Sunday, 13 March 2011

अवचेतन मन की सूक्ष्मदृष्टि । देवेन्द्र मिश्रा । परिचय पोस्ट

*** श्री देवेन्द्र मिश्रा जी ने अभी गत फ़रवरी से ही ब्लागिंग शुरू की है । और मुझे खुशी है कि वे जीवन की बारीकियों और संवेदनशील पक्षों को सूक्ष्मता से महसूस करते हैं । आध्यात्म की तरफ़ भी उनका रुझान है । तो आईये । श्री मिश्रा जी का भावभीना स्वागत करते हुये उनके चिंतन पर आधारित ये रचना पढें..राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ ।

**विचारों की प्रबलता व उनके निरंतर अंधङ व शोर के कारण हमारे अवचेतन मन की सूक्ष्मदृष्टि क्षमता जाया जाती है । प्रभातबेला में पक्षियों का कलरव । चलती हवा में पत्तों की सरसराहट । सूर्य की बालकिरणों में चमकती ओस की बूँदें । बगीचे में कलियों से खिलते पुष्प । य़ा अलसाये से व अर्धनिदृत से स्कूल के लिये प्रस्थान करते मासूम बच्चे । इन मनोहरतम अद्भुत ध्वनियों व दृश्यों पर तो हमारा ध्यान भी नही पहुँच पाता ।
हमारे अवचेतन की सूक्ष्मदृष्टि जो एकमात्र इन मनोहरतम अद्भुत ध्वनियों को सुनने व देखने में सक्षम है । वह हमारे अन्दर चल रहे विचारों के अंधङ में इस तरह फँसी और दबी रहती है कि उसे तो रंचमात्र यह आभास भी नही मिल पाता कि हमारे चारों ओर निरंतर कितनी सुन्दर व शुभ ध्वनियाँ । दृश्य व घटनायें निरंतर घट रही हैं । वस्तुतः इन सुन्दर व शुभ ध्वनियाँ और दृश्यों को बिना अवचेतन की सूक्ष्मदृष्टि की शक्ति व जाग्रत अवस्था के देखना व सुनना सम्भव ही नही है ।
विगत कुछ दिनों से एक छोटी सी पर बडी रोचक घटना मेरे स्वयं के साथ घटित हुई है । पाँच-छह दिन पहले शाम को ऑफिस से घर लौटते वक्त । घर के रास्ते से थोडा सा पहले एकाएक ध्यान कोयल की मीठी कूक की ओर गया । जब पलट कर निगाह उस मधुर आवाज की दिशा में गयी । तो इस शाम के धुँधलके में भी सडक के किनारे के बगीचे में पास के छोटे पेङ पर । एक साधारण सी टहनी पर पत्तों के आधे  झुरमुट में सहजता से बैठी इस कोयल की एक झलक सी मिली । सङक पर सरकती गाडी में बैठा मैं तो आगे बढ गया । किन्तु मन तो पलट-पलट कर उतावले बच्चे सा उसी मीठी ध्वनि की ओर भागा जा रहा था । वहाँ से दूर तलक घर के बिल्कुल पास भी वह मिठास भरी । हालाँकि बहुत धीमी ही । आवाज अब भी आ रही थी । घर के अन्दर आ गया । तो यहाँ आवाज का आभास तो अनुपस्थित था । किन्तु उस आवाज के प्रति मन की उत्सुकता व उतावलापन अब भी वैसा ही था । और मन की यही उत्सुकता मुझे घर के पीछे वाली बालकनी तक ले गयी । और सामने की झील के उस पार । सडक के नजदीक के उसी बगीचे से अब भी वह धीमी और मीठी आवाज कुछ-कुछ अंतराल पर आती सुनाई पड रही थी । और मन भी अब अपनी चंचलता व उतावलापन छोड बडे ध्यान व शान्त भाव से उस आवाज को सुनने में विभोर था । ऐसा महसूस हो रहा था । जैसे यह आवाज कहीं बाहर से न आकर । कहीं अपने अंतर्मन की प्रतिध्वनि से ही आ रही हो । अब तो हर रोज ही शाम को उस स्थान से गुजरते मन उसी मीठी आवाज की तलाश में पीछे छूट जाता है । कुछ ऐसा ही होता है । जब मन की सूक्ष्मदृष्टि किसी चीज के प्रति जागृत हो जाती है ।
पिछले वर्ष प्रबंधन की पढाई हेतु जब मैं IIMB परिसर में रह रहा था । तो वहाँ भी प्रायः इसी तरह की अनुभूति होती थी । उस हरे-भरे विभिन्न प्रकार के व सुरुचिपूर्ण रूप से स्थापित पेड पौधों और सुन्दर पुष्पों से सज्जित  परिसर में प्रभात और संध्या सैर के दौरान जब कभी अचानक ध्यान पक्षी कलरव या पेडों-झुरमुटों के बीच बैठे गुनगुनाते । चीं-चूँ करते कीडों मकोडों की ओर ध्यान चला जाता । तो उस समय जरूर मन की इस सूक्ष्मता का रंच आभाष मिलता था । वरना तो इस इर्दगिर्द फैले आंतरिक व वाह्य दोनों ओर के शोर के बीच यह मन की इस सूक्ष्मता इतनी दबी सी रहती है कि हमें रंच अनुभूति भी नही हो पाती कि हमारे आसपास परिवेश में कितनी ही अद्भुत ध्वनियाँ व दृश्य निरंतर प्रगट हो रहे हैं । हमारे मन की सजगता यदाकदा यदि जाग्रत हुई भी तो कुछ पल के लिये इस सुन्दरता की झलक मिलती तो है । किन्तु फिर वही निरंतर चल रहे विचारों के वेग व धारा में सब तिरोहित हो जाता है ।

हमें मन की इस सजगता को विचार-शून्यता के प्रयास से जगाना चाहिये । मन की सजगता की अवस्था में इसकी सूक्ष्मदृष्टि अवचेतन मन की ऊपरी सतह पर आकर इन अनोखे व अद्भुत ध्वनियों व अपने परिवेश में घटित हो रहे सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों..जैसे प्रभात की सूर्य-किरणें व उनसे चमकती ओस की बूँदें । बाग में खिलते फूल । तितलियों का उङता झुंड । उङते पंक्षी । पेड पर बैठे उनका कलरव । या शाम की झुलफुलाहट में घासों के बीच बैठे टिड्डे की गुर्राहट । कीडे-मकोडों का टें-टें । या कहें तो बरसात के दिनों में यदाकदा दिख जाने वाला इंद्रधनुष का सप्तरंगी दृश्य को अनुभव कर पाती है ।
मेरी आध्यात्म क्षेत्र की जानकारी तो बहुत सीमित है । किन्तु जो भी किंचित आत्मिक अनुभूति है । उस आधार पर मेरा मत है कि यह सूक्ष्मदृष्टि की जागृत स्थिति हमें स्वयं के शारीरिक व मानसिक धरातलों में निरंतर परिवर्तनशीलता की संवेदनाओं हमारे परिवेश में घटित हो रहे परिवर्तन चक्र के चलचित्र का सहज आभास दिलाने लगती हैं । और इस तरह हमारा दृष्टाभाव । स्वयं के प्रति । अपने परिवेश के प्रति । और ईश्वर की इस अद्भुत रचना जगत के प्रति स्थापित होने लगता है । और यही दृष्टाभाव ही हमारे अंदर योगत्व लाता है । कृष्ण ने गीता में यही तो कहा है ।
यो मां पश्यति सर्वत्र , सर्वं च मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणयस्यामि, स च मे न प्रणस्यति ।
साभार श्री देवेन्द्र मिश्रा जी के ब्लाग..
शिवमेवम सकलम जगत..से । ऐसी उत्तम पोस्ट के लिये आपका बहुत बहुत आभार मिश्रा जी

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