Monday 9 April 2012

कब आयेगी मेरी चिडिया रानी ? shelley

आईये आज आपका परिचय कराते हैं । एक भावुक पत्रकारा shelley जी से । जिनका मानना है - सेंटीमेंटल होना आज के हिसाब से ठीक नहीं । रोज करती हूँ इंतजार । आयेगी । मेरी चिडिया रानी । कभी तो आयेगी । स्नेह सिंचित दाने । आकर खायेगी..जी हाँ ! ये चाहत है । इन पत्रकारा की । इनका शुभ नाम है - shelley और इनकी Industry है - Communications or Media और इनका Occupation है - Journalist और इनकी Location है - patna, now in ranchi, jharkhand, India शैली जी अपने Introduction में कहती हैं - बहुत सेंटीमेंटल विचारधारा । जानती हूँ । सेंटीमेंटल होना आज के हिसाब से ठीक नहीं । पर हूँ । ऐसा क्यों न कुछ कर जायें हम । चले जाने पर भी याद आयें हम । और इनका Interests है - Reading Books, Listening Music, to do something creative  Thinking और इनकी Favourite Films हैं - D d l j विवाह । तारे जमीन पर । प्यासा । दो बदन । और इनका Favourite Music है - Light Music, sad songs और इनकी Favourite Books हैं - आदमी की निगाह में औरत ( राजेंद्र यादव 


) अन्य से अनन्य ( प्रभा खेतान ) देवदास । गुनाहों का देवता । 1084 की माँ । मोहनदास आदि । a lot of.. और इनके ब्लाग हैं - आहुति बार बार देखो । इनके ब्लाग पर जाने हेतु क्लिक करें
इन दिनों पहले वाली बात नहीं रही । कुछ साल पहले तक गर्मियों की सुबह छत चिड़ियों की चहचहाहट से गुलजार रहती थी । अब कितनी भी सुबह उठ जाओ । चिड़ियाँ दिखती नहीं । सभी लोगों का तो मालूम नहीं । पर मेरे जैसे उनकी आवाज के आदी लोगों के लिए यह एक दुखद घटना है । घर जाने पर मेरी सुबह उनकी आवाज से ही हुआ करती थी । चिड़ियाँ जाने कहाँ गम हुई कि अब घर जाकर भी निराशा हाथ आती है । पिछले दिनों चिड़ियाँ की याद में कविता लिखी थी । shelley
चिड़िया ।
उस दिन दिखी थी चिड़िया । थकी  हारी । बेबस क्लांत सी । मुड़ मुड़ कर । जाने किसे देख रही थी ।
या फिर । नजरें दौड़ा दौड़ाकर । कुछ खोज रही थी । मैंने सोचा । ये तो वही चिड़िया है ?
जो बैठती है मुंडेर पर । चुगती है । आंगन में । खेलती है छत पर । और मैं । घर में । बाहर । मुडेर पर । छत पर । जा जाकर देख आई । दिखी कहीं भी नहीं वह । तब याद आया । वो तो दाना चुगती है । मुठ्ठी में लेकर दाने बिखेरे । आंगन से लेकर छत तक । पर आज तक बिखरे हैं दानें । चिड़िया का नामोनिशां नहीं ।
शायद अब दिखती नहीं चिड़िया । आंगन में । छत पर । या मुड़ेर पर । चिड़िया हो गई हैं किताबों ।


और तस्वीरों में कैद । पर मैं भी हूं जिद पर । रोज बिखेरती हूँ दाना । रोज करती हूँ इंतजार । आएगी, मेरी चिडिया रानी । कभी तो आएगी । स्नेह सिंचित दाने । आकर खायेगी । shelley
जब उनकी कलम चलती है । सब चमत्कृत रह जाते हैं । कविता । प्राध्यापन । पत्रकारिता हर क्षेत्र में उनकी कोई सानी नहीं है । पत्रकारिता में सनसनी और सांप्रदायिकता के घोर विरोधी होने के साथ ही वे अपनी बेबाक कथन के लिए जाने जाते हैं । हम बात कर रहे हैं । प्रसिद्ध कवि पत्रकार वीरेन डंगवाल की । वीरेन साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत कई सम्मान प्राप्त कर चुके हैं । दो दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रम में संस्कार धानी आए वीरेन से छोटी सी मुलाकात - shelley


कविताओं के बारे में यह कहा जाता है कि आज के युवा उनसे दूर भागते हैं । आपकी कविताओं के साथ स्थिति ठीक उल्टी कैसे है ?
- कविता लिखते समय यह ख्याल रखता हूँ कि वो दूसरों तक पहुंचे । हर रचना को कहीं न कहीं जाना ही होता है । तो क्यों न वो पाठकों तक पहुँचे । दूसरी बात है कि हर कवि का अपना स्वभाव होता है । अगर जितने जटिल समय में कविता लिखी जा रही हो । उतनी ही जटिलता उसमें ला दी जाये । तो कविता का हाल बुरा हो जाता है ।
- लघु पत्रिकाओं का हिन्दी साहित्य में बड़ा योगदान है । पर शुरू से आज तक वो बीच में ही दम तोड़ती रही हैं । इसके लिए क्या समाधान होना चाहिए ?
- लघु पत्रिकाओं की बुनियाद में ही टूटना है । यही उनकी सीमा है । और ताकत भी । लघु पत्रिकाओं का आना जाना साहित्य के लिए शुभ ही हैं । क्योंकि यदि वे प्रतिष्ठान बन जायेंगी । तो उनका व्यक्तित्व विखर जायेगा । और वे साहित्य का पोषण कहाँ कर सकेंगी ।
- हिन्दी में ब्लॉग बड़ी तेजी से उभर रहे हैं । इसका साहित्य पर क्या प्रभाव होगा ?
- ब्लॉग में अराजकता और निरंकुशता तो है । क्योंकि वहाँ आदमी स्वयं मूल्यांकन करता है । अभी इसकी शुरूआत ही है । इसलिए ठीक है । आगे इसकी दिशा बदलेगी ।
-पत्रकारिता विभिन्न बदलावों से गुजर रही है । इसे किन रूपों में देखते हैं ?
- अखबारों का सर्कुलेशन और आकार बढ़ रहा है । पर उनके कंटेट और कन्सर्न कम हुए हैं । बदलाव तो आने ही

चाहिये । पर इसका डेमोक्रेटिक चरित्र जरूर सुरक्षित रहना चाहिये । सबसे बुरी दशा भाषा की है । सम्भवत: नये परिपेक्ष्य में भाषा का बदलना आज की जरूरत है ?
- नहीं । अब घटिया भाषा परोसी जाती है । और मान लिया जाता है कि - पाठक यही चाहता है । अपर मिडिल क्लास की भाषा को मान्य भाषा के तौर पर महत्व दिया जा रहा है । अखबार शायद यह भूल रहे हैं कि वे भाषा और विवेक का संस्कार सिखाने का काम करते हैं । कुछ अखबारों ने इसे बचाकर रखा है । नई दुनिया पुराने समय से ही पत्रकारिता की ही ट्रेनिंग सेंटर रहा है । इसी से इसका भारतीय पत्रकारिता में स्थान है ।
आपने अनुवाद पर काफी बढ़िया काम किया है । पर इस क्षेत्र में अन्य लोग कम क्यों हैं ?
- अब तो स्थिति काफी बदली है । अनुवाद के क्षेत्र में बहुत सारे लोग आगे आ रहे हैं । कुछ नया कर रहे हैं ? नया करने की प्लानिंग तो है । कुछ कविताओं पर काम कर रहा हूं । शमशेर और मुक्तिबोध पर काम करने की इच्छा है । इसके अलावा भी कुछ है । पर वो पूरा होने के बाद ही सामने आयेगा ।
वीरेन डंगवाल की एक कविता - दुष्चक्र में सृष्टा ?
कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान । क्या क्या बना दिया ? बना दिया क्या से क्या ।
छिपकली को ही ले लो । कैसे पुरखों । की बेटी छत पर उल्टा ।
सरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को ।
फिर वे पहाड । क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें ?


और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो । नदियाँ वो ?
सूंड हाथी को भी दी और चींटी । को भी एक ही सी कारआमद अपनी अपनी जगह ।
हाँ, हाथी की सूँड में दो छेद भी हैं । अलग से शायद शोभा के वास्ते ।
वरना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी । जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से ।
अरे ! कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना । कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, सृष्टि के हर । स्वाद की मर्मज्ञ और दुम की तो बात ही अलग ।
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ । तुम्हारे ही मुखड़े पर झलती हुई ।
आदमी बनाया, बनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्र जाल ।
और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमाग । ऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला ।
पल भर में बृह्माण्ड के आर पार । और सोया तो बस सोया । सर्दी भर कीचड़ में मेढक सा ।
हाँ एक अंतहीन सूची है । भगवान तुम्हारे कारनामों की, जो बखानी न जाए ।
जैसा कि कहा ही जाता है । यह ज़रूर समझ में नहीं । आता कि फिर क्यों बंद कर दिया ।
अपना इतना कामयाब । कारखाना ? नहीं निकली कोई नदी पिछले चार पांच सौ सालों से ।
जहाँ तक मैं जानता हूँ । न बना कोई पहाड़ या समुद्र ।
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी कभार ।


बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप । तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब ।
खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार । रह गई सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी ।
वर्दियां जैसे । मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिये । एक जैसी हुंकार हाहाकार ।
प्रार्थना ग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान । मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से ।
वे खोखले आत्मा हीन शिखर गुम्बद मीनार । ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून ।
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर । तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार ?
अपना कारखाना बंद कर के । किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान ?
कौन - सा है वह सातवाँ आसमान ? हे ! अरे ! अबे ! ओ करुणानिधान ।
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