Monday, 3 March 2014

1 ही जीवनकाल में युगों को समेट लें

मीरदाद - मीरदाद चाहता है कि इस रात के सन्नाटे में तुम एकाग्रचित्त होकर माँ-अण्डाणु के विषय में विचार करो । स्थान और जो कुछ उसके अंदर है । 1 अण्डाणु है । जिसका खोल समय है । यही माँ-अण्डाणु है । जैसे धरती को वायु लपेटे हुए है । वैसे ही इस अण्डाणु को लपेटे हुए है - विकसित परमात्मा । विराट परमात्मा । जीवन जो कि अमूर्त अनन्त और अकथ है । इस अण्डाणु में लिपटा हुआ है - कुंडलित परमात्मा । लघु-परमात्मा । जीवन जो मूर्त है । किन्तु उसी तरह अनन्त और अकथ । भले ही प्रचलित मानवीय मानदण्ड के अनुसार माँ-अण्डाणु अमित है । फिर भी इसकी सीमाएँ हैं । यद्यपि यह स्वयं अनन्त नहीं है । फिर भी इसकी सीमाएँ हर ओर अनन्त को छूती हैं ।  ब्रह्माण्ड में जो भी पदार्थ और जीव हैं । वे सब उसी लघु-परमात्मा को लपेटे हुए समय स्थान के अण्डाणुओं से अधिक और कुछ नहीं । परन्तु सबमें लघु-परमात्मा प्रसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में है । पशु के अंदर के लघु-परमात्मा की अपेक्षा मनुष्य के अंदर के लघु-परमात्मा का और वनस्पति के अंदर के लघु-परमात्मा की अपेक्षा पशु के अंदर के लघु-परमात्मा का समय स्थान में प्रसार अधिक है । और सृष्टि में नीचे नीचे की श्रेणी में क्रमानुसार ऐसा ही है । दृश्य तथा अदृश्य सब पदार्थों और जीवों का प्रतिनिधित्व करते अनगिनत अण्डाणुओं को माँ-अण्डाणु के अंदर इस क्रम में रखा गया है कि प्रसार में बड़े अण्डाणु के अंदर उसके निकटतम छोटा अण्डाणु है । और यही क्रम सबसे छोटे अंडाणु तक चलता है । अण्डाणुओं के बीच में जगह है । और सबसे छोटा अण्डाणु केन्द्रीय नाभिक है । जो अत्यन्त अल्प समय तथा स्थान के अंदर बन्द है । अण्डाणु के अंदर अण्डाणु । फिर उस अण्डाणु के अंदर अण्डाणु । मानवीय गणना से परे । और सब प्रभु द्वारा अनुप्रमाणित । यही ब्रह्माण्ड है - मेरे साथियो । फिर भी मैं महसूस करता हूँ कि मेरे शब्द कठिन हैं । वे तुम्हारी बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकते । और यदि शब्द पूर्ण ज्ञान तक ले जाने वाली सीढ़ी के सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाये गए होते । तो मुझे भी अपने शब्दों को सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाने में प्रसन्नता होती । इसलिये यदि तुम उन ऊंचाइयों, गहराईयों और चौड़ाईयों तक पहुँचना चाहते हो । जिन तक मीरदाद तुम्हे पहुँचाना चाहता है । तो बुद्धि से बड़ी किसी शक्ति के द्वारा शब्दों से बड़ी किसी वस्तु का सहारा लो । शब्द अधिक से अधिक बिजली की कौंध हैं । जो क्षितिजों की झलक दिखती हैं । ये उन क्षितिजों तक पहुँचने का मार्ग नहीं हैं । स्वयं क्षितिज तो बिलकुल नहीं । इसलिए जब मैं तुम्हारे सम्मुख माँ-अण्डाणु और अण्डाणुओं की । तथा विराट-परमात्मा और लघु-परमात्मा की बात करता हूँ । तो मेरे शब्दों को पकड़कर न बैठ जाओ । बल्कि कौंध की दिशा में चलो । तब तुम देखोगे कि मेरे शब्द तुम्हारी कमजोर बुद्धि के लिये बलशाली पंख हैं । अपने चारों ओर की प्रकृति पर ध्यान दो । क्या तुम उसे अण्डाणु के नियम पर रची गई नहीं पाते हो ? हाँ, अण्डाणु में तुम्हे सम्पूर्ण सृष्टि की कुंजी मिल जायेगी । तुम्हारा सिर, तुम्हारा ह्रदय, तुम्हारी आँख अण्डाणु हैं । अण्डाणु है हर फूल । और उसका हर बीज । अंडाणु है पानी की 1 बूँद । तथा प्रत्येक प्राणी का प्रत्येक वीर्याणु । और आकाश में अपने रहस्यमय मार्गों पर चल रहे अनगिनत नक्षत्र । क्या अण्डाणु नहीं हैं ? जिनके अंदर प्रसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में पहुँचा हुआ जीवन का सार लघु-परमात्मा निहित है ? क्या जीवन निरंतर अण्डाणु में से ही नहीं निकल रहा है । और वापस अण्डाणु में ही नहीं जा रहा है ? निःसंदेह चमत्कारपूर्ण और निरंतर है - सृष्टि की प्रक्रिया । जीवन का प्रवाह माँ अण्डाणु की सतह से उसके केंद्र तक । तथा केंद्र से वापस सतह तक । बिना रुके जारी रहता है । केंद्र स्थित लघु-परमात्मा जैसे जैसे समय तथा स्थान में फैलता जाता है । जीवन के निम्नतम वर्ग से जीवन के उच्चतम वर्ग तक 1 अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में प्रवेश करता चला जाता है । सबसे नीचे का वर्ग समय तथा स्थान में सबसे कम फैला हुआ है । और सबसे ऊँचा बर्ग सबसे अधिक । 1 अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में जाने में लगने वाला समय भिन्न भिन्न होता है । कुछ स्थितियों पलक की 1 झपक होता है । तो कुछ में पूरा युग । और इस प्रकार चलती रहती है - सृष्टि की प्रक्रिया । जब तक माँ-अण्डाणु का खोल टूट नहीं जाता । और लघु-परमात्मा विराट-परमात्मा होकर बाहर नहीं निकल आता । इस प्रकार जीवन 1 प्रसार । 1 वृद्धि । और 1 प्रगति है । लेकिन उस अर्थ में नहीं । जिस अर्थ में लोग वृद्धि और पगति का उल्लेख प्रायः करते हैं । क्योंकि उनके लिए वृद्धि है - आकार में बढ़ना । और प्रगति आगे बढ़ना । जबकि वास्तव में वृद्धि का तात्पर्य है - समय और स्थान में सब तरफ फैलना । और प्रगति का तात्पर्य है - सब दिशाओं में समान गति । पीछे भी । और आगे भी । और नीचे । तथा दायें बायें । और ऊपर भी । अतएव चरम वृद्धि है - स्थान से परे फ़ैल जाना । और चरम प्रगति है - समय की सीमाओं से आगे निकल जाना । और इस प्रकार विराट-परमात्मा में लीन हो जाना । और समय तथा स्थान के बन्धनों में से निकलकर परमात्मा की स्वतन्त्रता तक जा पहुँचना । जो स्वतन्त्रता कहलाने योग्य एकमात्र अवस्था है । और यही है वह नियति । जो मनुष्य के लिये निर्धारित है । इन शब्दों पर ध्यान दो साधुओ । यदि तुम्हारा रक्त तक इन्हे प्रसन्नता पूर्वक न कर ले । तो सम्भव है कि अपने आप और दूसरों को स्वतन्त्र कराने के तुम्हारे प्रयत्न तुम्हारी और उनकी जंजीरों में और अधिक बेड़ियां जोड़ दें । मीरदाद चाहता है कि तुम इन शब्दों को समझ लो । ताकि इन्हें समझने में तुम सब तड़पने वालों की सहायता कर सको । मीरदाद चाहता है कि तुम स्वतन्त्र हो जाओ । ताकि उन सब लोगों को जो आत्मविजयी और स्वतन्त्र होने के लिए तड़प रहे हैं । तुम स्वतन्त्रता तक पहुँचा सको । इसलिए मीरदाद अण्डाणु के इस नियम को और अधिक स्पष्ट करना चाहेगा । खासकर जहाँ तक इसका सम्बन्ध मनुष्य से है । मनुष्य से नीचे जीवों के सब वर्ग सामूहिक अण्डाणुओं में बन्द हैं । इस तरह पौधों के लिए उतने ही अण्डाणु हैं । जितने पौधों के प्रकार हैं । जो अधिक विकसित हैं । उनके अंदर सभी कम विकसित बन्द हैं । और यही स्थिति कीड़ों, मछलियों और स्तनपायी जीवों की है । सदा ही जीवन के 1 अधिक विकसित वर्ग के अन्दर उससे नीचे के सभी वर्ग बन्द होते हैं । जैसे साधारण अण्डे के भीतर की जर्दी और सफेदी उसके अंदर के चूजों के भ्रूण का पोषण और विकास करती है । वैसे ही किसी भी अण्डाणु में बन्द सभी अण्डाणु उसके अन्दर के लघु-परमात्मा का पोषण और विकास करते हैं । प्रत्येक अण्डाणु में समय स्थान का जो अंश लघु-परमात्मा को मिलता है । वह पिछले अण्डाणु में मिलने वाले अंश से थोड़ा भिन्न होता है । इसलिए समय स्थान में लघु-परमात्मा के प्रसार में अन्तर होता है । गैस में वह बिखरा हुआ आकारहीन होता है । पर तरल पदार्थ में अधिक घना हो जाता है । और आकार धारण करने की स्थिति में आ जाता है । जबकि खनिज में वह 1 निश्चित आकार और स्थिरता धारण कर लेता है । परन्तु इन सब स्थितियों में वह जीवन के गुणों से रहित होता है । जो उच्चतर श्रेणियों में प्रकट होते हैं । वनस्पति में वह ऐसा रूप अपनाता है । जिसमे बढ़ने, अपनी संख्या वृद्धि करने और महसूस करने की क्षमता होती है । पशु में वह महसूस करता है । चलता है । और संतान पैदा करता है । उसमें स्मरण शक्ति होती है । और सोच विचार के मूल तत्व भी । लेकिन मनुष्य में इन सब गुणों के अतिरिक्त, वह 1 व्यक्तित्व और सोच विचार करने, अपने आपको अभिव्यक्त करने तथा सृजन करने की क्षमता भी प्राप्त कर लेता है । निःसंदेह परमात्मा के सृजन की तुलना में मनुष्य का सृजन ऐसा ही है । जैसा किसी महान वास्तुकार द्वारा निर्मित 1 भव्य मंदिर या सुन्दर दुर्ग की तुलना में 1 बच्चे द्वारा बनाया गया ताश के पत्तों का घर । किन्तु है तो वह फिर भी सृजन ही । प्रत्येक मनुष्य 1 अलग अण्डाणु बन जाता है । और विकसित मनुष्य में कम विकसित मानव-अण्डाणुओं के साथ सब पशु, वनस्पति तथा उनके निचले स्तर के अण्डाणु, केंद्रीय नाभिक तक बन्द होते हैं । जबकि सबसे अधिक विकसित मनुष्य में - आत्म-विजेता में । सभी मानव अण्डाणु और उनसे निचले स्तर के सभी अण्डाणु भी बन्द होते हैं । किसी मनुष्य को अपने अंदर बंद रखने वाले अण्डाणु का विस्तार उस मनुष्य के समय स्थान के क्षितिजों के विस्तार से नापा जाता है । जहाँ 1 मनुष्य की समय चेतना और उसके शैशव से लेकर वर्त्तमान घडी तक की अल्प अवधि से अधिक और कुछ नहीं समा सकता । और उसके स्थान के क्षितिजों के घेरे में उसकी दृष्टि की पहुँच से परे का कोई पदार्थ नहीं आता । वहाँ दूसरे व्यक्ति के क्षितिज स्मरणातीत भूत और सुदूर भविष्य को, तथा स्थान की लम्बी दूरियों को जिन पर अभी उसकी दृष्टि नहीं पड़ी है । अपने घेरे में ले आते हैं । प्रसार के लिए सब मनुष्यों को समान भोजन मिलता है । पर उनका खाने और पचाने का सामर्थ्य समान नहीं होता । क्योंकि वे 1 ही अण्डाणु में से 1 ही समय और 1 ही स्थान पर नहीं निकले हैं । इसलिए समय स्थान में उनके प्रसार में अन्तर होता है । और इसीलिये कोई 2 मनुष्य ऐसे नहीं मिलते । जो हूबहू 1 जैसे हों । सब लोगों के सामने प्रचुर मात्रा में और खुले हाथों परोसे गये भोजन में से 1 व्यक्ति स्वर्ण की शुद्धता और सुंदरता को देखने का आनंद लेता है । और तृप्त हो जाता है । जबकि दूसरा स्वर्ण का स्वामी होने का रस लेता है । और सदा भूखा रहता है । 1 शिकारी 1 सुंदर हिरनी को देखकर उसे मारने और खाने के लिये प्रेरित होता है । 1 कवि उसी हिरनी को देखकर मानो पंखों पर उड़ान भरता हुआ उस समय और स्थान में जा पहुँचता है । जिसका शिकारी कभी सपना भी नहीं देखता । 1 आत्मविजेता का जीवन हर व्यक्ति के जीवन को हर ओर से छूता है । क्योंकि सब व्यक्तियों के जीवन उसमे समाये हुये हैं । परन्तु आत्मविजेता के जीवन को किसी भी व्यक्ति का जीवन हर ओर से नहीं छूता । अत्यन्त सरल व्यक्ति को आत्मविजेता अत्यन्त सरल प्रतीत होता है । अत्यन्त विकसित व्यक्ति को वह अत्यन्त विकसित दिखाई देता है । किन्तु आत्मविजेता के सदा कुछ ऐसे पक्ष होते हैं । जिन्हे आत्मविजेता के सिवाय और कोई न कभी समझ सकता है । न महसूस कर सकता है । यही कारण है कि वह सबके बीच में रहते हुए भी अकेला है । वह संसार में है । फिर भी संसार का नहीं है । लघु-परमात्मा बन्दी नहीं रहना चाहता । वह मनुष्य की बुद्धि से कहीं ऊँची बुद्धि का प्रयोग करते हुये समय तथा स्थान के कारावास से अपनी मुक्ति के लिये सदैव कार्यरत रहता है । निम्नस्तर के लोगों में इस बुद्धि को लोग सहज बुद्धि कहते हैं । साधारण मनुष्यों में वे इसे तर्क और उच्चकोटि के मनुष्यों में इसे दिव्य बुद्धि कहते हैं । यह सब तो वह है ही । पर इससे अधिक भी बहुत कुछ है । यह वह अनाम शक्ति है । जिसे कुछ लोगों ने ठीक ही पवित्र शक्ति का नाम दिया है । और जिसे मीरदाद दिव्य ज्ञान कहता है । समय के खोल को बेधने वाला और स्थान की सीमा को लाँघने वाला प्रथम मानव पुत्र ठीक ही प्रभु का पुत्र कहलाता है । उसका अपने ईश्वरत्व का ज्ञान ठीक ही पवित्र शक्ति कहलाता है । किन्तु विश्वास रखो । तुम भी प्रभु के पुत्र हो । और तुम्हारे अन्दर भी वह पवित्र शक्ति अपना कार्य कर रही है । उसके साथ कार्य करो । उसके विरुद्ध नहीं । परन्तु जब तक तुम समय के खोल को बेध नहीं देते । और स्थान की सीमा को लांघ नहीं जाते । तब तक कोई यह न कहे - मैं प्रभु हूँ । बल्कि यह कहो - प्रभु ही मैं हैं । इस बात को अच्छी तरह ध्यान में रखो । कहीं ऐसा न हो कि अहंकार तथा खोखली कल्पनाएं तुम्हारे ह्रदय को भ्रष्ट कर दें । और तुम्हारे अन्दर हो रहे पवित्र शक्ति के कार्य का विरोध करें । क्योंकि अधिकांश लोग पवित्र शक्ति के विरुद्ध कार्य करते हैं । और इस प्रकार अपनी अंतिम मुक्ति को स्थगित कर देते हैं । समय को जीतने के लिए यह आवश्यक है कि तुम समय द्वारा ही समय के विरुद्ध लड़ो । स्थान को पराजित करने के लिए यह आवश्यक है कि तुम स्थान को ही स्थान का आहार बनने दो । दोनों में से 1 का भी स्नेह पूर्ण स्वागत करना । दोनों का बन्द होना । तथा नेकी और बदी की अन्तहीन हास्यजनक चेष्टाओं का बन्धक बने रहना है । जिन लोगों ने अपनी नियति को पहचान लिया है । और उस तक पहुँचने के लिए तड़पते हैं । वे समय के साथ लाड़ करने में समय नहीं गँवाते । और न ही स्थान में भटकने में अपने कदम नष्ट करते हैं । सम्भव है कि वे 1 ही जीवनकाल में युगों को समेट लें । तथा अपार दूरियों को मिटा दें । वे इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते कि मृत्यु उन्हें उनके इस अण्डाणु से अगले अण्डाणु में ले जाये । वे जीवन पर विश्वास रखते हैं कि बहुत से अण्डाणुओं के खोलों को 1 साथ तोड़ डालने में वह उनकी सहायता करेगा । इसके लिए तुम्हें हर वस्तु के मोह का त्याग करना होगा । ताकि समय तथा स्थान की तुम्हारे ह्रदय पर कोई पकड़ न रहे । जितना अधिक तुम्हारा परिग्रह होगा । उतने ही अधिक होंगे - तुम्हारे बन्धन । जितना कम तुम्हारा परिग्रह होगा । उतने ही कम होंगे तुम्हारे बन्धन । हाँ, अपने विश्वास, अपने प्रेम तथा दिव्य ज्ञान के द्वारा मुक्ति के लिये अपनी तड़प के अतिरिक्त हर वस्तु की लालसा को त्याग दो । अध्याय 34 माँ-अण्डाणु 

आवश्यक सूचना

इस ब्लाग में जनहितार्थ बहुत सामग्री अन्य बेवपेज से भी प्रकाशित की गयी है, जो अक्सर फ़ेसबुक जैसी सोशल साइट पर साझा हुयी हो । अतः अक्सर मूल लेखक का नाम या लिंक कभी पता नहीं होता । ऐसे में किसी को कोई आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें । उचित कार्यवाही कर दी जायेगी ।