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1 सिर्फ कमेन्ट पाने या खुद को बौद्धिक रूप से संपन्न दिखाने जैसे कारणों या इच्छाओं की पूर्ति के लिए के लिए लेखन का ये खेल खेला जाता है ।
2 गुटबाजी की चर्चा से लगता है कि कहीं न कहीं आग तो है । वर्ना धुँआ नहीं उठता ।
3 गुट है । और उसे बनाया और बढाया जाता है । बहुत सारी और भी बाते तथ्य हैं । पर उन पर ज्यादा बहस करना ही बेकार है ।
4 जब परस्पर विरोधी विचारधाराएँ रंजिश में बदल जाती हैं ।
5 प्रचलित धारा से अलग कुछ कहने वाला कुपाच्य हो जाता हैं ।
6 अब अनुभव में आ रहा है कि लोगों को परामर्श रुचते नहीं ।
मेरी पूर्व वर्णित स्वभाविक ग्रुप संकल्पना । जो कि सही अर्थों में गुटनिरपेक्षता ही है । जिसका विचार, विषय और विधा अनुसार वर्गीकरण होना निश्चित है ।
उसके अतिरिक्त जो मात्र विवादों के समय गुट अस्तित्व में आते हैं । और पुनः आपस में ही विवाद कर बिखर भी जाते हैं । जिसका आधार मात्र अहं तुष्टि होता है । हिन्दी ब्लॉग जगत को ऐसे गुटों से कोई खतरा नहीं है । प्रतिस्पर्धा की दौड में ऐसी कई विधीओं का प्रकट होना । और अस्त होना विकास में संभावित ही है । इसे अपरिपक्वता से परिपक्वता की संधि के रूप में देखना ही ठीक है ।
एक प्राकृतिक नियम है । जो कमजोर होता है । स्वतः पिछड जाता है । ( कमजोर से यहां आशय विचार दरिद्रता से है । ) और सार्वभौमिक इकोनोमिक नियम है । जैसी मांग वैसी पूर्ति । अन्ततः तो उच्च वैचारिक सार्थक मांगे उठनी ही है । अतः जो सार्थक गुणवत्तायुक्त पूर्ति करेंगे । वही टिकेंगे । भ्रांत और निकृष्ट पूर्ति का मार्केट खत्म होना अवश्यंभावी है ।
वे धार्मिक विचारधाराएँ जिनमें दर्शन आधारित विवेचन को कोई स्थान नहीं । जो कार्य कारण के विचार मंथन को कुन्द कर देती हैं । मानवीय सोच को विचार मंथन के अवसर प्रदान नहीं करती । ऐसी धार्मिक विचारधाराएं संप्रदाय प्रचार की दुकानें मात्र हैं । जो फ़ुटपाथ पर लगी आने जाने वालों को अपनी दुकान में लाने हेतु चिल्ला कर प्रलोभन देते हुए आकर्षित करती रहती हैं । इनके विवाद और गुट फ़ुटपाथ स्तर के फेरियों समान होते हैं । अतः इनसे भी हिन्दी ब्लॉग जगत को कोई हानि नहीं । ज्ञानचर्चा के लिये धर्मदर्शन आधारित अन्य क्षेत्र विकसित हो सकते हैं ।
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साभार श्री हँसराज जी के सुज्ञ ब्लाग से । आपका बेहद धन्यवाद सुज्ञ जी ।