Friday 30 September 2011

but seems quite impossible - पूजा

आईये । पूजा जी के बारे में कुछ जानते हैं -
मध्यप्रदेश । भारत की रहने वाली Non-Profit कार्यों से जुङी पूजा जी के विचार खासे दिलचस्प हैं । उत्साहवर्धक हैं । किसी पक्षी की तरह उन्मुक्त आकाश में परवाज करते हैं । इनके ब्लाग का नाम ही Desires है । जाहिर है । यहाँ जिन्दगी की हताशा निराशा को कोई स्थान नहीं है । पूजा जी संगीत सुनने की भी काफ़ी शौकीन हैं । और संभवतः हमेशा खुश रहने में विश्वास रखती हैं । पूजा जी अपने बारे में कहती है - M AN AQUARIAN... so think a lot, n sometimes want to stop my mind to run n imaginations to fly, but seems quite impossible. I love my pen n that empty paper which always encourages me to put all the garbage n thoughts of my mind on to it. Love to listen music, actually it is so soothing n calm... Can't tell much about my feelings so stay cool, I found the way to write... That's it for now..Do you believe that forks are evolved from spoons? no.. they are evolved from fingers.इनका ब्लाग -Desires
और ये पढिये । पूजा जी की कविता -


आज न तो कोई कविता न ही कोई लेख । बल्कि एक गुज़ारिश । एक नया पत्ता खेला है । नया हाथ आज़माया है । आपमें से कुछ को परेशान कर चुकी हूँ । कुछ को परेशान करना बाकी था । कुछ को सुना दिया । कुछ के कान खाना बाकी था । क्या है न । आज तक सिर्फ दिमाग खाती आयी हूँ सबका ।
और बताया भी कि कुछ नया try किया है । इसीलिए सोचा कि अब कान खाऊँ । पर प्लीज़ बताईयेगा ज़रूर..कि लगा कैसा ? हाँ । इसमें ऋषि, प्रतिभा और के.के. का बहुत बड़ा हाँथ है । इसमें जो कुछ, मिठास है । वो सिर्फ ऋषि और प्रतिभा के कारण... और सुन्दरता के.के के कारण । और जी ।
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पतिदेव ने लिखने को बहुत प्रोत्साहित किया - स्वाति

आईये स्वाति जी के बारे में कुछ जानते हैं -
नागपुर । महाराष्ट्र । भारत की रहने वाली स्वाति जी सरकारी स्तर पर hindi translator कार्य कर रही हैं । स्वाति जी अपने बारे में कहती हैं - मेरा नाम श्रीमती स्वाति ऋषि चड्ढा ( विवाह से पहले स्वाति कपूर ) है ।  मध्यप्रदेश के सिवनी शहर में पली बढ़ी और नागपुर में स्थापित एक भावुक इंसान हूँ । बचपन से ही लिखने और पढ़ने का बहुत शौक रहा । मम्मी की प्रेरणा से मैंने 8 वी कक्षा में पहली कविता लिखी । और प्रकाशन के लिए समाचार पत्र में भेज दी । जो शीघ्र ही प्रकाशित हुई । इस तरह लेखन का सफर धीरे धीरे शुरू हुआ । लेकिन फ़िर भी थोडी हिचक थी । विवाह के पश्चात पतिदेव ने लिखने को बहुत प्रोत्साहित किया ( वे स्वयं तकनीकी क्षेत्र से सम्बंधित हैं । और हिन्दी साहित्य लेखन से एकदम अनजान ) उन्हीं की प्रेरणा से लिखती रही । और फ़िर नवभारत की पत्रिकाओं में सह संपादक का कार्य करने का मौका मिला । इसके साथ साथ अनुवाद । प्रूफ़ रीडिंग । शिक्षण कार्य भी करती रही । वर्तमान में केंद्र सरकार के प्रोद्योगिकी संसथान में राजभाषा हिन्दी से सम्बंधित पद पर हूँ । इनका ब्लाग - मेरे अहसास भाव
और ये पढिये । स्वाति जी की कविता -
कलियों की कोमल पंखुरियों में । रंगों की फुलवारी सजाए । प्यारी भीनी खुशबू से जो । मन को आनंदित 


कर जाए । शीतल मंद समीरों संग । झूम झूमकर राग सुनाये । एक फूल के खिलने में भी । नियति के अनेक राज है । कोमलता विनमृता प्यार खूबसूरती । ये सब उसके साज हैं । कितने प्यारे  कितने अनोखे । प्रकृति के निराले अंदाज है ।
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दो बदन नहीं एक रूह एक जान हैं हम - पूनम

आईये पूनम जी के बारे में कुछ जानते हैं -
पूनम जी अपने बारे में कहती हैं - पुराने पन्नों से मेरी हर कविता हर नज़्म तुम्हीं से शुरू और तुम पर ही ख़त्म होती है । कभी मेरे ख्यालों से दूर जाओ । तो कुछ और भी लिखने की सोचूँ ? जब मैंने लिखना शुरू किया । यही पहली कुछ लाइनें थी मेरी । तब नहीं सोचा कि इतना कुछ लिखने लगूँगी । तबसे अब तक अच्छा बुरा जो लिखा । प्रत्यक्ष और परोक्ष में वो मौजूद है । मेरे साथ । मेरे पास । उसे हर समय । हर जगह महसूस किया । अच्छे बुरे हर समय वो मेरे साथ था । तब भी । और आज भी । ज़िन्दगी में जो भी पाया । उसी ने दिया । आज जैसी भी हूँ । पूरी की पूरी उसी की creation हूँ । कच्ची उम्र की रचनाएँ शायद कच्ची ही थीं । जो उमृ समय और परिस्थितियों के साथ परिपक्व होती गईं । शायद ये मेरा अपना ख्याल हो सकता है । पर सबकी सब मेरे दिल के बहुत नज़दीक हैं । हकीकत की तरह । जिस दिन लिखना शुरू किया था । उस दिन भी बस यूँ ही लिखना शुरू कर दिया था । जब ब्लॉग पर लिखना शुरू किया । उस दिन भी बस यूँ ही लिखना शुरू कर दिया । शायद इसीलिए..इनका ब्लाग - तुम्हारे लिये
और ये पढिये । पूनम जी की कविता -
ढाये चाहत ने सितम हम पे हैं । कुछ इस तरह । रोते रोते भी हँस दिए हैं । हम कुछ इस तरह ।
चाहा कि तुझको  छुपा लूँ मैं । कहीं  इस तरह । मैं ही मैं देखूं । जमाने से छुपाकर इस तरह ।
तू था खुशबू की तरह बिखरा । जो फिर छुप न सका । बस मेरे दिल में रहे । ये भी तो तुझसे हो न सका ।
रूह से अपनी जुदा । सोचा कभी कर दूँ तुझे । बन हया चमका जो । नजरों में मेरी छुप न सका ।
चाह बन करके मेरी । ये चाह कभी रह न सकी । गुफ्तगू तुझसे की । जो चाहा छुपे छुप न सकी ।
तेरे सीने पे सिर रखकर । कभी मैं रो न सकी । तेरे आगोश में आकर । कभी मैं सो न सकी ।
आज है वो रात । मैं हूँ कहाँ । और तू है कहाँ । बदले  हालात हैं और । बदल गए दोनों जहाँ ।
साथ न रह के भी तू । साथ मेरे मेरे सनम । दो बदन हम नहीं । एक रूह हैं । एक जान हैं हम ।
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मेरे बुलाने पर चौंक कर पलटी थी तुम - रचना


आईये  रचना जी के बारे में कुछ जानते हैं -
Ardmore । OK । United States में रहने वाली रचना जी Freelance writer and Poet हैं ।
जन्म 5 Sept । लखनऊ UP । शिक्षा  B Sc, M A ( हिन्दी ) B ed सृजन । कविता । कहानी आदि लिखने की प्रेरणा बाबा स्व रामचरित्र पाण्डेय माँ श्रीमती विद्यावती पिता श्री रमाकांत से मिली । भारत और डैलस ( अमेरिका ) की बहुत सी कवि गोष्ठियों में भाग । और डैलास में मंच संचालन । अभिनय में अनेक पुरस्कार और स्वर्ण पदक । वाद विवाद प्रतियोगिता में पुरस्कार । लोक संगीत । न्रृत्य में पुरुस्कार । रेडियो फन एशिया । सलाम नमस्ते ( डैलस ) मनोरंजन ( फ्लोरिडा ) संगीत ( हियूस्टन ) में कविता पाठ । कृत्या । साहित्य कुञ्ज । अनुभूति । अभिव्यक्ति । सृजन गाथा । लेखनी । रचनाकार । हिंदयुग्म । हिन्दी नेस्ट । गवाक्ष । हिन्दी पुष्प । स्वर्ग विभा । हिन्दी मीडिया । हिन्दी हाइकु । हिन्दी गौरव । लघुकथा डॉट कॉंम इत्यादि में लेख । कहानियाँ । कविताएँ । लघुकथाएँ । बाल कथाएँ प्रकाशित । चन्दनमन । और ‘कुछ ऐसा हो’ संकलनों में हाइकु प्रकाशित । हिन्दयुग्म के 2008 Sept के यूनिपाठक तथा  2008 Dec के यूनिकवि सम्मान से सम्मानित । इनका ब्लाग - मेरी कवितायें
और ये पढिये । इनकी कविता -


ईद मेले में मै । हरी चूड़ियाँ बनके बिका । तुम आयीं । और लाल चूड़ियाँ खरीद कर चली गईं ।
तुमको तो हरा रंग पसंद था न ?
मूँदकर  मेरी आँखे । पूछा था तुमने । बताओ कौन हूँ मै ? उन यादों के पल । आज भी । मेरी अलमारी में सजे हैं । तुम कभी आओ । तो दिखाऊँगा ।
अचानक मेरे बुलाने पर । चौंक कर पलटी थी तुम । और तुम्हारे मेहँदी भरे हाथ । लग गए थे मेरी कमीज़ पर ।
अब हर ईद पर । मैं उसको गले लगाता हूँ आज भी । इनसे गीली मेंहदी की खुशबू आती है ।
बादल  के परदे हटा के । झाँका जो  चाँद ने । मुबारक मुबारक । के शोर से सिमट गया सोचा । निकलता तो रोज ही हूँ पर आज । उसे क्या मालूम कि वो ईद का चाँद है ।
तुमने । उस रोज । मेरे कानों में हौले से कहा था । ईद मुबारक । अब । जब भी देखती हूँ  । ईद का चाँद । खुद ही कह लेती हूँ -  ईद मुबारक ।
मैने अब्बा के आगे बढाया । जो ईदी के लिए हाथ । गर्म मोती की दो बूंदों गिरीं । और हथेली भर गई ।
आज भी हर ईद पर । गीली हो जाती है हथेली ।
सेवईयाँ लाने गया था । बाजार वो । और ब्रेकिंग न्यूज बन गया । अब इस घर में । कभी सेवईंयाँ नहीं बनती ।
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अगर हम चाहें तो कुछ भी असंभव नहीं - मीनाक्षी पन्त

अब आईये । मीनाक्षी जी के बारे में कुछ जानें -
दिल्ली । भारत की रहने वालीं मीनाक्षी पन्त जी का ख्याल अपने विचारों की खुशबू द्वारा सबको प्रेरित करना ही है । उनका लिखने का उद्देश्य अपने लिये कुछ नहीं है । उनका मानना है । लेखन में कोई न कोई सामाजिक संदेश निहित होना ही चाहिये । तभी लेखन उद्देश्य पूर्ण और सार्थकता युक्त होता है । वास्तव में उनके ब्लाग नाम के अनुसार - दुनियाँ रंग रंगीली ही है । तब सभी के जीवन में खुशियों के रंग बिखेरने का ही प्रयास होना चाहिये । बिलकुल मीनाक्षी जी आपका सोचना एकदम सही है । और मेरे ख्याल से हरेक को ही ऐसा सोचना चाहिये । मीनाक्षी जी अपने बारे में कहती हैं - मेरा अपना परिचय आप सबसे है । जो जितना समझ पायेगा । वो उसी नाम से पुकारेगा । हाँ मेरा उद्देश्य अपने लिए कुछ नहीं । बस मेरे द्वारा लिखी बात से कोई न कोई सन्देश देते रहना है कि ज्यादा नहीं । तो कम से कम किसी एक को तो सोचने पर मजबूर कर सके कि हाँ अगर हम चाहें । तो कुछ भी कर पाना असंभव नहीं । और मेरा लिखना सफल हो जायेगा कि मेरे प्रयत्न और उसके हौसले ने इसे सच कर दिखाया । इनका ब्लाग - दुनियाँ रंग रंगीली
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मैं समझ सकती हूँ तुम्हारी चाहतें - प्रीती

आईये प्रीती जी के बारे में जानते हैं -
देहरादून और दिल्ली । भारत की रहने वाली प्रीति स्नेह जी बहुत बङी बात को आसानी से कहती हैं । ह्रदय के भावों को शब्दों द्वारा व्यक्त करना बहुत बङी जरूरत ही है । इनकी कवितायें भी नारी ह्रदय की कोमलता और मजबूती दोनों को मिश्रित अंदाज में प्रतिबिम्बित करती हैं । देखिये इन चुनौती देते शब्दों को - तुम्हारे स्नेह में । होता है छल । रिश्ते तोड़ने में । नहीं  गंवाते पल । बता देते हो । छोटी छोटी कमी ।  स्वयँ पर नजर । न डालते कभी । हाँ है चाल । तुम्हारी सबल सक्षम । पर नहीं मिला पाते । मुझसे कदम । तुम्हारे व्यंग्य तोड़ते हैं । विश्वास दृणता मेरी । ऐसे ही सशक्त विचारों से अपनी जुझारू उपस्थिति महसूस कराने वालीं प्रीति जी अपने बारे में कहती हैं - ह्रदय के उदगारों को शब्द रूप प्रदान करना । शायद ह्रदय की ही आवश्यकता है । Giving words to heart felt is the need of felt-heart . A simple down to earth individual trying to be 'Human' always. Feet firmly on ground but looking at the rainbow in the sky, soaring in the skies while keeping an eye on the ground. इनका ब्लाग - प्रीति
और ये पढिये । प्रीति जी की कविता -
अधूरापन - मेरा अधूरापन


हाँ  नहीं  दौड़  सकती । पकड़ने  तितली ।  चढ़  नहीं  सकती । पहाड़ी  पगडण्डी । नहीं  लगा  सकती ।  मैं  लम्बी  छलांगें ।  कूदकर  पकड़  न  सकूँ । तरु  की  ऊँची  बाहें । पर  समझ  सकती  हूँ ।  तुम्हारी  चाहतें । मेरी  लगन  दे  सकती  है ।  मन  को  राहतें । कठिन  लक्ष्यों  में ।  उमंग  भरा  दूँ  साथ । डगमगाते क़दमों  को ।  विश्वास  भरा  हाथ । तुम्हारे  स्नेह  में ।  होता  है  छल ।  रिश्ते  तोड़ने  में ।  नहीं  गंवाते  पल । बता  देते  हो ।  छोटी छोटी  कमी ।  स्वयँ  पर  नजर ।  न  डालते  कभी । हाँ  है चाल ।  तुम्हारी  सबल सक्षम । पर  नहीं  मिला ।  पाते  मुझसे  कदम । तुम्हारे  व्यंग्य  तोड़ते  हैं ।  विश्वास  दृणता  मेरी ।  भरती  है  विश्वास । कहो  मुझसे । कब  रुकता  है  जीवन ? सोचो ।  तुम । कहाँ  रोकते  हो  जीवन ? है  नहीं  क्या  सस्नेह  अपनापन ? क्या  सच  है ।  मुझमें  अधूरापन ?
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Thursday 29 September 2011

क्यूँ है तू यूँ तन्हा सी ? अंजू चौधरी

वास्तव में यदि पुरुष अपनी जगह सही हो । और स्त्री की भावनाओं को दिली तौर पर महसूस करने वाला हो । सम्मान देने वाला हो । उसके सुख दुख में । जीवन के उतार चङाव में । हर कदम पर सहभागी हो । तो कोई वजह नहीं । प्रत्येक स्त्री ऐसे पुरुष को पूर्ण समर्पित होती है । उसकी पूरी जिन्दगी का अरमान और लक्ष्य ही यही है । मेरा अनुभव तो यही कहता है । कोई भी स्त्री पुरुष की बराबरी नहीं करना चाहती । उसे टक्कर नहीं देना चाहती । उसके कन्धे से कन्धा मिलाकर खङी नहीं होना चाहती । ये सब परिस्थितियोंवश उत्पन्न हुयी मिथ्या बातें हैं । जिन्होंने पुरुष द्वारा स्त्री की कदम कदम पर उपेक्षा । और समर्पित स्त्री के प्रति भी कुटिलता पूर्ण बेबफ़ाई से आकार लिया है । वास्तव में न तो कोई स्त्री नौकरी करना चाहती है । न युद्ध लङना चाहती है । वह तो बस अपने फ़ूल से बच्चों और प्रेमी रूप पति के आगे समर्पित हुयी अपनी जीवन बगिया को सदा महकाये रखना चाहती है । यही उसकी सबसे बङी अभिलाषा । पूजा और धर्म कर्म है । अगर मेरे ये अनुभवजन्य ख्यालात सही है । तो शायद घर और समाज में स्त्री पुरुष का सबसे विकृत रूप इसी समय देखने में आ रहा है ।
खैर..ये मेरे निजी विचार थे । आईये मिलते हैं । करनाल हरियाणा की अनु जी से । और जानते हैं । उनके विचार ।
करनाल । हरियाणा । भारत में रह रहीं अनु जी उर्फ़ अंजू चौधरी house wife हैं । और इनके ब्लाग का बङा सुन्दर सा नाम - अपनों का साथ .. है । इस ब्लाग जगत में आकर मैंने दो बातें

स्पष्ट महसूस की कि परिपक्व लेखिकायें जिनकी किताबें बङे बङे प्रकाशनों से प्रकाशित होती हैं । उनकी तुलना में अपरिपक्व महिलायें अपने दिल की बात सीधे सरल शब्दों में स्पष्ट तरीके से बयान करती हैं । उसमें गोलमाल बात या शब्दों की बाजीगरी नहीं होती । और ये अति महत्वपूर्ण चीज कम से कम मुझे सिर्फ़ ब्लागों पर ही मिली । क्योंकि आमतौर पर प्रकाशक संपादक क्लिष्टता पूर्ण लेखन को ही प्रमुखता देते हैं । जिससे नारी के मधुर भावों की अभिव्यक्ति कहीं खो जाती है । और तब हम नारी के वास्तविक ह्रदय उदगार को नहीं जान पाते । और यही बात मैंने अनु जी के भावों में महसूस की । अनु जी अपने बारे में कहती हैं - दुनिया की इस भीड़ में । मैं अकेली सी । खुद को तलाशती सी । पर नहीं मिला कोई भी ऐसा । जो कहे मुझसे आकर कि क्यूँ है तू यूँ तन्हा सी ? रिश्तों की इस भीड़ में । मैं...मैं को तलाशती सी । अनु @ अंजू चौधरी । इनका ब्लाग - अपनों का साथ


और " कुछ दिल की बातें " शीर्षक से लिखी गजल में आप भी पढिये । अनु जी के दिल की बातें ।
कुछ दिल की बातें -
दिल की गहराइयों में इतना दर्द सा क्यूँ है । बेबसी बेताबी और बेचैनी का आलम क्यूँ है ।
अपना सा हर शख्स । परछाईं सा पराया क्यूँ है । जिसको भी माना अपना । वही इतना बेगाना सा क्यूँ है ।
इस दुनिया की रीत में इतनी । तपिश सी क्यूँ है । हर कोई अपने ही वास्ते । इस रिश्ते को जीता क्यूँ है ।
आज हर घर में रिश्तों का गुलशन सा । क्यूँ नहीं है । जो बाँध सके सबको गुलदस्ते में । वो माली क्यूँ नहीं है ।
अपने घर के आँगन में । माँगी थी धूप छाँव जीवन की । पर हर कोई बाहर की आँधियों से । लिपटा सा क्यूँ है ।
जिन राहों पर बिछने थे । गुलशन के फूल कलियाँ । उन राहों से चुन चुन के कांटे । मै हटा रही क्यूँ हूँ ।
मुश्किल से मैंने खुद को । मुश्किल से निकाला था । आगे की मुश्किलों से मै । दामन बचा रही सी क्यूँ हूँ ।
अनु जी का चित्र । गजल । और विवरण उनके ब्लाग - अपनों का साथ.. से साभार । ब्लाग पर जाने हेतु क्लिक करें ।

हर अक्स को खुद में समा लूँ । उस दर्पण की तरह हूँ मैं - कनु

बङी अजीव चीज है । ये ब्लागिंग भी । फ़िर मुझे तो ये किसी लाइब्रेरी । किसी मूबी । किसी बुक । किसी प्रत्यक्ष मेलजोल से बढकर लगती है । कभी मन नहीं लगता । तब कोई ब्लाग खोलता हूँ । फ़िर टिप्पणी प्रोफ़ायल से कभी इस ब्लाग कभी उस ब्लाग एक उदासीन सैर सपाटा सा होता है । तब ऐसे लम्हों में कोई ब्लाग अचानक आकर्षित करता है । फ़िर हम उसे पढते ही चले जाते हैं । नये विचार । नयी भावनायें । तब इससे आगे जिज्ञासा होती है । उस ब्लागर इंसान को जानने की । पूरी साफ़गोई से कहूँ । तो मेरे साथ यही होता है ।  इसीलिये मैंने ब्लागिंग को सबसे अजीव कहा है । क्योंकि हम दूसरे को जान रहे होते हैं । और तब वह हमसे अनभिज्ञ होता है । अब अजीव वाली बात यूँ है कि तुरन्त ही हम कमेंट या मेल से अपनी भावना विचार शेयर कर सकते हैं । हालांकि सोशल नेटवर्किंग की फ़ेसबुक जैसी साइटों पर भी ये संभव है । पर वहाँ ब्लाग की तरह विस्त्रत विचार नहीं हो सकते । अपने ऐसे ही सफ़र में मेरी अप्रत्यक्ष मुलाकात दिलचस्प कनु जी से हुयी ।
और ये है कनु जी का परिचय -
भोपाल । मध्यप्रदेश । भारत की रहने वालीं और मुम्बई से भी संबन्धित कनु जी की सरलता का क्या कहना । एकदम सादगी से सरल और साफ़ शब्दों में ऐसी बात । जो सीधी किसी के भी दिल को छू जाये । वास्तव में मुझे लगता है । कविता कभी लिखी नहीं जा सकती । ये जब निकलती है । दिल की भावनाओं को सुन्दर शब्दों द्वारा मूर्त रूप देती हुयी निकलती है । और किसी भी व्यक्तित्व के आंतरिक स्वरूप का साकार चित्रण करती हैं । कनु जी अपने वारे में कहती हैं - क्या 


लिखूँ । अपने विषय में । शब्द कैसे मैं चुनूँ ? मैं कनु....।  कुछ वर्षों पहले कॉलेज की रेगिंग में ये अपने बारे में कविता लिखने को बोला गया था । और तभी ये मेरी कविता की पहली पंक्ति थी । और आज भी यही आलम है । क्या लिखूँ ? लिखने का शौक है मुझे । और इसी शौक ने मुझे ब्लॉग लिखने के लिए प्रेरित किया । जब जब मन करता है । अपने मन के कोने से कुछ भावनाओं को यहाँ उकेर देती हूँ । शब्दों की चित्रकारी से प्यार है मुझे । पर अभी मेरे शब्द चित्रकारी जैसे दिल को लगने वाले नहीं बन पड़ते । बस इसी अनंत प्रयास में हूँ कि कुछ अच्छा पढने लायक लिख सकूँ । इनके ब्लाग -  पोरवाल चौपाल । परवाज
और ये पढिये । कनु जी की पहली कविता । जिसमें सादगी और सरलता की खुशबू आपको भी निसंदेह महसूस होगी ।
मैं क्या हूँ ? बस कनु हूँ ।
बहते हुये सागर की लहर की तरह हूँ । मस्ताने से मौसम में सहर की तरह हूँ ।
जितना दर्द दोगे उतनी ज्यादा महकूँगी । फ़ूलों के बिखरे हुये परिमल की तरह हूँ ।
जिन्दगी में नये नये दौर से गुजरकर । हर मोङ पर जैसे किसी पत्थर की तरह हूँ ।
अपनी खूबियों और खामियों के हिसाब से ही पाओगे मुझसे ।
सागर मंथन में निकले अमृत और गरल की तरह हूँ मैं ।
खुद का चेहरा मुझमें देखना चाहो तो देख लो । हर अक्स को खुद में समा लूँ । उस दर्पण की तरह हूँ मैं ।

Monday 26 September 2011

विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख छिपा होता है - लीना मल्होत्रा

मैं अपने जीवन में बहुत कम महिलाओं से प्रभावित हुआ हूँ । जहाँ मुझे महिलाओं का खामखाह की झाँसी की रानी बन जाना भी रुचिकर नहीं लगता । वहीं उनका अवला या दुखियारी रूप कतई नापसन्द है । इसके बजाय परिस्थितियों से जूझती हुयी पुरुष के झूठे अहम को टक्कर देकर चूर चूर करती हुयी हौसलामन्द नारी मुझे हमेशा विभिन्न रूपों में आकर्षित करती रही है । लीना जी ( मल्होत्रा ) उन्हीं में से एक हैं । इनकी एक ही कविता मानों सभी पुरुषों को चुनौती दे रही हैं । और ये सर्वकालिक है । यानी ये चुनौती सतयुग त्रेता द्वापर कलियुग में समान रूप से एक नारी के स्तर से उसकी आवाज है । जो कर्तव्य से भागे हुये मिथ्या अभिमानी पुरुषों को ललकार रही है ।  और सदियों से नारी स्वाभिमान की अखण्ड मशाल जलाये खङी है । ये कविता स्त्री पुरुष दोनों के लिये सबक है । जिन्दगी की शिक्षा है । बस और क्या कहूँ । ये कविता स्वयँ ही बहुत कुछ कह रही है । आप भी पढिये -
ओह बहुरूपिये पुरुष ! पति । एक दिन । तुम्हारा ही अनुगमन करते हुए । मैं उन घटाटोप अँधेरे रास्तो पर भटक गई । निष्ठा के गहरे गहवर  में छिपे आकर्षण के सांप ने मुझे भी डस लिया था । उसके  विष का गुणधर्म  वैसा ही था । जो पति पत्नी के बीच विरक्ति पैदा कर दे । इतनी । कि दोनों एक दूसरे के मरने की कामना करने लगें । तभी जान पाई मै कि क्या अर्थ होता है ज़ायका बदल लेने का । और विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख 


छिपा होता है । और तुम क्यों और कहाँ चले जाते हो बार बार मुझे छोड़कर
मैं तुम्हारे बच्चो की माँ थी । कुल बढ़ाने वाली बेल । और अर्धांगिनी । तुम लौट आये भीगे नैनों से हाथ जोड़ खड़े रहे द्वार । तुम जानते थे तुम्हारा लौटना मेरे लिए वरदान होगा । और मैं इसी की प्रतीक्षा में खड़ी मिलूँगी । मेरे और तुम्हारे बीच । फन फैलाये खड़ा था कालिया नाग । और इस बार । मैं चख चुकी थी स्वाद उसके विष का । यह जानने के  बाद ।
तुम । थे पशु । मैं वैश्या दुराचारिणी । ओ प्रेमी !
भटकते हुए जब मैं पहुंची तुम्हारे द्वार । तुमने फेंका फंदा । वृन्दावन की संकरी  गलियों के मोहपाश का । जिनकी आत्मीयता में  खोकर । मैंने  सपनो के  निधिवन को बस जाने दिया था घर की देहरी के बाहर । गर्वीली नई  धरती पर प्यार  की  फसलों का वैभव  फूट रहा था । तुमने कहा । राधा ! राधा ही  हो तुम । और । प्रेम पाप नही । जब जब । पति से प्रेमी बनता है  पुरुष । पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है । देह आत्मा । और । स्त्री । वैश्या से राधा बन जाती है ।.. लीना मल्होत्रा ।
और ये है । लीना जी का परिचय -
हौजखास । दिल्ली । भारत में रह रही सरकारी नौकरी में सेवारत लीना मल्होत्रा जी का खास और बेबाक अन्दाज है । उनकी कविताओं में कल्पनाओं की मधुर उङान नहीं । बल्कि भोगा हुआ यथार्थ है । जो मानवीय दैहिक रिश्तों स्त्री पुरुष के सम्बन्धों में पैदा हुयी तल्खी का सटीक सचित्र

अहसास कराता है । देखिये इन मार्मिक पंक्तियों को - तभी जान पाई मै कि क्या अर्थ होता है ज़ायका बदल लेने का । और विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख छिपा होता है ।.. वैसे अक्सर मैं ब्लागर कवियों कवियित्रियों की कविता झेल नहीं पाता । और कविता में मेरी विशेष रुचि नहीं है । पर लीना जी की इस कविता को मैंने तीन बार पढा । ऐसा लगा । एक स्त्री को अवला का झूठा बनाबटी चोला । जो उसे जबरन पहनाया गया है को उतारकर एक चुनौती सी देती हुयी झूठे अहंकारी पुरुष को उसकी असली औकात बता रही हो । वास्तव में लीना जी की अभिव्यक्ति लाजबाब है । लीना जी अपने बारे में कहती हैं - संवेदनायें ही मेरी धरोहर हैं । और कविता मेरे लिए कोई चर्चा का विषय नहीं । बल्कि अनुभूतियाँ हैं । जो मेरी रूह में बसती हैं । इनका ब्लाग - अस्मिता

आवश्यक सूचना

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