Wednesday, 12 March 2014

रक्त कैंसर के लिए चिकित्सा

- यदि आप भारत में कहीं भी बच्चों को भीख मांगते देखते हैं । तो कृपया संपर्क करें - RED SOCIETY  ये उन बच्चों की पढाई में मदद करेंगे - 9940217816 पर ।
- हैंडिकैप्ड/शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा और नि:शुल्क छात्रावास । संपर्क - 9842062501 और 9894067506.
- अगर किसी को आग दुर्घटना या उनके कान में समस्याओं के साथ पैदा हुए लोगों की नाक और मुंह मुफ्त प्लास्टिक सर्जरी Kodaikanal PASAM अस्पताल द्वारा किया जाता है । सब कुछ मुफ्त है । संपर्क - 045420-240668,245732
Helping Hands are Better than Praying Lips

- यदि आपको ड्राइविंग लाइसेंस की तरह किसी भी महत्वपूर्ण दस्तावेज जैसे राशन कार्ड, पासपोर्ट, बैंक पासबुक आदि कहीं सडक पर पड़े मिलें । तो डाक बक्से में डाल दें । भारतीय पोस्ट द्वारा उसके मालिक के पास पहुंचा दिया जाएगा ।
- बच्चों ( 0-10 वर्ष ) के लिए मुफ्त हार्ट सर्जरी Sri Valli Baba Institute Banglore बंगलौर । संपर्क करें - 9916737471
- रक्त कैंसर के लिए चिकित्सा । Imitinef Mercilet  एक दवा है । जो रक्त कैंसर के इलाज के लिए है Adyar Cancer Institute in Chennai में यह दवा मुफ्त उपलब्ध है । Create Awareness. It might help someone.

Adyar Cancer Institute in Chennai ( श्रेणी - कैंसर )
East Canal Bank Road, Gandhi Nagar, Adyar . Chennai -  600020
Landmark - Near Michael School
Phone - 044-24910754 044-24910754 , 044-24911526 044-24911526 , 044-22350241 044-22350241
आपसे विनती है । अगर आगे से कभी आपके घर में पार्टी/समारोह हो । और खाना बच जाये । या बेकार जा रहा हो । तो बिना झिझके आप 1098 ( केवल भारत में ) पर फ़ोन करें । बचा खाना अनाथ जरूरतमन्द बच्चों को पहुंचाया जायेगा ।
- यदि आपको रक्त की जरूरत है । तो इस वेबसाइट पर जाएं । आपको रक्तदाताओं का पता मिल जाएगा ।
कृपया इस संदेश को प्रसारित करने में मदद करें ।
www.friendstosupport.org
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उमर के साथ साथ किरदार बदलता रहा ।
शख्सियत औरत ही रही । प्यार बदलता रहा ।
बेटी, बहिन, बीबी, माँ, ना जाने क्या क्या ।
चेहरा औरत का दहर । हर बार बदलता रहा ।
हालात ख्वादिनों के न सदी कोई बदल पाई । 
बस सदियाँ गुज़रती रहीं । संसार बदलता रहा ।
प्यार, चाहत, इश्क, राहत, माशूक और हयात । 
मायने एक ही रहे । मर्द बस बात बदलता रहा ।
किसी का बार कोई इंसान नहीं उठा सकता यहाँ ।
पर कोख में जिस्म पलकर । आकार बदलता रहा ।
सियासत, बज़ारत, तिज़ारत या फिर कभी हुकूमत ।
औरत बिकती रही चुपचाप । बाज़ार बदलता रहा ।
कब तलक बातों से दिल बहलाओगे " दीपक " तुम भी । 
करार कोई दे ना सका । बस करार बदलता रहा । दीपक शर्मा 

Monday, 10 March 2014

तुम परफेक्ट हो जाओ

बाहर की वस्तु । न तो पकड़ने योग्य है । और न छोड़ने योग्य । बाहर की वस्तु । बाहर है । न तुम उसे पकड़ सकते हो । न तुम उसे छोड़ सकते हो । तुम हो कौन ? तुमने पकड़ा । वह तुम्हारी भ्रांति थी । तुम छोड़ रहे हो । यह तुम्हारी भ्रांति है । बाहर की वस्तु को न तुम्हारे पकड़ने से कुछ फर्क पड़ता है । न तुम्हारे छोड़ने से कुछ फर्क पड़ता है । तुम कल कहते थे । यह मकान मेरा है । मकान ने कभी नहीं कहा था कि - तुम मेरे मालिक हो । और मकान को अगर थोड़ा भी बोध होगा । तो वह हंसा होगा कि - खूब गजब के मालिक हो । क्योंकि तुमसे पहले कोई और यही कह रहा था । उससे पहले कोई और यही कह रहा था । और मैं जानता हूं कि तुम्हारे बाद भी लोग होंगे । जो यही कहेंगे कि - वे मालिक हैं ।
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शहर में नौकरी कर रहे अपने लड़के का हालचाल देखने चौधरी गांव से आए । बड़े सवेरे पुत्रवधू ने पक्के गाने का अभ्यास शुरू किया । अत्यंत करुण स्वर में वह गा रही थी - पनियां भरन कैसे जाऊं ? पनियां भरन कैसे जाऊं ? शास्त्रीय संगीत तो शास्त्रीय संगीत है । उसमें तो 1 ही पंक्ति दोहराए चले जाओ - पनियां भरन कैसे जाऊं । आधे घंटे तक यही सुनते रहने के बाद बगल के कमरे से चौधरी उबल पड़े । और चिल्लाए - क्यों रे बचुआ । क्यों सता रहा है बहू को ? यहां शहर में पानी भरना क्या शोभा देगा उसे ? समझ तो अपनी अपनी है । मैं अपनी समझ से कहता हूँ । तुम अपनी समझ से समझते हो ।
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प्राणायाम सिर्फ गहरी स्वांस नहीं है । प्राणायाम बोधपूर्वक गहरी स्वांस है । इस फर्क को ठीक से समझ लें । बहुत से लोग प्राणायाम भी करते हैं । तो बोधपूर्वक नहीं । बस गहरी स्वांस लेते रहते हैं । अगर गहरी स्वांस ही आप सिर्फ लेंगे । तो अपान स्वस्थ हो जाएगा । बुरा नहीं है । अच्छा है । लेकिन ऊर्ध्वगति नहीं होगी । ऊर्ध्वगति तो तब होगी । जब स्वांस की गहराई के साथ आपकी अवेयरनेस, आपकी जागरूकता भीतर जुड़ जाए ।
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अगर आपको द्रष्टा का अनुभव होने लगे । दर्शन से आंख हटे । दृश्य से आंख हटे । और पीछे छिपे द्रष्टा से थोड़ा सा भी तालमेल बैठने लगे । तो परमात्मा को आप पाएंगे कि उससे ज्यादा समीप और कोई भी नहीं । अभी उससे ज्यादा दूर । और कोई भी नहीं है । अभी परमात्मा सिर्फ कोरा शब्द है । और जब भी हम सोचते हैं । तो ऐसा लगता है कि आकाश में कहीं बहुत दूर परमात्मा बैठा होगा । किसी सिंहासन पर । यात्रा लंबी मालूम पड़ती है । और परमात्मा यहां बैठा है । ठीक सासों के पीछे ।
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विचार 1 वस्तु है । उसका अपना स्वयं का अस्तित्व होता है । जब कोई आदमी मरता है । तो उसके सारे पागल विचार तुरंत निकल भागते हैं । और वे कहीं न कहीं शरण ढूंढना शुरू कर देते हैं । फौरन वे उनमें प्रवेश कर जाते हैं । जो आसपास होते हैं । वे कीटाणुओं की भांति होते हैं । उनका अपना जीवन है । कई बार अचानक एक उदासी तुम्हें जकड़ लेती है । 1 विचार गुजर रहा है । तुम तो बस रास्ते में हो । यह 1 दुर्घटना है । विचार 1 बादल की भांति गुजर रहा था । 1 उदास विचार किसी के द्वारा छोड़ा हुआ । यह 1 दुर्घटना है कि तुम पकड़ में आ गये हो ।
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मैं चाहता हूँ कि हम मूर्तियों से मुक्त हो सकें । ताकि जो अमूर्त है । उसके दर्शन संभव हों । रूप पर जो रुका है । वह अरूप पर नहीं पहुँच पाता है । और आकार जिसकी दृष्टि में है । वह निराकार सागर में कैसे कूदेगा ? और वह जो दूसरे की पूजा में है । वह अपने पर आ सके । यह कैसे संभव है ? मूर्ति को अग्नि दो । ताकि अमूर्त ही अनुभूति में शेष रहे । और आकार की बदलियों को विसर्जित होने दो । ताकि निराकार आकाश उपलब्ध हो सके । और रूप को बहने दो । ताकि नौका अरूप के सागर में पहुँचे । जो सीमा के तट से अपनी नौका छोड़ देता है । वह अवश्य ही असीम को पहुँचता है । और असीम हो जाता है ।
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किसी ने मुझे भगवान कहा नहीं । मैंने ही घोषणा की । तुम कहोगे भी कैसे ? तुम्हें अपने भीतर का भगवान नहीं दिखता । मेरे भीतर का कैसे दिखेगा ? यह भ्रांति भी छोड़ दो कि तुम मुझे भगवान कहते हो । जिसे अपने भीतर का नहीं दिखा । उसे दूसरे के भीतर का कैसे दिखेगा ? भगवान की तो मैंने ही घोषणा की है । और यह खयाल रखना । तुम्हें कभी किसी में नहीं दिखा । कृष्ण ने खुद घोषणा की । तुम्हारे कहने से थोड़े ही कृष्ण भगवान हैं । दूसरे के कहने से तो कोई भगवान हो भी कैसे सकता है ? यह कोई दूसरों का निर्णय थोड़े ही है । यह तो स्वात रूप से निज घोषणा है ।
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पूर्णता 1 विक्षिप्त विचार है । भ्रष्ट न होने वाली बात मूर्ख पोलक पोप के लिए उचित है । पर समझदार लोगों के लिए नहीं । बुद्धिमान व्यक्ति समझेगा कि जीवन 1 रोमांच है । प्रयास और गलतियां करते हुए सतत अन्वेषण का रोमांच । यही आनंद है । यह बहुत रसपूर्ण है । मैं नहीं चाहता कि तुम परफेक्ट हो जाओ । मैं चाहता हूं कि तुम जितना संभव हो । उतना परफेक्टली इनपरफेक्ट होओ । अपने अपूर्ण होने का आनंद लो । अपने सामान्य होने का आनंद लो । तथाकथित होलीनेसेस से सावधान । वे सभी फोनीनेसेस हैं । यदि तुम ऐसे बड़े शब्द पसंद करते हो - होलीनेस । तो ऐसा टायटल बनाओ - वेरी ऑर्डिनरीनेस HVO  न कि HH । मैं सामान्य होना सिखाता हूं । मैं किसी तरह के चमत्कार का दावा नहीं करता । मैं साधारण व्यक्ति हूं । और मैं चाहता हूं कि तुम भी बहुत सामान्य बनो । ताकि तुम इन 2 विपरीत भावों से मुक्त हो सको - अपराध बोध । और पाखंड से । ठीक मध्य में स्वस्थ चित्तता है ।

Friday, 7 March 2014

आपको कांटा कोई लग जाय

नाभि का खिसकना - योग में नाड़ियों की संख्या 72 000 से ज्यादा बताई गई है । और इसका मूल उदगम स्रोत नाभि स्थान है । आधुनिक जीवन शैली इस प्रकार की है कि भागदौड़ के साथ तनाव दबाव भरे प्रतिस्पर्धा पूर्ण वातावरण में काम करते रहने से व्यक्ति का नाभि चक्र निरंतर क्षुब्ध बना रहता है । इससे नाभि अव्यवस्थित हो जाती है । इसके अलावा खेलने के दौरान उछलने कूदने, असावधानी से दाएँ बाएँ झुकने, दोनों हाथों से या 1 हाथ से अचानक भारी बोझ उठाने, तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ने उतरने, सड़क पर चलते हुए गड्ढे, में अचानक पैर चले जाने या अन्य कारणों से किसी 1 पैर पर भार पड़ने या झटका लगने
से नाभि इधर उधर हो जाती है । कुछ लोगों की नाभि अनेक कारणों से बचपन में ही विकार ग्रस्त हो जाती है ।
- प्रातः खाली पेट ज़मीन पर शवासन में लेटें । फिर अंगूठे के पोर से नाभि में स्पंदन को महसूस करे । अगर यह नाभि में ही है । तो सही है । कई बार यह स्पंदन नाभि से थोड़ा हटकर महसूस होता है । जिसे नाभि टलना या खिसकना कहते हैं । यह अनुभव है कि आमतौर पर पुरुषों की नाभि बाईं ओर तथा स्त्रियों की नाभि दाईं ओर टला करती है ।
- नाभि में लंबे समय तक अव्यवस्था चलती रहती है । तो उदर विकार के अलावा व्यक्ति के दांतों, नेत्रों व बालों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है । दाँतों की स्वाभाविक चमक कम होने लगती है । यदा कदा दांतों में पीड़ा होने लगती है । नेत्रों की सुंदरता व ज्योति क्षीण होने लगती है । बाल असमय सफेद होने लगते हैं । आलस्य, थकान, चिड़चिड़ाहट, काम में मन न लगना, दुश्चिंता, निराशा, अकारण भय जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों की उपस्थिति नाभि चक्र की अव्यवस्था की उपज
होती है ।
- नाभि स्पंदन से रोग की पहचान का उल्लेख हमें हमारे आयुर्वेद व प्राकृतिक उपचार चिकित्सा पद्धतियों में मिल जाता है । परंतु इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हम हमारी अमूल्य धरोहर को न संभाल सके । यदि नाभि का स्पंदन ऊपर की तरफ चल रहा है । याने छाती की तरफ तो अग्नाशय खराब होने लगता है । इससे फेफड़ों पर गलत प्रभाव होता है । मधुमेह, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं ।
- यदि यह स्पंदन नीचे की तरफ चली जाए । तो पतले दस्त होने
लगते हैं ।
- बाईं ओर खिसकने से शीतलता की कमी होने लगती है । सर्दी जुकाम, खाँसी, कफजनित रोग जल्दी जल्दी होते हैं ।
- दाहिनी तरफ हटने पर लीवर खराब होकर मंदाग्नि हो सकती है ।
पित्ताधिक्य, एसिड, जलन आदि की शिकायतें होने लगती हैं । इससे सूर्य चक्र निष्प्रभावी हो जाता है । गर्मी सर्दी का संतुलन शरीर में बिगड़ जाता है । मंदाग्नि, अपच, अफरा जैसी बीमारियां होने लगती हैं ।
- यदि नाभि पेट के ऊपर की तरफ आ जाए । यानी रीढ़ के विपरीत ।
तो मोटापा हो जाता है । वायु विकार हो जाता है । यदि नाभि नीचे
की ओर ( रीढ़ की हड्डी की तरफ ) चली जाए । तो व्यक्ति कुछ भी खाए । वह दुबला होता चला जाएगा । नाभि के खिसकने से मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमताएँ कम हो जाती हैं ।
- नाभि को पाताल लोक भी कहा गया है । कहते हैं । मृत्यु के बाद भी प्राण नाभि में 6 मिनट तक रहते है ।
- यदि नाभि ठीक मध्यमा स्तर के बीच में चलती है । तब स्त्रियाँ गर्भ धारण योग्य होती हैं । यदि यही मध्यमा स्तर से खिसक कर नीचे रीढ़ की तरफ चली जाए । तो ऐसी स्त्रियाँ गर्भ धारण नहीं कर सकतीं ।
- अक्सर यदि नाभि बिलकुल नीचे रीढ़ की तरफ चली जाती है ।
तो फैलोपियन ट्यूब नहीं खुलती । और इस कारण स्त्रियाँ गर्भधारण नहीं कर सकतीं । कई वंध्या स्त्रियों पर प्रयोग कर नाभि को मध्यमा स्तर पर लाया गया । इससे वंध्या स्त्रियाँ भी गर्भधारण योग्य हो गईं । कुछ मामलों में उपचार वर्षों से चल रहा था । एवं चिकित्सकों ने यह कह
दिया था कि यह गर्भधारण नहीं कर सकती । किन्तु नाभि चिकित्सा के जानकारों ने इलाज किया ।
- दोनों हथेलियों को आपस में मिलाएं । हथेली के बीच की रेखा मिलने के बाद जो उंगली छोटी हो । यानी कि बाएं हाथ की उंगली छोटी है । तो बायीं हाथ को कोहनी से ऊपर दाएं हाथ से पकड़ लें । इसके बाद बाएं हाथ की मुठ्ठी को कसकर बंद कर हाथ को झटके से कंधे की ओर लाएं । ऐसा 8-10 बार करें । इससे नाभि सेट हो जाएगी ।
- पादांगुष्ठनासास्पर्शासन उत्तानपादासन, नौकासन, कन्धरासन, चक्रासन, धनुरासन आदि योगासनों से नाभि सही जगह आ सकती है ।
- 15 से 25 मिनट वायु मुद्रा करने से भी लाभ होता है ।
- 2 चम्मच पिसी सौंफ, ग़ुड में मिलाकर 1 सप्ताह तक रोज खाने से नाभि का अपनी जगह से खिसकना रुक जाता है ।
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आयुर्वेदिक दोहे
जहाँ कहीं भी आपको । कांटा कोई लग जाय । 
दूधी पीस लगाईये । कांटा बाहर आय । 
मिश्री कत्था तनिक सा । चूसें मुँह में डाल ।
मुँह में छाले हों अगर । दूर होय तत्काल । 
पोदीना औ इलायची । लीजै दो-दो ग्राम । 
खायें उसे उबाल कर । उल्टी से आराम ।
छिलका लेय इलायची । दो या तीन ग्राम । 
सिर दर्द मुँह सूजना । लगा होय आराम ।
अण्डी पत्ता वृंत पर । चूना तनिक मिलाय ।
बारबार तिल पर घिसे । तिल बाहर आ जाय ।
गाजर का रस पीजिये । आवश्कतानुसार ।
सभी जगह उपलब्ध यह । दूर करे अतिसार ।
खट्टा दामिड़ रस दही । गाजर शाक पकाय ।
दूर करेगा अर्श को । जो भी इसको खाय ।
रस अनार की कली का । नाक बूंद दो डाल ।
खून बहे जो नाक से । बंद होय तत्काल ।
भून मुनक्का शुद्ध घी । सैंधा नमक मिलाय ।
चक्कर आना बंद हों । जो भी इसको खाय ।
मूली की शाखों का रस । ले निकाल सौ ग्राम ।
तीन बार दिन में पियें । पथरी से आराम ।
दो चम्मच रस प्याज की । मिश्री संग पी जाय ।
पथरी केवल बीस दिन । में गल बाहर जाय ।
आधा कप अंगूर रस । केसर जरा मिलाय ।
पथरी से आराम हो । रोगी प्रतिदिन खाय ।
सदा करेला रस । पिये सुबह औ शाम । 
दो चम्मच की मात्रा । पथरी से आराम । 
एक डेढ़ अनुपात कप । पालक रस चौलाइ । 
चीनी सँग लें बीस दिन । पथरी दे न दिखाइ ।
खीरे का रस लीजिये । कुछ दिन तीस ग्राम । 
लगातार सेवन करें । पथरी से आराम ।
बैगन भुर्ता बीज बिन । पन्द्रह दिन गर खाय ।
गल गल करके आपकी । पथरी बाहर आय ।
लेकर कुलथी दाल को । पतली मगर बनाय ।
इसको नियमित खाय तो । पथरी बाहर आय ।
दामिड़ ( अनार) छिलका सुखाकर । पीसे चूर बनाय ।
सुबह शाम जल डाल कम । पी मुँह बदबू जाय ।
चूना घी और शहद को । ले सम भाग मिलाय ।
बिच्छू को विष दूर हो । इसको यदि लगाय ।
गरम नीर को कीजिये । उसमें शहद मिलाय ।
तीन बार दिन लीजिये । तो जुकाम मिट जाय ।
अदरक रस मधु ( शहद ) भाग सम । करें अगर उपयोग ।
दूर आपसे होयगा । कफ औ खाँसी रोग ।
ताजे तुलसी पत्र का । पीजे रस दस ग्राम ।
पेट दर्द से पायँगे । कुछ पल का आराम ।
बहुत सहज उपचार है । यदि आग जल जाय । 
मींगी पीस कपास की । फौरन जले लगाय ।
रुई जलाकर भस्म कर । वहाँ करें भुरकाव । 
जल्दी ही आराम हो । होय जहाँ पर घाव ।
नीम पत्र के चूर्ण में । अजवायन इक ग्राम । 
गुण संग पीजै पेट के । कीड़ों से आराम ।
दो दो चम्मच शहद औ । रस ले नीम का पात ।
रोग पीलिया दूर हो । उठे पिये जो प्रात ।
मिश्री के संग पीजिये । रस ये पत्ते नीम ।
पेंचिश के ये रोग में । काम न कोई हकीम ।
हरड बहेडा आँवला । चौथी नीम गिलोय ।
पंचम जीरा डालकर । सुमिरन काया होय ।
सावन में गुड खावै । सो मौहर बराबर पावै ।
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आयुर्वेदिक चिकित्सा किताबों के लिंक्स, राजीव दीक्षित की PDF पुस्तकें । स्वदेशी चिकित्सा 1 - दिनचर्या, ऋतुचर्या के आधार पर 3.79 MB

स्वदेशी चिकित्सा 2 - बीमारी ठीक करने के आयुर्वेदिक नुस्ख़े 3.39 MB 

स्वदेशी चिकित्सा 3 - बीमारी ठीक करने के आयुर्वेदिक नुस्ख़े 3.44 MB 

स्वदेशी चिकित्सा 4 - गंभीर रोगों की घरेलू चिकित्सा 3.70 MB 

गौ पंचगव्य चिकित्सा 3.94 MB

गौ - गौवंश पर आधारित स्वदेशी कृषि 3.61 MB

आपका स्वास्थ्य आपके हाथ 3.23 MB

स्वावलंबी और अहिंसक उपचार 3.12 MB

Refined तेल का भ्रम  1.01 MB

Source -

दैनिक जीवन में काम आने वाला आयुर्वेद आसान भाषा में MP3 files में 919 MB 


आरोग्य आपका by Mr. Chanchal Mal Chordia   165.81 MB 

चिकित्सा पद्धतियां
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चरक संहिता

सिरदर्द में राहत

अजवाइन रुचिकारक एवं पाचक होती है । पेट संबंधी अनेक रोगों को दूर करने में सहायक होती है । जैसे - वायुविकार, कृमि, अपच, कब्ज आदि । अजवाइन में स्वास्थ्य सौंदर्य, सुगंध तथा ऊर्जा प्रदान करने वाले तत्व होते हैं । यह बहुत ही उपयोगी होती है ।
1 सरसों के तेल में अजवायन डालकर अच्छी तरह गरम करें । इससे जोड़ों की मालिश करने पर जोड़ों के दर्द में आराम होता है ।
2 अजवाइन मोटापे को कम करने में मदद करती है । अतः रात्रि में 1 चम्मच अजवायन 1 गिलास पानी में भिगोएं । सुबह छानकर उस पानी में शहद डालकर पीने पर लाभ होता है ।
3 मसूड़ों में सूजन होने पर अजवाइन के तेल की कुछ बूंदें पानी में मिलाकर कुल्ला करने से सूजन कम होती है ।
4 अजवाइन, काला नमक, सौंठ तीनों को पीसकर चूर्ण बना लें । भोजन के बाद फांकने पर अजीर्ण, अशुद्ध वायु का बनना व ऊपर चढ़ना बंद हो जाएगा ।
5 आंतों में कीड़े होने पर अजवाइन के साथ काले नमक का सेवन करने पर काफी लाभ होता है ।
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घरेलू नुस्खों से दूर करें दर्द - जिस तरह का जीवन हम जी रहे हैं । उसमें सिर दर्द होना 1 आम बात है । लेकिन यह दर्द हमारी दिनचर्या में शामिल हो जाए । तो हमारे लिए बहुत कष्टदायी हो जाता है । दर्द से छुटकारा पाने के लिए हम पेन किलर घरेलू उपाय अपनाकर इसे दूर कर सकते हैं । इन घरेलू उपायों के कोई साइड इफेक्ट भी नहीं होते ।
1 अदरक - अदरक 1 दर्द निवारक दवा के रूप में भी काम करती है । यदि सिर दर्द हो रहा हो । तो सूखी अदरक को पानी के साथ पीसकर उसका पेस्ट बना लें । और इसे अपने माथे पर लगाएं । इसे लगाने पर हल्की जलन जरूर होगी । लेकीन यह सिरदर्द दूर करने में मददगार होती है ।
2 सोडा - पेट में दर्द होने पर कप पानी में 1 चुटकी खाने वाला सोडा डालकर पीने से पेट दर्द में राहत मिलती है ।
स्त्रियो के मासिक धर्म के समय पेट के नीचे होने वाले दर्द को दूर करने मे खाने वाला सोडा पानी में मिलाकर पीने से दर्द दूर होता है । एसिडिटी होने पर 1 चुटकी सोडा, आधा चम्मच भुना और पिसा हुआ जीरा, 8 बूंदे नींबू का रस और स्वादानुसार नमक पानी में मिलाकर पीने से एसिडिटी में राहत मिलती है ।
3 अजवायन - सिर दर्द होने पर 1 चम्मच अजवायन को भूनकर
साफ सूती कपडे में बांधकर नाक के पास लगाकर गहरी सांस लेने से सिर दर्द में राहत मिलती है । ये प्रक्रिया तब तक दोहराएं । जब तक आपका सिर दर्द ठीक नहीं हो जाता । पेट दर्द को दूर करने में भी अजवायन सहायक होती है । पेट दर्द होने पर आधा चम्मच
अजवायन को पानी के साथ फांकने से पेट दर्द में राहत मिलती है ।
4 बर्फ - सिर दर्द में बर्फ की सिंकाई करना बहुत फायदेमंद होता है । इसके अलावा स्पॉन्डिलाइटिस में भी बर्फ की सिकाई लाभदायक होती है । गर्दन में दर्द होने पर भी बर्फ की सिकाई लाभदायक होती है ।
5 हल्दी - हल्दी कीटाणुनाशक होती है । इसमें एंटीसेप्टिक, एंटीबायोटिक और दर्द निवारक तत्व पाए गए हैं । ये तत्व चोट के दर्द और सूजन को कम करने में सहायक होते हैं । घाव पर हल्दी का लेप लगाने से वह ठीक हो जाता है । चोट लगने पर दूध में हल्दी डालकर पीने से दर्द में राहत मिलती है । 1 चम्मच हल्दी में आधा चम्मच काला गर्म पानी के साथ फांकने से पेट दर्द व गैस में राहत मिलती है ।
6 तुलसी के पत्ते - तुलसी में बहुत सारे औषधीय तत्व पाए जाते हैं । तुलसी की पत्तियों को पीसकर चंदन पाउडर में मिलाकर पेस्ट बना लें । दर्द होने पर प्रभावित जगह पर उस लेप को लगाने से दर्द में राहत मिलेगी । 1 चम्मच तुलसी के पत्तों का रस शहद में मिलाकर हल्का गुनगुना करके खाने से गले की खराश और दर्द दूर हो जाता है । खांसी में भी तुलसी का रस काफी फायदेमंद होता है ।
7 मेथी - 1 चम्मच मेथीदाना में चुटकी भर पिसी हुई हींग मिलाकर पानी के साथ फांकने से पेट दर्द में आराम मिलता है । मेथी डायबिटीज में भी लाभदायक होती है । मेथी के लड्डू खाने से जोडों के दर्द में लाभ मिलता है ।
8 हींग - हींग दर्द निवारक और पित्तवर्द्धक होती है । छाती और पेट दर्द में हींग का सेवन लाभकारी होता है । छोटे बच्चों के पेट में दर्द होने पर हींग को पानी में घोलकर पकाने और उसे बच्चो की नाभि के चारो ओर उसका लेप करने से दर्द में राहत मिलती है ।
9 सेब - सुबह खाली पेट प्रतिदिन 1 सेब खाने से सिर दर्द की समस्या से छुटकारा मिलता है । चिकित्सकों का मानना है कि सेब का नियमित सेवन करने से रोग नहीं घेरते ।
10 करेला - करेले का रस पीने से पित्त में लाभ होता है । जोडों के
दर्द में करेले का रस लगाने से काफी राहत मिलती है ।
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आयुर्वेदिक चिकित्सा किताबों के लिंक्स, राजीव दीक्षित की PDF पुस्तकें । स्वदेशी चिकित्सा 1 - दिनचर्या, ऋतुचर्या के आधार पर 3.79 MB

स्वदेशी चिकित्सा 2 - बीमारी ठीक करने के आयुर्वेदिक नुस्ख़े 3.39 MB 

स्वदेशी चिकित्सा 3 - बीमारी ठीक करने के आयुर्वेदिक नुस्ख़े 3.44 MB 

स्वदेशी चिकित्सा 4 - गंभीर रोगों की घरेलू चिकित्सा 3.70 MB 

गौ पंचगव्य चिकित्सा 3.94 MB

गौ - गौवंश पर आधारित स्वदेशी कृषि 3.61 MB

आपका स्वास्थ्य आपके हाथ 3.23 MB

स्वावलंबी और अहिंसक उपचार 3.12 MB

Refined तेल का भ्रम  1.01 MB

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चिकित्सा पद्धतियां
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चरक संहिता


Monday, 3 March 2014

मनुष्य खुद भी 1 बीमारी है

तुम्हारा क्या गया । जो तुम रोते हो ? तुम क्या लाए थे । जो तुमने खो दिया ? तुमने क्या पैदा किया था । जो नाश हो गया ? न तुम कुछ लेकर आए । जो लिया । यहीं से लिया । जो दिया । यहीं पर दिया । जो लिया । इसी ( भगवान ) से लिया । जो दिया । इसी को दिया ।
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मनुष्य 1 बीमारी है । बीमारियां तो मनुष्य पर आती हैं । लेकिन मनुष्य खुद भी 1 बीमारी है । मैन इज़ ए डिस-ईज़ । यही उसकी तकलीफ है । यही उसकी खूबी भी । यही उसका सौभाग्य है । यही उसका दुर्भाग्य भी । जिस अर्थों में मनुष्य 1 परेशानी । 1 चिंता । 1 तनाव । 1 बीमारी । 1 रोग है । उस अर्थों में पृथ्वी पर कोई दूसरा पशु नहीं है । वही रोग मनुष्य को सारा विकास दिया है । क्योंकि रोग का मतलब यह है कि - हम जहां हैं । वहीं राजी नहीं हो सकते । हम जो हैं । वही होने से राजी नहीं हो सकते । वह रोग ही मनुष्य की गति बना, रेस्टलेसनेस बना । लेकिन वही उसका दुर्भाग्य भी है । क्योंकि वह बेचैन है । परेशान है । अशांत है । दुखी है । पीड़ित है ।
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खाकर चोट न किंचित रोता । दुःख विपदा में धैर्य न खोता ।
आह न भरता वाह न करता । नहीं मलिनता ही वह धोता ।
अगर हृदय पत्थर का होता ।
***********
साधु लड़े शबद के ओले । तन पर चोट कोनी आई मेर भाई रे ।
साधा करी लड़ाई । ओजी म्हारा गुरु ओ ।
ओजी गुरूजी पांच पच्चीस चल्या पाखरिये आतम करी है चढ़ाई ।
आतम राज करे काया में । ऐसी ऐसी अदल जमाई मेरा भाई रे । 
साधा करी ।
ओजी गुरूजी सात शबद का मन्डया मोरचा । गढ़ पर नाल झुकाई ।
ज्ञान का गोला लग्या घट भीतर । भरमा की बुर्ज उड़ाई मेरा भाई रे । साधा करी ।
ओजी गुरूजी ज्ञान का तेगा लिया है हाथ में । करमा की कतल बनाई ।
कतल कराई भरमगढ़ भेल्या । फिर रही अलख दुहाई मेरा भाई रे ।
साधा करी ।
ओजी गुरूजी नाथ गुलाब मिल्या गुरु पूरा । लाला लगन लखाई ।
भानी नाथ शरण सतगुरु की । खरी निकारी पाई मेरा भाई रे ।
साधा करी ।
**********
अपने आप के साथ जीने की सामर्थ्य - ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ है । जब ब्रह्म मेँ रमण होता है । अर्थात चेतना को उच्चतर क्षेत्र मेँ ले जाने के लिए कृत संकल्प होना । देह मेँ ओज को । ऊर्जा को सुरक्षित रखना । स्त्री पुरूष के शारीरिक व्यवहार न करने भर को ब्रह्मचर्य नहीँ कहते । तंत्र विज्ञान मेँ शिव ने उमा से कहा है कि - जिसके भीतर अस्तेय, ज्ञान और आत्मनिष्ठा है । वह हर स्थिति मेँ ब्रह्मचारी है । श्रीराम ने वशिष्ट से पूछा - गुरूदेव ! 1 तरफ आप कहते हैँ कि महादेव योगी हैँ । और दूसरी ओर यह भी कहते हैँ कि वह अपनी पत्नी उमा के साथ काम व्यवहार कर रहे थे । वशिष्ट ने कहा - राम ! जिसका निश्चय ब्रह्म मेँ है । ऐसे व्यक्ति को शरीर का कोई भी व्यवहार किंचित मात्र भी लिपायमान नहीँ करता । यदि कोई गृहस्थ जीवन को जी रहा हो । तो भी ब्रह्मचारी है । ब्रह्मचर्य का अर्थ - बिंदु की रक्षा करना है । बिंदु का अर्थ वीर्य नहीँ है । इसका अर्थ है - ऐसा अमृत । जो तुम्हारे बिंदु विसर्ग से निकलता है । उस अमृत की सुरक्षा करना ही ब्रह्मचर्य है । योग कहता है कि जिसने अपने बिंदु की रक्षा की । वही ब्रह्मचारी है । बिंदु विसर्ग क्या है ? आज्ञा चक्र और सहस्त्रार के मध्य मेँ 1 और चक्र है । जिसे कहते हैँ - बिंदु विसर्ग । श्रीकृष्ण को 1 बार गोपियोँ ने कहा कि - दुर्वासा को भोजन कराना चाहते हैँ । पर यमुना मेँ बाढ आयी हुई है । हम कैसे जाएं ? श्रीकृष्ण ने कहा कि जाकर यमुना से प्रार्थना करके कहो कि हे यमुना ! अगर श्रीकृष्ण ब्रह्मचारी हैँ । तो हमेँ मार्ग दे दो । यह सुनकर गोपियां हँसने लगी कि तू और ब्रह्मचारी ? राधा सहित हम सब गोपियोँ के संग तेरा संजोग है । उसके बाद तू कहता है कि मैँ ब्रह्मचारी ? श्रीकृष्ण ने कहा कि जो मैनेँ कहा । वो करो । गोपियोँ ने जाकर यमुना को वैसा ही कह दिया । और यमुना ने रास्ता दे दिया । जब वापिस लौटीँ । तो सबने श्रीकृष्ण से पूछा कि - हे कृष्ण ! यह तेरी माया समझ नहीँ आई ? तू जानता है । और हम भी जानते हैँ कि हमारा तुमसे श्रृंगार रस का सबंध है । उसके बाद भी यमुना ने मार्ग कैसे दे दिया ? श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि तुम लोगोँ कि भावना और प्रेम को स्वीकार करते हुए मेरा तुम लोगोँ से संजोग जरूर हुआ । परन्तु मेरे बिंदु की रक्षा हमेशा रही है ।

कामसूत्र क्या है ?

घटना 2011 की है । 1 आश्रम में जाना हुआ था । वहाँ कुछ सन्यासी साधना करने आए थे । 1 दिन का शिविर था गुरु पूर्णिमा के अवसर पर । मैं तो ठहरा नास्तिक । सो मैं तो ध्यान करता नहीं । बस पेड़ो के साथ वक़्त बिताने चला गया था । उनसे मेरी अच्छी निभ जाती है । कम से कम वो मुझे समझते तो हैं ? वहाँ पर आए कुछ साधकों को मेरे ध्यान न करने पर ऐतराज हुआ कि मैं ध्यान नहीं करता । घूमता रहता हूँ । और भी कई आरोप । वो सभी सन्यासी बूढ़े थे । जो मुझे ध्यान करने के लिए कहते थे । मैं उनसे कहता - मुझे प्रेम आनंदित करता है । प्रेम ही ध्यान है मेरा । लेकिन वो उपदेश देने से बाज नहीं आए । बोले - ये प्रेम की बात सब वासना के किस्से हैं । ध्यान से जुडो । अपनी काम ऊर्जा को परमात्मा मे लगाओ । मैंने उनसे कुछ नहीं कहा । बस देख रहा था कि उनकी काम ऊर्जा पड़ोस में ध्यान करती हुई सन्यासी माँ में लगी हुई थी । शायद वो उसी को परमात्मा कहते होंगे ? मैं ठहरा नादान । उनकी ज्ञान की बाते नहीं समझ पाया । लेकिन शाम होते होते मेरे अंदर का बच्चा जाग गया । मुझे लगा इन सन्यासियों की परीक्षा लूँ । फिर क्या था । मैंने शिविर मे सूचना फैला दी कि मैं अपने लैपटाप पर कुछ अश्लील मूवी लाया हूँ । आज रात जो सन्यासी मित्र चाहें । मेरे कमरे में आ सकते हैं । मैं उन्हें वो दिखाऊँगा । संध्या सत्संग खतम होते ही सन्यासियों ने मेरे कमरे मे आने की इच्छा जता दी । और रात मे लगभग 10 सन्यासी ( बूढ़े सन्यासी ) जिनकी ऊर्जा परमात्मा मे लीन थी । मेरे कमरे मे परीक्षा के लिए हाजिर थे । वो सब जिज्ञासुओं की तरह मेरे पिटारा खोलने के इंतज़ार में थे । उनकी बढ़ती जिज्ञासा को देखकर मैंने कहा कि - आज छोड़ते हैं । कही ऐसा न हो कि शिविर कि गरिमा को ठेस पहुंचे । और ये सब ठीक नहीं । आप लोगों के भटकने का भी डर है । इसलिए मैं आप सबसे माफी मांगता हूँ । जो कहा । उसे भूल जायें । लेकिन मेरे ये कहने कि बाद भी वहाँ पर मौजूद उन देवताओं ने मुझे भरपूर मनाने की कोशिश की । और कहा कि - अब तो वो मेनका और उर्वशी का नृत्य blue film  देखे बिना नहीं जाएँगे । और उनकी साधना को कोई नुकसान नहीं है । वो ये सब बेकार की चीज मानते हैं । उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । मैं भी सीधा साधा सा सन्यासी उन सबके आगे हार गया । अब वक़्त था उस रहस्यमयी जगत मे प्रवेश का । जिसके आकर्षण में सारा धर्म जगत भटक रहा है ? कुछ इसके विरोध के कारण । और कुछ इसके रोमांच के कारण । किसी को सेक्स नहीं मिला । तो उसने अंगूर खट्टे हैं की तर्ज पर इसे परमात्मा मे लगाने की बात कही । और किसी ने इसलिए साधक होना चाहा कि उन्हे कुछ ऐसी शक्तियाँ मिल जाएगी कि वो ये खूब जी सकेंगे । खैर ये तो आप सब भी जानते हैं । फिर महफिल जम गयी । वो मूवी उन सबकी आंखों की रोशनी बढ़ा रही थी । जिनमें ध्यान में डूबने के बाद भी कोई चमक नहीं थी । जो साधक रात मे ध्यान के लिए कभी नहीं जागे होंगे । वो उस रात को सोये नहीं । मेरे बारबार ये कहने पर कि सो जाईए । सुबह ध्यान में भी जाना है आप सबको । वो - बस स्वामी जी थोड़ी देर और । या थोड़ा कुछ और लगा दीजिये । कहकर रात भर sex ध्यान में डुबकी लगाते रहे । और सुबह 5 बजे तक किसी की आंखो में नींद नहीं थी । और न ही कोई ध्यान में जाने को उत्सुक । बस यही चर्चा कि कही कुछ भूल हो रही है । उस दिन दिन में सभी लोगो से मैं चर्चा करता रहा कि कल तक आप मुझे टोक रहे थे । लेकिन आप सब ये बताइये कि क्या आपने अपनी ऊर्जा को वहाँ पर पहुंचा लिया है । जिसकी आप बात करते हो ? मुझे 1 भी सन्यासी ऐसा नहीं मिला । जो ऐसा कह सके । और कुछ लोग जो ऐसा मानते हो कि उन्होने ऐसा कर लिया है कि वो काम ऊर्जा को ऊपर की ओर प्रवाहित कर पाये हों । वो वो ही होंगे । जिन्हें सेक्स उपलब्ध नहीं हुआ होगा । डर के कारण अपनी वासना को दवाकर बैठे हैं । फिर भी कोई हो । जिसे ऐसा महसूस होता हो कि - वो सही है । वो मुझसे 10 000 की शर्त लगा सकता है । ये 10  000 रुपए उनकी परीक्षा के काम आएंगे । 1 मेनका के साथ उनकी परीक्षा के । मैं चाहता हूँ संभोग से समाधि पर चर्चा अभी खतम नहीं हुई है । अभी इसी को सही से समझ लेने की ज़रूरत है । वरना हो ये रहा है कि सभी सन्यासी '' समाधि से संभोग की ओर '' यात्रा कर रहे हैं । मैं चाहता हूँ कि ये ढोंग बंद होना चाहिए । इससे तो ज्यादा वो लोग ईमानदार हैं । जो अपने काम को जीते हैं । और सबको कह भी देते हैं । काम इस जगत का सबसे बड़ा दान है मनुष्य को । बस गड़बड़ ये हुई है कि लोगों ने इसे इतना निंदित बना दिया कि इसे पाने के लिए समाज की इजाजत लेनी पड़ती है । जिसे शादी कहते हैं । और फिर उसी से संसार निर्मित होता है । और जिस चीज से संसार निर्मित होता हो । वो धर्म मे बाधा ? बस इसलिए सेक्स भी बाधा हो जाता है । जिन लोगों ने भी प्रेम को सही अर्थो मे जिया होगा । उन्होंने महसूस किया होगा कि यदि कोई बंधन न हो । और आप सहजता से प्रेम को जी सकें । तो आपका काम शांत होने लगता है । फिर आप काम के लिए प्रेम नहीं करते । बल्कि काम 1 अभिव्यक्ति हो जाता है प्रेम की । और तब काम शुद्ध है । उसमें घर्षण नहीं ? वो भगवान शंकर का काम है । जो सबसे बड़े साधक हैं  इस जगत के । शशांक आनंद
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Pavitra meditation delhi का ये प्रयास है कि किसी भी साधक की साधना में आने वाले सभी प्रश्नों के पार ले जाकर उसको साधना के वास्तविक आयामों से परिचित करवाना । हर साधक जानता है कि ध्यानी को सबसे ज्यादा सेक्स के विचार परेशान करते हैं । अक्सर इस विषय पर बात करते ही लोग कहते हैं कि वो ध्यानी ही नहीं । जिसे सेक्स के विचार परेशान करें । लेकिन मैं कहता हूँ कि साधक पहले इन्हीं विचारों में ही फंसता है । लेकिन जो सच्चे ढंग से इनका सामना करता है । और अपने को किसी भी पर्दो मे ढकता नहीं । वो 1 दिन इस तरह के सभी प्रश्नों के पार जाता है । इन्हीं बातो को ध्यान में रखते हुए हम आपके लिए Spiritual Kama Sutra का विषय लेकर आए हैं । इससे हमारा विचार आपको सेक्स में उलझाना नहीं है । बल्कि आपको इस विषय के प्रति सहज और सजग बनाना है । इसके लिए आपको इन video को अवश्य देखना चाहिए ।
1 कामसूत्र क्या है ?
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2  कई स्त्रियां ज्यादा पुरुषों की तरफ आकर्षित होती हैं क्यों ?
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3  धर्म में सेक्स का विरोध क्यों ? और क्या सेक्स से पार जाने के लिए सेक्स में उतरना ज़रूरी है ?
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4 सेक्स मे poschar आपके विचारों पर किस तरह के प्रभाव डालते हैं ?
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5  क्या साधक के साधनाकाल में ऐसा वक़्त आ सकता है । जब उसके पास सेक्स का विचार भी न रहें ?
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ध्यान ( योगनिद्रा ) प्रेम कामसूत्र या किसी भी विषय पर अपने प्रश्न हमें भेजें । हम जल्द ही उसके जवाब समाधान के साथ आप तक पहुंचाएंगे 
हमारे इस वीडियो चैनल से जुड़े रहने पर निश्चित ही आपको कई रहस्य उजागर होंगे ।
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1 ही जीवनकाल में युगों को समेट लें

मीरदाद - मीरदाद चाहता है कि इस रात के सन्नाटे में तुम एकाग्रचित्त होकर माँ-अण्डाणु के विषय में विचार करो । स्थान और जो कुछ उसके अंदर है । 1 अण्डाणु है । जिसका खोल समय है । यही माँ-अण्डाणु है । जैसे धरती को वायु लपेटे हुए है । वैसे ही इस अण्डाणु को लपेटे हुए है - विकसित परमात्मा । विराट परमात्मा । जीवन जो कि अमूर्त अनन्त और अकथ है । इस अण्डाणु में लिपटा हुआ है - कुंडलित परमात्मा । लघु-परमात्मा । जीवन जो मूर्त है । किन्तु उसी तरह अनन्त और अकथ । भले ही प्रचलित मानवीय मानदण्ड के अनुसार माँ-अण्डाणु अमित है । फिर भी इसकी सीमाएँ हैं । यद्यपि यह स्वयं अनन्त नहीं है । फिर भी इसकी सीमाएँ हर ओर अनन्त को छूती हैं ।  ब्रह्माण्ड में जो भी पदार्थ और जीव हैं । वे सब उसी लघु-परमात्मा को लपेटे हुए समय स्थान के अण्डाणुओं से अधिक और कुछ नहीं । परन्तु सबमें लघु-परमात्मा प्रसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में है । पशु के अंदर के लघु-परमात्मा की अपेक्षा मनुष्य के अंदर के लघु-परमात्मा का और वनस्पति के अंदर के लघु-परमात्मा की अपेक्षा पशु के अंदर के लघु-परमात्मा का समय स्थान में प्रसार अधिक है । और सृष्टि में नीचे नीचे की श्रेणी में क्रमानुसार ऐसा ही है । दृश्य तथा अदृश्य सब पदार्थों और जीवों का प्रतिनिधित्व करते अनगिनत अण्डाणुओं को माँ-अण्डाणु के अंदर इस क्रम में रखा गया है कि प्रसार में बड़े अण्डाणु के अंदर उसके निकटतम छोटा अण्डाणु है । और यही क्रम सबसे छोटे अंडाणु तक चलता है । अण्डाणुओं के बीच में जगह है । और सबसे छोटा अण्डाणु केन्द्रीय नाभिक है । जो अत्यन्त अल्प समय तथा स्थान के अंदर बन्द है । अण्डाणु के अंदर अण्डाणु । फिर उस अण्डाणु के अंदर अण्डाणु । मानवीय गणना से परे । और सब प्रभु द्वारा अनुप्रमाणित । यही ब्रह्माण्ड है - मेरे साथियो । फिर भी मैं महसूस करता हूँ कि मेरे शब्द कठिन हैं । वे तुम्हारी बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकते । और यदि शब्द पूर्ण ज्ञान तक ले जाने वाली सीढ़ी के सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाये गए होते । तो मुझे भी अपने शब्दों को सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाने में प्रसन्नता होती । इसलिये यदि तुम उन ऊंचाइयों, गहराईयों और चौड़ाईयों तक पहुँचना चाहते हो । जिन तक मीरदाद तुम्हे पहुँचाना चाहता है । तो बुद्धि से बड़ी किसी शक्ति के द्वारा शब्दों से बड़ी किसी वस्तु का सहारा लो । शब्द अधिक से अधिक बिजली की कौंध हैं । जो क्षितिजों की झलक दिखती हैं । ये उन क्षितिजों तक पहुँचने का मार्ग नहीं हैं । स्वयं क्षितिज तो बिलकुल नहीं । इसलिए जब मैं तुम्हारे सम्मुख माँ-अण्डाणु और अण्डाणुओं की । तथा विराट-परमात्मा और लघु-परमात्मा की बात करता हूँ । तो मेरे शब्दों को पकड़कर न बैठ जाओ । बल्कि कौंध की दिशा में चलो । तब तुम देखोगे कि मेरे शब्द तुम्हारी कमजोर बुद्धि के लिये बलशाली पंख हैं । अपने चारों ओर की प्रकृति पर ध्यान दो । क्या तुम उसे अण्डाणु के नियम पर रची गई नहीं पाते हो ? हाँ, अण्डाणु में तुम्हे सम्पूर्ण सृष्टि की कुंजी मिल जायेगी । तुम्हारा सिर, तुम्हारा ह्रदय, तुम्हारी आँख अण्डाणु हैं । अण्डाणु है हर फूल । और उसका हर बीज । अंडाणु है पानी की 1 बूँद । तथा प्रत्येक प्राणी का प्रत्येक वीर्याणु । और आकाश में अपने रहस्यमय मार्गों पर चल रहे अनगिनत नक्षत्र । क्या अण्डाणु नहीं हैं ? जिनके अंदर प्रसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में पहुँचा हुआ जीवन का सार लघु-परमात्मा निहित है ? क्या जीवन निरंतर अण्डाणु में से ही नहीं निकल रहा है । और वापस अण्डाणु में ही नहीं जा रहा है ? निःसंदेह चमत्कारपूर्ण और निरंतर है - सृष्टि की प्रक्रिया । जीवन का प्रवाह माँ अण्डाणु की सतह से उसके केंद्र तक । तथा केंद्र से वापस सतह तक । बिना रुके जारी रहता है । केंद्र स्थित लघु-परमात्मा जैसे जैसे समय तथा स्थान में फैलता जाता है । जीवन के निम्नतम वर्ग से जीवन के उच्चतम वर्ग तक 1 अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में प्रवेश करता चला जाता है । सबसे नीचे का वर्ग समय तथा स्थान में सबसे कम फैला हुआ है । और सबसे ऊँचा बर्ग सबसे अधिक । 1 अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में जाने में लगने वाला समय भिन्न भिन्न होता है । कुछ स्थितियों पलक की 1 झपक होता है । तो कुछ में पूरा युग । और इस प्रकार चलती रहती है - सृष्टि की प्रक्रिया । जब तक माँ-अण्डाणु का खोल टूट नहीं जाता । और लघु-परमात्मा विराट-परमात्मा होकर बाहर नहीं निकल आता । इस प्रकार जीवन 1 प्रसार । 1 वृद्धि । और 1 प्रगति है । लेकिन उस अर्थ में नहीं । जिस अर्थ में लोग वृद्धि और पगति का उल्लेख प्रायः करते हैं । क्योंकि उनके लिए वृद्धि है - आकार में बढ़ना । और प्रगति आगे बढ़ना । जबकि वास्तव में वृद्धि का तात्पर्य है - समय और स्थान में सब तरफ फैलना । और प्रगति का तात्पर्य है - सब दिशाओं में समान गति । पीछे भी । और आगे भी । और नीचे । तथा दायें बायें । और ऊपर भी । अतएव चरम वृद्धि है - स्थान से परे फ़ैल जाना । और चरम प्रगति है - समय की सीमाओं से आगे निकल जाना । और इस प्रकार विराट-परमात्मा में लीन हो जाना । और समय तथा स्थान के बन्धनों में से निकलकर परमात्मा की स्वतन्त्रता तक जा पहुँचना । जो स्वतन्त्रता कहलाने योग्य एकमात्र अवस्था है । और यही है वह नियति । जो मनुष्य के लिये निर्धारित है । इन शब्दों पर ध्यान दो साधुओ । यदि तुम्हारा रक्त तक इन्हे प्रसन्नता पूर्वक न कर ले । तो सम्भव है कि अपने आप और दूसरों को स्वतन्त्र कराने के तुम्हारे प्रयत्न तुम्हारी और उनकी जंजीरों में और अधिक बेड़ियां जोड़ दें । मीरदाद चाहता है कि तुम इन शब्दों को समझ लो । ताकि इन्हें समझने में तुम सब तड़पने वालों की सहायता कर सको । मीरदाद चाहता है कि तुम स्वतन्त्र हो जाओ । ताकि उन सब लोगों को जो आत्मविजयी और स्वतन्त्र होने के लिए तड़प रहे हैं । तुम स्वतन्त्रता तक पहुँचा सको । इसलिए मीरदाद अण्डाणु के इस नियम को और अधिक स्पष्ट करना चाहेगा । खासकर जहाँ तक इसका सम्बन्ध मनुष्य से है । मनुष्य से नीचे जीवों के सब वर्ग सामूहिक अण्डाणुओं में बन्द हैं । इस तरह पौधों के लिए उतने ही अण्डाणु हैं । जितने पौधों के प्रकार हैं । जो अधिक विकसित हैं । उनके अंदर सभी कम विकसित बन्द हैं । और यही स्थिति कीड़ों, मछलियों और स्तनपायी जीवों की है । सदा ही जीवन के 1 अधिक विकसित वर्ग के अन्दर उससे नीचे के सभी वर्ग बन्द होते हैं । जैसे साधारण अण्डे के भीतर की जर्दी और सफेदी उसके अंदर के चूजों के भ्रूण का पोषण और विकास करती है । वैसे ही किसी भी अण्डाणु में बन्द सभी अण्डाणु उसके अन्दर के लघु-परमात्मा का पोषण और विकास करते हैं । प्रत्येक अण्डाणु में समय स्थान का जो अंश लघु-परमात्मा को मिलता है । वह पिछले अण्डाणु में मिलने वाले अंश से थोड़ा भिन्न होता है । इसलिए समय स्थान में लघु-परमात्मा के प्रसार में अन्तर होता है । गैस में वह बिखरा हुआ आकारहीन होता है । पर तरल पदार्थ में अधिक घना हो जाता है । और आकार धारण करने की स्थिति में आ जाता है । जबकि खनिज में वह 1 निश्चित आकार और स्थिरता धारण कर लेता है । परन्तु इन सब स्थितियों में वह जीवन के गुणों से रहित होता है । जो उच्चतर श्रेणियों में प्रकट होते हैं । वनस्पति में वह ऐसा रूप अपनाता है । जिसमे बढ़ने, अपनी संख्या वृद्धि करने और महसूस करने की क्षमता होती है । पशु में वह महसूस करता है । चलता है । और संतान पैदा करता है । उसमें स्मरण शक्ति होती है । और सोच विचार के मूल तत्व भी । लेकिन मनुष्य में इन सब गुणों के अतिरिक्त, वह 1 व्यक्तित्व और सोच विचार करने, अपने आपको अभिव्यक्त करने तथा सृजन करने की क्षमता भी प्राप्त कर लेता है । निःसंदेह परमात्मा के सृजन की तुलना में मनुष्य का सृजन ऐसा ही है । जैसा किसी महान वास्तुकार द्वारा निर्मित 1 भव्य मंदिर या सुन्दर दुर्ग की तुलना में 1 बच्चे द्वारा बनाया गया ताश के पत्तों का घर । किन्तु है तो वह फिर भी सृजन ही । प्रत्येक मनुष्य 1 अलग अण्डाणु बन जाता है । और विकसित मनुष्य में कम विकसित मानव-अण्डाणुओं के साथ सब पशु, वनस्पति तथा उनके निचले स्तर के अण्डाणु, केंद्रीय नाभिक तक बन्द होते हैं । जबकि सबसे अधिक विकसित मनुष्य में - आत्म-विजेता में । सभी मानव अण्डाणु और उनसे निचले स्तर के सभी अण्डाणु भी बन्द होते हैं । किसी मनुष्य को अपने अंदर बंद रखने वाले अण्डाणु का विस्तार उस मनुष्य के समय स्थान के क्षितिजों के विस्तार से नापा जाता है । जहाँ 1 मनुष्य की समय चेतना और उसके शैशव से लेकर वर्त्तमान घडी तक की अल्प अवधि से अधिक और कुछ नहीं समा सकता । और उसके स्थान के क्षितिजों के घेरे में उसकी दृष्टि की पहुँच से परे का कोई पदार्थ नहीं आता । वहाँ दूसरे व्यक्ति के क्षितिज स्मरणातीत भूत और सुदूर भविष्य को, तथा स्थान की लम्बी दूरियों को जिन पर अभी उसकी दृष्टि नहीं पड़ी है । अपने घेरे में ले आते हैं । प्रसार के लिए सब मनुष्यों को समान भोजन मिलता है । पर उनका खाने और पचाने का सामर्थ्य समान नहीं होता । क्योंकि वे 1 ही अण्डाणु में से 1 ही समय और 1 ही स्थान पर नहीं निकले हैं । इसलिए समय स्थान में उनके प्रसार में अन्तर होता है । और इसीलिये कोई 2 मनुष्य ऐसे नहीं मिलते । जो हूबहू 1 जैसे हों । सब लोगों के सामने प्रचुर मात्रा में और खुले हाथों परोसे गये भोजन में से 1 व्यक्ति स्वर्ण की शुद्धता और सुंदरता को देखने का आनंद लेता है । और तृप्त हो जाता है । जबकि दूसरा स्वर्ण का स्वामी होने का रस लेता है । और सदा भूखा रहता है । 1 शिकारी 1 सुंदर हिरनी को देखकर उसे मारने और खाने के लिये प्रेरित होता है । 1 कवि उसी हिरनी को देखकर मानो पंखों पर उड़ान भरता हुआ उस समय और स्थान में जा पहुँचता है । जिसका शिकारी कभी सपना भी नहीं देखता । 1 आत्मविजेता का जीवन हर व्यक्ति के जीवन को हर ओर से छूता है । क्योंकि सब व्यक्तियों के जीवन उसमे समाये हुये हैं । परन्तु आत्मविजेता के जीवन को किसी भी व्यक्ति का जीवन हर ओर से नहीं छूता । अत्यन्त सरल व्यक्ति को आत्मविजेता अत्यन्त सरल प्रतीत होता है । अत्यन्त विकसित व्यक्ति को वह अत्यन्त विकसित दिखाई देता है । किन्तु आत्मविजेता के सदा कुछ ऐसे पक्ष होते हैं । जिन्हे आत्मविजेता के सिवाय और कोई न कभी समझ सकता है । न महसूस कर सकता है । यही कारण है कि वह सबके बीच में रहते हुए भी अकेला है । वह संसार में है । फिर भी संसार का नहीं है । लघु-परमात्मा बन्दी नहीं रहना चाहता । वह मनुष्य की बुद्धि से कहीं ऊँची बुद्धि का प्रयोग करते हुये समय तथा स्थान के कारावास से अपनी मुक्ति के लिये सदैव कार्यरत रहता है । निम्नस्तर के लोगों में इस बुद्धि को लोग सहज बुद्धि कहते हैं । साधारण मनुष्यों में वे इसे तर्क और उच्चकोटि के मनुष्यों में इसे दिव्य बुद्धि कहते हैं । यह सब तो वह है ही । पर इससे अधिक भी बहुत कुछ है । यह वह अनाम शक्ति है । जिसे कुछ लोगों ने ठीक ही पवित्र शक्ति का नाम दिया है । और जिसे मीरदाद दिव्य ज्ञान कहता है । समय के खोल को बेधने वाला और स्थान की सीमा को लाँघने वाला प्रथम मानव पुत्र ठीक ही प्रभु का पुत्र कहलाता है । उसका अपने ईश्वरत्व का ज्ञान ठीक ही पवित्र शक्ति कहलाता है । किन्तु विश्वास रखो । तुम भी प्रभु के पुत्र हो । और तुम्हारे अन्दर भी वह पवित्र शक्ति अपना कार्य कर रही है । उसके साथ कार्य करो । उसके विरुद्ध नहीं । परन्तु जब तक तुम समय के खोल को बेध नहीं देते । और स्थान की सीमा को लांघ नहीं जाते । तब तक कोई यह न कहे - मैं प्रभु हूँ । बल्कि यह कहो - प्रभु ही मैं हैं । इस बात को अच्छी तरह ध्यान में रखो । कहीं ऐसा न हो कि अहंकार तथा खोखली कल्पनाएं तुम्हारे ह्रदय को भ्रष्ट कर दें । और तुम्हारे अन्दर हो रहे पवित्र शक्ति के कार्य का विरोध करें । क्योंकि अधिकांश लोग पवित्र शक्ति के विरुद्ध कार्य करते हैं । और इस प्रकार अपनी अंतिम मुक्ति को स्थगित कर देते हैं । समय को जीतने के लिए यह आवश्यक है कि तुम समय द्वारा ही समय के विरुद्ध लड़ो । स्थान को पराजित करने के लिए यह आवश्यक है कि तुम स्थान को ही स्थान का आहार बनने दो । दोनों में से 1 का भी स्नेह पूर्ण स्वागत करना । दोनों का बन्द होना । तथा नेकी और बदी की अन्तहीन हास्यजनक चेष्टाओं का बन्धक बने रहना है । जिन लोगों ने अपनी नियति को पहचान लिया है । और उस तक पहुँचने के लिए तड़पते हैं । वे समय के साथ लाड़ करने में समय नहीं गँवाते । और न ही स्थान में भटकने में अपने कदम नष्ट करते हैं । सम्भव है कि वे 1 ही जीवनकाल में युगों को समेट लें । तथा अपार दूरियों को मिटा दें । वे इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते कि मृत्यु उन्हें उनके इस अण्डाणु से अगले अण्डाणु में ले जाये । वे जीवन पर विश्वास रखते हैं कि बहुत से अण्डाणुओं के खोलों को 1 साथ तोड़ डालने में वह उनकी सहायता करेगा । इसके लिए तुम्हें हर वस्तु के मोह का त्याग करना होगा । ताकि समय तथा स्थान की तुम्हारे ह्रदय पर कोई पकड़ न रहे । जितना अधिक तुम्हारा परिग्रह होगा । उतने ही अधिक होंगे - तुम्हारे बन्धन । जितना कम तुम्हारा परिग्रह होगा । उतने ही कम होंगे तुम्हारे बन्धन । हाँ, अपने विश्वास, अपने प्रेम तथा दिव्य ज्ञान के द्वारा मुक्ति के लिये अपनी तड़प के अतिरिक्त हर वस्तु की लालसा को त्याग दो । अध्याय 34 माँ-अण्डाणु 

Saturday, 1 March 2014

जिसका ईश्वर तम्बू में हो

केवल ध्यानी ही ईर्ष्या से मुक्त हो सकता है । 1 प्रेमी बनो । यह 1 शुभ प्रारंभ है । लेकिन अंत नहीं । अधिक और अधिक ध्यान मय होने में शक्ति लगाओ । और शीघ्रता करो । क्योंकि संभावना है कि तुम्हारा प्रेम तुम्हारे हनीमून पर ही समाप्त हो जाए । इसलिए ध्यान और प्रेम हाथ में हाथ लिए चलने चाहिए । यदि हम ऐसे जगत का निर्माण कर सकें । जहां प्रेमी ध्यानी भी हो । तब प्रताड़ना, दोषारोपण, ईर्ष्या, हरसंभव मार्ग से एक दूसरे को चोट पहुंचाने की 1 लंबी श्रंखला समाप्त हो जाएगी ।
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दर्पण के सामने खड़े होओ । अपनी आंखों में झांको । तो पता चले कि - भीतर कोई भी नहीं है । जहां तुम विसर्जित हो गए । वहीं निर्वाण है ।
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हमारा जीवन 1 दुर्घटना मात्र है । कब पैदा हुए । कब बड़े हुए । और कब मर गए ? इसका पता ही नहीं चलता । इस यांत्रिक और संताप से ग्रस्त यात्रा में हम जिन्हें महत्व देते हैं । वे हमारे तथाकथित 2 कोड़ी के विचार, भावनाएं और एक दूसरे को धोखा देने और खाने की प्रवृत्ति तथा अंधी दौड़ । स्वयं को महान समझना अच्छी बात है । लेकिन मुगालते पालना अच्छी बात नहीं । ओशो
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1 दिन ढब्बूजी केक खरीदने के लिए बाजार गए । मुश्किल से उन्होंने 1 केक पसंद किया । बेकरी का कर्मचारी बोला - हां तो ढब्बूजी ! आप केक कटा हुआ चाहेंगे । या पूरा ? कटा हुआ । ढब्बूजी ने कहा । कितने टुकड़े करूं । 4 या 8 ? 4 ही करो जी । 8 टुकड़े खाना जरा मुश्किल होता है ।
1 अध्यापक ने गीता के द्वंद्व शब्द की व्याख्या समझाते हुए कहा - द्वंद्व, ऐसे जोड़े को कहते हैं । जिसमें हमेशा विरोध रहता है । जैसे सुख-दुख । सर्दी-गर्मी । और धूप-छांव आदि आदि । अब तुममें से क्या कोई छात्र इसका उदाहरण दे सकता है ? 1 छात्र ने तपाक से बोला - जैसे पति-पत्नी ।
मुन्ना स्कूल जा रहा था । ढब्बूजी ने देखा । उसने बस्ता भी उठा रखा है । और सीढ़ी भी । उन्हें बड़ी हैरानी हुई । मुन्ने से पूछने लगे - यह सीढ़ी लेकर किधर जा रहे हो । साहब ? पापाजी, मास्टरजी ने कहा है कि मैं इम्तिहान में पास हो गया हूं । और आज से ऊपर की क्लास में बैठूंगा । मुन्ने ने जवाब दिया ।
ढब्बूजी रसोई में बैठे थे । चूल्हे पर रखा दूध उबल उबलकर बरतन से बाहर उफन रहा था । श्रीमती ढब्बूजी गुस्से में फनफनाती हुई रसोई में दाखिल हुईं । और बोलीं - क्या मैंने आपसे यह नहीं कहा था कि दूध उबलने के समय का खयाल रखना ? हां, कहा था । दूध ठीक 12 बजकर 12 मिनट पर उबला है । ढब्बूजी ने कलाई पर बंधी घड़ी दिखाते हुए कहा ।
पति - अरे, सुनती हो । डाक्टर का कहना है कि अधिक बोलने से उम्र काफी कम हो जाती है । पत्नी ने मुस्कुराकर कहा - अब तो तुमको विश्वास हो गया न कि मेरी उम्र 45 से घटकर 25 कैसे हो गयी ।
राह चलते 1 व्यक्ति की पीठ पर जोर से धौल जमाते हुए ढब्बूजी बोले -अरे चंदूलाल ! कैसे हो ? उफ ! मैं...मैं...मैं...चंदूलाल नहीं हूं ।  वह व्यक्ति कराहकर पलटा । और आंखें फाड़ फाड़कर देखते हुआ बोला - अगर होता भी । तो इतने जोर से कोई मारता है । मैं चंदूलाल को कितने भी जोर से मारूं । तुमसे मतलब । ढब्बूजी बोले ।
2 मंत्री हेलीकाप्टर में बैठे बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का दौरा कर रहे थे । पहला मंत्री बोला - यदि मैं यहां 50 रुपए का नोट फेंक दूं । तो लोग कितने खुश होंगे ? दूसरा मंत्री बोला - यदि मैं यहां 100 रुपए का नोट फेंक दूं । तो लोग और भी खुश हो जाएंगे । उन दोनों की बेतुकी बातें सुनकर पायलट चुप न रह सका । वह झल्लाकर बोला - यदि मैं आप दोनों को उठाकर नीचे फेंक दूं । तो लोग सबसे ज्यादा खुश होंगे ।
1 बजाज की दुकान में आग लग गई । ढब्बूजी उसके मालिक से सांत्वना प्रकट करने गए । बोले - आपकी साडि़यों की दुकान जल जाने से आपको काफी नुकसान हुआ होगा । जी नहीं । सिर्फ आधा ही नुकसान हुआ । दुकानदार ने कहा । वह कैसे ? सेल के कारण साडि़यों पर 50% की छूट मिल रही थी । 
रात हो चुकी थी । श्रीमती ढब्बूजी बेलन लिये द्वार पर ही बैठी थीं । ढब्बूजी आए । तो दहाड़कर बोलीं - आज फिर देर से लौटे । कहां गए थे, महाशय ? देखो - ढब्बूजी ने संयत स्वर में कहा - 1 समझदार पत्नी अपने पति से कभी भी ऐसा सवाल नहीं करती । और 1 समझदार पति ? श्रीमतीजी ने गुस्से में पूछा - अब छोड़ो भी । ढब्बूजी बोले - समझदार पति की तो पत्नी ही नहीं होती ।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने डॉक्टर के पास आया । और बोला - डॉक्टर, मेरी पत्नी 3 दिन से बिल्कुल चुप बैठी है । कुछ बोल नहीं रही । डॉक्टर बोला - मियां, आप मेरे पास क्यों आए । गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड वालों के पास जाओ ।
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हर पीर फकीर है कोठी में । और राम हमारे तम्बू में ।
आखिर अब तक क्यों प्राण तुम्हारे । हरे नहीं शिव शंभू ने ?
दशरथ की छाती फटती होगी । अपने लाल की हालत पर ।
हनुमान की शक्ति हार गयी । एक कुर्सी की चाहत पर ।
100 करोड़ की जनसंख्या । क्या बस भेड़ बकरियों जैसी है ?
ब्रह्मा को भी विश्वास न होगा । उनकी दुनियां अब ऐसी है ।
लक्ष्मण के प्रतिशोध की ज्वाला । आखिर क्या सह लोगे तुम ।
महादेव के महा कोप को । क्या खाकर झेलोगे तुम ?
तुम शीशे में खुद को देखो । और कहो कि - तुम पापी हो ।
जिसका ईश्वर तम्बू में हो । उस धर्म को कैसे माफ़ी हो ।
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MIND is rubbish ! It is not that you have rubbish and somebody else hasn’t. It is rubbish, and if you go on bringing rubbish out, you can go on and on; you can never bring it to a point where it ends. It is self-perpetuating rubbish, so it is not dead, it is dynamic. It grows and has a life of its own. So if you cut it, leaves will sprout again.

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