Sunday 23 February 2014

समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित

शिवलिंग का अर्थ Meaning of Shivling - क्या आप जानते हैं कि शिवलिंग का मतलब क्या होता है ? और शिवलिंग किस चीज का प्रतिनिधित्व करता है ? दरअसल कुछ मूर्ख और कूढ़मगज किस्म के
प्राणियों ने परम पवित्र शिवलिंग को जननांग समझ कर पता नहीं क्या
क्या और कपोल कल्पित अवधारणाएं फैला रखी हैं । परन्तु शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का अक्स/धुरी axis ही लिंग है ।
The whole universe rotates through a shaft called shiva lingam.
दरअसल ये गलतफहमी भाषा के रूपांतरण और मलेच्छों द्वारा हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट कर दिए जाने तथा अंग्रेजों द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्न हुआ हो सकता है ।
खैर..जैसा कि हम सभी जानते हैं कि 1 ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में अलग अलग अर्थ निकलते हैं । उदाहरण के लिए यदि हम हिंदी के 1 शब्द " सूत्र '' को ही ले लें । तो सूत्र मतलब डोरी/धागा गणितीय
सूत्र कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है । जैसे कि नासदीय
सूत्र ब्रह्म सूत्र इत्यादि उसी प्रकार " अर्थ " शब्द का भावार्थ सम्पत्ति भी हो सकता है । और मतलब ( मीनिंग ) भी । ठीक बिलकुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय - चिह्न, निशानी, गुण,
व्यवहार या प्रतीक है । ध्यान देने योग्य बात है कि " लिंग " 1
संस्कृत का शब्द है । जिसके निम्न अर्थ है -
त आकाशे न विधन्ते -  वै । अ 2 । आ 1 । सू 5
अर्थात रूप, रस, गंध और स्पर्श । ये लक्षण आकाश में नही है । किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है ।
निष्क्रमणम प्रवेशनमित्याकशस्य लिंगम - वै । अ 2 । आ 1 । सू 2 0
अर्थात जिसमे प्रवेश करना व निकलना होता है । वह आकाश का लिंग है । अर्थात ये आकाश के गुण है ।
अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । - वै । अ 2 । आ 2 । सू 6
अर्थात जिसमे अपर, पर ( युगपत ) 1 वर ( चिरम ) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है । इसे काल कहते है । और ये काल के लिंग है ।
इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम । - वै । अ 2 । आ 2 । सू 1 0
अर्थात जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व नीचे का व्यवहार
होता है । उसी को दिशा कहते है । मतलब कि ये सभी दिशा के लिंग है । इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञाना न्यात्मनो लिंगमिति - न्याय अ 1 । आ 1 । सू 0 1 0
अर्थात जिसमे ( इच्छा ) राग ( द्वेष ) वैर ( प्रयत्न ) पुरुषार्थ, सुख, दुःख ( ज्ञान ) जानना आदि गुण हों । वो जीवात्मा है । और ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व गुण हैं ।
इसीलिए शून्य 0 आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परम पुरुष का प्रतीक होने के कारण इसे लिंग कहा गया है ।
स्कन्दपुराण में स्पष्ट कहा है कि - आकाश स्वयं लिंग है । एवं धरती उसका पीठ या आधार है । और ब्रह्माण्ड का हर चीज अनन्त शून्य 0 से पैदा होकर अंततः उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है ।
यही कारण है कि इसे कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है । जैसे कि - प्रकाश स्तंभ/लिंग । अग्नि स्तंभ/लिंग । उर्जा स्तंभ/ लिंग । ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग cosmic pillar/lingam इत्यादि ।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि - इस ब्रह्माण्ड में 2 ही चीजे हैं -ऊर्जा और पदार्थ । इसमें से हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है । जबकि आत्मा 1 ऊर्जा है ? ठीक इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बनकर शिवलिंग कहलाते हैं । क्योंकि ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है । अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की दृष्टि से बोलने की जगह शुद्ध वैज्ञानिक भाषा में बोला जाए । तो हम कह सकते हैं कि शिवलिंग और कुछ नहीं । बल्कि हमारे ब्रह्मांड की आकृति है. The universe is a sign of Shiva Lingam.
और अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की भाषा में बोला जाए । तो शिवलिंग शिव और देवी शक्ति ( पार्वती ) का आदि अनादि एकल रूप है । तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक है । अर्थात शिवलिंग हमें बताता है कि इस संसार में न केवल पुरुष का और न ही केवल
प्रकृति ( स्त्री ) का वर्चस्व है । बल्कि दोनों 1 दूसरे के पूरक हैं । और दोनों ही समान हैं । शिवलिंग की पूजा को ठीक से समझने के लिए
आप जरा आइंस्टीन का वो सूत्र याद करें । जिसके आधार पर उसने परमाणु बम बनाया था । क्योंकि उस सूत्र ने ही परमाणु के अन्दर
छिपी अनंत ऊर्जा की 1 झलक दिखाई । जो कितनी विध्वंसक थी । ये सर्वविदित है । और परमाणु बम का वो सूत्र था ।
e/c = m c { e=mc^2 }
अब ध्यान दें कि ये सूत्र 1 सिद्धांत है । जिसके अनुसार पदार्थ को पूर्णतया ऊर्जा में बदला जा सकता है । अर्थात पदार्थ और उर्जा 2 अलग अलग चीज नहीं । बल्कि 1 ही चीज हैं । परन्तु वे 2 अलग अलग चीज बनकर ही सृष्टि का निर्माण करते हैं । और जिस बात तो आइंस्टीन ने अभी बताया । उस रहस्य को तो हमारे ऋषियों ने हजारों लाखों साल पहले ही ख़ोज लिया था । यह सर्वविदित है कि हमारे संतों/ऋषियों ने हमें वेदों और उपनिषदों का ज्ञान लिखित रूप में प्रदान किया है । परन्तु उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि यह उनका काम है । बल्कि उन्होंने हर काम के अंत में स्वीकार किया कि वे हमें वही बता रहे हैं । जो उन्हें अपने पूर्वजों द्वारा कहा गया है । और लगभग 13.7 खरब वर्ष पुराना सार्वभौमिक ज्ञान हमें तमिल और संस्कृत जैसी महान भाषाओँ में उपलब्ध होता है । और भावार्थ बदल जाने के कारण इसे किसी अन्य भाषा में पूर्णतया exact अनुवाद नहीं किया जा सकता । कम से कम अंग्रेजी जैसी कमजोर भाषा में तो बिलकुल नही । इसके लिए 1 बहुत ही छोटा सा उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा कि आज " गूगल ट्रांसलेटर " में लगभग सभी भाषाओँ का समावेश है । परन्तु संस्कृत का नहीं । क्योंकि संस्कृत का व्याकरण विशाल तथा दुर्लभ है । अति मूर्ख प्राणी नासा वाली बात का सबूत नासा के लिंक पर देख सकते हैं । हुआ दरअसल कुछ ऐसा है कि जब कालांतर में ज्ञान के स्तर में गिरावट आई । तब पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने वेदों/उपनिषदों तथा पुराणों आदि को समझने में मूर्खता की । क्योंकि उनकी बुद्धिमत्ता वेदों में निहित प्रकाश से साक्षात्कार करने योग्य नही थी । और ऐसा उदहारण तो हम हमारे दैनिक जीवन में भी हमेशा देखते ही रहते हैं कि जैसे परीक्षा के दिनों में अध्ययन करते समय जब कोई टापिक हमें समझ न आये । तो हम कह दिया करते हैं कि - ये टापिक तो बेकार है । जबकि असल में वह टापिक बेकार नहीं । अपितु उस टापिक में निहित ज्ञान का प्रकाश हमारी बुद्धिमत्ता से अधिक है । इसे ज्यादा सरल भाषा में इस तरह भी समझ सकते हैं कि बैटरी चालित 12 वोल्ट धारण कर सकने वाले विद्युत बल्ब में अगर घरों में आने वाले वोल्ट ( 240 ) प्रवाहित कर दिया जाये । तो उस बल्ब की क्या दुर्गति होगी ? जाहिर सी बात है कि उसका फिलामेंट तत्क्षण अविलम्ब उड़ जायेगा । यही उन बेचारे वैज्ञानिकों के साथ हुआ । और वेद जैसे गूढ़ ग्रन्थ पढ़कर उनका भी फिलामेंट उड़ गया । और मैक्स मूलर जैसे गधे के औलादों ने तो वेदों को काल्पनिक तक बता दिया ।
खैर.. फिर शिवलिंग पर आते हैं । शिवलिंग का प्रकृति में बनना । हम अपने दैनिक जीवन में भी देख सकते हैं । जबकि किसी स्थान पर अकस्मात उर्जा का उत्सर्जन होता है । तो उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर अग्रसर होता है । अर्थात दसों दिशाओं ( आठों दिशों की प्रत्येक डिग्री ( 360 डिग्री ) + ऊपर व नीचे ) होता है । जिसके फलस्वरूप 1 क्षणिक
शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है । उसी प्रकार बम विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप एवं शांत जल में कंकर फेंकने पर प्राप्त तरंग ( उर्जा ) का प्रतिरूप भी शिवलिंग का निर्माण करते हैं । दरअसल सृष्टि के आरम्भ में महाविस्फोट के पश्चात उर्जा का प्रवाह वृत्ताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर हुआ । फलस्वरूप 1 महा शिवलिंग का प्राकटय हुआ । जिसका वर्णन हमें लिंगपुराण, शिवमहापुराण, स्कन्द पुराण आदि में इस प्रकार मिलता है कि - आरम्भ में निर्मित शिवलिंग इतना विशाल ( अनंत ) तथा की देवता आदि मिलकर भी उस लिंग के आदि और अंत का छोर या शाश्वत अंत न पा सके । हमारे पुराणों में कहा गया है कि - प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त संसार इसी शिवलिंग में समाहित ( लय ) होता है । तथा इसी से पुनः सृजन होता है । इस तरह सामान्य भाषा में कहा जाए । तो उसी आदिशक्ति के आदिस्वरुप ( शिवलिंग )
से इस समस्त संसार की उत्पति हुई । तथा उसका यह
गोलाकार/सर्पिलाकार स्वरुप प्रत्यक्ष अथवा प्ररोक्ष तथा प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से हमारे चारों और स्थित है । और शिवलिंग का प्रतिरूप ब्रह्माण्ड के हर जगह मौजूद है । जैसे कि 1 हमारी आकाश गंगा, हमारी पडोसी अन्य आकाश गंगाएँ ( 5 -7 -10 नही, अनंत है ) ग्रहों, उल्काओं आदि की गति ( पथ ) ब्लैक होल की रचना, संपूर्ण पृथ्वी पर पाए गये सर्पिलाकार चिन्ह ( जो अभी तक रहस्य बने हए हैं । और हजारों की संख्या में हैं । तथा जिनमें से अधिकतर पिरामिडों से भी पुराने हैं । ) समुद्री तूफान, मानव DNA परमाणु की संरचना इत्यादि । इसीलिए तो शिव को शाश्वत एवं अनादि, अनंत, निरंतर भी कहा जाता है । याद रखो हिन्दुओं । सही ज्ञान ही आधुनिक युग का सबसे बड़ा हथियार है । देश और धर्म के दुश्मनों के खिलाफ । प्राचीन समृद्ध भारत ।
ब्रह्ममुरारी सुरार्चित लिंगं, बुद्धी विवरधन कारण लिंगं ।
संचित पाप विनाशन लिंगं, दिनकर कोटी प्रभाकर लिंगं ।
तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं । 1

देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गम कामदहम करुणाकर लिङ्गम ।
रावणदर्पविनाशनलिङ्गम तत प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम । 2
सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गम बुद्धिविवर्धनका रणलिङ्गम ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम । 3
कनकमहामणिभूषितलिङ्गम फनिपतिवेष्टित शोभित लिङ्गम ।
दक्षसुयज्ञ विनाशन लिङ्गम तत प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम । 4
कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गम पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम ।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गम तत प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम । 5
देवगणार्चित सेवितलिङ्गम भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम ।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गम तत प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम । 6
अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गम सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम ।
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गम तत प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम । 7
सुरगुरुसुरवरपूजित लिङ्गम सुरवनपुष्प सदार्चित लिङ्गम ।
परात्परं परमात्मक लिङ्गम तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम । 8
लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत शिवसन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते । 9
जयति पुण्य सनातन संस्कृति, जयति पुण्य भूमि भारत

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