पिबेत 164<br />
<br />
धान्यानि भ्राष्ट्रभृष्टानि यन्त्रपिष्टानि सक्तवः 165<br />
<br />
यवजाः सक्तवः शीता दीपना लघवः सराः<br />
कफपित्तहरा रूक्षा लेखनाश्च प्रकीर्त्तिताः 166<br />
<br />
ते पीता बलदा वृष्या बृंहणा भेदनास्तथा<br />
तर्पणा मधुरा रुच्याः परिणामे बलावहाः 167<br />
<br />
कफपित्तश्रमक्षुत्तृड्व्रणनेत्रामयापहाः<br />
प्रशस्ता घर्मदाहाध्वव्यायामार्त्तशरीरिणाम 168<br />
<br />
निस्तुषैश्चणकैर्भृष्टैस्तुर्यांशैश्च यवैः कृताः<br />
सक्तवः शर्करासर्पिर्युक्ता ग्रीष्मेऽपि पूजिता 169<br />
<br />
सक्तवः शालिसम्भूता वह्निदा लघवो हिमाः<br />
मधुरा ग्राहिणो रुच्याः पथ्याश्च बलशुक्रदा 170<br />
<br />
न भुक्त्वा न रदैश्छित्वा न निशायां न वा बहून<br />
नजलान्तरितानद्भिः सक्तूनद्यान्न केवलान 171<br />
<br />
पृथक्पानं पुनर्दानं सामिषं पयसा निशि<br />
दन्तच्छेदनमुष्णञ्च सप्त सक्तुषु वर्जयेत 172<br />
<br />
यवास्तु निस्तुषा भृष्टाः स्मृता धाना इति स्त्रियाम<br />
धानाः स्युर्दुर्जरा रुक्षास्तृट्प्रदा गुरवश्च ताः<br />
तथा मेहकफच्छर्दिनाशिन्यः सम्प्रकीर्त्तिताः 173<br />
<br />
येषां स्युस्तण्डुलास्तानि धान्यानि सतुषाणि च<br />
भृष्टानि स्फुटितान्याहुर्लाजा इति मनीषिणः 174<br />
<br />
लाजाः स्युर्मधुराः शीता लघवो दीपनाश्च ते<br />
स्वल्पमूत्रमला रूक्षा बल्याः पित्तकफच्छिदः<br />
छर्द्यतीसारदाहास्रमेहमेदस्तृषाऽपहाः 175<br />
<br />
शालयः सतुषा आद्रा र्! भृष्टा अस्फुटितास्ततः<br />
कुट्टिताश्चिपिटाःप्रोक्तास्ते स्मृताः पृथुका अपि 176<br />
<br />
पृथुका गुरवो वातनाशनाः श्लेष्मला अपि<br />
सक्षीरा बृंहणा वृष्या बल्या भिन्नमलाश्च ते 177<br />
<br />
अर्द्धपक्वैः शमीधान्यैस्तृणभृष्टैश्च होलकः<br />
होलकोऽल्पानिलोः मेदः कफदोषत्रयापहः<br />
भवेद् यो होलको यस्य स च तत्तद्गुणो भवेत 178<br />
<br />
मञ्जरी त्वर्द्धपक्वा वा यवगोधूमयोर्भवेत<br />
तृणानलेन संभृष्टा बुधैरूचीति सा स्मृता<br />
ऊची कफप्रदा बल्या लघ्वी पित्तानिलापहा 179<br />
<br />
अर्धस्विन्नास्तु गोधूमा अन्येऽपि चणकादयः 180<br />
<br />
कुल्माषा इति कथ्यन्ते शब्दशास्त्रेषु पण्डितैः<br />
कुल्माषागुरवो रूक्षा वातला भिन्नवर्चसः 181<br />
<br />
पललन्तु समाख्यातं सैक्षवं तिलपिष्टकम<br />
पललं मलकृद् वृष्यं वातघ्नं कफपित्तकृत<br />
बृंहणं च गुरु स्निग्धं मूत्राधिक्यनिवर्त्तकम 182<br />
<br />
तिलकिट्टन्तु पिण्याकस्तथा तिलखलि स्मृता<br />
पिण्याको लेखनो रूक्षो विष्टम्भी दृष्टिदूषणः 183<br />
<br />
तुण्डुलो मेहजन्तुघ्नः स नवस्त्वतिदुर्जरः 184<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे मिश्रप्रकरणे</span><br />
<span style="color: red;">द्वादशः कृतान्नवर्गः समाप्तः 12</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-16160018187368699452015-07-12T06:19:00.002-07:002015-07-12T06:19:18.236-07:00अथ वारिवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पानीयं सलिलं नीरं कीलालं जलमम्बु च<br />
आपो वार्वारि कं तोयं पयः पाथस्तथोदकम<br />
जीवनं वनमम्भोऽणोऽमृतं घनरसोऽपि च 1<br />
<br />
पानीयं श्रमनाशनं क्लमहरं मूर्च्छापिपासापहं<br />
तन्द्रा च्छर्दिविबन्धहृद्बलकरं निद्रा हरं तर्पणम<br />
हृद्यं गुप्तरसं ह्यजीर्णशमकं नित्यं हितं शीतलं<br />
लघ्वच्छं रसकारणं निगदितं पीयूषवज्जीवनम 2<br />
<br />
पानीयं मुनिभिः प्रोक्तं दिव्यं भौममिति द्विधा 3<br />
<br />
दिव्यं चतुर्विधं प्रोक्तं धाराजं करकाभवम<br />
तौषारञ्च तथा हैमं तेषु धारं गुणाधिकम 4<br />
<br />
धाराभिः पतितं तोयं गृहीतं स्फीतवाससा<br />
शिलायां वसुधायां वा धौतायां पतितञ्च तत 5<br />
<br />
सौवर्णे राजते ताम्रे स्फाटिके काचनिर्मिते<br />
भाजने मृण्मये वाऽपि स्थापितं धारमुच्यते 6<br />
<br />
धारं नीरं त्रिदोषघ्नमनिर्देश्यरसं लघु<br />
सौम्यं रसायनं बल्यं तर्पणं ह्लादि जीवनम 7<br />
<br />
पाचनं मतिकृन्मूर्च्छातन्द्रा दाहश्रमक्लमान<br />
तृष्णां हरति तत पथ्यं विशेषात्प्रावृषि स्मृत 8<br />
<br />
धाराजलं च द्विविधं गाङ्गसामुद्र भेदतः 9<br />
आकाशगङ्गासम्बन्धिजलमादाय दिग्गजाः<br />
<br />
मेघैरन्तरिता वृष्टिं कुर्वन्तीति वचः सताम 10<br />
गाङ्गमाश्वयुजे मासि प्रायो वर्षति वारिदः<br />
<br />
सर्वथा तज्जलं ज्ञेयं तथैव चरके वचः 11<br />
<br />
स्थापिते हेमजे पात्रे राजते मृण्मयेऽपि वा<br />
शाल्यन्नं येन संसिक्तं भवेदक्लेदि वर्णवत 12<br />
<br />
तद्गाङ्गं सर्वदोषघ्नं ज्ञेयं सामुद्र मन्यथा<br />
तत्तु सक्षारलवणं शुक्रदृष्टिबलापहम 13<br />
<br />
विस्रञ्च दोषलं तीक्ष्णं सर्वकर्मसु नो हितम<br />
सामुद्रं त्वाश्विने मासि गुणैर्गाङ्गवदादिशेत 14<br />
<br />
यतोऽगस्त्यस्य दिव्यर्षेरुदयात्सकलं जलम<br />
निर्मलं निर्विषं स्वादु शुक्रलं स्याददोषलम 15<br />
<br />
फूत्कारविषवातेन नागानां व्योमचारिणाम<br />
वर्षासु सविषं तोयं दिव्यमप्याश्विनं विना 16<br />
<br />
अनार्त्तवं प्रमुञ्चन्ति वारि वारिधरास्तु यत<br />
तत्त्रिदोषाय सर्वेषां देहिनां परिकीर्त्तितम 17<br />
<br />
दिव्यवाय्वग्निसंयोगात् संहताः खात पतन्ति याः<br />
पाषाणखण्डवच्चापस्ताः कारक्योऽमृतोपमाः 18<br />
<br />
करकाजं जलं रूक्षं विशदं गुरु च स्थिरम<br />
दारुणं शीतलं सान्द्रं पित्तहृत्कफवातकृत 19<br />
<br />
अपि नद्याः समुद्रान्ते वह्निरापस्तदुद्भवाः<br />
धूमावयवनिर्मुक्तास्तुषाराख्यास्तु ताः स्मृताः 20<br />
<br />
अपथ्याः प्राणिनां प्रायो भूरुहाणान्तु ता हिताः<br />
तुषाराम्बु हिमं रूक्षं स्याद्वातलमपित्तलम<br />
कफोरुस्तम्भकण्ठाग्निमेहगण्डादिरोगनुत 21<br />
<br />
हिमवच्छिखरादिभ्यो द्रवीभूयाभिवर्षति<br />
यत्तदेव हिमं हैमं जलमाहुर्मनीषिणः<br />
हिमाम्बु शीतं पित्तघ्नं गुरु वातविवर्द्धनम 22<br />
<br />
और्वानलधूमेरितमम्बु समुद्रस्य यद्घनीभूतम्<br />
पवनानीतमुदीच्यां तद्धिममिति कथ्यते सद्भिः 23<br />
<br />
हिमन्तु शीतलं रूक्षं दारुणं सूक्ष्ममित्यपि<br />
न तद् दूषयते वातं न च पित्तं न वा कफम 24<br />
<br />
भौममम्भो निगदितं प्रथमं त्रिविधं बुधैः<br />
जाङ्गलं परमानूपं ततः साधारणं क्रमात 25<br />
<br />
अल्पोदकोऽल्पवृक्षश्च पित्तरक्तामयान्वितः<br />
ज्ञातव्यो जाङ्गलो देशस्तत्रत्यं जाङ्गलं जलम 26<br />
<br />
वह्वम्बुर्बहुवृक्षश्च वातश्लेष्मामयान्वितः<br />
देशोऽनूप इति ख्यात आनूपं तद्भवं जलम 27<br />
<br />
मिश्रचिह्नस्तु यो देशः स हि साधारणः स्मृतः <br />
तस्मिन्देशे यदुदकं तत्तु साधारणं स्मृतम 28<br />
<br />
जाङ्गलं सलिलं रूक्षं लवणं लघु पित्तनुत<br />
वह्निकृत्कफहृत्पथ्यं विकारान्हरते बहून 29<br />
<br />
आनूपं वार्यभिष्यन्दि स्वादु स्निग्धं घनं गुरु<br />
वह्निहृत्कफकृद्हृद्यं विकारान्कुरुते बहून 30<br />
<br />
साधारणं तु मधुरं दीपनं शीतलं लघु<br />
तर्पणं रोचनं तृष्णादाहदोषत्रयप्रणुत 31<br />
<br />
नद्या नदस्य वा नीरं नादेयमिति कीर्त्तितम 32<br />
<br />
नादेयमुदकं रूक्षं वातलं लघु दीपनम<br />
अनभिष्यन्दि विशदं कटुकं कफपित्तनुत 33<br />
<br />
नद्यः शीघ्रवहा लघ्व्यः सर्वा याश्चामलोदकाः<br />
गुर्व्यः शैवलसंछन्ना मन्दगाः कलुषाश्च याः 34<br />
<br />
हिमवत्प्रभवाः पथ्या नद्योऽश्माहतपाथसः<br />
गङ्गाशतद्रुसरयूयमुनाऽद्या गुणोत्तमाः 35<br />
<br />
सह्यशैलभवा नद्यो वेणागोदावरीमुखाः<br />
कुर्वन्ति प्रायशः कुष्ठमीषद्वातकफावहाः 36<br />
<br />
नदीसरस्तडागस्थे कूपप्रस्रवणादिजे<br />
उदके देशभेदेन गुणान्दोषांश्च लक्षयेत 37<br />
<br />
विदार्य भूमिं निम्नां यन्महत्या धारया स्रवेत<br />
तत्तोयमौद्भिदं नाम वदन्तीति महर्षयः 38<br />
<br />
औद्भिदं वारि पित्तघ्नमविदाह्यतिशीतलम<br />
प्रीणनं मधुरं बल्यमीषद्वातकरं लघु 49<br />
<br />
शैलसानुस्रवद्वारिप्रवाहो निर्झरो झरः<br />
स तु प्रस्रवणश्चापि तत्रत्यं नैर्झरं जलम 40<br />
<br />
नैर्झरं रुचिकृन्नीरं कफघ्नं दीपनं लघु<br />
मधुरं कटुपाकं च वातलं स्यादपित्तलम 41<br />
<br />
नद्याः शैलादिरुद्धायाः यत्र संस्रुत्य तिष्ठति<br />
तत्सरो जलजच्छन्नं तदम्भः सारसं स्मृतम 42<br />
<br />
सारसं सलिलं बल्यं तृष्णाघ्नं मधुरं लघु <br />
रोचनं तुवरं रूक्षं बद्धमूत्रमलं स्मृतम 43<br />
<br />
प्रशस्तभूमिभागस्थो बहुसंवत्सरोषितः<br />
जलाशयस्तडागः स्यात्ताडागं तज्जलं स्मृतम 44<br />
<br />
ताडागमुदकं स्वादु कषायं कटुपाकि च<br />
वातलं बद्धविण्मूत्रमसृक्पित्तकफापहम 45<br />
<br />
पाषाणैरिष्टकाभिर्वा बद्धः कूपो बृहत्तरः<br />
ससोपानो भवेद्वापी तज्जलं वाप्यमुच्यते 46<br />
<br />
वाप्यं वारि यदि क्षारं पित्तकृत्कफवातहृत<br />
तदेव मिष्टं कफकृद्वातपित्तहरं भवेत 47<br />
<br />
भूमौ खातोऽल्पविस्तारो गम्भीरो मण्डलाकृतिः<br />
बद्धोऽबद्धः स कूपः स्यात्तदम्भः कौपमुच्यते 48<br />
<br />
कौपं पयो यदि स्वादु त्रिदोषघ्नं हितं लघु<br />
तत्क्षारं कफवातघ्नं दीपनं पित्तकृत्परम 49<br />
<br />
शिलाकीर्णं स्वयं श्वभ्रं नीलाञ्जनसमोदकम<br />
लतावितानसंच्छन्नं चौञ्ज्यमित्यभिधीयते 50<br />
<br />
अश्मादिभिरबद्धं यत्तच्चौञ्ज्यमिति वा परे<br />
तत्रत्त्यमुदकं चौञ्ज्यं मुनिभिस्तदुदाहृतम 51<br />
<br />
चौञ्ज्यं वह्निकरं नीरं रूक्षं कफहरं लघु<br />
मधुरं पित्तनुद्रुच्यं पाचनं विशदं स्मृतम 52<br />
<br />
अल्पं सरः पल्वलं स्याद्यत्र चन्द्रर्क्षगे रवौ 53<br />
<br />
न तिष्ठति जलं किञ्चित्तत्रत्यं वारि पाल्वलम<br />
पाल्वलं वार्यभिष्यन्दि गुरु स्वादु त्रिदोषकृत 54<br />
<br />
नद्यादिनिकटे भूमिर्या भवेद्वालुकामयी<br />
उद्भाव्यते ततो यत्तु तज्जलं विकिरं विदुः 55<br />
<br />
विकिरं शीतलं स्वच्छं निर्दोषं लघु च स्मृतम<br />
तुवरं स्वादु पित्तघ्नं क्षारं तर्त्पित्तलं मनाक 56<br />
<br />
केदारः क्षेत्रमुद्दिष्टं कैदारं तज्जलं स्मृतम<br />
कैदारं वार्यभिष्यन्दि मधुरं गुरु दोषकृत 57<br />
<br />
वार्षिकं तदहर्वृष्टं भूमिस्थमहितं जलम<br />
त्रिरात्रमुषितं तत्तु प्रसन्नममृतोपमम 58<br />
<br />
हेमन्ते सारसं तोयं ताडागं वा हितं स्मृतम<br />
हेमन्ते विहितं तोयं शिशिरेऽपि प्रशस्यते 59<br />
<br />
वसन्तग्रीष्मयोः कौपं वाप्यं वा नैर्झरं जलम<br />
नादेयं वारि नादेयं वसन्तग्रीष्मयोर्बुधैः 60<br />
<br />
विषवद्वनवृक्षाणां पत्राद्यैर्दूषितं यतः<br />
औद्भिदं वाऽन्तरिक्षं वा कौपं वा प्रावृषि स्मृतम<br />
शस्तं शरदि नादेयं नीरमंशूदकं परम 61<br />
<br />
दिवा रविकरैर्जुष्टं निशि शीतकरांशुभिः<br />
ज्ञेयमंशूदकं नाम स्निग्धं दोषत्रयापहम 62<br />
<br />
अनभिष्यन्दि निर्दोषमान्तरिक्षजलोपमम<br />
बल्यं रसायनं मेध्यं शीतं लघु सुधासमम 63<br />
<br />
शरदि स्वच्छमुदयादगस्त्यादखिलं हितम 64<br />
<br />
पौषे वारि सरोजातं माघे तत्तु तडागजम<br />
फाल्गुने कूपसम्भूतं चैत्रे चौञ्ज्यं हितम मतम 65<br />
<br />
वैशाखे नैर्झरं नीरं ज्येष्ठे शस्तं तथौद्भिदम<br />
आषाढे शस्यते कौपं श्रावणे दिव्यमेव च 66<br />
<br />
भाद्रे कौपं पयः शस्तमाश्विने चौञ्ज्यमेव च<br />
कार्त्तिके मार्गशीर्षे च जलमात्रं प्रशस्यते 67<br />
<br />
भौमानामम्भसां प्रायो ग्रहणं प्रातरिष्यते<br />
शीतत्वं निर्मलत्वञ्च यतस्तेषां मतो गुणः 68<br />
<br />
अत्यम्बुपानान्न पिच्यतेऽन्न निरम्बुपानाच्च स एव दोषः<br />
तस्मान्नरो वह्निविवर्द्धनाय मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि 69<br />
<br />
मूर्च्छापित्तोष्ण दाहेषु विषे रक्ते मदात्यये<br />
श्रमे भ्रमे विदग्धेऽन्नेतमके वमथौ तथा<br />
ऊर्ध्वगे रक्त पित्ते च शीतमम्भः प्रशस्यते 70<br />
<br />
पार्श्वशूले प्रतिश्याये वातरोगे गलग्रहे<br />
आध्माने स्तिमिते कोष्ठे सद्यःशुद्धौ नवज्वरे 71<br />
<br />
अरुचिग्रहणीगुल्मश्वासकासेषु विद्रधौ<br />
हिक्कायां स्नेहपाने च शीताम्बु परिवर्जयेत 72<br />
<br />
अरोचके प्रतिश्याये मन्देऽग्नौ श्वयथौ क्षये<br />
मुखप्रसेके जठरे कुष्ठे नेत्रामये ज्वरे<br />
व्रणे च मधुमेहे च पिबेत्पानीयमल्पकम 73<br />
<br />
जीवनं जीविनां जीवो जगत सर्वन्तु तन्मयम<br />
नातोऽत्यन्तनिषेधेन कदाचिद्वारि वार्य्यते 74<br />
<br />
तृष्णा गरीयसी घोरा सद्यःप्राणविनाशिनी <br />
तस्माद देयं तृषाऽत्ताय पानीयं प्राणधारणम 75<br />
<br />
तृषितो मोहमायाति मोहात्प्राणान्विमुञ्चति<br />
अतः सर्वास्ववस्थासु न क्वचिद्वारि वारयेत 76<br />
<br />
अगन्धमव्यक्तरसं सुशीतं तर्षनाशनम<br />
स्वच्छं लघु च हृद्यञ्च तोयं गुणवदुच्यते 77<br />
<br />
पिच्छिलं कृमिलं क्लिन्नं वर्णशैवालकर्दमैः<br />
विवर्णं विरसं सान्द्रं दुर्गन्धं न हितं जलम 78<br />
<br />
कलुषं छन्नमम्भोजपर्णनीलीतृणादिभिः<br />
दुःस्पर्शनमसंस्पृष्टं सौरचान्द्र मरीचिभिः 79<br />
<br />
अनार्त्तवं वार्षिकं तु प्रथमं तच्च भूमिगम<br />
व्यापन्नं परिहर्त्तव्यं सर्वदोषप्रकोपणम 80<br />
<br />
तत् कुर्यात्स्नानपानाभ्यां तृष्णाऽध्मानचिरज्वरान<br />
कासाग्निमान्द्याभिष्यन्दकण्डूगण्डादिकं तथा 81<br />
<br />
निन्दितं चापि पानीयं क्वथितं सूर्यतापितम<br />
सुवर्णं रजतं लौहं पाषाणं सिकतामपि 82<br />
<br />
भृशं सन्ताप्य निर्वाप्य सप्तधा साधितं तथा<br />
कर्पूरजातिपुन्नागपाटलादिसुवासितम 83<br />
<br />
शुचिसान्द्र पटस्रावि क्षुद्र जन्तुविवर्जितम<br />
स्वच्छं कनकमुक्ताऽद्यै शुद्धं स्याद्दोषवर्जितम 84<br />
<br />
पर्णमूलविसग्रन्थिमुक्ताकनकशैवलैः<br />
गोमेदेन च वस्त्रेण कुर्य्यादम्बुप्रसादनम 85<br />
<br />
पीतं जलं जीर्य्यति यामयुग्माद्यामैकमात्राच्छृतशीतलञ्च<br />
तदर्धमात्रेण शृतं कदुष्णं पयःप्रपाके त्रय एव कालाः 86<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे</span><br />
<span style="color: red;"> मिश्रप्रकणे त्रयोदशो वारिवर्गः समाप्त 13</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-78079673817058686142015-07-12T06:18:00.002-07:002015-07-12T06:18:24.026-07:00 अथ दुग्धवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दुग्धं क्षीरं पयः स्तन्यं बालजीवनमित्यपि<br />
दुग्धं सुमधुरं स्निग्धं वातपित्तहरं सरम 1<br />
<br />
सद्यः शुक्रकरं शीतं सात्म्यं सर्वशरीरिणाम<br />
जीवनं बृहणं बल्यं मेध्यं वाजीकरं परम<br />
वयःस्थापनमायुष्यं सन्धिकारि रसायनम 2<br />
<br />
विरेकवान्तिवस्तीनां सेव्यमोजोविवर्द्धनम 3<br />
<br />
जीर्णज्वरे मनोरोगे शोषमूर्च्छाभ्रमेषु च<br />
ग्रहण्यां पाण्डुरोगे च दाहे तृषि हृदामये 4<br />
<br />
शूलोदावर्त्तगुल्मेषु वस्तिरोगे गुदाङ्कुरे<br />
रक्तपित्तेऽतिसारे च योनिरोगे श्रमे क्लमे 5<br />
<br />
गर्भस्रावे च सततं हितं मुनिवरैः स्मृतम<br />
बालवृद्धक्षतक्षीणाः क्षुद्व्यवायकृशाश्च ये<br />
तेभ्यः सदाऽतिशयितं हितमेतदुदाहृतम 6<br />
<br />
गव्यं दुग्धं विशेषेण मधुरं रसपाकयोः<br />
दोषधातुमलस्रोतः किञ्चित्क्लेदकरं गुरु 7<br />
<br />
शीतलं स्तन्यकृत्स्निग्धं वातपित्तास्रनाशनम<br />
जरासमस्तरोगाणां शान्तिकृत सेविनां सदा 8<br />
<br />
कृष्णाया गोर्भवेद दुग्धं वातहारि गुणाधिकम 9<br />
<br />
पीताया हरते पित्तं तथा वातहरं भवेत<br />
श्लेष्मलं गुरु शुक्लाया रक्ता चित्रा च वातहृत 10<br />
<br />
बालवत्सविवत्सानां गवां दुग्धं त्रिदोषकृत 11<br />
वष्कयिण्यास्त्रिदोषघ्नं तर्पणं बलकृत्पयः 12<br />
<br />
जाङ्गलानूपशैलेषु चरन्तीनां यथोत्तररम<br />
पयो गुरुतरं स्नेहो यथाऽहारं प्रवर्त्तते 13<br />
<br />
स्वल्पान्नभक्षणाज्जातं क्षीरं गुरु कफप्रदम<br />
तत्तु बल्यं परं वृष्यं स्वस्थानां गुणदायकम<br />
पलालतृणकार्पासबीजजं रोगिणे हितम 14<br />
<br />
माहिषं मधुरं गव्यात्स्निग्धं शुक्रकरं गुरु<br />
निद्रा करमभिष्यन्दि क्षुधाऽधिक्यहरं हिमम 15<br />
<br />
छागं कषायं मधुरं शीतं ग्राहि तथा लघु<br />
रक्तपित्तातिसारघ्नं क्षयकासज्वरापहम 16<br />
<br />
अजानामल्पकायत्वात्कटुतिक्तनिषेवणात<br />
स्तोकाम्बुपानाद्व्यायामात्सर्वरोगापहं पयः 17<br />
<br />
मृगीणां जाङ्गलोत्थानामजाक्षीरगुणं पयः 18<br />
<br />
आविकं लवणं स्वादु स्निग्धोष्णं चाश्मरीप्रणुत<br />
अहृद्यं तर्पणं केश्यं शुक्रपित्तकफप्रदम्<br />
गुरु कासानिलोद्भूते केवले चानिले वरम 19<br />
<br />
रूक्षोष्णं वडवाक्षीरं बल्यं शोषानिलापहम<br />
अम्लं पटु लघु स्वादु सर्वमेकशफं तथा 20<br />
<br />
औष्ट्रं दुग्धं लघु स्वादु लवणं दीपनं तथा<br />
कृमिकुष्ठकफानाहशोथोदरहरं सरम 21<br />
<br />
बृंहणं हस्तिनीदुग्धं मधुरं तुवरं गुरु<br />
वृष्यं बल्यं हिमं स्निग्धं चक्षुष्यं स्थिरताकरम 22<br />
<br />
भार्या लघु पयः शीतं दीपनं वातपित्तजित<br />
चक्षुः शूलाभिवातघ्नं नस्याश्च्योतनयोर्वरम 23<br />
<br />
धारोष्णं गोपयो बल्यं लघु शीतं सुधासमम<br />
दीपनञ्च त्रिदोषघ्नं तद्धाराशिशिरं त्यजेत 24<br />
<br />
धारोष्णं शस्यते गव्यं धाराशीतन्तु माहिषम<br />
शृतोष्णमाविकं पथ्यं शृतशीतमजापयः 25<br />
<br />
आमं क्षीरमभिष्यन्दि गुरु श्लेष्मामवर्द्धनम<br />
ज्ञेयं सर्वमपथ्यं तु गव्यमाहिषवर्जितम 26<br />
<br />
नारीक्षीरं त्वाममेव हितं न तु शृतं हितम<br />
शृतोष्णं कफवातघ्नं शृतशीतन्तु पित्तनुत 27<br />
<br />
अर्द्धोदकं क्षीरशिष्टमामाल्लघुतरं पयः<br />
जलेन रहितं दुग्धमतिपक्वं यथा यथा<br />
तथा तथा गुरु स्निग्धं वृष्यं बलविवर्धनम 28<br />
<br />
क्षीरं तत्कालसूताया घनं पीयूषमुच्यते<br />
नष्टदुग्धस्य पक्वस्य पिण्डः प्रोक्तः किलाटकः 29<br />
<br />
अपक्वमेव यन्नष्टं क्षीरशाकं हि तत्पयः 30<br />
<br />
दघ्ना तक्रेण वा नष्टं दुग्धं बद्धं सुवाससा<br />
द्रवभावेन सहितं तक्रपिण्डः स उच्यते 31<br />
<br />
नष्टदुग्धभवं नीरं मोरटं जेज्जटोऽब्रवीत<br />
पीयूषञ्च किलाटञ्च क्षीरशाकं तथैव च 32<br />
<br />
तक्रपिण्ड इमे वृष्या बृंहणा बलवर्द्धनाः<br />
गुरवः श्लेष्मला हृद्या वातपित्तविनाशनाः 33<br />
<br />
दीप्ताग्नीनां विनिद्राणां विद्रधौ चाभिपूजिताः<br />
मुखशोष तृषा दाह रक्त पित्त ज्वरप्रणुत<br />
<br />
लघुर्बलकरो रुच्यो मोरटः स्यात्सितायुतः 34<br />
<br />
सन्तानिका गुरुः शीता वृष्या पित्तास्रवातनुत<br />
तर्पणी वृंहणी स्निग्धा बलासबलशुक्रला 35<br />
<br />
खण्डेन सहितं दुग्धं कफकृत्पवनापहम<br />
सितासितोपलायुक्तं शुक्रलं त्रिमलापहम<br />
सगुडं मूत्रकृच्छ्रघ्नं पित्तश्लेष्मकरं परम 36<br />
<br />
रात्रौ चन्द्र गुणाधिक्याद्व्यायामाकरणात्तथा<br />
प्राभातिकं पयः प्रायः प्रादोषाद गुरु शीतलम 37<br />
<br />
दिवाकरकराघाताद्व्यायामानिलसेवनात<br />
प्राभातिकात्तु प्रादोषं लघु वातकफापहम 38<br />
<br />
वृष्यं बृंहणमग्निदीपनकरं पूर्वाह्नकाले पयो<br />
मध्याह्ने तु बलावहं कफहरं पित्तापहं दीपनम<br />
बाले बृद्धिकरं क्षयेऽक्षयकरं वृद्धेषु रेतोवहं<br />
रात्रौ पथ्यमनेकदोषशमनं चक्षुर्हितं संस्मृतम 39<br />
<br />
वदन्ति पेयं निशि केवलं पयो भोज्यं न तेनेह सहौदनादिकम<br />
भवत्यजीर्णं न शयीत शर्वरीं क्षीरस्य पीतस्य न शेषमुत्सृजेत 40<br />
<br />
विदाहीन्यन्नपानानि दिवा भुङ्क्ते हि यन्नरः<br />
तद्विदाहप्रशान्त्यर्थं रात्रौ क्षीरं सदा पिबेत 41<br />
<br />
दीप्तानले कृशे पुंसि बाले वृद्धे पयःप्रिये<br />
मतं हिततमं दुग्धं सद्यःशुक्रकरं यतः 42<br />
<br />
क्षीरं गव्यमथाजं वा कोष्णं दण्डाहतं पिबेत<br />
लघु वृष्यं ज्वरहरं वातपित्तकफापहम 43<br />
<br />
गोदुग्धप्रभवं किंवा छागीदुग्धसमुद्भवम<br />
भवेत फेनं त्रिदोषघ्नं रोचनं बलवर्द्धनम 44<br />
<br />
वह्निबृद्धिकरं वृष्यं सद्यस्तृप्तिकरं लघु<br />
अतीसारेऽग्निमान्द्ये च ज्वरे जीर्णे प्रशस्यते 45<br />
<br />
विवर्णं विरसं चाम्लं दुर्गन्धं ग्रथितं पयः<br />
वर्जयेदम्ललवणयुक्तं कुष्ठादिकृद् यतः 46<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे</span><br />
<span style="color: red;">मिश्रप्रकरणे चतुर्दशो दुग्धवर्गः समाप्तः 14 </span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2105587874786936166.post-16495836515478181182015-07-12T06:17:00.002-07:002015-07-12T06:17:38.597-07:00 अथ दधिवर्गः <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दध्युष्णं दीपनं स्निग्धं कषायानुरसं गुरु<br />
पाकेऽम्ल ग्राहि पित्तास्रशोथमेदः कफप्रदम 1<br />
<br />
मूत्रकृच्छ्रे प्रतिश्याये शीतगे विषमज्वरे<br />
अतीसारेऽरुचौ कार्श्ये शस्यते बलशुक्रकृत 2<br />
<br />
आदौ मन्दं ततः स्वादु स्वाद्वम्लञ्च ततःपरम<br />
अम्लं चतुर्थमत्यम्लं पञ्चमं दधि पञ्चधा 3<br />
<br />
मन्दं दुग्धवदव्यक्तरसं किञ्चिद्घनं भवेत<br />
मन्दं स्यात्सृष्टविण्मूत्रं दोषत्रयविदाहकृत 4<br />
<br />
यत्सम्यग्घनतां यातं व्यक्तस्वादुरसं भवेत<br />
अव्यक्ताम्लरसं तत्तु स्वादु विज्ञैरुदाहृतम 5<br />
<br />
स्वादु स्यादत्यभिष्यन्दि वृष्यं मेदःकफावहम<br />
वातघ्नं मधुरं पाके रक्तपित्तप्रसादनम 6<br />
<br />
स्वाद्वम्लं सान्द्र मधुरं कषायानुरसं भवेत<br />
स्वाद्वम्लस्य गुणा ज्ञेया सामान्यदधिवज्जनैः 7<br />
<br />
यत्तिरोहितमाधुर्यं व्यक्ताम्लत्वं तदम्लकम<br />
अम्लं तु दीपनं पित्तरक्तश्लेष्मविवर्द्धनम 8<br />
<br />
तदत्यम्लं दन्तरोमहर्षकण्ठादिदाहकृत<br />
अत्यम्लं दीपनं रक्तवातपित्तकरं परम 9<br />
<br />
गव्यं दधि विशेषेण स्वाद्वम्लं च रुचिप्रदम<br />
पवित्रं दीपनं हृद्यं पुष्टिकृत्पवनापहम<br />
उक्तं दध्नामशेषाणां मध्ये गव्यं गुणाधिकम 10<br />
<br />
माहिषं दधि सुस्निग्धं श्लेष्मलं वातपित्तनुत<br />
स्वादुपाकमभिष्यन्दि वृष्यं गुर्वस्रदूषकम 11<br />
<br />
आजं दध्युत्तमं ग्राहि लघु दोषत्रयापहम<br />
शस्यते श्वासकासार्शः क्षयकार्श्येषु दीपनम 12<br />
<br />
पक्वदुग्धभवं रुच्यं दधि स्निग्धं गुणोत्तमम<br />
पित्तानिलापहं सर्वधात्वग्निबलवर्द्धनम 13<br />
<br />
असारं दधि सङ्ग्राहि शीतलं वातलं लघु<br />
विष्टम्भि दीपनं रुच्यं ग्रहणीरोगनाशनम 14<br />
<br />
गालितं दधि सुस्निग्धं वातघ्नं कफकृद गुरु<br />
बलपुष्टिकरं रुच्यं मधुरं नातिपित्तकृत 15<br />
<br />
सशर्करं दधि श्रेष्ठं तृष्णापित्तास्रदाहजित<br />
सगुडं वातनुद् वृष्यं बृंहणं तर्पणं गुरु 16<br />
<br />
न नक्तं दधि भुञ्जीत न चाप्यघृतशर्करम<br />
नामुद्गसूपं नाक्षौद्रंनोष्णं नामलकैर्विना 17<br />
<br />
हेमन्ते शिशिरे चापि वर्षासु दधि शस्यते<br />
शरद्ग्रीष्मवसन्तेषु प्रायशस्तद्विगर्हितम 18<br />
<br />
ज्वरासृक्पित्त वीसर्पकुष्ठपाण्ड्वामयभ्रमान<br />
प्राप्नुयात्कामलां चोग्रां विधिं हत्वा दधिप्रियः 19<br />
<br />
दध्नस्तूपरि यो भागो घनः स्नेहसमन्वितः<br />
स लोके सर इत्युक्तो दध्नो मण्डस्तु मस्त्विति 20<br />
<br />
सरः स्वादुर्गुरुर्वृष्यो वातवह्निप्रणाशनः<br />
सोऽम्लो वस्तिप्रशमनः पित्तश्लेष्मविवर्द्धनः 21<br />
<br />
मस्तु क्लमहरं बल्यं लघु भक्ताभिलाषकृत 22<br />
<br />
स्रोतोविशोधनं ह्लादि कफतृष्णानिलापहम<br />
अवृष्यं प्रीणनं शीघ्रं भिनत्ति मलसञ्चयम 23<br />
<br />
<span style="color: red;">इति श्रीमिश्रलटकन तनय श्रीमिश्रभाव विरचिते भावप्रकाशे</span><br />
<span style="color: red;">मिश्रप्रकरणे पञ्चदशो दधिवर्गः समाप्तः 15 </span></div>
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