Thursday 10 March 2011

मेरे लेखनी में कुछ सामाजिक मजबूरियां भी छिपी हैं । 2

रोज शाम के बाद जो रजनी आती है । वो भले ही अँधेरा लाती हो । पर ये " रजनी " मानवीय संवेदनाओं और सर्वजन प्रेम भावनाओं का भरपूर उजाला बिखेरती है । रजनी जी के अल्फ़ाज जहाँ नारी की मूक वेदना को हर स्तर पर स्वर देते हैं । वहीं इंसानियत के आपसी प्रेमभाव की रोशनी भी फ़ैलाते हैं । एक औरत के विभिन्न रूपों..कभी माँ..बहू..बहन का फ़र्ज़ निभाने को..को वो अपनी सरलता से सहज ही बयान करती हैं..राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ


आत्मकथ्यरजनी मल्होत्रा नैय्यर ।..मन में जिस भावना का भी जन्म हुआ । वो पन्नों में आते गए । बचपन से लाड़ प्यार में पली । जिस कारण ने मुझे उगृ तथा जिद्दी बना दिया । इसलिये स्वभाव में भावुकता के साथ साथ उगृता आज भी व्याप्त है । कोई भी ऐसी बात जो किसी के हित में न हो । मुझे पसंद नहीं । आज भी समाज में छाये घटिया दकियानूसी विचार मुझे आहत करते हैं । समाज में नारी का आज भी दयनीय स्थान मुझे अंतर्मन तक वेदना देता है । मेरे लेखनी में कुछ सामाजिक मजबूरियां भी छिपी हैं ।

संहार है..संहार है..मानवता का संहार है -
( एक कवियित्री के रूप में रजनी जी के दिल में उठा..मानवता की पीङा का दर्द ।

बस यही आर्तनाद है ।
अश्रुजल हैं भरे हुए ।
मानवता की चीत्कार है ।
मानवता दम तोड़ रही ।
बस यही चहूँ ओर चीत्कार है ।
संहार है..संहार है..मानवता का संहार है ।
कुछ मुट्ठी भर है राक्षसगन ।
राम से भरा संसार है ।
फिर भी दम तोड़ रही मानवता ।
बस चहुँओर ये चीत्कार है ।
संहार है..संहार है..मानवता का संहार है ।
विश्व वेदना में जल रहा ।
खो रहा करार है ।
सिसक रही है ज़िन्दगी ।
दम तोड़ता हर सार है ।
एक नया इतिहास रचने को ।
बेकल ये संसार है ।
बन जाओ तुम नटराज ।
प्रलय कार्य बिस्तार है ।
आने दो शांति..छाने दो..शांति ।
मानवता की चीत्कार है ।
मानवता दम तोड़ रही ।
बस यही चहूँ ओर चीत्कार है ।
संहार है..संहार है..मानवता का संहार है ।

.......रजनी मल्होत्रा नैय्यर

ख्वाब पलकों पर सजते हैं..बिखर जाते हैं !
( एक स्त्री मन की मूक..पर मुखर अभिव्यक्ति )

ख्वाब सजते हैं पलकों पर..बिखर जाते हैं ।
हम डूबकर पल भर ही इनमे निखर जाते हैं ।

कह नहीं पाते अधर किस बात से सकुचाते हैं ।
बस देखकर उन्हें हम..मंद मंद मुस्काते हैं ।

क्यों रोकते हैं खुशियों को..ये कैसे अहाते हैं ।
ना हम तोड़ पाते हैं..ना वो तोड़ पाते हैं ।

उन्मुक्त हो अरमान भी शिखर चढ़ जाते हैं ।
पर टूट ना जाएँ ये सोच..हम सिहर जाते हैं ।

ख्वाब सजते हैं पलकों पर..बिखर जाते हैं ।
हम डूबकर पल भर ही इनमे निखर जाते हैं ।

........रजनी मल्होत्रा नैय्यर


आज हम पर..हँसती हैं..तन्हाईयाँ !
( एक विरही प्रेमिका का दर्द )

कभी तन्हाइयों पर ।
हम हँसा करते थे ।
आज हम पर ।
हँसती हैं..तन्हाईयाँ ।
भीड़ में होकर भी ।
तन्हा रहोगे ।
जब कर जाए ।
कोई रुसवाईयाँ ।
........रजनी मल्होत्रा नैय्यर

वो काँटों के चुभन को क्या जाने ।
( जिन्दगी का फ़लसफ़ा )

फूलों पर पड़ते हो कदम जिनके ।
वो काँटों के चुभन को क्या जाने ।
जो गुजरे ना राहे पत्थर से ।
वो पत्थर के चुभन को क्या जानें ।
जो गुजरें हों राहें पत्थर से ।
वो पत्थर के चुभन को जानें ।
......रजनी मल्होत्रा नैय्यर

कमल भी तो कीचड़ में ही खिलते हैं -
( निराशा के अंतर्दंद पर विवेक रूपी आशा की जीत )

दिल चाहता है ।
छोड़ दूँ ।
इस मतलबी ।
संसार को ।
क्या रक्खा है ।
यहाँ जीने में ।
सिर्फ दर्द ही तो ।
मिलते हैं ।
पर ये सोचकर ।
ठिठक जाते हैं ।
मेरे कदम ।
अगर कमल भी ।
सोच ले ।
ऐसे बातों को ।
तो क्या हो ?
कमल भी तो ।
कीचड़ में ही खिलते हैं ।
........रजनी मल्होत्रा नैय्यर
सभी जानकारी । सामग्री । चित्र । सुश्री रजनी मल्होत्रा नैय्यर के सौजन्य से । आभार..रजनी जी । ब्लाग..रजनी मल्होत्रा नैय्यर

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