तुम्हारा क्या गया । जो तुम रोते हो ? तुम क्या लाए थे । जो तुमने खो दिया ? तुमने क्या पैदा किया था । जो नाश हो गया ? न तुम कुछ लेकर आए । जो लिया । यहीं से लिया । जो दिया । यहीं पर दिया । जो लिया । इसी ( भगवान ) से लिया । जो दिया । इसी को दिया ।
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मनुष्य 1 बीमारी है । बीमारियां तो मनुष्य पर आती हैं । लेकिन मनुष्य खुद भी 1 बीमारी है । मैन इज़ ए डिस-ईज़ । यही उसकी तकलीफ है । यही उसकी खूबी भी । यही उसका सौभाग्य है । यही उसका दुर्भाग्य भी । जिस अर्थों में मनुष्य 1 परेशानी । 1 चिंता । 1 तनाव । 1 बीमारी । 1 रोग है । उस अर्थों में पृथ्वी पर कोई दूसरा पशु नहीं है । वही रोग मनुष्य को सारा विकास दिया है । क्योंकि रोग का मतलब यह है कि - हम जहां हैं । वहीं राजी नहीं हो सकते । हम जो हैं । वही होने से राजी नहीं हो सकते । वह रोग ही मनुष्य की गति बना, रेस्टलेसनेस बना । लेकिन वही उसका दुर्भाग्य भी है । क्योंकि वह बेचैन है । परेशान है । अशांत है । दुखी है । पीड़ित है ।
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खाकर चोट न किंचित रोता । दुःख विपदा में धैर्य न खोता ।
आह न भरता वाह न करता । नहीं मलिनता ही वह धोता ।
अगर हृदय पत्थर का होता ।
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साधु लड़े शबद के ओले । तन पर चोट कोनी आई मेर भाई रे ।
साधा करी लड़ाई । ओजी म्हारा गुरु ओ ।
ओजी गुरूजी पांच पच्चीस चल्या पाखरिये आतम करी है चढ़ाई ।
आतम राज करे काया में । ऐसी ऐसी अदल जमाई मेरा भाई रे ।
साधा करी ।
ओजी गुरूजी सात शबद का मन्डया मोरचा । गढ़ पर नाल झुकाई ।
ज्ञान का गोला लग्या घट भीतर । भरमा की बुर्ज उड़ाई मेरा भाई रे । साधा करी ।
ओजी गुरूजी ज्ञान का तेगा लिया है हाथ में । करमा की कतल बनाई ।
कतल कराई भरमगढ़ भेल्या । फिर रही अलख दुहाई मेरा भाई रे ।
साधा करी ।
ओजी गुरूजी नाथ गुलाब मिल्या गुरु पूरा । लाला लगन लखाई ।
भानी नाथ शरण सतगुरु की । खरी निकारी पाई मेरा भाई रे ।
साधा करी ।
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अपने आप के साथ जीने की सामर्थ्य - ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ है । जब ब्रह्म मेँ रमण होता है । अर्थात चेतना को उच्चतर क्षेत्र मेँ ले जाने के लिए कृत संकल्प होना । देह मेँ ओज को । ऊर्जा को सुरक्षित रखना । स्त्री पुरूष के शारीरिक व्यवहार न करने भर को ब्रह्मचर्य नहीँ कहते । तंत्र विज्ञान मेँ शिव ने उमा से कहा है कि - जिसके भीतर अस्तेय, ज्ञान और आत्मनिष्ठा है । वह हर स्थिति मेँ ब्रह्मचारी है । श्रीराम ने वशिष्ट से पूछा - गुरूदेव ! 1 तरफ आप कहते हैँ कि महादेव योगी हैँ । और दूसरी ओर यह भी कहते हैँ कि वह अपनी पत्नी उमा के साथ काम व्यवहार कर रहे थे । वशिष्ट ने कहा - राम ! जिसका निश्चय ब्रह्म मेँ है । ऐसे व्यक्ति को शरीर का कोई भी व्यवहार किंचित मात्र भी लिपायमान नहीँ करता । यदि कोई गृहस्थ जीवन को जी रहा हो । तो भी ब्रह्मचारी है । ब्रह्मचर्य का अर्थ - बिंदु की रक्षा करना है । बिंदु का अर्थ वीर्य नहीँ है । इसका अर्थ है - ऐसा अमृत । जो तुम्हारे बिंदु विसर्ग से निकलता है । उस अमृत की सुरक्षा करना ही ब्रह्मचर्य है । योग कहता है कि जिसने अपने बिंदु की रक्षा की । वही ब्रह्मचारी है । बिंदु विसर्ग क्या है ? आज्ञा चक्र और सहस्त्रार के मध्य मेँ 1 और चक्र है । जिसे कहते हैँ - बिंदु विसर्ग । श्रीकृष्ण को 1 बार गोपियोँ ने कहा कि - दुर्वासा को भोजन कराना चाहते हैँ । पर यमुना मेँ बाढ आयी हुई है । हम कैसे जाएं ? श्रीकृष्ण ने कहा कि जाकर यमुना से प्रार्थना करके कहो कि हे यमुना ! अगर श्रीकृष्ण ब्रह्मचारी हैँ । तो हमेँ मार्ग दे दो । यह सुनकर गोपियां हँसने लगी कि तू और ब्रह्मचारी ? राधा सहित हम सब गोपियोँ के संग तेरा संजोग है । उसके बाद तू कहता है कि मैँ ब्रह्मचारी ? श्रीकृष्ण ने कहा कि जो मैनेँ कहा । वो करो । गोपियोँ ने जाकर यमुना को वैसा ही कह दिया । और यमुना ने रास्ता दे दिया । जब वापिस लौटीँ । तो सबने श्रीकृष्ण से पूछा कि - हे कृष्ण ! यह तेरी माया समझ नहीँ आई ? तू जानता है । और हम भी जानते हैँ कि हमारा तुमसे श्रृंगार रस का सबंध है । उसके बाद भी यमुना ने मार्ग कैसे दे दिया ? श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि तुम लोगोँ कि भावना और प्रेम को स्वीकार करते हुए मेरा तुम लोगोँ से संजोग जरूर हुआ । परन्तु मेरे बिंदु की रक्षा हमेशा रही है ।
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मनुष्य 1 बीमारी है । बीमारियां तो मनुष्य पर आती हैं । लेकिन मनुष्य खुद भी 1 बीमारी है । मैन इज़ ए डिस-ईज़ । यही उसकी तकलीफ है । यही उसकी खूबी भी । यही उसका सौभाग्य है । यही उसका दुर्भाग्य भी । जिस अर्थों में मनुष्य 1 परेशानी । 1 चिंता । 1 तनाव । 1 बीमारी । 1 रोग है । उस अर्थों में पृथ्वी पर कोई दूसरा पशु नहीं है । वही रोग मनुष्य को सारा विकास दिया है । क्योंकि रोग का मतलब यह है कि - हम जहां हैं । वहीं राजी नहीं हो सकते । हम जो हैं । वही होने से राजी नहीं हो सकते । वह रोग ही मनुष्य की गति बना, रेस्टलेसनेस बना । लेकिन वही उसका दुर्भाग्य भी है । क्योंकि वह बेचैन है । परेशान है । अशांत है । दुखी है । पीड़ित है ।
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खाकर चोट न किंचित रोता । दुःख विपदा में धैर्य न खोता ।
आह न भरता वाह न करता । नहीं मलिनता ही वह धोता ।
अगर हृदय पत्थर का होता ।
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साधु लड़े शबद के ओले । तन पर चोट कोनी आई मेर भाई रे ।
साधा करी लड़ाई । ओजी म्हारा गुरु ओ ।
ओजी गुरूजी पांच पच्चीस चल्या पाखरिये आतम करी है चढ़ाई ।
आतम राज करे काया में । ऐसी ऐसी अदल जमाई मेरा भाई रे ।
साधा करी ।
ओजी गुरूजी सात शबद का मन्डया मोरचा । गढ़ पर नाल झुकाई ।
ज्ञान का गोला लग्या घट भीतर । भरमा की बुर्ज उड़ाई मेरा भाई रे । साधा करी ।
ओजी गुरूजी ज्ञान का तेगा लिया है हाथ में । करमा की कतल बनाई ।
कतल कराई भरमगढ़ भेल्या । फिर रही अलख दुहाई मेरा भाई रे ।
साधा करी ।
ओजी गुरूजी नाथ गुलाब मिल्या गुरु पूरा । लाला लगन लखाई ।
भानी नाथ शरण सतगुरु की । खरी निकारी पाई मेरा भाई रे ।
साधा करी ।
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अपने आप के साथ जीने की सामर्थ्य - ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ है । जब ब्रह्म मेँ रमण होता है । अर्थात चेतना को उच्चतर क्षेत्र मेँ ले जाने के लिए कृत संकल्प होना । देह मेँ ओज को । ऊर्जा को सुरक्षित रखना । स्त्री पुरूष के शारीरिक व्यवहार न करने भर को ब्रह्मचर्य नहीँ कहते । तंत्र विज्ञान मेँ शिव ने उमा से कहा है कि - जिसके भीतर अस्तेय, ज्ञान और आत्मनिष्ठा है । वह हर स्थिति मेँ ब्रह्मचारी है । श्रीराम ने वशिष्ट से पूछा - गुरूदेव ! 1 तरफ आप कहते हैँ कि महादेव योगी हैँ । और दूसरी ओर यह भी कहते हैँ कि वह अपनी पत्नी उमा के साथ काम व्यवहार कर रहे थे । वशिष्ट ने कहा - राम ! जिसका निश्चय ब्रह्म मेँ है । ऐसे व्यक्ति को शरीर का कोई भी व्यवहार किंचित मात्र भी लिपायमान नहीँ करता । यदि कोई गृहस्थ जीवन को जी रहा हो । तो भी ब्रह्मचारी है । ब्रह्मचर्य का अर्थ - बिंदु की रक्षा करना है । बिंदु का अर्थ वीर्य नहीँ है । इसका अर्थ है - ऐसा अमृत । जो तुम्हारे बिंदु विसर्ग से निकलता है । उस अमृत की सुरक्षा करना ही ब्रह्मचर्य है । योग कहता है कि जिसने अपने बिंदु की रक्षा की । वही ब्रह्मचारी है । बिंदु विसर्ग क्या है ? आज्ञा चक्र और सहस्त्रार के मध्य मेँ 1 और चक्र है । जिसे कहते हैँ - बिंदु विसर्ग । श्रीकृष्ण को 1 बार गोपियोँ ने कहा कि - दुर्वासा को भोजन कराना चाहते हैँ । पर यमुना मेँ बाढ आयी हुई है । हम कैसे जाएं ? श्रीकृष्ण ने कहा कि जाकर यमुना से प्रार्थना करके कहो कि हे यमुना ! अगर श्रीकृष्ण ब्रह्मचारी हैँ । तो हमेँ मार्ग दे दो । यह सुनकर गोपियां हँसने लगी कि तू और ब्रह्मचारी ? राधा सहित हम सब गोपियोँ के संग तेरा संजोग है । उसके बाद तू कहता है कि मैँ ब्रह्मचारी ? श्रीकृष्ण ने कहा कि जो मैनेँ कहा । वो करो । गोपियोँ ने जाकर यमुना को वैसा ही कह दिया । और यमुना ने रास्ता दे दिया । जब वापिस लौटीँ । तो सबने श्रीकृष्ण से पूछा कि - हे कृष्ण ! यह तेरी माया समझ नहीँ आई ? तू जानता है । और हम भी जानते हैँ कि हमारा तुमसे श्रृंगार रस का सबंध है । उसके बाद भी यमुना ने मार्ग कैसे दे दिया ? श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि तुम लोगोँ कि भावना और प्रेम को स्वीकार करते हुए मेरा तुम लोगोँ से संजोग जरूर हुआ । परन्तु मेरे बिंदु की रक्षा हमेशा रही है ।