Tuesday, 15 November 2011

नेट पर अपनी तरह का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लॉग - हिंदीज़ेन

हिंदीज़ेन इंटरनेट पर अपनी तरह का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला हिंदी ब्लॉग है । यह जीवन में शांति । प्रसन्नता । आध्यात्मिकता । कर्मशुद्धि । अच्छी आदतें विकसित करना । उद्देश्यों की प्राप्ति । उत्पादकता । परिवेश में सुव्यवस्था का निर्माण । कर्मठता । प्रेरणा । सरलीकरण । सहजता । और मिनिमलिस्म आदि पर सर्वश्रेष्ठ सामग्री प्राप्त करने का स्रोत बन गया है ।
संक्षेप में कहें । तो हिंदीज़ेन सरल सहज ज्ञान अथवा जानकारी को प्राप्त करने और उसे हमारे जटिल जीवन में उतारने के सूत्र उपलब्ध कराता है । पिछले 2 वर्षों में हिंदीज़ेन शांति और प्रसन्नता की युक्तियाँ सहेजने वाले अग्रणी जालपृष्ठ के रूप में उभरा है । और इतने कम समय में  इस पर 3 लाख से ज्यादा आगंतुकों ने आमद दर्ज कराई है । हिंदी ब्लागों के लिए यह संख्या भी बड़ी उपलब्धि है
मैं निशांत मिश्र हिंदीज़ेन का संस्थापक/प्रशासक हूँ । और नई दिल्ली में अनुवादक पद पर कार्यरत हूँ । यह जालपृष्ठ पहले blogger पर था । may 2009 में यह wordpress.com पर स्थापित हो गया । ( july  2011 तक ) इसमें 500 से भी अधिक पोस्ट प्रकाशित हो चुकी हैं । इन पोस्ट में आपको उत्तम प्रेरक प्रसंग । लेख । ज़ेन । ताओ । सूफी बोध । नैतिक कथाएं । कवितायें । गीत । प्रसिद्ध व्यक्तियों के संस्मरण । बच्चों के लिए ज्ञानवर्धक कहानियां । लोक कथाएं । और अंग्रेजी के कुछ प्रसिद्ध ब्लागरों के लेख आदि के अनुवाद पढ़ने को मिलेंगे ।
july 2011 में मैंने हिंदीज़ेन को समूह ब्लॉग में परिवर्तित कर दिया है । और आशा है कि अब इसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री में विविधता आयेगी । ब्लॉग के अन्य लेखकों अनुवादकों का विवरण साइडबार में मिलेगा ।
हिंदीज़ेन पर प्रकाशित होने वाली सभी पोस्ट पब्लिक डोमेन में हैं । यदि आप इनका प्रयोग अन्यत्र करें । तो ब्लॉग का लिंक दें । अथवा मुझे सूचित करें । इस बारे में यहाँ भी पढ़ लें ।
ब्लॉग में छपने वाली नई पोस्टों को पढ़ने के लिए आप email अथवा फ़ीड रीडर पर इसकी सदस्यता ले सकते हैं । यदि आप face book पर हैं । तो कृपया इसे like या FOLLOW  करें । आपको नई पोस्ट की जानकारी फेसबुक वाल पर मिल जायेगी ।
मेरा ईमेल है: the.mishnish@gmail.com
निशांत जी अपने बारे में और अपने विचार बताते हैं -
मैं मध्यवय की ओर बढ़ रहा व्यक्ति हूँ । मेरी आंतरिक प्रेरणा और उन्नति का संबंध इस ब्लॉग से है । यह देखकर हर्ष आश्चर्य होता है कि हिंदीज़ेन मेरे लिए जड़ नास्तिकता से समर्पित आध्यात्मिकता तक की यात्रा का माध्यम बना । इस ब्लॉग की स्थापना से पहले अनेक वर्षों तक मैं अंतर्दृष्टि खोजने के प्रयास करता रहा । जो मुझे तब उपलब्ध हुई । जब मैंने उसे पाने के प्रयास बंद कर दिए । और सहजता सजगता से अपने जीवन में व्यवस्था और मूल्यों को आधार दिया । इस लंबी यात्रा में मुझे कुछ चीज़ें सही और कुछ गलत दिखीं । मैंने सही को अपनाया । पर गलत का तिरस्कार नहीं किया । जब मुझे सकारात्मकता और मूल्यों पर आधारित संयमित जीवन जीने के लाभ दिखे । तब मैंने शुभ विचारों को प्रसारित करने का दृण निश्चय किय । जिसका परिणाम सामने है ।
मैं अनुवादक हूँ । मुझे पढ़ना लिखना अच्छा लगता है । अपने छात्र जीवन का लगभग अधिकांश समय मैंने महाकाय पुस्तकों को पढ़ने में बिताया । लेकिन मैंने दोस्ती यारी और आवारागर्दी भी बखूबी की । मुझे संगीत । चित्रकला । फोटोग्राफी । भारतीय जापानी दर्शन । इंटरनेट । और अपने परिवार के साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता है । मैं फ़िल्में बहुत देखता था । पर अब उस पर विराम लग चुका है । मुझमें बहुत ऐब भी थे । जिनमें से कई से मैं उबर चुका हूँ । अब कुछ ही ऐसी चीज़ें बची हैं । जिनको मैं खुद से निकालना चाहता हूँ । वे हैं - क्रोध । झुंझलाहट । टालमटोल । लिस्ट अभी भी लंबी है
मुझे लगता है । हम में से अधिकांश लोग ऐसे होते हैं । हम सभी को भले प्रतीत न हों । पर अपने मूल रूप में हम बुरे नहीं हैं । हमारी कमजोरियां और ताकत बहुत बड़ी नहीं है । हम चाहें तो उन दोनों को थोड़े से प्रयास से कम ज्यादा कर सकते हैं ।
इस ब्लॉग की कुछ पोस्ट और इसकी साज सज्जा आदि देखकर कुछ पाठकों को लगता है कि मैं बौद्ध धर्मावलंबी हूं । मैंने ब्लॉग पर बौद्ध जापानी दर्शन के ऊपर बहुत कुछ लिखा है । लेकिन मैं बुद्ध की उपासना नहीं करता । मैं बौद्ध धर्म या किसी अन्य धर्म दर्शन का पारंपरिक अर्थ में अनुयायी नहीं हूं । मैं अज्ञेयवादी हूँ । लेकिन मैंने विश्व के श्रेष्ठ विचारों में से आत्म उन्नति के मोती चुने हैं । मैं वेदांत । सूफ़ी । ताओ । थेरवाद । विपश्यना । अष्टांग योग । ज़ेन आदि में श्रेय के सूत्र पाता हूं ।
मुझे लगता है कि हम किसी 1 परमेश्वर के अस्तित्व पर चर्चा नहीं कर सकते । क्योंकि उसकी ऐसी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है । जिस पर सभी सहमत हों । और ऐसा कभी होने की उम्मीद भी नहीं है । मैं किसी गृन्थ या शास्त्र को देववाणी के रूप में नहीं मानता । और उन पर चर्चा भी नहीं करता । मेरे अनुसार वे केवल जीवन के लिए मार्गदर्शन उपलब्ध कराते हैं । या विद्वेष कायम रखने के तर्क देते हैं ।
हमें किसी की भी आस्था को चोट पहुंचाने का अधिकार नहीं है । क्योंकि आस्था बहुत मूल्यवान है । अधिकांश मामलों में किसी व्यक्ति की आस्था उसकी व्यावहारिक बुद्धि । करुणा । और मैत्री भाव आदि से जुड़ी होती है । और हमें यह अधिकार नहीं कि हम उसकी आस्था को खंडित कर दें । क्योंकि हम उसे इतने ही उत्तम विचार उपलब्ध नहीं करा सकते । जिन व्यक्तियों के भीतर इन विचारों का संग्रह हैं । उन्हें चाहिए कि वे इन्हें अपने तक ही रखें । और तब तक इनकी चर्चा न करें । जब तक उनसे पूछा न जाए ।
किसी अन्य व्यक्ति को अपने धर्म या मत का अनुयायी बनाने का प्रयास करना अहंकार की पराकाष्ठा है । हांलांकि ऐसा करने वालों के विचार बड़े ही रोचक लगते हैं । क्योंकि वे अक्सर ही पारलौकिक सत्ताओं या सुख के बारे में बड़ी गहराई से आँखें चमकाते हुए बताते हैं । स्थापित धर्मों या मत आदि से मेरा कोई मतभेद नहीं है । लेकिन मैं उनके पुरोहितों और जड़ उपासकों की कभी कभी आलोचना करता हूँ । मेरा जन्म ऐसे हिन्दू परिवार में हुआ । जहाँ मुझे धर्म और पूजा की ओर कभी धकेला नहीं गया । मुझे अन्य धर्म या दर्शन की पुस्तकें पढ़ने से रोका नहीं गया । ऐसा होना भी नहीं चाहिए ।
यदि किसी भी धर्म या मत को माननेवाले व्यक्ति की आस्था उसे उत्तरोत्तर मानवीय और सद्गुणी बनाती है । तो विश्व के लिए इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता । यही धर्म और दर्शन आदि की उपादेयता है । लेकिन जब धर्म ऐसा नहीं कर पाता है । तो वह उतना ही अनुपयोगी सिद्ध होता है । जितना कोई हानिकारक अंधविश्वास होता है । ऐसे में उसके अनुयाइयों को गंभीर मानसिक आत्मिक क्षति पहुँचती है । क्योंकि वे इसे सर्वथा शुद्ध मानकर ही चलते हैं । धर्म अरबों मनुष्यों को किसी न किसी रूप में संबल देता है । लेकिन यह उन व्यक्तियों के लालच का भी पोषण करता है । जो इसे अपने स्वार्थ के लिए तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं । जड़ धार्मिक विचारों के कारण ही पिछले कुछ दशकों में करोड़ों मनुष्यों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा है । इतिहास गवाह है कि स्वयं को कट्टर धार्मिक मानने वालों ने दुध मुंहे बच्चों की गर्दनों पर गंडासे चलाये हैं ।
मैं धार्मिक संस्थानों में वरीयता पदानुकृम पर भी विश्वास नहीं करता । स्वयं को ऊंची और शक्ति संपन्न पदवी पर विराजमान करने की अभिलाषा बुराइयों को जन्म देती है । हजारों वर्षों की सभ्यता और संस्कृति ने मनुष्यों को बहुत से सद्गुण दिए हैं । जिनके पालन से सबका हित है । यदि कोई इन सद्गुणों को अपने मन में दूसरे से अधिक श्रेष्ठ होने की भावना रखकर अभिमान परक चिंतन करेगा । तो यही सद्गुण मनुष्यता को नीचे गिरा देंगे ।
मैं बहुत से आध्यात्मिक गुरुजनों आदि से मिला हूँ । उनके जीवन का अवलोकन करने के बाद मेरी यह स्थापना है कि किसी भी व्यक्ति को ऐसे ही गुरु का शिष्य बनना चाहिए । जो अपने अनुयायिओं से किसी भी प्रकार का लाभ न उठाता हो । जो उनसे दान की अपेक्षा न करता हो । और न ही उन्हें कोई सामग्री आदि खरीदने के लिए विवश करता हो । आध्यात्मिकता का संबंध किसी भी प्रकार का दान चंदा देने । सीडी । पुस्तक । या सात्विक अगरबत्ती । साबुन आदि की खरीद करने से नहीं है । कुछ लोगों को यह करने से मानसिक शांति मिलती है । इसलिए मैं इन बातों को गलत नहीं मानता । पर मुझे लगता है कि ऐसे व्यवहार के मूल में कहीं अर्थशास्त्र के नियम कार्य करते हैं । यदि कोई किसी मंदिर या आश्रम को बनवाने के लिए प्रयासरत है । तो मैं उनसे यही कहता हूँ कि हमें इनसे भी अधिक उपयोगी आश्रयों की ज़रुरत है । कृष्ण । ईसा मसीह । और बुद्ध ने हमें सदैव किसी नदी । सागरतट । पर्वत । या किसी वृक्ष के नीचे ही ज्ञान दिया । किसी भी अनुयायी के लिए केवल सामान्य बैठक ही पर्याप्त है । बड़े बड़े मंदिर और आश्रम आदि केवल हमारे अहंकार की तुष्टि ही करते हैं ।
कृष्ण । महावीर । बुद्ध । ईसामसीह । कबीर । और अन्य महात्माओं से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं । लेकिन उनके उपदेशों को कुशलता पूर्वक समझकर उनके मार्ग पर चलने वाले बहुत कम हैं । मैं नहीं मानता कि वे किसी पारलौकिक सत्ता का अवतार थे । जो यह मानता हो । वह ऐसा मानने के लिए स्वतन्त्र है । उनमें पारलौकिक या मानवीय गुणों के आरोपण से उनका महत्व कम नहीं होता ।
मैं नैतिकता या नीति में नहीं । बल्कि सदगुणों में विश्वास करता हूँ । नैतिकता या नीति का विश्लेषण हर व्यक्ति भिन्न भिन्न दृष्टि से करता है । जबकि सद्गुण सदैव सभी के लिए समान रहते हैं । ऐसा कोई 1 स्वर्णिम नियम नहीं है । जो सभी के लिए स्वीकार्य हो । यदि वह हो भी । तो उसकी व्याख्या करनी पड़ती है । जबकि सद्गुओं को व्याख्या की ज़रुरत नहीं है । प्रेम । करुणा । ईमानदारी । सहजता की कैसी व्याख्या ? ये सभी सहज । सरल । और वास्तविक हैं । वास्तविक मैत्रीभाव । सहज दान । सरल प्रेम । विश्व बंधुत्व  इनका कोई विकल्प नहीं है । 1 और बात है । जो महत्वपूर्ण है । हम दूसरों को वह करने की स्वतंत्रता दें । जो वे करना चाहते हैं । बशर्ते इससे हमें कोई परेशानी न हो ।
अनुत्तरित प्रश्न केवल अनुत्तरित प्रश्नों के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं । उचित व्याख्या की अनुपस्थिति को प्रमाण नहीं माना जा सकता । स्वयं की । परिजनों की । और अपने पड़ोसियों की सुख शांति की कामना और उसकी प्राप्ति की दिशा में कार्य करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है । लेकिन ऐसा करते समय हमें ज्यादातर अपने काम से मतलब रखना चाहिए । अनावश्यक दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप ठीक नहीं । स्वयं की रक्षा करना भी ज़रूरी है । और इसके लिए कभी कभी हठ एवं बल प्रयोग ज़रूरी होता है । लेकिन हमारी सीमा हमारे हाथों के विस्तार तक ही है । उससे अधिक नहीं । हिंसा को कभी कभी अनावश्यक अनिवार्यता के रूप में देखा जाता है । पर उस स्थिति में यह वैसा ही है । जैसे किसी छोटी बुराई से लड़ने के लिए बड़ी बुराई को जन्म देना । हिंसा तभी उचित है । जब यह व्यापक जनहित के परिप्रेक्ष्य में हो । आक्रामकता में दोष है । और 2 बुराइयों के योग से अच्छाई जन्म नहीं लेती । यद्यपि उनका संयोग विरल परिस्थितियों में बुराई को बढ़ने से रोक भी सकता है ।
मैं नहीं मानता कि अपने मूल रूप में मनुष्य में अच्छाई निहित रहती है । हम सब अक्सर वे काम ही करते हैं । जिनसे हमारा हित सधता हो । हम लोगों में से वे व्यक्ति जो किन्हीं क्षणों में स्थिरता पा लेते हैं । वे विश्व को उसकी गति से चलने देते हैं । उसमें हस्तक्षेप नहीं करते । जो “ बस  बहुत हो गया ” के सिद्धांत को नहीं समझते । या इसे नज़रंदाज़ करते हैं । वे दुखों के चंगुल में फंसते हैं । मैं मानता हूँ कि हमारा कर्त्तव्य है कि हम ऐसे अनियंत्रित और अकुशल व्यक्तियों को किसी भी प्रकार सही मार्ग पर लाने के लिए कर्म करें । यह कर्म हमें सदभावना से करना होगा ।
सफ़ेद और काला सिर्फ फोटोग्राफी में ही चलता है । लेकिन उसमें भी भूरी धूसर छवियाँ ही आकर्षक दिखती हैं । मन में शुद्ध भावना रखने वाले सदाशय व्यक्तियों सी भी बड़ी गलतियाँ हो सकती हैं । और ऐसे में अन्य सदाशय व्यक्तियों के ऊपर आचरण शुद्ध रखने का भार बढ़ जाता है ।
और अंत में - मुझे यह लगता है कि दुनिया की तमाम परेशानियों और समस्याओं के लिए हमारा स्वार्थ उत्तरदायी है । विश्व के संकुचित होने के साथ ही हम भी सिकुड़ गए हैं । हम अब बहुत इंसटेंट में जीते हैं । हम यांत्रिक और संवेदनहीन होते जा रहे हैं । हम पुराने का तिरस्कार करते हैं । और नए से ताल नहीं मिला पा रहे । यदि हम अपनी जड़ों की ओर नहीं लौटेंगे । तो हमें इस जीवन से कुछ भी नहीं मिलेगा । हम अपना जीवन परिपूर्णता से व्यतीत नहीं  कर पायेंगे । हर व्यक्ति जीवन को पूर्णता से जी सकता है ।
यदि आप मेरे किन्हीं विचारों से सहमत नहीं हैं । तो मेरी मंशा आपको असहमत करने की भी नहीं है । मुझे आपके विचार जानकर प्रसन्नता होगी । निशांत मिश्र ।
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चित्र और लेख साभार - हिन्दीजेन ब्लाग से ।

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